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- भवनभास्कर अध्याय २०
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- भवनभास्कर अध्याय १७
- नारदसंहिता अध्याय ४२
- भवनभास्कर अध्याय १६
- नारदसंहिता अध्याय ४१
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- नारदसंहिता अध्याय ४०
- भवनभास्कर अध्याय १४
- नारदसंहिता अध्याय ३९
- भवनभास्कर अध्याय १३
- नारदसंहिता अध्याय ३८
- भवनभास्कर अध्याय १२
- नारदसंहिता अध्याय ३७
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- नवचण्डीविधान
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- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २०
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- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १९
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
विद्वेषण प्रयोग
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का
सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है,
इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस
भाग ४ (९) में नवार्ण मंत्र से षट्कर्म प्रयोग में विद्वेषण प्रयोग बतलाया गया है।
विद्वेषण प्रयोगः
षट्कर्म स्तम्भन प्रयोग से आगे
(षट्प्रयोगा विद्वेषणप्रयोगो
यथा ।)
कर्तव्यदिवसात्पूर्व॑ स्न्नानार्थ
चिन्तयेद्बुधः ।
दिनानि विंशति वामे पूर्व कार्यो
विधिस्तनो: ॥ २४९॥
शरीर शोधनं कार्य मदिराक्षि
विनिश्चितम् ।
हे वामे ! कर्तव्य दिन के पहले सुधी
को स्नान की चिन्ता करनी चाहिये । बीस दिन पूर्व शरीर शोधन की विधि करनी चाहिये । हे
मदिराक्षि ! शरीर शोधन निश्चित रूप से करना चाहिये ।
शिशुपादोद्धवं तोयं कूपाद्दादशकं
शुभे ॥२५० ॥
तडागसप्तदश च नदीनां च जलं तथा ।
एतज्जलं समानीय संक्षिपेद्राजते घटे
२५१ ॥
संपेष्य तिलतैलेन स्नानं कृत्वा
विशेषतः ।
त्रिपुण्ड्धारणं कृत्वा ललाटे
रक्तचन्दनै: ॥ २५२॥
विद्वेषे चासनं धूम्रं
धूम्राम्बरधरः स्वयम् ।
पृष्ठपातासने निष्ठेदुत्तरस्यां
मुखे कृते ॥ २५३॥
हे शुभे ! बच्चे के पैर का जल,
बारह कूएँ का जल, सत्रह तालाबों और नदियों का
जल, यह सब जल लाकर चाँदी के घड़े में डाले। तिल के तेल की
मालिश करके विशेष रूप से स्नान करे। ललाट में लाल चन्दन का त्रिपुण्ड धारण करके
विद्वेषण में धूम्र वर्ण के आसन पर धूम्र वर्ण का परिधान धारण कर उत्तराभिमुख
पृष्ठपातासन से स्वयं बैठे।
श्रृणुष्व चापरं कर्म
भूमिशोधनमुत्तमम् ।
गैरिकं हरितालं च लवणं सैधवं तथा ॥
२५४॥
कूपैकाज्जलमानीय कन्याहस्ताद्विचक्षण:
।
पुरीषं वाजिनश्चैव
मृदमारण्यसम्भवाम् ॥ २५५
एभिर्विशोध्य पृथिवीं विद्वेषार्थे
जपेदूबुधः ।
उष्ट्रगग्रीवोद्धवं रक्त
गृह्मीयाहक्षपाणिना ॥ २५६॥
