नारदसंहिता अध्याय ३१
नारदसंहिता अध्याय ३१ में वास्तुलक्षण का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय ३१
अथ वास्तुलक्षणम्।
वास्तुपूज़ामहं
वक्ष्ये नववेश्मप्रवेशने ।
हस्तमात्रा
लिखेद्रेखा दशपूर्वा दशोत्तराः ॥ १ ॥
अब नवीन घर में प्रवेश होने के समय
वास्तुपूजा को कहते हैं । एक हस्तप्रमाण वेदी पर दश रेखा पूर्व को ओर दश रेखा
उत्तर को खींचें ॥ १ ॥
गृहमध्ये तण्डुलोपर्य्यैकाशीतिपदं
भवेत् ॥
पंचोत्तरान्वक्ष्यमाणांश्चत्वारिंशत्सु
वा न्यसेत् ॥ २॥
फिर तिन कोष्ठों में चावल रखकर ८१
कोष्टक बनावे तहां पांच और चौतालीस अर्थात् ४९ देवता भीतर के अलग हैं।२॥
द्वात्रिंशद्वाह्यतः पूज्या
स्तत्रांतःस्थास्त्रयोदश ।
तेषां स्थानानि नामानि वक्ष्यामि
क्रमशोऽधुना ।। ३ ।।
और बत्तीस देवता बाहिर पूजने
चाहियें तिनके भीतर की के तेरह देवता अलग हैं अब क्रम से तिनके नामों को कहेंगे ।।
३ ।।
ईशानकोणतो बाह्या द्वात्रिंशत्रिदशा
अमी ।
कृपीटयोनिः
पर्जन्यो जयंतः पाकशासनः ।। ४ ।।
ईशानकोण में ये बत्तीस ३२
बाह्यसंज्ञक देवता हैं कि अग्नि, पर्जन्य,
जयंत, पाकशासन ।। ४ ।।
सूर्यसत्यौ भृशाकाशौ वायुः पूषा च
नैर्ऋतः ॥
गृहर्क्षतो दंडधरो गांधर्वों
मृगराजकः ॥ ९॥
सूर्य,
सत्य, भृश, आकाश, वायु,
पूषा, नैर्ऋत, गृहर्क्षत,
दंडधर, गांधर्व, मृगराजक
।। ५ ।।
मृगपितृगणाधीशस्ततो दौवारिकाह्वयः ।
सुग्रीवः पुष्पदंतश्च
जलाधीशस्तथासुरः ॥ ६ ॥
मृग, पितरगणाधीश, दौवारिक, सुग्रीव,
पुष्पदंतक, जलाधीश असुर ।। ६ ॥
शेषश्च पापरोगश्च भोगी सुख्यो
निशाकरः ।।
सोमः सूर्योऽदितिदिती
द्वात्रिंशत्रिदशा अमी ॥ ७॥
शेष; पापरोग, भोगी, मुख्य, निशाकर, सोम, सूर्य, अदिति, दिति ये बत्तीस देवता हैं । ७ ।।
अथेशान्यादिकोणस्थाश्चत्वारस्तत्समीपगाः
॥
आपः सवितृसंज्ञश्च जयो रुद्रः
क्रमादमी ॥ ८॥
और ईशान आदि कोणों में स्थित तिनके
समीप के चार देवता ये हैं कि आप, सविता,
जय, रुद्र ये क्रम से ४ दिशाओं में जानने ॥ ८
॥
मध्ये नव पदो ब्रह्म तस्याष्टों च
समीपगाः॥
एकांतराः स्युः प्रागाद्याः परितो
ब्रह्मणः स्मृतः ॥ ९ ॥
मध्य में नव कोष्ठ में बना और तिसके
समीप ८ हैं वे पूर्व आदि दिशाओं में एक २ के अंतर से ब्रह्मा के चारों तर्फ स्थित हैं
।। ९ ।।
अर्यमा सविता चैव
विवस्वान्विबुधाधिपः।
मित्रोऽथ राजयक्ष्मा च तथा
पृथ्वीधराह्वयः ॥ १० ।
अर्यमा,
सविता, विवस्वान, विबुधाधिप,
मित्र, राजयक्ष्मा, पृथ्वीधर
॥ १० ॥
आपवत्सोष्टमः पंचचत्वारिंशत्सुरा
अमी ।
आपश्चैवापवत्सश्च
पर्जन्योऽग्निर्दितिः क्रमात् ॥ ११ ॥
पदिकानां च वर्गोयमेवं कोणेष्वशेषतः
।
तन्मध्ये विंशतिर्बाह्या
