भवनभास्कर अध्याय १९
भवनभास्कर के इस अध्याय १९ में गृह
निर्माण की जानने योग्य आवश्यक बातों का वर्णन किया गया है।
भवनभास्कर उन्नीसवाँ अध्याय
भवनभास्कर
उन्नीसवाँ अध्याय
जानने योग्य आवश्यक बातें
( १ ) शयन -
सदा पूर्व या दक्षिण की तरफ सिर करके
सोना चाहिये । उत्तर या पश्चिम की तरफ सिर करके सोने से आयु क्षीण होती है तथा
शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं -
नोत्तराभिमुखः सुप्यात्
पश्चिमाभिमुखो न च ॥( लघुव्यासस्मृति २ ।
८८ )
उत्तरे पश्चिमे चैव न स्वपेद्धि
कदाचन ॥
स्वप्रादायुःक्षयं याति ब्रह्महा पुरुषो
भवेत् ।
न कुर्वीत ततः स्वप्रं शस्तं च
पूर्वदक्षिणम् ॥( पदमपुराण, सृष्टि० ५१। १२५ - १२६ )
प्राच्यां दिशि शिरश्शस्तं
याम्यायामथ वा नृप ।
सदैव स्वपत: पुंसो विपरीतं तु रोगदम् ॥(विष्णुपुराण
३ । ११ ।१११)
पूर्व की तरफ सिर करके सोने से
विद्या प्राप्त होती है । दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन तथा आयु की वृद्धि
होती है । पश्चिम की तरफ सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता होती है । उत्तर की तरफ
सिर करके सोने से हानि तथा मृत्यु होती है, अर्थात्
आयु क्षीण होती है -
प्राकशिरः शयने विद्याद्धनमायुश्च
दक्षिणो ।
पश्चिमे प्रबला चिन्ता
हानिमृत्युरथोत्तरे । ( आचारमयूखः
विश्वकर्मप्रकाश )
शास्त्र में ऐसी बात भी आती है कि
अपने घर में पुर्व की तरफ सिर करके, ससुराल
में दक्षिण की तरफ सिर करके और परदेश ( विदेश ) - में पश्चिम की तरफ सिर करके सोये,
पर उत्तर की तरफ सिर करके कभी न सोये -
स्वगेहे प्राक्छिराः
सुप्याच्छ्वशुरे दक्षिणाशिराः ।
प्रत्यक्छिराः प्रवासे तु
नोदक्सुप्यात्कदाचन ॥( आचारमयूख; विश्वकर्मप्रकाश १० । ४५ )
मरणासन्न व्यक्ति का सिर उत्तर की
तरफ रखना चाहिये और मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि – संस्कार के समय उसका सिर दक्षिण की
तरफ रखना चाहिये ।
धन - सम्पत्ति चाहनेवाले मनुष्य को
अन्न,
गौ, गुरु, अग्नि और
देवता के स्थान के ऊपर नहीं सोना चाहिये । तात्पर्य है कि अन्न - भण्डार, गौशाला, गुरु - स्थान, रसोई और
मन्दिर के ऊपर शयनकक्ष नहीं होना चाहिये ।
( २ ) शौच -
दिन में उत्तर की ओर तथा रात्रि में
दक्षिण की ओर मुख करके मल – मूत्र का त्याग करना चाहिये । ऐसा करने से आयु क्षीण
नहीं होती -
उदड्मुखो दिवा मूत्रं विपरीतमुखो
निशि ।( विष्णुपुराण ३।११।१३ )
दिवा सन्ध्यासु कर्णस्थब्रह्मसूत्र
उदड्मुखः ।
कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ च
दक्षिणामुखः ॥( याज्ञवल्क्य० १ ।
१६, वाधूल० ८ )
उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा
कुर्यादुदड्मुखः ।
रात्रौ कुर्याद्दक्षिणास्य एवं
ह्यायुर्न हीयते ॥( वसिष्ठास्मृति ६ ।
१०)
प्रातः पूर्व की ओर तथा रात्रि
पश्चिम की ओर मुख करके मल – मूत्र का त्याग करने से आधासीसी ( माइग्रेन ) रोग होता
है ।
( ३ ) दन्तधावन आदि -
सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख
करके ही दन्तधावन ( दातुन ) करना चाहिये । पश्चिम और दक्षिण की ओर मुख करके
दन्तधावन नहीं करना चाहिये -
पश्चिमे दक्षिणे चैव न
कुर्याद्दन्तधावनम् । ( पद्मपुराण, सृष्टि० ५१ । १२५ )
अन्य ग्रन्थ में केवल पूर्व अथवा
ईशान की ओर मुख करके दन्तधावन करने का विधान आया है -
प्राड्मुखस्य धृतिः सौख्यं
शरीरारोग्यमेव च ।
दक्षिणेन तथा कष्टं पश्चिमेन पराजयः
॥
उत्तरेण गवां नाशः स्त्रीणां
परिजनस्य च ।
पूर्वोत्तरे तु दिग्भागे
सर्वान्कामानवाप्रुयात् ॥( आचारमयूख )
अर्थात् पूर्व की ओर मुख करके
दन्तधावन करने से धैर्य, सुख और शरीर की
नीरोगता प्राप्त होती है । दक्षिण की ओर मुख करने से कष्ट और पश्चिम की ओर मुख
