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कर्मकाण्ड

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नारदसंहिता अध्याय ४२

नारदसंहिता अध्याय ४२                        

नारदसंहिता अध्याय ४२ में इन्द्रलुप्त और उल्काओं के शुभाशुभ फल का वर्णन किया गया है।  

नारदसंहिता अध्याय ४२

नारदसंहिता अध्याय ४२  

श्रीरग्निर्बधुनाशश्च वित्तहानिर्महद्यशः।

बंधुलाभः पुत्रहानिः स्त्रीचिंता महतो गदः ॥ १ ॥

पूर्वादीनि फलान्येषामिंद्रलुप्तं च मस्तके ।

पंचवक्पल्लवैश्चैव पंचामृतफलोदकैः ॥ २॥

अभ्यंगमंत्रितैर्मंत्रैः स्नानदोषं विमुंचति ॥

एवमेवाग्निदाहेपि मस्तके मध्यदूषिते ॥ ३ ॥

दंतच्छेदे काकहते सरटापत्तनेपि च ॥

आशिषो वाचनं कृत्वा ब्राह्मणान्भोजयेच्छुचिः ॥ ४ ॥

किसी के शिर पर इंद्रलुप्त हो जाय अर्थात् शिर पर से किसी जगह के बाल उड जावें तो मस्तक में पूर्व आदि दिशा कल्पित करके लक्ष्मीप्राप्ति १, अग्निक्षय २, बंधुनाश ३, द्रव्य की हानि ४, महान यश ५, बंधुलाभ ६, पुत्रहानि ७, स्त्रिचिंता८, महान रोग९ यह फल पूर्व आदि दिशाओं का जानना और नवमा फल मस्तक में मध्यभाग का जानना। तहां इसकी शांति के वास्ते पंचवल्कल, पंचपल्लव, पंचामृत, फलोदक इन्हों करके स्नान करावे और अभिषेक के मंत्रों का उच्चारण करे तब शुद्धि होती है । इसी प्रकार अग्निदाहादि से मस्तक मध्य से दूषित हो जाय तथा दांत आदि कट जाय, काक चोंचमार देवे तथा किरलकांट चढ जाय तो उस स्थान का भी शुभाऽशुभ फल विचारकर स्वस्तिवाचन करवा के ब्राह्मण जिमावें पवित्र रहे ॥१-४॥

लाभदः स्त्रीजनानां त्वशुभदो व्यत्ययो व्ययः ॥

दक्षिणे स्फुरणं लाभं वामे स्फुरणमन्यथा ।। ६  ।।

जो शकुन पुरुषों को लाभदायक हैं वह स्त्रियों को अशुभ विपरीत तथा हानिदायक जानना । पुरुष का दहिना अंग स्फुरण शुभ है बायां अंग स्फुरणा अशुभ है ॥ ५ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां निमित्रशांतिरध्यायो द्विचत्वारिंशत्तमः ॥ ४२ ।।

नारदसंहिता अध्याय ४२                        

स्वर्गच्युतानां रूपाणि यान्युल्कास्तानि वै भुवि ।

धिष्ण्योल्काविद्युदशनिताराः पंचविधाः स्मृताः ॥ १ ॥

स्वर्ग से पतित हुई उल्काओं के जो रूप पृथ्वी पर होते हैं तिनको कहते हैं । धिष्ण्या, उल्का, विद्युत, अशनि, तारा ऐसे पांच प्रकार का उल्कापात जानना ।। १ ।।

सम्यक्पञ्चविधानं च वक्ष्यते लक्षणं फलम् ॥

पाचयंति त्रिभिः पक्षैर्धिष्ण्योल्काशनिसंज्ञिताः ॥ २ ॥

अच्छे प्रकार से इन पांचों का विधान लक्षण फल कहते हैं। धिष्ण्या, उल्का, अशनि इन संज्ञाओं वाली उल्का ४५ दिन में फल करती हैं । । २ ॥

