दुर्गातंत्र - दुर्गाष्टाक्षरमंत्रप्रयोग
श्रीदुर्गा तंत्र यह दुर्गा का
सारसर्वस्व है । इस तन्त्र में देवीरहस्य कहा गया है। दुर्गातंत्र के इस भाग 2 में
दुर्गाष्टाक्षरमंत्रप्रयोग बतलाया गया है
इसे मन्त्रमहार्णव(देवी खण्ड) से लिया गया है।
दुर्गातंत्र भाग २ - दुर्गाष्टाक्षरमंत्रप्रयोग
॥ अथ दुर्गाष्टाक्षरमंत्रप्रयोगः ॥
(देवीरहस्यतंत्रे)
नास्यांतरायबाहुल्यं नापि
मित्रारिदुषणम् ॥
नो वा प्रयाससंयोगो
नाचारयुगाविप्लवः ॥१॥
साक्षास्सिद्धिप्रदो मंत्रो
दुर्गायाः कलिनाशनः ॥
अष्टाक्षरोऽष्टसिद्धीशो गोपनीयो
दिगंबरैः ॥२॥
मंत्रो यथा-“ॐ हीं दुं दुर्गायै नमः । " इत्यष्टाक्षरो
देवी रहस्य तन्त्र में कहा गया है
कि इसमें न तो विघ्नों की अधिकता है और न मित्र - अरि के दूषण का शोधन करना है;
न अधिक प्रयत्न करना है न कठिन आचार की आवश्यकता है । यह दुर्गा का
मन्त्र कलि के दोषों का नाश करने वाला साक्षात् सिद्धिदायक है । यह अष्टाक्षर
मन्त्र अष्टसिद्धियों का स्वामी है । दिगम्बरों को चाहिये कि इसको गुप्त रक्खें ॥ १-२
॥
मन्त्र इस प्रकार है : “ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः ।'
इसका विधान :
॥ विनियोग ॥
ॐ अस्य श्रीदुर्गाष्टाक्षरमंत्रस्य
महेश्वर ऋषिः । श्रीदुर्गाष्टाक्षरात्मिका देवता । दु बीजम् । ह्रीं शक्तिः ॐ
कीलकाय नम इति दिग्बंधः । धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः ॥
॥ ऋष्यादिन्यास ॥
ॐ महेश्वरऋषये नमः शिरसि ॥१॥
अनुष्टुप्छंदसे नमःमुखे॥२॥ श्रीदुर्गाष्टाक्षरात्मिकादेवतायै नमो हृदि ॥ ३॥ दुं
बीजाय नमो नाभौ ॥४॥ ह्रीं शकये नमो गो ॥५॥ काकीलकाय नमः पादयोः॥६॥ नमो दिग्बंधः
इति सर्वाङ्गे ॥ ७॥ इति ऋष्यादिन्यासः॥
॥ करन्यास ॥
ॐ ह्रां अंगुठाभ्यां नमः॥१॥ ह्रीं
तर्जनीभ्यां नमः ॥ २॥ ॐह्रूं मध्यमाभ्यां नमः ॥३॥ ॐह्रैं अनामिकाभ्यां नमः॥४॥ ॐ
ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः॥५॥ॐ ह्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः॥६॥ इति करन्यासः ॥
॥ हृदयादिषडंगन्यास ॥
ॐ ह्रां हृदयाय नमः ॥ १॥ ॐ ह्रीं
शिरसे स्वाहा । ॥२॥ॐह्रूं शिखायै वषट् ॥ ३ ॥ ॐ ह्रैं कवचाय हुम् ॥ ४॥ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ॥५॥ ॐ ह्र: अस्त्राय फट् ॥ ६
॥ इति हृदयादिषडंगन्यासः ॥
॥ वर्णन्यास
॥
ॐ नमः शिरसि ॥१॥ ॐ ह्रीं नमो मुखे
॥२॥ ॐदुं नमो वक्षसि ॥३॥ ॐ गां नमो नाभौ ॥ ॐ यैं नमः पृष्ठे ॥ ५॥ ॐ नं नमो जान्वोः
॥६॥ ॐ मः नमः पादयोः ॥७॥ इति वर्णन्यासः ॥
॥ तत्वन्यास ॥
ॐ आत्मतत्वाय नमः शिरसि ॥१॥ॐ ह्रीं