एलाफलं तेजपत्रं तत्फलं तत्त्वचा
मधु ।
अजादुग्धेन सम्पेष्य करोति मिश्रितं
बुध: २५७॥
लेखनी कण्टकी कार्या आम्नायै च
शुभेक्षणे ।
ऋ्यंगुलस्य प्रमाणेन हस्तं कृत्वा
गृहे तथा २५८॥
वामेनैव
लिखेद्यन्त्रमिथ्कार्यार्थसिद्धये ।
एंषा लेखनकौशल्या मदिराक्षि मयोदिता
॥२५९
दूसरा उत्तम भूमिशोधन कर्म सुनो । गेरू,
हरिताल, सेंधा नमक के साथ सुधी साधक कन्या के
हाथ से एक कूओं से जल निकलवाकर घोड़े की लीद, जङ्गल की
मिट्टी, इनसे पृथिवी को शुद्ध करे तथा विद्वेषण के लिये
बुद्धिमान् साधक जप करे । ऊँट के गर्दन का रक्त दाहिने हाथ से ले और इलाइची, तेजपात, जायफल, दालचीनी,
बकरी के दूध से पीसकर बुद्धिमान साधक मिलावे । हे शुभेक्षणे! कण्टकी
वृक्ष के डाल की तीन अंगुल प्रमाण लम्बी लेखनी लेकर इष्ट कार्य की सिद्धि के लिए
बाएँ हाथ से यन्त्र को लिखे। हे मदिराक्षि ! यह लेखन कुशलता मैंने बतला दी।
पूजन यन्त्रराजस्य जगन्मातुश्शुभे
श्रृणु ।
लवइं मरिचं शुण्ठी कटुका त्रिफला
मधु ॥ २६० ॥
एतान्पिष्टा शुभे तोये
पश्चकूपोद्धृते तथा ।
मिश्रितं मधुना कुर्यात्कुशा
द्वादशसम्मिताः ॥ २६१ ॥
बन्धिता शणसूत्रेण
स्रापयेच्चण्डिकां प्रिये ।
हे शुभे! जगन्माता के यन्त्रराज का
पूजन तुम सुनो। लवङ्ग, मिर्च, सोंठ, कटुका, त्रिफला, मधु इन्हें पाँच कूओं से निकाले जल में पीसकर मधु में मिलाकर बारह कुशाओं
को इकट्ठा करके सन के सूत्र से बाँधकर हे प्रिये ! चण्डिका को स्नान करावे ।
“सर्वाबाधा प्रशमनं
त्रैलोकस्याखिलेश्वरि ।
एवमेवत्वया कार्यमस्मद्वैरेविनाशनम्
।”
इति मन्त्रेण सर्व दच्चात्।
भृंगराजरसं सुभ्रु चन्दनं
श्वेतरक्तकम् ॥२६२॥
सिन्दूरं विजयापत्रमर्कमूलं पयस्तथा
।
एभिः प्रपूजयेद्देवि यन्त्रराजं
विचक्षण: ॥ २६३ ॥
विस्तृतं न मयोक्त ते सामान्य कथितं
शुभे ।
अतः परं श्रृणुष्वाध विधि धूपस्य
निर्मलम् ॥ २६४ ॥
हे सुभ्रू,
भृंगराज का रस, सफेद तथा लाल चन्दन, सिन्दूर, भांग के पत्ते, मदार
की जड़ तथा दूध इनसे हे देवि, बुद्धिमान साधक यन्त्रराज की
पूजा करे । हे शुभे, मैंने तुम्हें विस्तार से नहीं कहा है,
सामान्य रूप से ही कहा है । इसके आगे निर्मल धूप की आद्य विधि सुनो ।
साधकानां ध्रुवं सिद्धिर्धूपैनैव
प्रजायते ।
विद्वेषे कारणं देवि धूप एव
निगद्यते ॥ २६५॥
धूपमाहात्यमतुलं डामरे कथित मया ।
धूपवार्ता न जानन्ति डामरे विमुखा
नराः ।
कथं सिद्धिर्भवेत्तेषां विपरीते
शुभानने २६६॥
साधकों की निश्चित सिद्धि धूप से
होती है । हे देवि, विद्वेषण में कारण
धूप ही कहा गया है। मैंने डामर तन्त्र मे बहुत- सा धूप माहात्म्य कहा है । जो लोग
डामर तन्त्र से विमुख हैं वे धूप की वार्ता को नहीं जानते । हे शुभानने, ऐसी विपरीत दशा में उनको सिद्धि कहाँ से प्राप्त हो सकती है?
