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- दुर्गा स्तोत्र
- शतचण्डीसहस्रचण्डी विधान
- नारद संहिता
- षोडशी हृदय स्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ५१
- श्रीविद्याकवच
- नारदसंहिता अध्याय ५०
- त्रिपुट (त्रिशक्तिरूपा) लक्ष्मीकवच
- नारदसंहिता अध्याय ४९
- गायत्री पञ्जर स्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ४८
- भवनभास्कर
- नारदसंहिता अध्याय ४७
- भवनभास्कर अध्याय २१
- नारदसंहिता अध्याय ४६
- भवनभास्कर अध्याय २०
- नारदसंहिता अध्याय ४५
- भवनभास्कर अध्याय १९
- नारदसंहिता अध्याय ४४
- भवनभास्कर अध्याय १८
- नारदसंहिता अध्याय ४३
- भवनभास्कर अध्याय १७
- नारदसंहिता अध्याय ४२
- भवनभास्कर अध्याय १६
- नारदसंहिता अध्याय ४१
- भवनभास्कर अध्याय १५
- नारदसंहिता अध्याय ४०
- भवनभास्कर अध्याय १४
- नारदसंहिता अध्याय ३९
- भवनभास्कर अध्याय १३
- नारदसंहिता अध्याय ३८
- भवनभास्कर अध्याय १२
- नारदसंहिता अध्याय ३७
- भवनभास्कर अध्याय ११
- नारदसंहिता अध्याय ३६
- भवनभास्कर अध्याय १०
- वार्षिक नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ९
- दैनिक व मास नवचण्डी विधान
- भवनभास्कर अध्याय ८
- नवचण्डीविधान
- भवनभास्कर अध्याय ७
- देवी के नवनाम और लक्षण
- भवनभास्कर अध्याय ६
- सप्तशती प्रति श्लोक पाठ फल प्रयोग
- भवनभास्कर अध्याय ५
- दत्तात्रेयतन्त्र
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २२
- भवनभास्कर अध्याय ४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २१
- भवनभास्कर अध्याय ३
- वराह स्तोत्र
- दुर्गा सप्तशती शापोद्धारोत्कीलन
- भवनभास्कर अध्याय २
- भवनभास्कर अध्याय १
- नारदसंहिता अध्याय ३५
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल २०
- नारदसंहिता अध्याय ३४
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १९
- नारदसंहिता अध्याय ३३
- दुर्गा सप्तशती प्रयोग
- कुमारी तर्पणात्मक स्तोत्र
- दुर्गे स्मृता मन्त्र प्रयोग
- बगलामुखी सहस्त्रनामस्तोत्र
- नारदसंहिता अध्याय ३२
- बगलामुखी शतनाम स्तोत्र
- मन्त्रमहोदधि तरङ्ग १०
- बगलामुखी कवच
- नारदसंहिता अध्याय ३१
- विद्वेषण प्रयोग
- दत्तात्रेयतन्त्र पटल १८
- गायत्रीस्तोत्र
- स्तम्भन प्रयोग
- गायत्री हृदय
- वशीकरण प्रयोग
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मूल शांति पूजन विधि कहा गया है कि यदि भोजन बिगड़ गया तो शरीर बिगड़ गया और यदि संस्कार बिगड़ गया तो जीवन बिगड़ गया । प्राचीन काल से परंपरा रही कि...
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीविद्याकवच
श्रीविद्याकवच का जो प्रातः
एकाग्रचित होकर इसका पाठ करता है उसे शारीरिक रोग, मानसिक रोग तथा कहीं पर भय नहीं होता। महामारी का भय तथा पापों का भी भय
नहीं होता। वह कभी दरिद्रता के वश में या मृत्यु के वश में भी नहीं जाता।
श्रीविद्याकवचम्
देव्युवाच ।
देवदेव महादेव भक्तनां
प्रीतिवर्धनम् ।
सूचितं यन्महादेव्याः कवचं कथयस्व
मे ।।१।।
देवी बोलीः हे देवदेव ! हे महादेव !
