स्तम्भन प्रयोग
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है, इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है। श्रीदुर्गा तंत्र इस भाग ४ (८) में नवार्ण मंत्र से षट्कर्म प्रयोग में स्तम्भन प्रयोग बतलाया गया है।
स्तम्भन प्रयोगः
षट्कर्म वशीकरण प्रयोग से आगे
(षट्प्रयोगा स्तम्भनप्रयोगो
यथा ।)
कर्त्तव्यदिवसात्पूर्व॑स्रानार्थ
चिन्तयेद्बुधः ।
दिनानि विंशति वामे पूर्व कार्यो
विधिस्तनो: ॥२१०।॥।
शरीर शोधनं कार्य मदिराक्षि
विनिश्चितम् ।
योषित्पादजरं कान्ते
विवाहास्पर्शवर्जितम् ॥ २११॥
कूपत्रयं सरश्चैकं सरित्तरितसब्नतम्
।
एषां जल समानीय संक्षिपेल्लोहके घटे
॥२१२॥
जम्बीरपत्रमेरण्डहरिद्रापत्रजं जलम्
।
पिष्टा च तण्डुले तोये
कारयेल्ल्लानमद्भुतम् ॥२१३॥
प्रथमो वदरीवृक्षस्तज्जलेन स्वयं
प्रिये ।
त्रिपुंड्रधारणं कृत्वा ललाटे
रक्तचन्दनै: ॥२१४॥
आसनं कुर्वुरं कृत्वा
कर्डुराम्बरधरः स्वयम् ।
तत्र कमलासने तिष्ठदक्षिणस्यां मुखे
कृते ॥२१५॥
कर्तव्य दिन से पूर्व बुद्धिमान
साधक स्नान की चिन्ता करे हे वामे ! बीस दिन पूर्व शरीर की विधि करनी चाहिये । हे
मदिराक्षि ! शरीर का शोधन निश्चित रूप से करना चाहिये । हे कान्ते ! विवाह के दिन
पति के स्पर्श से वर्जित स्त्री (विवाहदिनात् अन्यदिनं
पुरुषहस्तस्पर्शवर्जिताया: पतिसङ्गमवर्जिताया:) के पैर का जल,
तीन कूएँ का जल, एक तालाब का जल, तीन नदियों के सड्गम का जल इन सब जलों को लाकर लोहे के घड़े में डाले । नीबू
के पत्ते, एरंड के पत्ते, हल्दी के
पत्तों के जल को, चावल के जल में पीसकर अद्भुत स्नान करे । हे
प्रिये ! बेर वृक्ष के जल से पहले स्वयं स्नान करे । ललाट में लाल चन्दन से
त्रिपुण्ड धारण करके, चितकबरे आसन पर चितकबरा परिधान धारण कर
कम्बलासन पर दक्षिणाभिमुख स्वयं बैठे ।
श्रृणुष्व चापरं कर्म
भूमिशोधनमुत्तमम् ।
कदलीतोयमाम्रस्य पत्र गुञ्जाफलं
त्वचम् ॥२१६॥
गोमूत्रं कृष्णसरस: सप्त द्विश्व
यथाक्रमम् ।
जलं द्वाभ्यां कराभ्यां च ग्राह्मयं
हरिणजं मलम् ॥२१७॥
स्तम्भने लेपयेद्भूमिं चक्राकारसमन्विताम्
।
भूमिशोधन के उत्तम अन्य कर्म को
सुनो । केले का जल, आम के पत्ते,
घुंघची का फल, दालचीनी, क्रमशः
कृष्ण (काली मिर्च) सात, सरस (दोनों अगर) दोनों हाथों से
कूएँ से निकाला हुआ पानी तथा हरिन के मल, इनसे स्तम्भन कर्म
में गोलाकार भूमि को लीपे ।
