नारदसंहिता अध्याय ४३

नारदसंहिता अध्याय ४३                         

नारदसंहिता अध्याय ४३ में परिवेष ( मंडल ) का वर्णन किया गया है।  

नारदसंहिता अध्याय ४३

नारदसंहिता अध्याय ४३  

किरणा वायुनिहता उच्छ्रिता मंडलीकृताः ॥

नानावर्णाकृतयस्ते परिवेषाः शशीनयोः ॥ १ ॥    

वायु से निहत हुई सूर्य व चंद्रमा की किरण ऊपर को होके मंडलाकार होती हैं उनके अनेक वर्ण और अनेक आकार होते हैं तिनको सूर्य चंद्रमा के परिवेष ( मंडल ) कहते हैं ॥ १ ॥

ते रक्तनीलपांडूरकपोताभ्राश्च कापिलाः ॥

सपीतशुकवर्णाश्च प्रागादिदिक्षु वृष्टिदाः ॥ २ ॥

मुहुर्मुहुः प्रलीयंते न संपूर्णफलप्रदाः ॥ ।

शुभास्तु कपिलाः स्रिग्धाः क्षीरतैलांबुसन्निभाः॥ ३॥

वे मंडल लाल,नील,पांडुरवर्ण (गुलाबी) कपोत सरीखे तथा बादल सरीखे वर्णवाले तथा कपिल वर्णवाले पीले तथा हरे इन वर्णों के होते हैं । ये वर्ण यथाक्रम से पूर्वादि दिशाओं में होवें तो वर्षा होवे और जो मंडल के वर्ण बारंबार हो होकर नष्ट हो जावें तो पूरा फल नहीं करते हैं कपिलवर्ण, चिकने दूध तथा तेल व जलसरीखी कांतिवाले ॥२-३॥

चापश्रृंगाटकरथक्षतजाभारुणाः शुभाः ।

अनेकवृक्षवर्णाश्च परिवेषा नृपांतकृत् ॥ ४ ॥

धनुष, चौपट, रथ इनके आकार तथा रक्तसमान लाल ऐसे कुंडल शुभदायक कहे हैं अनेक दरख़तों के समान आकार हरे कुंडळ राजाओं को नष्ट करते हैं ॥ ४ ॥

अहर्निशं प्रतिदिनं चंद्रार्कवरुणो यदा ।

परिविष्टो नृपवधं कुरुतो लोहितो यदा ॥ ४॥

जो दिन-रात नियम करके अर्थात् दिन में सूर्य के और रात्रि में चंद्रमा के इस प्रकार सूर्य चंद्रमा के लालवर्ण मंडल बना रहे तो राजा की मृत्यु हो ॥ ५ ॥

द्विमंडलश्चमूनाथं नृपध्नोऽथ त्रिमंडलम् ।

परिवेषगतः सौरिः क्षुद्रधान्यविनाशकृत् ॥ ६ ॥

दो मंडल होवें तो सेनापति को नष्ट करें, तीन मंडळ होवें तो राजा को नष्ट करै, मंडल के मध्य में शनि प्राप्त हो तो तुच्छधान्यों का नाश हो ॥ ६ ॥

रणकृद्भूमिजो जीवः सर्वेषामभयप्रदः ।

ज्ञः सस्यहानिदः शुक्रो दुर्भिक्षकलहप्रदः ॥ ७॥

मंगल मंडल में आ जाय तो युद्ध करावे बृहस्पति हो तो सबको अभय करै, बुध हो तो खेती का नाश करें, शुक्र मंडल में प्राप्त हो तो दुर्भिक्ष तथा कलह करे ॥ ७ ॥

परिवेषगतः केतुर्दुर्भिक्षकलहप्रदः ॥

पीडां नृपवधं राहुर्गर्भच्छेदं करोति च ॥ ८॥

केतु सूर्य मंडल में आ जाय तो दुर्भिक्ष, तथा कलह करे, राहु मंडल में आ जाय तो पीड़ा, राजा की मृत्यु, गर्भच्छेद यह फ़ल करता है । ८ ।।