विद्युत्षद्भिरहोभिश्च तारस्तद्वत्फलप्रदः ।

फलपाककरी तारा धिष्ण्याख्यार्द्धा फलप्रदा ॥ ३ ॥

विद्युत् छः दिन नें फल करे, तारापात भी ६ दिन में फल करे। तारापात पूराफल करता है । धिष्ण्या आधाफल करती है।। ३ ॥

उल्का विद्युदशन्याख्याः संपूर्णफलदा नृणाम् ॥

अश्वेभोष्ट्रपशुनूषु वृक्षक्षोणीषु च क्रमात् ॥ ४ ॥

विदारयंति पतितं स्वनेन महता शनिः ॥

जनयित्री च संत्रासं विद्युव्द्योम्निं त्विव स्फुटम् ॥५॥

उल्का, अशनि, विद्यत् ये मनुष्यों को पूरा फल देती हैं । अश्व, हाथी, ऊंट, पशु, मनुष्य, वृक्षों की पंक्ति इन सबों पर यथाक्रम से पडती हैं और तोड फोड डालती हैं बडा भारी कडकना शब्द करती हैं यह अशनि का लक्षण है । और बिजली आकाश में बहुत चिमकती है बडा भय दिखाती है यह विद्युत का लक्षण है ॥४-५॥

चक्रा विशालज्वलिता पतती वनराजिषु ॥

धिष्ण्यान्त्यपुच्छा पतति ज्वलितांगारसन्निभा ॥ ६॥

चक्राकार विशाल ज्वलिता, वन में बहुत दूर तक पडती हुई जले हुए अगार सदृश, अंत में पूंछ से आकारवाली ऐसी धिष्ण्या जाननी।।६।।

हस्तद्वयप्रमाणा सा दृश्यते च समीपतः ॥

ताराब्जतनुवच्छुक्ला हस्तदीर्घांबुजारुणा ॥ ७ ॥

वह दो हाथप्रमाण की समीप में ही दीखती है चंद्रमा सरीखी सफेद दीखती है ऐसी तारा जाननी और एक हाथ लंबी लालकमल सरीखी लाल ।। ७ ॥

ऊर्धे्वे वाप्यथवा तिर्यगधो वा गगनांतरे ॥

उल्काशिरो विशाला तु पतंती वर्द्धते तनुम् ॥ ८ ॥

आकाश में ऊपर को अथवा नीचे को तिरछी होती है पडती हुई का विस्तार होता है जिसका मस्तक चौडा होता है ऐसी उल्का जाननी चाहिये ।। ८ ।।

दीर्घपुच्छ भवेत्तस्या भेदाः स्युर्बहवस्तथा ॥

पीडाश्चोष्ट्राहिगोमायुखरोगजदंष्ट्रिकाः ॥ ९॥

वह उल्का लंबी पूंछवाली होती है तिसके बहुत से लक्षण हैं। वह ऊँट, सर्प, गीदड़, गधा, गौ, हाथी, कीजाड इनके समान आकारवाली उल्का इन सबों को पीडा करती है ॥ ९ ॥

कपिगोधाधूमनिभा विविधा पापदा नृणाम् ॥

अश्वेभचंद्ररजतवृषहंसध्वजोपमाः ॥ १० ॥

बंदर, गोह, धूमा इनके समान अनेक आकारवाली होय तो मनुष्यों को पाप (अशुभ ) फल करती है और, घोडा, हाथी चंद्रमा, चांदी, बैल, हंस, ध्वजा इनके समान ।। १० ।।

वज्रशंखशुक्तिकाब्जरूपाः शिवमुखप्रदाः॥

पतंतीह स्वरा वह्नौ राजराष्ट्रक्षयाय च ॥ ११॥

अथवा हीरा, शंख, सीपी, कमल इनके सदृश उल्का पडे तो मंगल सुख दायक जननी । अग्नि में उल्कापात हो जाय तो राजा का और देशों का नाश हो ।। ११ ॥