मृगरक्त च कर्णोत्यं वामकर्णत्वचां
प्रिये ॥२१८॥।
आग्र बर्बुरकाष्ठ च चन्दनौ
रक्तश्वेतकौ ।
विजया कुटकी शण्ठी सिता च सैन्धवं
शुभे ॥२१९॥
गज्जोदकेन सम्पेष्प लेखनी वंशसम्भवा
।
पश्चांगुलप्रमाणेन कटिनम्रात्स्वयं
लिखेत् ॥२२०॥
हे प्रिये ! हिरन के दाहिने कान का रक्त
तथा उसके बायें कान का चमड़ा, आम का काष्ठ,
बबूल का काष्ठा, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, विजया, कुटकी,
सोंठ, चीनी, सेंधा नमक,
हे शुभे ! इन्हे गङ्गाजल से पीसकर पञ्चागुल प्रमाण बाँस की लेखनी
बनाकर कटिनम्रासन से स्वयं लिखे ।
पूजनं यन्त्रराजस्य जगन्मातुश्शुभे श्रृणु
।
कूपोदक॑ समानीय मिश्रयेत्तदलीजलैः
॥२२१॥
कुशानि नव सम्बध्य मेषकेशेन
निश्चितम् ।
तेनेव स्लापेयेद्यन्त्र प्रीतिपूर्व
शुभानने ॥२२२॥
धूम्रपुष्प॑ गौरिक च हरितालं
मसूरिका ।
गङ्गायास्सिकताशुद्धं शुद्धं
गल्नोदक प्रिये ॥२२३॥
चन्दनौ द्वौ मया प्रोक्तौ मेषीदुग्ध
तथा प्रिये ।
एमिः पूजा प्रकर्थव्या यन्त्रराजस्य
निश्चितम् २२४॥
विस्तृतं न मयोक्तं वै सामान्य कथित
शुभे ।
हे शुभे ! जगन्माता के यन्त्रराज का
पूजन सुनो । कूओं से जल लाकर केले के जल में मिलाये । नव कुशाओं को भेंड़ के बालों
से बाँधकर उसी से प्रीतिपूर्वक यन्त्र को स्नान कराये । तीसी का फूल,
गेरू, हरिताल, मसूर,
हे प्रिये! इन द्रव्यों से निश्चित रूप से
यन्त्रराज की पूजा करनी चाहिये । हे शुभे ! मैंने विस्तार से नहीं कहा है ।
सामान्य रूप से ही कहा है। (पूजन मन्त्र : शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे । सर्वस्यार्तिहरे
देवि नारायणि नमोस्तु से । इति
मन्त्रेण सर्व दद्यात्) ।
अतः परं श्रुणुष्वाद्य विधि धूपस्य
निर्मलम् ॥२२५॥
साधकानां ध्रुवं सिद्धिर्धूपिनिव
प्रजायते ।
स्तम्भने कारणं देवि धूप एवं
निगद्यते ॥२२६॥
धूपमाहाल्यमतुलं डामरे कधितं॑ मया ।
धूपवार्ता न जानन्ति डामरे विमुखा
नराः २२७॥
कथं सिद्धिर्भवेत्तेषां विपरीते
शुभानने ॥२२८॥
अब इसके आगे धूप की निर्मल विधि
सुनो । साधकों को धूप से ही सिद्धि होती है । हे देवि ! स्तम्भन में कारण धूप ही
कहा जाता है । मैंने धूप का अतुल माहात्म्य डामर तन्त्र में कहा है । डामर तन्त्र
से विमुख जन धूप के सम्बंध में नहीं जानते । हे शुभानने ! ऐसे विपरीत लोगों को
सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ?