गुग्गुलूं लोहबाणं च हरिद्रां तजमेव
च ।
हिंगुगैरिककर्पूरमासुरी दालक मधु
॥२६७॥।
लवइं मृगनारभि च चन्दनद्वयचूर्णकम्
।
कटुकां पिप्पलीं देवदारु नागरतागरौ
॥ २६८ ॥
महिषीघृतदुग्धे च सिताद्वयं गुड
प्रिये ।
एकत्र चूर्णयेत्सर्वान् धूपं
कृत्वा विधानवित् ॥ २६९
पञ्च मन्त्रान्पठित्वा तु साधको
गद्गदाकृतिः ।
एकचित्तं समाधाय धूप॑
कुर्याद्विचक्षण: ॥ २७०॥
गुग्गुल,
लोहबान, हल्दी, तज,
हींग, गेरू, कपूर,
राई, उद्दालक मक्षिका का मधु, लौंग, कस्तूरी, सफेद तथा लाल
चन्दन का चूरा, कटुका, पिप्पली,
देवदारु, नागरमोथा, तगर,
हे प्रिये, भैंस का दूध तथा घी, चीनी, मिश्री तथा गुड़, इन्हें
विधान जानने वाला साधक इकट्ठा करके पीसकर धूप बनाकर गद्गद आकृति का होकर मन्त्र को
पञ्चधा पढ़कर एकाग्रचित्त होकर वह बुद्धिमान साधक धूप देवे ।
“ॐ इत्थं यदायदा बाधा
दानवोत्था भविष्यति । तदातदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षय नमः ।
इति मन्त्रं पञ्चधा पठित्वा धूपयेत् ।
विद्वेषे कारणं देवि दीप एवं
निगद्यते ।
ताम्रदीपश्च गोमूत्र तैलं
श्वेततिलस्य च ॥ २७१ ॥
एरण्डस्य तथा तैलं वर्ति: कार्या च
तौलिका ।
दशांगुलप्रमाणेन पृथ्वी लेप्या
नवांगुला ॥ २७२॥
बर्बुरीलेखनी . कार्या
छूंगुलत्रयनिर्मिता ।
हे देवि,
विद्वेषण कार्य में दीप ही कारण कहा जाता है । इसमें ताँबे का दीप,
गोमूत्र, सफेद तिल का तेल तथा रेण के तेल में
दश अंगुल लम्बी कपास की बत्ती रखना चाहिये । नव अंगुल पृथ्वी को लीप देना चाहिये ।
बबूल की लकड़ी की तीन अंगुल लम्बी लेखनी बनानी चाहिये ।
यवचूर्णन वामोरु कन्यायाश्र रसेन वै
॥२७३॥
लिखेद्न्त्र प्रिये प्रेम्णा दीपः
स्थाप्यश्व दक्षिणे ।
अंगुलैकप्रमाणेन पूजयेद्रक्तचन्दनिः
॥ २७४॥
दीपमध्ये सदा ध्यायेच्चण्डिकां
चण्डनाशिनीम् ।
इति ध्यात्वा महामायां
पूजयेद्रक्तचन्दनीः ॥ २७५॥
शूलेन पाहि नो देवि इति मन्त्रे
निवेदयेत् ।
हे वामोरु,
जव का आटा घृतकुमारिका के रस में मिलाकर उससे मन्त्र को लिखे । हे
प्रिये, प्रेम से दीपक को देव के दक्षिण भाग में स्थापित करे
। एक अंगुल प्रमाण लाल चन्दन के टुकड़ों से पूजा करे । दीप के बीच में चण्डनाशिनी
चण्डिका का ध्यान करे । इस प्रकार स्नान करके लाल चन्दन से महामाया की पूजा करे ।
“शूलेन पाहि नो देवि
पाहि खड्गेन चाम्बिके । घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च”
इस मन्त्र से दीप निवेदित करे । इस तरह मैंने दीपक के बारे में बता
दिया है । अब माला की विधि सुनो ।
अथ मालाविधि :
विद्वेषे बदरीबीजग्रंथिता कीटरोमकैः
।
माला या च मया प्रोक्ता साधकानां
हितायच २७७
चण्डिकायै यन्त्रराजे अर्चयित्वा च
वीटिकम् ।
पश्चादेकैकमुद्धृत्प चर्वयेच्छनकैः
सुधीः २७८ ॥
यावज्जपसमाप्तिः.
