अभिलाषाष्टक स्तोत्र
इस अभिलाषाष्टक नामक पवित्र स्तोत्र
को तीनों समय भगवान् शिव के समीप यदि पढ़ा जाय तो यह सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाला
है । इस स्तोत्र का पाठ पुत्र, पौत्र और धन
देनेवाला, सब प्रकार की शान्ति करनेवाला और सम्पूर्ण आपत्तियों का नाशक है । इतना
ही नहीं, यह स्वर्ग, मोक्ष तथा
सम्पत्ति देनेवाला भी है । एक वर्ष तक पाठ करने पर यह स्तोत्र पुत्रदान करनेवाला है,
इसमें संदेह नहीं है। ऐसा स्वयं महादेवजी का कथन है ।
अभिलाषाष्टक का स्तोत्र कथा
ऋषिवर विश्वानर की धर्मपत्नी
शुचिष्मती ने अपने पति से प्रार्थना की कि 'मेरे
शिव-समान पुत्र हो।' यह सुनकर विश्वानर क्षण भर तो चुप रहे,
फिर बोले 'एवमस्तु' और
उन्होंने स्वयं ही १२ महीने तक फलाहार, जलाहार और वाय्वाहार के
आधार पर घोर तप किया। फिर काशी जाकर विकरादेवी तथा सिद्धि-विनायक के समीप
चन्द्रकूप में स्नान करके वहीं वीरेश्वर के समीप अभिलाषाष्टक के आठ मंत्रों से
बड़ी श्रद्धापूर्वक स्तुति की। इससे भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये और कुछ ही दिन बाद
विश्वानर की पत्नी शुचिष्मती को गर्भ रह गया। समय आने पर उसने शिवसदृश पुत्र गृहपति
(अग्नि)को जन्म दिया। अत: संतान की कामनावाले पति या पत्नी को चाहिये कि प्रातः
शौच-स्नानादि से निवृत्त हो शिवजी का पूजन करे और इस स्तोत्र का आठ या अट्ठाईस बार
पाठ करे। इस प्रकार एक वर्ष पर्यन्त पाठ करते रहने से पुत्र की प्राप्ति होती है।
मूल स्तोत्र इस प्रकार है
अभिलाषाष्टकम्
अभिलाषाष्टक स्तोत्रम्
एकं ब्रह्मवाद्वितीयं समस्तं
सत्यं सत्यं नेह नानास्ति किञ्चित् ।
एको रुद्रो न द्वितीयोऽवतस्थे
तस्मादेकं त्वां प्रपद्ये महेशम् ॥१॥
यहाँ सब कुछ एकमात्र अद्वितीय
ब्रह्म ही है। यह बात सत्य है, सत्य है। इस विश्व
में भेद या नानात्व कुछ भी नहीं है। इसलिये एक अद्वितीयरूप आप महेश्वर की मैं शरण
लेता हूँ॥१॥
एकः कर्ता त्वं हि विश्वस्य शम्भो
नाना रूपेष्वेकरूपोऽस्यरूपः।
यद्वत्प्रत्यस्वर्क एकोऽप्यनेक-
स्तस्मान्नान्यं त्वां विनेशं
प्रपद्ये ॥२॥
शम्भो! आप रूपरहित अथवा एकरूप होकर
भी जगत्के नाना स्वरूपों में अनेक की भाँति प्रतीत होते हैं। ठीक उसी तरह,
जैसे जल के भिन्न-भिन्न पात्रों में एक ही सूर्य अनेकवत् दृष्टिगोचर
होता है। अत: आपके सिवा और किसी स्वामी की मैं शरण नहीं लेता॥२॥
रज्जौ सर्पः शुक्तिकायां च रूप्यं
नैरः पूरस्तन्मृगाख्ये मरीचौ ।
यद्वत्तद्वद् विश्वगेष प्रपञ्चो
यस्मिन् ज्ञाते तं प्रपद्ये महेशम् ॥३॥
जैसे रज्जु का ज्ञान हो जाने पर
सर्प का भ्रम मिट जाता है, सीपी का बोध होते
ही चाँदी की प्रतीति नष्ट हो जाती है तथा मृगमरीचिका का निश्चय होने पर उसमें