अर्कबीजं तथा पुष्पं पत्रं मूलं च
काष्ठकम् ।
लवगं हरितालं च हिंगुगैरिकतण्डुलम्
॥२२९॥
बिल्वसारं गुडं तैलं सुगन्धीयं क्चं
तथा ।
नागरं देवदारुं च पीतसर्षपजं मलम्
॥२३०॥
गोघृतं नवनीतं च सिता पूर्गीफलं तथा
।
एतैर्धूपा विशेषेण कर्त्तव्य:
प्राणवल्लभे ॥२३१॥
स्तम्भने कारणं देवि दीप एवं
निगद्यते ।
काष्ठादीपः प्रकर्तव्यस्तैलं
कृष्णतिढुस्य च ॥२३२॥
निम्बतैलं च श्रेष्ठोरु कर्पूरस्य
रसस्तथा ।
शणस्यवर्तिका कार्या
सप्तांगुलप्रमाणिका २३३॥
विलेष्य पृथिवीं वामे पश्चकोणयुतां
शुभाम् ।
पिप्पली लेखनी कार्या
त्रयांगुल्युता प्रिये ॥२३४।॥
लिखेद्यन्त्र विशालाक्षि साधकः
प्रेमतत्परः ।
शक्गतोयं हरिद्रा च जम्बीरस्य
रसस्तथा ॥२३५॥
एभिलिखित्सदा यन्त्र दीपः स्थायश्व
दक्षिणे ।
अंगुलत्रयसंयुक्ते
पूजयेच्छेतचन्दनि: ॥२३६॥।
ध्यायेद्वीपी सदानन्दकारणीं
सिन्धुजा शुभाम् ।
सावर्णिस्सूर्यतनय इति मन्त्रे
निवेदयेत् ॥२३७॥
एवं दीपो मया प्रोक्तो मालायाश्च
विधि श्रृणु ।
मदार का बीज,
मदार का फूल, मदार का पत्र, मदार की जड़, मदार की लकड़ी, लौंग,
हरिताल, हींग, गेरू,
चावल, बेल का गूदा, गुड,
तेल, सुगन्धि, बच,
नागरमोथा, देवदारु, पीली
सरसों का कल्क, गाय का घी, मक्खन,
चीनी तथा सुपारी, हे प्राणवल्लभे ! इनसे धूप
बनाना और 'ज्ञानतोज्ञानतो वापि बलिपूजां तथा कृतांग्रीणि ह्रीं” इस मन्त्र से
धूप देना चाहिये । हे देवि ! स्तम्भन में कारण दीप ही कहा जाता है । काठ का दीप
बनना चाहिये तथा उसमें काले तिल का तेल, नीम का तेल तथा कपूर
का रस डालकर सात अंगुल लम्बी सन की बत्ती बनानी चाहिये । हे वामे ! पाँच कोण युक्त
शुभ भूमि को लीपकर तीन अंगुल लम्बी पीपल की लेखनी बनानी चाहिये। हे विशालाक्षि !
साधक प्रेम से तत्पर होकर यन्त्र को लिखे। शङ्ख का जल, हल्दी
तथा जम्बीरी नीबू का रस इनसे सदा यन्त्र लिखना चाहिये, उसके
दायें तीन अंगुल पर दीप को रखना चाहिये तथा सफेद चन्दन से पूजा करनी चाहिये । दीप
सदा आनन्दकारिणी, समुद्र से उत्तन्न शुभ लक्ष्मी का ध्यान
करना चाहिये । 'सावर्णि: सूर्यतनयो यो मनु: कथ्यतेष्टमः ।
निशामय तदुत्पत्ति बिस्तरादुगदतो मम” इस मन्त्र से सब
निवेदित करना चाहिये । इस प्रकार मैंने दीप के बारे में कहा है अब माला की विधि
सुनो ।
स्तम्भने स्फटिकामाला तूलिकासूत्र
ग्रन्थिता २३८ ॥
चण्डिकायै यन्त्रराजे अर्चयित्वा च
वीटकम् ।
पश्चादेकैकमुद्धृत्य चर्वयेच्छनकः
सुधीः ॥ २३९॥
यावज्जपसमाप्ति: स्यात्तावत्ताम्बूलचर्वणम्
।
स्तम्भन में स्फटिक की माला कपास के
