नारदसंहिता अध्याय १२
नारदसंहिता अध्याय १२ में गोचर प्रकरण का वर्णन किया गया है।
नारदसंहिता अध्याय १२ गोचर प्रकरण
अथ गोचराध्यायः।
शुभोर्को जन्मतख्यायदशषट्सु न
विध्यते ॥
जन्मतो
नवपंचांबुव्ययगैर्यर्किभिस्तदा ॥ १॥
जन्मराशि से ३ । ११ । १० । ६ इन
स्थानों पर सूर्य हो तो शुभ है परन्तु जन्मराशी से ९ । ५। ४ । १२ इन स्थानों में
कोई ग्रह नहीं हो तो वेध नहीं होता अर्थात् ३ सूर्य शुभ है। परन्तु ९ स्थान में
अन्य कोई ग्रह होय तो वेध हो जाता है ११ शुभ है परन्तु ५ में कोई ग्रह नहीं होना
चाहिये। १० सूर्य हो तब ४ स्थान और ६ सूर्य हो तब जन्मराशि से १२ स्थान में कोई
ग्रह नहीं होना चाहिये। यदि इन स्थानों पर शनि बिना कोई ग्रह होवेगा तो सूर्यवेध
हो जायगा फिर शुभफल नहीं रहेगा ऐसे इन बेध के सब ही स्थानों का यथाक्रम लगा लेना ।
इसी प्रकार चंद्र आदि ग्रहों को भी कहते हैं ॥ १ ॥
विध्यते जन्मतो
नेंदुर्द्यूनाद्यायारिखत्रिषु ।
खेष्वष्टांत्यांबुधर्मस्थैर्विबुधैर्जन्मतः
शुभः ॥ २॥
जन्म राशि से ७।१।११। ६ । १० । ३ इन
स्थानों पर चंद्रमा वेध नहीं करता है याने शुभ है परंतु जन्मराशि से २।५। ८। १२ ।
४ । ९ इन स्थानों पर बुध बिना अन्य कोई ग्रह नहीं होना चाहिये। बुध चंद्रमा का
पुत्र है इसलिये वेध नहीं करता है। इन वेध के स्थानों का परस्पर यथा क्रम देख लेना
चाहिये ।। २ ।।
त्र्याऽऽयारेषु कुजः श्रेष्ठो
जन्मराशेर्न विध्यते ॥
व्ययेष्वर्कग्रहे
साररप्यसूर्य्र्येण जन्मतः ॥ ३ ॥
और ३। ११ । ६ । इन स्थानों पर मंगल
श्रेष्ठ है वेध नहीं करता है परंतु १२ । ५।९ इन स्थानों पर कोई ग्रह नहीं होना
चाहिये और इसे मंगल के ही समान शनि का फल जानना परंतु शनि के उक्त स्थानों में
सूर्य वेध नहीं करता है । ३ ।
ज्ञोव्द्यबध्यऽर्यष्टखायेषु
जन्मतश्च न विध्यते ।
धीत्र्यंकघाऽष्टांत्यखेटैर्जन्मतो
व्यञ्जकैः शुभः ॥ ४ ॥
जन्मराशी से २।४। ६। ८ । १०। ११ इन
स्थानों पर बुध शुभ है वेधित नहीं है परंतु ९।३।९।१।८। १२ । इन स्थानों पर चंद्रमा
विना अन्य कोई ग्रह नहीं होना चाहिये ।। ४ ॥
जन्मतः
स्वायगोक्षास्तेष्वंत्याश्वायजलत्रिगैः ॥
जन्मराशेर्गुरुः श्रेष्ठो
ग्रहैर्यदि न विध्यते ॥ ५ ॥
जन्मराशि से २।११।९।५। ७ इन स्थान पर
बृहस्पति श्रेष्ठ है परंतु जन्मराशि से ही १२।८। ११ । ४ । ३ इन स्थान पर कोई ग्रह
नहीं होना चाहिये ॥ ५ ॥
कुव्द्ययब्धिसुताष्टांकांत्याये
शुक्रो न विध्यते ॥
जन्मभान्मृत्युसप्ताद्यखांकेष्वायारिपुत्रगैः
॥ ६ ॥
और जन्मराशि से १ । २ । ३ ।
४।५।८।९।१२। ११ इन स्थानों पर शुक्र वेधित नहीं है अर्थात् शुभ है परंतु जन्मरशि से