विद्यात स्वाय नमो मुखे ॥२॥ ॐ दुं शिवतत्त्वाय नमो हृदि ॥३॥ ॐ गुरुतत्त्वाय नमो
नाभौ ॥४॥ ॐ ह्रीं शक्तितत्त्वाय नमः जंघयोः ॥ ५ ॥ॐ दु शिवशक्तितत्त्वाय नमः पादयोः
॥६॥ इति तत्वन्यासः ॥
॥ मातृकान्यास ॥
ॐ अं आं कं खं गं घं ङं इं ईं
हृदयाय नमः॥१॥ ॐ ह्रीं उं ऊं चं छं जं झं ञं ऋं ऋॄं शिरसे स्वाहा ॥२॥ ॐ दुं लृं टं
ठं डं ढं णं लृं शिखायै वषट् ॥३॥ ॐ गां एं तं थं दं धं नं ऐं कवचाय हुम् ॥४॥ ॐ यैं
ओं पं फं बं भं मं औं नेत्रत्रयाय वौषट् ॥५॥ ॐ नमः अं यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं
अ: अस्त्राय फट् ॥६॥ इति शुद्धमातृकान्यासः ॥
एवं करन्यासं कुर्यात् ॥ततः
पद्धतिमार्गेण देवीकलामातृका विन्यस्य पूर्वोक्तषडंगं कृत्वा ध्यायेत् ॥
इसी प्रकार करन्यास करना चाहिये। उसके
बाद पद्धति मार्ग से देवीकलामातृका का विन्यास और पूर्वोक्त षडङ्गन्यास करके ध्यान
करें।
अथ ध्यानम् ॥
दूर्वानिभां त्रिनयनां
विलसत्किरीटां शंखाजखड्गशरखेटकशूलचापान् ।
संतर्जनीं च दधतीं महिषासनस्थां
दुर्गा नवारकुलपौठगतां भजेऽहम् ॥ १॥
इति ध्यात्वा मानसोपचारैः संपूज्य
ततः सर्वतोभद्रमंडले पीठपूजा विधाय मंडूकादिपीठदेवताः पद्धतिमार्गेण संस्थाप्य
नवपीठशक्ति: पूजयेत् ॥
इससे ध्यान करके,
मानसोपचारों से पूजा करके सर्वतोभद्र मण्डल में पीठ पूजा करके,
मण्डूकादि पीठ - देवताओं को पद्धतिमार्ग से संस्थापित करके नव
पीठशक्तियों की इस प्रकार पूजा करें ॥ १ -९॥
तद्यथा-ॐ प्रभायै नमः॥१॥ॐ मायायै
नमः॥२॥ॐ जयायै नमः ॥३॥ ॐ सूक्ष्मायै नमः॥ ४॥ ॐ विशुद्धायै नमः ॥ ५॥ ॐ नंदिन्यै नमः
॥६॥ ॐ सुप्रभायै नमः ॥७॥ ॐ विजयायै नमः॥८॥ ॐ सर्वसिद्धिदायै नमः ॥९॥ इति पूजयेत् ॥
ततः स्वर्णादिनिर्मितं यंत्रपत्रं
ताम्रपाने निधाय घृतेनाभ्यज्य तदुपरि दुग्धधारां जलधारां च दत्त्वा स्वच्छवस्त्रेण
संशोप्य तस्योपरि श्रीचक्रं चतुर त्रिवृत्तमष्टदलं वृत्तं षडलं त्रिकोणं
विंद्वात्मकयंत्रमष्टगंधेन विलिख्य ॐ ह्रीं वजूनखदंष्ट्रायुधाय महासिंहाय फट् ॥
इति मंत्रेण पुष्पायासनं दत्त्वा
पीठमध्ये संस्थाप्य प्रतिष्ठां च कृत्वा मूलेन । मूर्ति प्रकल्प्य
पुनावावाहनादिपुष्पांतैरुपचारैः संपूज्य देव्याज्ञया आवरणपूजां कुर्यात् ॥
इसके बाद स्वर्णादि से निर्मित
यन्त्रपत्र को ताम्रपात्र में रख कर घी से उसका अभ्यङ्ग करके उसके ऊपर दूध की धारा
तथा जल की धारा देकर स्वच्छ वस्त्र से सुखाकर उसके ऊपर चार द्वार वाले,
तीन वृत्त वाले, आठ कमलों वाले, गोलाकार, षट्कोण, त्रिकोण,
और विन्दुमय श्रीचक्र को अष्टगन्ध से लिखकर “ॐ
ह्रीं वज्रनख दंष्ट्रायुधाय महासिंहाय फट् इस मन्त्र से पुष्पाद्यासन देकर पीठ के