प्रतीत होनेवाला जलप्रवाह असत्य सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार जिनका ज्ञान होने पर
सब ओर प्रतीत होनेवाला यह सम्पर्ण प्रपंच उन्हीं में विलीन हो जाता है, उन महेश्वर
की मैं शरण लेता हूँ॥३॥
तोये शैत्यं दाहकत्वं च वह्नौ
तापो भानौ शीतभानौ प्रसादः।
पुष्पे गन्धो दुग्धमध्ये च सर्पि
र्यत्तच्छम्भो त्वं ततस्त्वां
प्रपद्ये ॥४॥
शम्भो ! जैसे जल में शीतलता,
अग्नि में दाहकता, सूर्य में ताप, चन्द्रमा में आह्लाद, पुष्प में सुगन्ध तथा दूध में
घी स्थित है, उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में आप व्याप्त हैं,
इसलिये मैं आपकी शरण लेता हूँ ॥४॥
शब्दं गृह्णास्यश्रवास्त्वं हि जिघ्रे
रघ्राणस्त्वं व्यंघ्रिरायासि दूरात्
।
व्यक्षः पश्येस्त्वं
रसज्ञोऽप्यजिह्वः
कस्त्वां सम्यग् वेत्त्यतस्त्वां
प्रपद्ये ॥५॥
आप बिना कान के ही शब्द को सुनते
हैं, नासिका के बिना ही सूঁघते हैं, पैरों
के बिना ही दूर से चले आते हैं, नेत्रों के बिना ही देखते और
रसना के बिना ही रस का अनुभव करते हैं, आपको यथार्थरूप से कौन जानता है? अतः मैं आपकी ही शरण लेता हूँ॥५॥
नो वेदस्त्वामीश साक्षाद्धि वेद
नो वा विष्णु! विधाताखिलस्य ।
नो योगीन्द्रा नेन्द्रमुख्याश्च
देवा
भक्तो वेद त्वामतस्त्वां प्रपद्ये
॥६॥
ईश! वेद भी आपके साक्षात् स्वरूप को
नहीं जानता, भगवान् विष्णु, सबके स्रष्टा ब्रह्मा भी आपको नहीं जानते, बड़े-बड़े
योगीश्वर तथा इन्द्र आदि देवता भी आपको यथार्थरूप से नहीं जानते, परंतु आपका भक्त आपकी ही कृपा से आपको जानता है, अतः
मैं आपकी ही शरण लेता हूँ॥६॥
नो ते गोत्रं नेश जन्मापि नाख्या
नो वा रूपं नैव शीलं न देशः।
इत्थंभूतोऽपीश्वरस्त्वं त्रिलोक्याः
सर्वान् कामान् पूरयेस्तद् भजे
त्वाम् ॥७॥
ईश! आपका न कोई गोत्र है,
न जन्म है, न नाम है, न
रूप है, न शील है और न कोई स्थान ही है, ऐसे होते हुए भी आप तीनों लोकों के स्वामी हैं और सभी मनोरथों को पूर्ण
करते हैं, इसीलिये मैं आपकी आराधना करता हूँ॥७॥
त्वत्तः सर्वं त्वं हि सर्वं
स्मरारे
त्वं गौरीशस्त्वं च नग्नोऽतिशान्तः।
त्वं वै वृद्धस्त्वं युवा त्वं च
बाल
स्तत्किं यत्त्वं नास्यतस्त्वां
नतोऽस्मि ॥८॥
कामारे! आपसे ही सब कुछ है,
आप ही सब कुछ हैं, आप ही पार्वतीपति हैं,
आप ही दिगम्बर हैं और अति शान्तस्वरूप हैं, आप
ही वृद्ध हैं, आप ही तरुण हैं और आप ही बालक हैं। कौन-सा ऐसा
तत्त्व है, जो आप नहीं हैं, सब कुछ आप
ही हैं, अतः मैं आपके चरणों में मस्तक नवाता हूँ॥८॥
इति श्री स्कन्दपुराण,
काशीखंड, पूर्वार्ध अ० १० शिव अभिलाषाष्टक
स्त्रोत्र संपूर्ण: ॥
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