करने से पराजय प्राप्त होती है । उत्तर की ओर मुख करने से गौ, स्त्री एवं परिजनों का नाश होता है । पूर्वोत्तर ( ईशान ) दिशा की ओर मुख
करने से सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि होती है ।
क्षौरकर्म ( बाल कटवाना ) पूर्व
अथवा उत्तर की ओर मुख करके ही कराना चाहिये ।
( ४ ) देवपूजन -
कुछ वास्तुशास्त्री घर में पत्थर की
मूर्तियों का अथवा मन्दिर का निषेध करते हैं । वास्तव में मूर्ति का निषेध नहीं है,
प्रत्युत एक बित्ते से अधिक ऊँची मूर्ति का ही घर में निषेध है *-
अङ्ष्ठपर्वादारभ्य वितस्तिर्यावदेव
तु ।
गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका
शस्यते बुधैः ॥( मत्स्यपुराण २५८ ।
२२ )
' घर में अँगूठे के पर्व से लेकर
एक बित्ता परिमाण की ही प्रतिमा होनी चाहिये । इससे बड़ी प्रतिमा को विद्वान लोग घर
में शुभ नहीं बताते ।'
शैलीं दारुमयीं हैमीं
धात्वाद्याकारसम्भवाम् ।
प्रतिष्ठां वै प्रकुवींत प्रासादे
वा गृहे नृप ॥( वृद्धपाराशर )
' पत्थर, काष्ठ,
सोना या अन्य धातुओं की मूर्तियों की प्रतिष्ठा घर या प्रासाद (
देवमन्दिर ) - में करनी चाहिये । '
घर में एक बित्ते से अधिक बड़ी पत्थर
की मूर्ति की स्थापना करने से गृहस्वामी की सन्तान नहीं होती । उसकी स्थापना
देवमन्दिर में ही करनी चाहिये ।
घर में दो शिवलिङ्ग,
तीन गणेश, दो शड्ख, दो
सूर्य - प्रतिमा, तीन देवी प्रतिमा, दो
द्वारका के ( गोमती ) चक्र और दो शालग्राम का पूजन करने से गृहस्वामी को उद्वेग (
अशान्ति ) प्राप्त होती है -
गृहे लिङ्गद्वयं नार्च्य
गणेशत्रितयं तथा ।
शड्खद्वयं तथा सूर्यो नार्च्या
शक्तित्रयं तथा ॥
द्वे चक्रे द्वारकायास्तु
शालग्रामशिलाद्वयम् ।
तेषां तु पूजनेनैव उद्वेगं प्रापुयाद
गृही ॥( आचारप्रकाश; आचारेन्दु )
(*अंगूठे
के सिरे से लेकर कनिष्ठा के छोर तक एक बित्ता होता है । एक बित्ते में १२ अंगुल
होता है।)
( ५
) भोजन -
भोजन सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर
मुख करके करना चाहिये -
'प्राड्मुखोदड्मुखो
वापि' ( विष्णुपुराण
३।११।७८)
'प्राड्मुखऽन्नानि
भुञ्ञीत' ( वसिष्ठस्मृति
१२।१५)
दक्षिण अथवा पश्चिम की ओर मुख करके
भोजन नहीं करना चाहिये -
भुञ्ञीत नैवेह च दक्षिणामुखो न च
प्रतीच्यामभिभोजनीयम् ॥( वामनपुराण
१४।५१)
दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करने से
उस भोजन में राक्षसी प्रभाव आ जाता है -
' तद् वै रक्षांसि
भुञ्ञते' (
पाराशरस्मृति १।५९)
अप्रक्षालितपादस्तु यो भुड्न्के
दक्षिणामुखः ।
यो वेष्टितशिरा भुड्न्क्ते प्रेता
भुञ्ञन्ति नित्यशः ॥( स्कन्दपुराण,
प्रभास० २१६ । ४१)
' जो पैर धोये बिना खाता है,
जो दक्षिण की ओर मुँह करके खाता है अथवा जो सिर में वस्त्र लपेटकर (
सिर ढककर ) खाता है, उसके उस अन्न को सदा प्रेत ही खाते है ।'
यद् वेष्टितशिरा भुड्न्क्ते यद्
भुडन्क्ते दक्षिणामुखः ।
सोपानत्कश्च यद् भुड्न्क्ते सर्वं
विद्यात् तदासुरम् ॥( महाभारत, अनु० ९०।१९)
' जो सिर में वस्त्र लपेटकर भोजन
करता है, जो दक्षिण की ओर मुख करके भोजन करता है तथा जो जूते
पहने भोजन करता है, उसका वह सारा भोजन आसुर समझना चाहिये ।'
प्राच्यां नरो लभेदायुर्याम्यां
प्रेतत्वमश्रुते ।
वारुणे च भवेद्रोगी आयुर्वित्तं
तथोत्तरे ॥( पद्मपुराण, सृष्टि० ५१ । १२८)
' पूर्व की ओर मुख करके खाने से
मनुष्य की आयु बढ़ती है, दक्षिण की ओर मुख करके खाने से
प्रेतत्व की प्राप्ति होती है, पश्चिम की ओर मुख करके खाने से
मनुष्य रोगी होता है और उत्तर की ओर मुख करके खाने से आयु तथा धन की प्राप्ति होती
है ।'
भवनभास्कर
अध्याय १९ सम्पूर्ण ॥
आगे जारी.......................भवनभास्कर अध्याय २०
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