बीच में स्थापित करके उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके मूलमन्त्र से मूर्ति की कल्पना
करके पुनः ध्यान करके आवाहन से लेकर पुष्पांजलिदान तक उपचारों से पूजा करके देवी
की आज्ञा से इस प्रकार आवरण पूजा करे :
तद्यथा-पुष्पांजलिमादाय
ॐ संविन्मये परे देवि
परामृतरसप्रिये ॥
अनुज्ञां देहि मे दुर्गे
परिवारार्चनाय ते ॥ १॥
ॐ ह्रीं दुं सर्वसिद्धिप्रदाय
श्रीचक्राय नमः ॥ इति । पुष्पांजलि दद्यात् ॥
पुष्पांजलि लेकर “ॐ संविन्मये परे देवि परामृतरसप्रिये । अनुज्ञां देहि मे दुर्गे
परिवारार्चनाय मे ॥१॥ ह्रीं दुं सर्वसिद्धिप्रदाय श्रीचक्राय नमः ।” इससे पुष्पांजलि दें ।
इत्याज्ञां गृहीत्वा आवरणपूजामारभेत
॥
इस प्रकार आज्ञा लेकर आवरण पूजा
करें।(दुर्गायंत्र देखे)
तद्यथा-भूपुराभ्यंतरे
पूर्वादिचतुर्दिक्षु
आवरण पूजा : भुपूर के भीतर पूर्वादि
चारों दिशाओं में -
ॐ ह्रीं दुं गं गणेशाय नमः ॥ गणेशश्रीपादुका
पूजयामि तर्पयामि नमः इति सर्वत्र ॥१॥
ॐ हौं कुमाराय नमः कुमारश्रीपा० ॥२॥
ॐ प्रीं पुष्पदंताय नमः
पुष्पदंतश्रीपा०॥३॥
ॐ वें विकर्तनाय नमः विकर्तनश्रीपा०
॥४॥
इति द्वारपालान् संपूजयेत् ॥ ततः
पुष्पांजलिमादाय मूलमुच्चार्य ॥
ॐ अभीष्टसिद्धिं मे देहि
शरणागतवत्सले ॥ भक्त्या समर्पये तुभ्यं प्रथमावरणार्चनम् ॥१॥
इति पठित्वा पुष्पांजलि च दत्त्वा
विशेषार्घाद्विदं निक्षिप्य पूजितास्तर्पिताः संतु इति वदेव ॥ इति प्रथमावरणम् ॥१॥
इस प्रकार द्वारपालों की पूजा करके
पुष्पांजलि लेकर मूलमन्त्र व “अभीष्टसिद्धि .......प्रथमावरणार्चनम्”
यह पढ़कर पुष्पांजलि देकर विशेष अर्घ से जल बिन्दु डालकर “पूजितास्तर्पिताः सन्तु'” यह कहे ॥१ ॥
ततोऽष्टदले पूज्यपूजकयोरंतराले
प्राचीन तदनुसारेण अन्या दिशः प्रकल्प्य प्राचीक्रमेण वामावर्तेन च
इसके बाद अष्टदलों में पूज्य - पूजक
के बीच पूर्व दिशा को अन्तराल मानकर तदनुसार अन्य दिशाओं की कल्पना करके पूर्व
दिशा से आरम्भ कर वामावर्त क्रम से
ॐ ब्राह्यै नमः ब्राह्मीश्री० ॥१॥ ॐ
नारायण्यै नमः नारायणीश्री०॥२॥ ॐ चामुंडायै नमः चामुण्डाश्री० ॥३॥ ॐ अपराजितायै
नमः अपराजिताश्री० ॥॥ ॐ माहेश्वर्य्ये नमः माहेश्वरीश्री०॥५॥ ॐ कौमार्यै नमः
कौमारीश्री०॥६॥ ॐ वाराह्मै नमः वाराहीश्री० ॥७॥ ॐ नारसिंह्यै नमः । नारसिंहीश्री०
॥ ८ ॥ इत्यष्टौ संपूज्य पुष्पांजलिमादाय मूलमुच्चार्य "अभीष्टसि०" ॐ
ह्रीं दुं सर्वाशापूरकाय श्रीचक्राय नमः॥इति पुष्पांजाल दद्यात्॥इति
द्वितीयावरणम्॥२॥
इन आठों की पूजा कर पुष्पांजलि लेकर
मूल का उच्चारण करके “अभीष्टसि०......