भक्तों की प्रीति को बढ़ाने वाले जिस कवच की चर्चा आपने की थी उसे आप मुझे बतायें।
महादेव उवाच।
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कवचं देवदुर्लभम्।
न प्रकाश्यं परं गुह्यं
साधकाभीष्टसिद्धिदम् ॥२॥
महादेव बोले : हे देवि! देवदुर्लभ
कवच मैं तुम्हें बताऊँगा । यह अत्यन्त गोपनीय एवं साधक के अभीष्ट को सिद्ध करने
वाला है। इसे किसी को न बताना ।
श्रीविद्या कवचं
विनियोग :
कवचस्य ऋषिर्देवि दक्षिणामूर्तिरव्ययः
।
छन्दः पंक्तिः समुद्दिष्टं देवी
त्रिपुरसुन्दरी ।।३।।
धर्मार्थकाममोक्षाणं विनियोगस्तु
साधने ।
वाग्भवः कामराजश्च शक्तिबीजं
सुरेश्वरी ।।४।।
(ऐ) वाग्भवः पातु शीर्षे मां (क्ली)
कामराजस्तथा हृदि।
(सौः) शक्तिबीजं सदा पातु नाभी
गुह्ये च पादयोः ।।५।।
ऐं श्रीं सौः वदने पातु बाला मां
सर्वसिद्धये ।
हसैं हसकलरी हसौः पातु भैरवी
कण्ठदेशतः ।।६।।
सुन्दरी नाभिदेशे च शीर्ष कामकलासदा
।
भ्रूनासयोरंतराले महात्रिपुरसुन्दरी
।।७।।
ललाटे सुभगा पातु भगा मां कण्ठदेशतः
।
भगोदया च हृदये उदरे भगसर्पिणी
।।८।।
भगमाला नाभिदेशे लिंगे पातु मनोभवा।
गुह्ये पातु महादेवी राजराजेश्वरी
शिवा ।।
चैतन्यरूपिणी पातु
पादयोर्जगदम्बिका।
नारायणी सर्वगात्रे सर्वकार्ये
शुभंकरी ।।१०॥
ब्रह्माणी पातु मां पूर्वे दक्षिणे
वैष्णवी तथा ।
पश्चिमे पातु बाराही उत्तरे तु
महेश्वरी ॥११॥
आग्नेयां पातु कौमारी
महालक्ष्मीस्तु नैर्ऋते ।
वायव्यां पातु चामुंडा इन्द्राणी
पातु ईशके ।।१२।।
जले पातु महामाया पृथिव्यां
सर्वमंगला ।
अकाशे पातु वरदा सर्वत्र भुवनेश्वरी
।।१३।।
श्रीविद्याकवच फलश्रुति
इदं तु कवचं देव्या देवानामपि
दुर्लभम् ।
पठेत्रातः समुत्थाय शुचिः
प्रयतमानसः ।।१४।।
नाधयो व्याधयस्तस्य न भयं च
क्वचिद्भवेत् ।
न च मारी भयं तस्य पातकानां भयं तथा
।।१५।।
यह देवी का कवच देवताओं के लिए
दुर्लभ है। जो प्रातः एकाग्रचित होकर इसका पाठ करता है उसे शारीरिक रोग,
मानसिक रोग तथा कहीं पर भय नहीं होता। महामारी का भय तथा पापों का
भी भय नहीं होता।
न दारिद्र्यवशं
गच्छेत्तिष्ठेन्मृत्युवशे न च ।
गच्छेच्छिवपुरं देवि सत्यं सत्यं
वदाम्यहम् ।।१६।।
वह कभी दरिद्रता के वश में या
मृत्यु के वश में भी नहीं जाता। हे देवि! वह शिव की पुरी में चला जाता है। यह मैं
सत्य कहता हूं, सत्य कहता हूं।
इदं कवचमज्ञात्वा श्रीविद्यां यो
जपेत्सदा।
स नाप्नोति फलं तस्य
प्राप्नुयाच्छस्त्रघातनम् ।।१७।।
इस कवच को न जानकर श्रीविद्या का जो
सदा जप करता है वह उसका फल नहीं पाता अपितु वह शस्त्रों से मारा जाता है।
इति सिद्धयामले श्रीविद्याकवचं समाप्तम् ।
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