८ । ७ । १ । १० । ९ । ५ । ११ । ६.। ५ स्थानों पर कोई ग्रह नहीं होना चाहिये अर्थात्
१ के शुक्र को ८ और २ को ७ । ३ को १ ऐसे सब स्थान का यथाक्रम वेध समझना चाहिये ॥ ६
॥
न ददाति शुभं किंचिद्रोचरे
वेधसंयुते ॥
तस्माद्वैधं विचार्याथ कथ्यते
तच्छुभाशुभम् ॥७॥
वेध से युक्त हुआ ग्रह कुछ भी शुभ फल
नहीं देता इसलिये ग्रह का वेध विचार के शुभ अशुभ फल कहना चाहिये ॥ ७ ॥
वामवेधविधानेनाप्यशुभोपि ग्रहो शुभः
।
अतस्तान्विविधान्वेधान्विचार्याथ
वदेत्फलम् ॥ ८ ॥
और वामवेध के विधान से अशुभ ग्रह भी
शुभदायक हो जाता है। अर्थात् जैसे १२ सूर्य अशुभ है तहां जन्मराशि से छठे स्थान में
स्थित हुए ग्रहों करके वेध को प्राप्त हो जाय तो शुभ है इसी प्रकार विपरीतता से
वेध होने को वाम वेध कहते हैं इसलिये तिन अनेक प्रकार के वेधों को विचारकर फल कहना
चाहिये ॥ ८ ॥
अज्ञात्वा विविधान्वेधान्यो
ग्रहज्ञो फलं वदेत् ।
स मृषावचनाभाषी हास्यं याति नरः सदा
॥ ९॥
जो ज्योतिषी अनेक प्रकार के वेधों को
जाने बिना फल कहता है वह झूठा वचन कहनेवाला है हास्य को प्राप्त होता है । ॥ ९ ॥
सौम्येक्षितो नेष्टफलः शुभदो
पापवीक्षितः।
निष्फलौ तौ ग्रहौ स्वेन शत्रुणा च
विलोकितः॥ १०॥
अशुभ दायक ग्रह भी शुभग्रहों करके
देखा गया हो तो शुभफल करता है और शुभदायक ग्रह पापग्रहों से दृष्ट हो तथा
शत्रुग्रह से देखा गया हो तो ये दोनों ही यह निष्फल कहे हैं ।। १० ॥
नीचराशिगतः स्वस्य
शत्रुक्षेत्रगतोपि वा ।
शुभाशुभफलं नैवं दद्यादस्तमितोपि वा
।। ११ ।।
नीचराशि पर स्थित हुआ अथवा अपने
शत्रु के घर में प्राप्त हुआ तथा अस्त हुआ ग्रह कुछ भी शुभ अशुभ फल नहीं देता है
।।११॥
ग्रहेषु विषमस्थेषु शांतिं
यत्नात्समाचरेत् ॥
हानिर्वृद्धिर्ग्रहाधीना
तस्मान्पूज्यतमा ग्रहाः ॥ १२ ॥
विषम कहिये अशुभ स्थान में ग्रह
स्थित हो तो यत्न से उनकी शांति करानी चाहिये । हानि तथा वृद्धि ग्रहों के अधीन है
इसलिये ग्रह सदा पूजने चाहियें ॥ १२ ॥
मणिमुक्ताफलं विद्रुमाख्यं
गारुत्मकाह्वयम् ।
पुष्परागं त्वथो वज्रं
नीलगोमेदसंज्ञकम् ।
वैडूर्ये भास्करादीनां तुष्टयै
धार्ये यथाक्रमम् ।। १३ ॥
इति श्रीनारदीयसंहितायां
गोचराध्यायो द्वादशः।।१२।।
माणिक्य,
मोती, मूंगा, गारुत्मक (
हरीजातका रत्न ) पुखराज, हीरा, नीलमणि
( लहसुनियां) गोमेद, वैडूर्य ये रत्न यथाक्रम धारण करने से
सूर्य आदि ग्रहों की प्रसन्नता होती है ।। १३ ॥
इति
श्रीनारदीयसंहिताभाषाटीकायां गोचराध्यायो द्वादशः।।१२।
शेष जारी........... नारदसंहिता अध्याय १३ चन्द्र और तारा बल ।
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