श्रीचक्राय नमः” । इस प्रकार पुष्पांजलि दे । इति द्वितीयावरणम्
॥ २ ॥
ततोऽष्टदलामेषु प्राचीक्रमेण
वामावर्तेन च ।
इसके बाद अष्टदलाग्रों में पूर्व
दिशा से आरम्भ कर वामावर्त क्रम से
ॐ असितांगभैरवाय नमः। असिगांगभैरवश्री०॥१॥ॐ
रुरुभैरवाय नमः । रुरुभैरवश्री० ॥२॥ ॐ चंडभैरवाय नमः। चंडभैरवश्री० ॥३॥ ॐ
क्रोधभैरवाय नमः । क्रोध भैरवश्री०॥४॥ ॐ उन्मत्तभैरवाय नमः । उन्मत्तभैरवश्री० ॥ ५
॥ ॐ कपालभैरवाय नमः । कपालभैरवश्री०॥६॥ ॐ भीषणभैरवाय नमः । भीषणभैरवश्री०॥७॥ ॐ
संहारभैरवाय नमः । संहारभैरवश्री०॥८॥
इत्यष्टो भैरवान्पूजयित्वा
पूर्वोक्तं पुष्पांजलिं च दद्यात् । इति तृतीयावरणम् ॥ ३॥
इस प्रकार आठ भैरवों का पूजन करके
पूर्वोक्त पुष्पांजलि दे। इति तृतीयावरण ॥ ३ ॥
ततः नवकोणे देव्यग्निकोणमारभ्य
वामावर्तन च।
इसके बाद नव कोण में देव्यग्निकोण
से आरम्भ कर वामावर्त क्रम से-
ॐ शैलपुत्र्यै नमः ।
शैलपुत्रीश्रीपा०॥१॥ ॐ ब्रह्मचारिण्यै नमः। ब्रह्मचारिणीश्रीपा०॥ २॥ ॐ चंडघंटायै
नमः । चंडघंटाश्रीपा० ॥३॥ ॐ कुष्माण्डायै नमः । कुष्मांडाश्री०॥४॥ ॐ स्कंदमात्रे
नमः । स्कंदमातृश्री०॥५॥ ॐ कात्यायन्यै नमः। कात्यायनीश्रीपा०॥६॥ ॐ कालरात्र्यै
नमः। कालरात्रिश्रीपा०॥७॥ॐ महागौर्यै नमः।
महागौरीश्री० ॥ ८॥ ॐ सिद्धिदायै नमः । सिद्धिदाश्रीपा० ॥ ९ ॥ इति संपूज्य'
अभीष्ट०' ॐ ह्रीं दुं अष्टसिद्धिदाय
श्रीचक्राय नमः॥ इति दूर्वादलांजलिं च दद्यात् ॥ इति चतुर्थावरणम् ॥४॥
इस प्रकार पूजा करके “अभीष्ट........ श्रीचक्राय नमः । इससे दूर्वादलांजलिं दे। इति चतुर्थावरण
॥ ४॥
ततो वृत्ते पूर्वादिक्रमेण
वामावर्तेन च ॥
इसके बाद वृत्त में पूर्वादिक्रम से
वामावर्त्त क्रम से-
ॐ अंबिकायै नमः अंबिकाश्रीपादुकां
पूजयामि तर्पयामि नमः॥१॥ ॐ अष्टाक्षरायै नमः अष्टाक्षराश्रीपा०॥२॥ अष्टभुजायै नमः
अष्टभुजाश्रीपा०॥३॥ ॐ नीलकंठायै नमः नीलकंठाश्रीपा०॥४॥ ॐ जगदंबिकायै नमः
जगदंबिकाश्री०॥५॥ इति संपूज्य पुष्पांजलिं च दद्यात् ॥ इति पंचमावरणम् ॥५॥
इससे पूजन करके पुष्पांजलि देवे। इति
पश्चमावरण ॥ ५॥
ततो वृत्ते प्राचीक्रमेण .