यद्यंबरे निपतति लोकस्याप्यतिविभ्रमः ।

यद्यर्केंदू संस्पृशति तत्र भूपप्रकंपनम् ॥ १२ ॥

और जो आकाश में ही रहे तो लोगों को अत्यंत श्रम करे जो सूर्य चंद्रमा को स्पर्श करे तो राजाओं को कंपना हो ॥

परचक्रागमभयं जनानां क्षुज्जलाद्भयम् ॥

अर्केंन्द्वोरपसव्योल्का पौरेतरविनाशदा ॥ १३ ॥

दूसरे राजा के आने का भय हो मनुष्य को दुर्भिक्ष का तथा जल का भय हो, सूर्य चंद्रमा के दहिनी तर्फ होकर पडे तो शहर से अलग तुच्छ बाहर गावों में रहनेवाले जनों को पीडा करतीं है ॥ १३ ॥

उदयास्तमयेर्केंद्वोः परतोल्का शुभप्रदा ॥

सितरक्ता पीतसिता सोल्का नेष्ट द्विजातिभिः॥१४ ॥

सितोदितोभये पार्श्वे पुच्छे दिक्षु विदिक्षु च ॥

विप्रादीनामनिष्टानि पतितोल्कादिभान्यपि ॥ १५

सूर्य चंद्रमा के उदय अस्त होने के बाद संधि में पड़े तो शुभदायकं जानना और सफेदलाल, तथा पीलीसफेद उल्का पडे तो द्विजातियों को अच्छी नहीं है दोनों बराबरों में सफेद वर्ण हों उल्का का पुच्छ भाग दिशाओं में रहे अथवा अग्निकोण आदि विदिशाओं में रहे तब पृथ्वी पर पड़े तो ऐसे टूटे हुए तारे ब्राह्मण आदि वर्णों को अशुभ हैं तिनको कहते हैं ॥

तारा कुंदनिभा स्निग्धा भूभुजां तु शुभप्रदा ।

नीला श्यामारुणा चाग्निवर्णाक्ता साशुभप्रदा ॥ १६ ॥

कुंदपुष्प समान सफेद चिकना तारा टूटे तो राजाओं को शुभदायक है, नील, श्याम, लाल, अग्निसमान वर्णवाला तारा टूटे तो अशुभदायक जानना ॥ १६ ॥

संध्यायां वह्निपीडा च दलिता राजनाशिनी ।।

नक्षत्रग्रहणे देवस्तद्वर्णानामनिष्टदा ॥ १७ ॥

संध्या समय में तारा टूटे तो अग्नि की पीडा करे खंडित हुआ तारा दीखे तो राजा को नष्ट करे और जिनके नक्षत्र का देवता गण हो पुरुषों को अशुभफल जानना ।। १७ ।।

स्थिरधिष्ण्येषु पतिता स्त्रीणां चोक्ता भयप्रदा ।

क्षिप्रभेषु विशां पीडा भूपतीनां चरेषु च ॥ १८ ॥

स्थिरसंज्ञक नक्षत्रों में पड़े तो स्त्रियों को अशुभ जानना, क्षिप्रसंज्ञक नक्षत्रों में पडी हुई तारा वैश्यों को पीडा करे चरसंज्ञक नक्षत्रों में पड़े तो राजाओं को पीडा करे ॥ १८॥

मृदुभेषु द्विजातीनां दारुणं दारुणेषु च ॥

उग्रभेषु च शूद्राणां परेषां मिश्रभेषु च ॥ १९ ॥

मृदुसंज्ञक नक्षत्रों में पड़े तो ब्राह्मणों को पीडा करै, दारुण तीक्ष्ण नक्षत्रों में पड़े तो दारुण दुष्टपुरुषों को पीड़ा करै, उग्रसंज्ञक नक्षत्रों में पडे तो शूद्रों को पीडा करें, मिथुन नक्षत्रों में नीचजातियों को पीडा करै ॥ १९ ॥