स्थात्तावत्ताम्बूलचर्वणम् ।
जपेत्वयोदश॑ लक्ष॑ वैश्येवर्ष्ष
निगद्यते ॥ २७९ ॥
ब्राह्णे द्विगुणं देवि
शूद्राणामर्द्धकार्ड्धकम् ।
स्त्रीणां च द्विगुणं प्रोक्ते यतः
सा शक्तिरूपिणी ॥ २८०
जपान्ते तद्दशांशेन नित्यहोम॑ च
कारयेत् ।
विद्वेषण कर्म में बेर के बीजों को
रेशम के धागे से गूथ कर बनायी गयी माला मैंने साधकों के हित के लिए कही है। चण्डिका
के लिए यन्त्रराज में पान के बीड़े की पूजा करके बाद में सुधी साधक एक - एक बीड़ा
उठाकर धीरे - धीरे चबाये । जब तक जप की समाप्ति न हो तब तक पान चबाना चाहिये । जप
तेरह लाख कहा गया है। (जप का मन्त्र : ऐं
ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे हुं अमुकामुकेन विद्वेषणं कुरु - कुरु स्वाहा )
वैश्यों में आधा, हे देवि, ब्राह्मण
में दूना तथा शूद्र में चौथाई कहा गया है । स्त्री में दूना कहा गया है, क्योंकि वह शक्तिस्वरूपिणी है । जप के अन्त में उसके दशांश से नित्य होम
कराये।
गोघृतं तिलतैलं च यवं कृष्णातिलाः
प्रिये २८१ ॥
द्विललं चणकस्यैव कर्पूरं चन्दन॑
जतुः ।
देवदारू वचा दालमर्ककाष्ट शुभानने ॥
२८२ ॥
दुग्धं उरूथवृक्षस्य हिंगु गैरिकमेव
च ।
काष्ठ पश्चांगुलमितं कुर्याक्कुण्ड
त्रिकोणतः ॥ २८३ ॥
जुहुयाद्वारुणी पश्चात्साधनों
विमलाशयः ।
मन्त्र
नवाक्षरं प्रोक्त विद्वेषे कयितं मया ॥२८४॥
विद्वेषे भोजनं कार्यं देवि
गोधूमतण्डुलौ ।
मुनिवृक्षस्य द्विदलं सैंधवेन युतं
प्रिये ॥२८५॥
अभावे भोजनं देवि यकत्तग्माप्तं
तदेव हि।
भोजने क्लेशसंकर्तु: प्रयोगोऽफलदो
भवेत् ॥ २८६॥
विधिर्वमन्त्रराजस्यकथितः
प्राणवल्लभे ।
शैवेन शाक्तविप्रेण कर्तव्यं
निश्चितं प्रिये ॥ २८७॥
कार्य विचक्षणेनेव चण्डिकाकिज्रेण
वे ।
मयोक्तं देवि मन्त्रस्य चण्डिकाया:
प्रियस्थ च २८८
इति डामरे रावणकृते शतहसस्त्रप्रतिबद्धे
चतुःषष्ठोल्लासे नवार्णमन्त्रराजषट्प्रयोगा: ।
हे प्रिये,
गाय का घी, तिल का तेल, जव,
काला तिल, चने की दाल, कपूर,
चन्दन, लाख, हे शुभानने,
देवदारु, वच, दालचीनी,
मदार की लकड़ी, उरूथ वृक्ष का दूध, हींग, गेरू, पाँच अंगुल,
लम्बी समिधा तथा त्रिकोण यज्ञकुण्ड बनाये । विमल विचारों वाला साधक
सुरा का होम करे । मैंने विद्वेषण में नवाक्षर मन्त्र कहा है । हे देवि, हे प्रिये, विद्वेषण में भोजन गेहूं, चावल, मुनिवृक्ष (तूर ) की दाल, सेंधा नमक से युक्त करना चाहिये । हे देवि, अभाव में
जो प्राप्त हो उसे ही भोजन करना चाहिये। भोजन में क्लेश करने वाले का प्रयोग असफल
होता है । हे प्राणवललभे, यह मन्त्रराज की विधि मैंने बताया
है। शैव तथा शाक्त विप्र साधकों को इसे अवश्य करना चाहिये । जो चण्डिका का सेवक,
भक्त और बुद्धिमान् है ऐसे साधकों को इस मेरे द्वारा कहे गये
मन्त्र की साधना अवश्य करनी चाहिये।
इति डामर में रावणकृत शतहसस्र
प्रतिबद्ध चतुःषष्ठोल्लास में नवार्णमन्त्रराज षट्प्रयोग ।
आगे जारी.....
आगे.....श्रीदुर्गा तंत्र नवार्णमहामंत्रस्वरूप भाग ५ ।
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