वामावर्तेन च।
इसके बाद वृत्त में प्राचीक्रम से
वामावर्त
ॐ शंखाय नमः॥१॥ॐ पद्मायनमः॥२॥ ॐ खङ्गाय
नमः॥ ३ ॥ॐ बाणेभ्यो नमः ॥५॥ॐ धनुषे नमः ॥ ५॥ ॐ खेटकाय नमः॥६॥ॐ शूलाय नमः ॥ ७ ॥ ॐ
तर्जन्यै नमः ॥ ८॥ इत्यत्राणि संपूज्य पुष्पांजलिं च दद्यात् ॥ इति षष्ठावरणम् ॥६॥
इससे अस्त्रों का पूजन करके
पुष्पांजलि दे। इति षष्ठावरण ॥६ ॥
ततो भूपुरे पूर्वादिकमेण ।
इसके बाद भूपुर में पूर्वादिक्रम से-
ॐ लं इन्द्राय नमः ॥१॥ॐ रं अग्नये
नमः ॥ २ ॥ ॐ मं यमाय नमः ॥ ३॥ ॐ क्षं निर्ऋतये नमः॥४॥ ॐ वं वरुणाय नमः ॥ ५॥ ॐ यं
वायवे नमः ॥६॥ॐ कुं कुबेराय नमः ॥७॥ॐ हं ईशानाय नमः॥८॥ॐ आं ब्रह्मणे नमः॥ ९॥ ॐ
ह्रीं अनंताय नमः ॥ १० ॥
तदा इन्द्रादिसमीपे
उसके बाहर इन्द्रादि के समीप
ॐ वं वज्राय नमः॥१॥ ॐ शं शक्तये नमः
॥२॥ ॐ दं दंडाय नमः ॥३॥ ॐ खं खगाय नमः ॥४॥ ॐ पां पाशाय नमः॥५॥ ॐ अं अंकुशाय नमः
॥६॥ ॐ गं गदायै नमेः ॥७॥ ॐ त्रिं त्रिशुलाय नमः ॥८॥ ॐ पं पद्माय नमः॥ ९ ॥ ॐ चं
चक्राय नमः ॥ १० ॥
इति इन्द्रादिदशदिक्पालान्
वज्राद्यायुधानि च संपूज्य पुष्पांजलिं च दद्यात् । इति सप्तमावरणम् ॥७॥
इससे इन्द्रादि दश दिक्पालों तथा
वज़ादि आयुधों का पूजन करके पुष्पांजलि दे । इति सप्तमावरण ॥ ७॥
इत्यावरणपूजां कृत्वा धूपादिनमस्कारांतं
संपूज्य षडंगं कृत्वा पुनात्वा देव्यग्रे मालामादाय जपं कुर्यात् ।
अस्य पुरश्चरणमष्टलक्षं चतुर्लक्षं
वा एकलक्षं वा कुर्यात् ॥
तत्तदशांशहोमतर्पणमार्जनब्राह्मणभोजनं
च कुर्यात ।
एवं कृते मन्त्रः सिद्धो भवति
सिद्धे च मंत्र मंत्री प्रयोगान् साध्येत् ।
इस प्रकार आवरण पूजा करके धूपदान से
लेकर नमस्कार पर्यन्त षडङ्ग पूजा करके पुनः ध्यान करके देवी के आगे माला लेकर जप
करे। इसका पुश्चरण आठ लाख, चार लाख या एक लाख
करे। तत्तद्शांश होम, तर्पण, मार्जन
तथा ब्राह्मण - भोजन कराये। ऐसा करने से मन्त्र सिद्ध होता है। मन्त्र के सिद्ध हो
जाने पर साधक प्रयोगों को सिद्ध करे।
तथा च-महाचीनक्रमस्थानां साधकानां
जयावहः॥
मन्त्रराजो महादेवि सयो भोगापवर्गदः
॥१॥
तथा हे महादेवि ! महाचीन की परम्परा
से साधना करने वालों के लिए यह मन्त्रराज शीघ्र ही जय देने वाला तथा भोग और मोक्ष
देनेवाला होता है।
वर्णलक्षं पुरश्चर्या तदध वा
महेश्वरि ॥
एकलक्षावधिं कुर्यान्नातो न्यूनं
कदाचन ॥२॥
यं विधाय कलो मंत्री भवेत्कल्प हमोपमः
॥
ततो मंत्र जपेन्नित्यं दुर्गाया