सूत्र में गूथ कर बनानी चाहिये । यन्त्रराज में चण्डिका के लिए पान के बीडे की
पूजा करके बाद में एक-एक उठाकर सुधी साधक को धीरे-धीरे चबाना चाहिये । जब तक जप
समाप्त न हो जाय तब तक पान चबाते रहना चाहिये ।
स्तम्भने षोडश लक्षं वैश्येष्वर्ध
निगद्यते २४० ॥
ब्राह्मणे द्विगुणं देवि
शूद्राणामर्द्धार्डकम् ।
स्त्रीणां च द्विगुणं प्रोक्ते यतः
सा शक्तिरूपिणी २४१ ॥
जपमेव दशांशेन नित्यहोमं च कारयेत्
।
अजाघृतं गोघृतं तु मेषी दुग्धं च
तण्डुलम् ॥ २४२ ॥
तिलमैरण्डबीजं च शणबीजं लवज्जञकम्
।
शष्कुली चणकान्नस्य सितया मिश्रितेन
च ॥ २४३ ॥
काष्ट. चन्दनवृक्षस्य
नवांगुलसमन्वितम् ।
कुण्ड षट्कोणकं कृत्वा
जुहूयादेकमानसः २४४ ॥
स्तम्भन में जप सोलह लाख है । हे
देवि ! वैश्यों में इसका आधा, ब्राह्मण में
दूना तथा शूद्र में चौथाई जप होता है। स्त्री के लिये दूना कहा गया है क्योंकि वह
शक्तिरूपिणी है । 'ॐ ठं ठं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे देवदत्तं ह्रीं वाचं मुखं पदं
स्तम्भय ह्रीं जिह्वां कीलय कीलय ह्रीं बुद्धि विनाशय विनाशय ह्रीं ॐ ठं ठं स्वाहा'
इस मन्त्र का जप करना चाहिये । जप के दशांश से नित्य होम करना
चाहिये। बकरी का घी, गाय का घी, भेंड
का दूध, चावल, तिल, एरण्ड का बीज, शण का बीज, लवङ्ग,
चीनी मिले चने के आटे की पूरी, नव अंगुल
परिमाण चन्दन वृक्ष की समिधों से षट्कोण यज्ञकुण्ड बनाकर एकाग्रचित्त होकर हवन करे
।
स्तम्भने तु मसूरस्य द्विदलं चणकस्य
च ।
तण्डुले मेलयित्वा च भोक्तव्यं
साधकेन वै ॥ २४५॥
तृतीयप्रहें देवि साधकेनैव
निश्चितम् ।
वर्जितं रसराजेन कार्यसिद्धिर्भवेद
ध्रुवम् २४६॥
अभावे भोजन देव्या यत्तद्माप्तं
तदेव हि ।
भोजने क्लेशसंकर्तु: प्रयोगो5 फलदो
भवेत् २४७॥
विधिर्वे मन्त्रराजस्य कथितः
प्राणवल्लभे ।
शैवेन शाक्तविप्रेण कर्तव्यों
निश्चितं प्रिये २४८॥
इति स्तम्भनम् ।
हे देवि ! स्तम्भन में मसूर और चने
की दाल चावल में मिलाकर तीसरे पहर निश्चित रूप से बिना नमक साधक को खाना चाहिये ।
देवी के भोजन में से जो प्राप्त हो उसे ही भोजन करना चाहिये । भोजन में कष्ट उठाने
वाले का प्रयोग असफल होता है । हे प्राणवल्लभे ! मन्त्रराज की यह विधि मैंने बतला
दी है । हे प्रिये ! शैव और शाक्त विप्र साधकों को इसे अवश्य करना चाहिये ।
इति स्तम्भन समाप्त ।
आगे जारी.....
शेष आगे जारी.....श्रीदुर्गा तंत्र नवार्णमंत्र षट्कर्म में विद्वेषणप्रयोग भाग ४ (९) ।
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