राजराष्ट्रस्वनाशाय प्रासादप्रतिमासु च ।

गृहेषु स्वामिनां पीडा नृपाणां पर्वतेषु च ॥ २० ॥

राजा के भवन में अथवा देवताओं की मूर्त्तियों पर बिजली पडे तो राज्य को नष्ट करे, घर में पड़े तो घर के मालिक को पीड़ा करें पर्वतों पर पडे तो राजाओं को पीडा करे ॥ २० ॥

दीक्षितानां दिगीशानां कर्षकाणां स्थलेषु च ॥

प्राकारे परिखयां वा द्वारि तत्परमध्यमे ॥ २१ ॥

स्थल में पड़े तो दीक्षित ( ब्रह्मचारी आदि ) दिशाओं के स्वामी किसान लोग इनको पीडा करे और किला, कोट, खाही, शहर का दरवाजा, शहर के मध्यभाग ।। २१ ॥

परचक्रागमभयं राज्यं पौरजनक्षयः ॥

गोष्ठे गोस्वामिनां पीडा शिल्पकानां जलेषु च ॥२२॥

इनमें पड़े तो दूसरा राज्य आने का भय हो और शहर के लोगों का नाश हो, गोशाला में पड़े तो गौओं के स्वामियों को पीडा हो, जल में पडे तो ( शिल्पी ) कारीगरों को पीडा हो । २२ ॥

राजहंत्री तंतुनिभा चंद्रध्वजसमाथ वा ॥

प्रतीपगा राजपत्नीं तिर्यगा च चमूपतिम् ॥ २३ ॥

तंतु समान आकारवाली पड़े तो राजा को नष्ट करे, इंद्रधनुष समान पडे तो भी राज को नष्ट करे और उलटी होकर पडे तो राजा की रानी को नष्ट करै, तिरछी पडे तो सेनापति को नष्ट करै ।। २३ ।।

अधोमुखी नृपं इति ब्राह्मणानूर्ध्वगा तथा ॥

वृक्षोपमा पुच्छेनिभा जनसंक्षोभकारिणी ॥ २९ ॥

नीचे को मुखवाली उल्का राजा को नष्ट करै, ऊपर को मुखवाली ब्राह्मणों को नष्ट करे, वृक्ष समान तथा पूंछ समान आकारवाली उल्का मनुष्यों को त्रास देती है ॥ २४ ॥

प्रसर्पिणी या सर्प्पवत्सा गणानामनिष्टदा ।।

वर्तुलोल्का पुरं हंति च्छत्राकारा पुरोहितम् ॥२५॥

सर्प की तरफ फैलती हुई उल्का ( बिजली) पडे तो किसी भी चाकर लोगों को अशुभ है। गोल उल्का पड़े तो पुर को नष्ट करे छत्राकार पड़े तो राजा के पुरोहित को नष्ट करै ।। २५ ।।

वंशगुल्मलताकारा राष्ट्रविद्राविणी तथा ॥

सकरव्यालसदृशा खंडाकारा च पापदा ॥ २६ ॥   

बांस, गुल्म, लता इनके समान आकावाली पड़े तो राज्य को नष्ट करें और सूकर सर्प तथा खंडित आकारवाली उल्का पडे तो पापदायक (अशुभदायक ) है ।। २६ ॥

इंद्रचापनिभा राज्यं मूर्छिता हंति तोयदम् ॥ २७ ॥

इति श्रीनारदीयसंहितायामुल्कालक्षणा ध्याय द्विचत्वारिंशत्तमः ॥ ४२ ।।  

इंद्रधनुष समान आकारवाली पड़े तो राज्य को नष्ट करें और मूर्च्छिता अर्थात कांतिहीन उल्का ( बिजली ) पडे तो जल का काम करनेवाले जनों को पीडा करें ॥ २७ ॥

इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां उल्कालक्षणाध्याय द्विचत्वारिंशत्तमः ॥ ४२ ।।

आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ४३ ॥ 

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