अष्टसिद्धिवम् ॥ ३ ॥
यं जप्त्वा साधको भूमौ विचरनेरवो
यथा ॥
स्तंभनं मोहनं चैव मारणाकर्षणे
ततः॥४॥
वशीकार तथोच्चाटं शांतिकं पौष्टिकं
तथा ॥
एषां साधनमाचक्षे प्रयागानां
महेश्वरि ॥ ५॥
महा चीनक्रमस्थानां साधकानां हिताय
च॥
अयुतं तु जपेन्मूलं श्मशाने निशि
साधकः ॥६॥
हुनेदशांशतः सपियवान्मांसान्मृग
च्युतान् ॥
स्तंभनं जायते क्षिप्रं
वादिकामिजनांभसाम् ॥ ७॥
अयुतं प्रजपेदेवि बटे
रुद्राक्षमालया ।
होमो दशांशतः कार्यों घृतपमा
क्षपंकजैः॥८॥
आरग्वधैः स्वधामूलैमोहनं जायते
क्षणात् ॥
देवानां दानवानां च का कथाऽल्पधियां
नृणाम् ॥ ९॥
अयुतं । प्रजपेन्मूलं वने
साधकसत्तमः॥
वेतसीमूलगो वापि हुनेत्तत्र
दशांशतः॥ १० ॥
घृतपायसशंबूकान् रिपुमृत्युमुखं
व्रजेत् ॥
अयुतं । प्रजपेद्रात्रौ शून्यागारे
कुलेश्वरि ॥११॥
होमो दशांशतः कार्यों
घृतव्योषधिजीरकः ॥
कपिबीजेरपि प्रातर्भवेदाकर्षणं
स्त्रियाः॥ १२ ॥
अयुते प्रजपेन्मूलं चत्वरे खरित
हुनेत् ॥
आज्याब्जेक्षुरसाखंडरक्तपुष्पाणि
पार्वति ॥ १३ ॥
शकोऽपि वशतामेति किं पुनः ||
क्षुद्रभूमिपः ॥
अयुतं प्रजपेन्मूलं
साधकोऽश्वत्थमूलके ॥१४॥
हुनेदाज्यं दशांशेन केशान्
स्त्रीणां वचः कणान् ॥
रिपुमुच्चाटयेच्छीघं यदि शक्रसमो
भवेत् ॥१५॥
अयुतं प्रजपेन्मूलं सुरद्रुमतले
हुनेत् ॥
घृतांडकुक्कुटांगानि नानापुष्पाणि
पृच्छकः ॥ १६ ॥
रोगोपद्रव कालस्य सद्यः
शांतिभविष्यति ॥
अयुतं प्रजपेन्मूलं लीलोपवनमंडले ॥
१७ ॥
होमो दशांशतः कार्यों
घृतमीनाज्यमस्तकः ॥
पादैरष्टभिरीशानि सद्यः पुष्टिः
प्रजायते ॥ १८॥
हे महेश्वरि ! मन्त्र में जितने
वर्ण हैं उतने लाख या उससे आधा पुरश्चरण करे । कम से कम एक लाख पुरश्नरण करे। इससे
कम पुरश्चरण कभी न करे। इस पुरश्चरण को करके साधक कलियुग में कल्पद्रुम के समान हो
जाता है। इसलिए दुर्गा के मन्त्र का जप अवश्य करे जो आठों सिद्धियों को देने वाला
है। इसका जप करके साधक पृथिवी पर भैरव के समान विचरता है। हे महेश्वरी ! स्तम्भन,
मोहन, मारण, आकर्षण,
वशीकरण, उच्चाटन, शांतिकरण
तथा पुष्टिकरण और इनके प्रयोगों के साधन को मैं कहूंगा । महाचीन की परम्परा से
साधना करने वालों के हित के लिए रात्रि में मूलमंत्र का दश हजार जप साधक को करना
चाहिए । इसका दशांश घी, जव, तथा हिरण
के मांस का हवन करना चाहिये । इससे शीघ्र वादी, जन, कामी जन तथा पानी का स्तम्भन होता है। हे देवि ! वट के नीचे रुद्राक्षमाला