द्वौ ग्रहौ परिवेषस्थौ क्षितीशकलहप्रदौ ।

कुर्वंति कलहानर्ध्ं परिवेषगतास्त्रयः ॥ ९ ॥

दो ग्रह मंलड में प्राप्त होवें तो राजाओं का युद्ध हो, तीन ग्रह होवें तो कलह तथा अन्न का भाव महँगा करे ॥ ९ ॥

चत्वारः परिवेषस्था नृपस्य मरणप्रदाः ॥

परिवेषगताः पंच बलप्रबलदा ग्रहाः ॥ १० ॥

चारग्रह होवें तो राजा की मृत्यु करें और मंडल में पांच ग्रह होवें तो बलदायक (शुभफलदायक ) जानने ॥ १० ॥

एवं वक्रग्रहास्तेषामेवं फलनिरूपणम्॥

नृपहानिः कुजादीनां परिवेषे पृथकू पृथक् ॥ ११॥

इसी प्रकार दो चार वक्री ग्रह हों उनका भी फल जानना मंगल आदि पृथक् २ ग्रह चंद्रमंडल में होवें तो राजा की  हानि हो । १३ ॥

परिवेषोपि धिष्ण्यानां फलमेवं द्वयोस्त्रिषु ॥

पारिवेषो द्विजातीनां नेष्टः प्रतिपदादिषु ॥ १२ ॥

इसी तरह अन्य भी दो वा तीन तारे चंद्रमंडल में होवें तो उनका फ़ल जानना और प्रतिपदा आदि चार तिथियों में सूर्य के वा चंद्रमा के मंडळ में होय तो बाह्मण को अशुभ फल जानना ॥१२॥

पंचम्यादिषु तिसृषु ह्यशुभो नृपतेस्तथा ॥

अष्टम्यां युवराजस्य परिवेषोप्यभीष्टदः ॥ १३ ॥

पंचमी आदि तीन तिथियों में मंडल होय तो राजा को अशुभ जानना अष्टमी के दिन मंडल हो तो युवराज को शुभदायक जानना ॥ १३ ॥

ततस्तिसृषु तिथिषु नृपाणामशुभप्रदः ॥

पुरोहितस्य द्वादश्यां विनाशाय भवेदसौ ॥ १४ ॥

सैन्यक्षोभस्त्रयोदश्यां नृपरोधमथापि वा ।

राजपत्न्यश्चतुर्दश्यां परिवेषो गदप्रदः ॥ १९ ॥

नवमी आदि तीन तिथियों में राजाओं को अशुभ जानना । द्वादशी को मंडल होय तो राजा पुरोहित का नाश हो, त्रयोदशी के दिन हो तो सेना का कोप हो अथवा राजा का अवरोध हो चतुर्दशी के दिन हो तो रानी के रोग होवे ॥ 

परिवेषः पंचदश्यां क्षितीशानामनिष्टदः ॥

परिवेषस्य मध्ये वा बाह्ये रेखा भवेद्यदि ।। १६ ।।

स्थायिनां मध्यमा नेष्टा यायिनां पार्श्वसंस्थिता ।

प्रावृडृतौ च शरदि परिवेषो जलप्रदः ॥ १७ ॥

पूर्णिमा को मंडल होय तो राजाओं को अशुभ है मंडल के मध्य में अथवा बाहिरी तर्फ रेखा होय तो स्थायी (अपने किला में स्थित रहनेवाले) राजाओं को मध्यम जानना और बराबरों में रेखा होय तो गमन करनेवाले राजाओं को अशुभ जानना, प्रावृट् ऋतु में तथा शरदऋतु में मंडल होय तो वर्षा करे ॥ १६ - १७ ।।

प्रायेणान्येषु ऋतुषु तदुक्तफलदायिनः ॥ १८ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायां परिवेषलक्षणाध्याय- त्रिचत्वारिंशत्तमः ।। ४३ ।।

और विशेष करके अन्य ऋतुओं में सूर्य वा चंद्र के मंडल होय तो जैसा पूर्व कहा है वही फल जानना ॥ ३८ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषादीकायां परिवेषलक्षणाध्याय त्रिचत्वारिंशत्तमः ।। ४३ ।।

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ४४ ॥     

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