श्रीविद्याकवच
श्रीविद्याकवच का जो प्रातः
एकाग्रचित होकर इसका पाठ करता है उसे शारीरिक रोग, मानसिक रोग तथा कहीं पर भय नहीं होता। महामारी का भय तथा पापों का भी भय
नहीं होता। वह कभी दरिद्रता के वश में या मृत्यु के वश में भी नहीं जाता।
श्रीविद्याकवचम्
देव्युवाच ।
देवदेव महादेव भक्तनां
प्रीतिवर्धनम् ।
सूचितं यन्महादेव्याः कवचं कथयस्व
मे ।।१।।
देवी बोलीः हे देवदेव ! हे महादेव !
भक्तों की प्रीति को बढ़ाने वाले जिस कवच की चर्चा आपने की थी उसे आप मुझे बतायें।
महादेव उवाच।
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कवचं देवदुर्लभम्।
न प्रकाश्यं परं गुह्यं
साधकाभीष्टसिद्धिदम् ॥२॥
महादेव बोले : हे देवि! देवदुर्लभ
कवच मैं तुम्हें बताऊँगा । यह अत्यन्त गोपनीय एवं साधक के अभीष्ट को सिद्ध करने
वाला है। इसे किसी को न बताना ।
श्रीविद्या कवचं
विनियोग :
कवचस्य ऋषिर्देवि दक्षिणामूर्तिरव्ययः
।
छन्दः पंक्तिः समुद्दिष्टं देवी
त्रिपुरसुन्दरी ।।३।।
धर्मार्थकाममोक्षाणं विनियोगस्तु
साधने ।
वाग्भवः कामराजश्च शक्तिबीजं
सुरेश्वरी ।।४।।
(ऐ) वाग्भवः पातु शीर्षे मां (क्ली)
कामराजस्तथा हृदि।
(सौः) शक्तिबीजं सदा पातु नाभी
गुह्ये च पादयोः ।।५।।
ऐं श्रीं सौः वदने पातु बाला मां
सर्वसिद्धये ।
हसैं हसकलरी हसौः पातु भैरवी
कण्ठदेशतः ।।६।।
सुन्दरी नाभिदेशे च शीर्ष कामकलासदा
।
भ्रूनासयोरंतराले महात्रिपुरसुन्दरी
।।७।।
ललाटे सुभगा पातु भगा मां कण्ठदेशतः
।
भगोदया च हृदये उदरे भगसर्पिणी
।।८।।
भगमाला नाभिदेशे लिंगे पातु मनोभवा।
गुह्ये पातु महादेवी राजराजेश्वरी
शिवा ।।
चैतन्यरूपिणी पातु
पादयोर्जगदम्बिका।
नारायणी सर्वगात्रे सर्वकार्ये
शुभंकरी ।।१०॥
ब्रह्माणी पातु मां पूर्वे दक्षिणे
वैष्णवी तथा ।
पश्चिमे पातु बाराही उत्तरे तु
महेश्वरी ॥११॥
आग्नेयां पातु कौमारी
महालक्ष्मीस्तु नैर्ऋते ।
वायव्यां पातु चामुंडा इन्द्राणी
पातु ईशके ।।१२।।
जले पातु महामाया पृथिव्यां
सर्वमंगला ।
अकाशे पातु वरदा सर्वत्र भुवनेश्वरी
।।१३।।
श्रीविद्याकवच फलश्रुति
इदं तु कवचं देव्या देवानामपि
दुर्लभम् ।
पठेत्रातः समुत्थाय शुचिः
प्रयतमानसः ।।१४।।
नाधयो व्याधयस्तस्य न भयं च
क्वचिद्भवेत् ।
न च मारी भयं तस्य पातकानां भयं तथा
।।१५।।
यह देवी का कवच देवताओं के लिए
दुर्लभ है। जो प्रातः एकाग्रचित होकर इसका पाठ करता है उसे शारीरिक रोग,
मानसिक रोग तथा कहीं पर भय नहीं होता। महामारी का भय तथा पापों का
भी भय नहीं होता।
न दारिद्र्यवशं
गच्छेत्तिष्ठेन्मृत्युवशे न च ।
गच्छेच्छिवपुरं देवि सत्यं सत्यं
वदाम्यहम् ।।१६।।
वह कभी दरिद्रता के वश में या
मृत्यु के वश में भी नहीं जाता। हे देवि! वह शिव की पुरी में चला जाता है। यह मैं
सत्य कहता हूं, सत्य कहता हूं।
इदं कवचमज्ञात्वा श्रीविद्यां यो
जपेत्सदा।
स नाप्नोति फलं तस्य
प्राप्नुयाच्छस्त्रघातनम् ।।१७।।
इस कवच को न जानकर श्रीविद्या का जो
सदा जप करता है वह उसका फल नहीं पाता अपितु वह शस्त्रों से मारा जाता है।
इति सिद्धयामले श्रीविद्याकवचं समाप्तम् ।
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