से दश हजार जप करे। उसका दशांश घी तथा पद्माख और कमलों से होम करे। आरग्वंध तथा
स्वधा के मूल से क्षणभर में देव और दानवों का मोहन हो जाता है तब स्वल्पबुद्धि
वाले मनुष्यों की क्या कथा ? साधक वन में वेतसी के मूल में
दश हजार जप करे तथा वहाँ उसका दशांश, घी, खीर, घोंघा, से होम करे तो
शत्रु मृत्यु के मुख में चला जाता है। हे कुलेश्वरी ! सूने घर में रात में दश हजार
जप करे तथा उसका दशांश घी, सोंठ, जीरा
तथा केवाँच के बीजों से होम करे तो प्रायः स्त्री का आकर्षण होता है। हे पार्वती !
चबूतरे पर दश हजार जप करे और तुरन्त घी, कमल, गन्ने के रस, शक्कर तथा लाल फूलों से होम करे तो
इन्द्र भी वश में हो जाता है, साधारण राजा का क्या कहना ।
पीपल के नीचे दश हजार जप करे तथा दशांश से स्त्रियों के केश तथा चमड़े के टुकड़ों
से होम करे तो शीघ्र ही शत्रु का उच्चाटन होता है चाहे वह इन्द्र के ही समान क्यों
न हो । प्रश्नकर्त्ता देववृक्ष के नीचे दश हजार जप करे तथा घी, मुर्गे का अण्डा, नाना प्रकार के फूलों का होम करे
तो रोग तथा उपद्रवकाल की शीघ्र शांति होती है। लीला उपवन में मूल मन्त्र का दश
हजार जप करे तथा दशांश घी, मछली, बकरे
के सिर में होम करे तो हे ईशानि ! आठ चरणों में शीघ्र पुष्टि होती है।
(शारदातिलके)
राजा विजयते शत्रुन् साधको
विजयश्रियम् ॥
प्राप्नोति रोगी दीर्घायुः
सर्वव्याधिविवर्जितः ॥ १९ ॥
वंध्याभिषिक्ता विधिना लभते तनयं
वरम् ॥
मंत्रेणानेन संजतमाज्यं
क्षद्रवरापहम . ॥ २० ॥
गर्भिणीनां विशेषेण जप्तं भस्मादिकं
ततः ॥ २१ ॥
इति श्रीदवीरहस्यतंत्र भीदुर्गाष्टिक्षरमंत्रप्रयोगः
॥3 ॥
शारदातिलक में कहा गया है : राजा
शत्रु पर विजय प्राप्त कर लेता है। साधक विजय और लक्ष्मी को पा जाता है। रोगी
दीर्घायुष्य पाता है और वह सभी व्याधियों से रहित हो जाता है। वन्ध्या स्त्री भी
विधिपूर्वक अभिषिक्त होने पर पुत्र को प्राप्त करती है । इस मन्त्र से अभिमंत्रित
घी क्षुद्र ज्वर का नाशक होता है। गर्भिणी स्त्रियों के लिए विशेष रूप से इन
मन्त्र से अभिमंत्रित भस्म आदि रोगवाधा-नाशक होता है।
इति श्री देवीरहस्य तन्त्रोक्त
दुर्गा अक्षर मन्त्र प्रयोग समाप्त।
इति: दुर्गा तंत्र द्वितीय भाग दुर्गाष्टाक्षरमंत्रप्रयोग
॥
शेष जारी.......दुर्गा तंत्र भाग 3 श्रीचंडिकामालामंत्रप्रयोगः ॥
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