द्विपदास्तेषु सर्वदा ॥ १२ ॥
आपवत्स ये आठ हैं ऐसे ये सब मिलकर
४९ होते हैं और आप,आपवत्स, पर्जन्य, अग्नि, दिति ये क्रम से
चारोंकोण में रहते हैं ऐसे यह पदिकों का वर्ग कहाता है तिनके मध्य में बीस देवता
बाह्य हैं। ये सदा द्विपद कहे हैं ।
अर्यमा च विवस्वांश्च मित्रः
पृथ्वीधराह्वयः ।।
अह्मणः परितो दिक्षु
चत्वारस्त्रिदशाः स्मृताः ।। १३ ।।
अर्यमा,
विवस्वान्, मित्र, पृथ्वीधर
ये ब्रह्मा से चारों तरफ त्रिंपद संज्ञक कहे; ।। १३ ॥
ब्रह्माणं च
तथैकद्वित्रिपदानर्चयेत्सुरान् ।
वास्तुमंत्रेण
वास्तुज्ञो दूर्वादध्यक्षतादिभिः ॥ १४ ॥
सो वहां ब्रह्मा को और एकपदिक,
द्विपदिक, त्रिपदिक, देवताओं
को पूजै वस्तु को जाननेवाला द्विज वास्तु मंत्र से दूर्वा, अक्षत,
दही, आदिकों से वास्तु का पूजन करें ॥ १४॥
ब्रह्ममंत्रेण वां
श्वेतवस्त्रयुग्मं प्रदापयेत् ॥
तांबूलं
च ततो दत्वा प्रार्थयेद्वास्तुपूरुषम् ॥ १५ ॥
ब्रह्मा के मंत्र से दो सफेद वस्त्र
चढावे और तांबूल चढाकर वास्तुपुरुष की प्रार्थना करें ॥ १५ ॥
आवाहनादिसर्वोपचारांश्च क्रमशस्तथा
॥
नैवेद्यं विविधान्नेन वाद्याद्यैश्च
समर्पयेत् ॥ १६॥
आवाहन आदि सम्पूर्ण उपचार क्रम से
करने चाहियें । नैवेद्य अनेक प्रकार के भोजन चढाकर अनेक प्रकार को बाजे बजवाकर
समपर्ण करै ।। १६ ।।
वास्तुपुरुष नमस्तेस्तु भूशय्याभिरत
प्रभो॥
मद्गृहं
धनधान्यादिसमृद्धं कुरु सर्वदा ॥ १७॥
भूमिी शय्या पर अभिरत रहनेवाले हे
प्रभो ! तुमको नमस्कार है । मेरे घर को सदा धनधान्य से भरपूर करो ॥ १७ ॥
इति प्रार्थ्य यथाशक्त्या
दक्षिणामर्चकाय च ॥
दद्यात्तदग्रे विप्रेभ्यो भोजनं च
स्वशक्तितः ॥ १८ ॥
ऐसी प्रार्थना कर शक्ति के अनुसार
यजन करानेवाले ब्राह्मण को दक्षिणा देवे और तिन देवताओं के सन्मुख बिठाकर श्रद्धा के
अनुसार बाह्मणों को भोजन करावे ॥ १८ ॥
अनेन विधिना सम्यग्वास्तुपूजां
करोति यः ।
आरोग्यं
पुत्रलाभं च धनं धान्यं लभेत सः ॥ १९॥
इस विधि से अच्छे प्रकार से जो पुरुष
वास्तुपूजा करता है वह आरोग्य, पुत्र,
धन धान्य, इनको प्राप्त होता है ।
अकपाष्टमनाच्छन्नमदत्तबलिभोजनम् ॥
गृहं न प्रविशेदेव विपदामाकरं हि
तत् ।। २० ।।
बिना किवाड़ोंवाला,
बिना ढका हुआ, और जिसमें बलिदान तथा
ब्रह्मभोज्य नहीं हुआ हो ऐसे स्थान में प्रवेश नहीं करना। चाहिये क्योंकि वह
विपत्तियों का खजाना है ।। २० ।।
इति श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां
वास्तुलक्षणाध्याय एकत्रिंशत्तमः ॥ ३१ ॥
आगे पढ़ें- नारदसंहिता अध्याय ३२ ॥
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