गर्भ उपनिषद
गर्भ उपनिषद (संस्कृत: गर्भ उपनिषद)
या गर्भोपनिषत् या गरबोपनिषद "एम्ब्रियो पर गूढ़ सिद्धांत" नाबालिग में
से एक है उपनिषदों, १०८ हिंदू उपनिषद
ग्रंथों के आधुनिक मानवशास्त्र में १७ वें नंबर पर सूचीबद्ध है। इसमें लिखा हुआ
संस्कृत, यह कृष्ण के साथ जुड़ा हुआ है यजुर्वेद कुछ के
द्वारा और एक वेदांत उपनिषद के रूप में जुड़े अथर्ववेद अन्य विद्वानों द्वारा। इसे
३५ में से एक माना जाता है सामन्या (सामान्य) उपनिषद। उपनिषद का अंतिम श्लोक ऋषि
को पाठ की विशेषता देता है पिप्पलाद, लेकिन पाठ की कालक्रम
और लेखक अस्पष्ट है, और जीवित पांडुलिपियां क्षतिग्रस्त हैं,
एक दूसरे के साथ असंगत और अपूर्ण हैं।
गर्भ उपनिषद एक ऐसा पाठ है जो
चिकित्सा और शरीर विज्ञान से संबंधित विषयों पर विशेष रूप से टिप्पणी करता है,
जो गठन और विकास के सिद्धांत से संबंधित है। मानव भ्रूण और जन्म के
बाद मानव शरीर। उपनिषद तत्वों (आवश्यक भागों और सिद्धांतों) और शरीर की विभिन्न
विशेषताओं का विवरण देता है और माँ के गर्भ में भ्रूण के विकास पर विस्तृत विवरण
देता है। पॉल डूसन और अन्य। इस उपनिषद को एक आध्यात्मिक पाठ की तुलना में गरबा या
मानव भ्रूण पर "फिजियोलॉजी या चिकित्सा पर एक मैनुअल" की तरह माना जाता
है, जिसमें एक पारित होने के अपवाद के साथ भ्रूण के बारे में
कई कथन शामिल हैं।' जागरूकता, जिसमें
यह तथ्य भी शामिल है कि भ्रूण को अपने पिछले जन्मों के साथ-साथ अच्छे और बुरे की
सहज ज्ञान है, जिसे वह जन्म की प्रक्रिया के दौरान भूल जाता
है।
पाठ अपनी शैली के लिए उल्लेखनीय है, जहां यह एक प्रस्ताव बताता है, प्रस्ताव को चुनौती देने वाले प्रश्न पूछता है, उसके बाद उन प्रश्नों के उत्तर विकसित करता है और प्रस्तुत करता है। यह मानव जीवन के भ्रूण से वयस्क अवस्था तक मानव शरीर रचना के सापेक्ष माप की गणना और पेशकश करने के लिए भी उल्लेखनीय है।
शब्द गर्भ शाब्दिक अर्थ है "गर्भ" और "गर्भ से संबंधित"। पाठ के शीर्षक का अर्थ है "गर्भ, गर्भ, भ्रूण से संबंधित गूढ़ सिद्धांत"। इसे कहते भी हैं गरबोपनिषद (संस्कृत: गर्भोपनिषद), गर्भ उपनिषद।
गर्भ से संबंध में गर्भ गीता में भी
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश किया है।
॥अथ गर्भोपनिषत्॥
॥ शांतिपाठ ॥
यदर्भोपनिषद्वेद्यं गर्भस्य
स्वात्मबोधकम ।
शरीरापह्नवात्सिद्धं स्वमात्रं कलये
हरिम् ॥
ॐ सह नाववतु ।
सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै
॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसके भावार्थ के लिए सर्वसारोपनिषत्
देखें ।
गर्भ उपनिषद
॥ गर्भोपनिषत्॥
ॐ पञ्चात्मकं पञ्चसु वर्तमानं
षडाश्रयं षड्गुणयोगयुक्तम् ।
तत्सप्तधातु त्रिमलं द्वियोनि
चतुर्विधाहारमयं शरीरं भवति ॥
पञ्चात्मकमिति कस्मात्
पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशमिति ।
अस्मिन्पञ्चात्मके शरीरे का पृथिवी
का आपः किं तेजः को वायुः किमाकाशम् ।
तत्र यत्कठिनं सा पृथिवी यद्रवं ता
आपो यदुष्णं
तत्तेजो यत्सञ्चरति स वायुः
यत्सुषिरं तदाकाशमित्युच्यते ॥
तत्र पृथिवी धारणे आपः पिण्डीकरणे
तेजः प्रकाशने वायुर्गमने आकाशमवकाशप्रदाने ।
पृथक् श्रोत्रे शब्दोपलब्धौ त्वक्
स्पर्शे चक्षुषी रूपे जिह्वा रसने
नासिकाऽऽघ्राणे
उपस्थश्चानन्दनेऽपानमुत्सर्गे बुद्ध्या
बुद्ध्यति मनसा सङ्कल्पयति वाचा
वदति ।
षडाश्रयमिति कस्मात्
मधुराम्ललवणतिक्तकटुकषायरसान्विन्दते ।
षड्जर्षभगान्धारमध्यमपञ्चमधैवतनिषादाश्चेति
।
इष्टानिष्टशब्दसंज्ञाः प्रतिविधाः
सप्तविधा भवन्ति शुक्लो
रक्तः कृष्णो धूम्रः पीतः कपिलः
पाण्डुर इति । ॥ १॥
शरीर पञ्चात्मक,
पाँचों में वर्तमान, छः आश्रयोंवाला, छः गुणों के योग से युक्त, सात धातुओं से निर्मित,
तीन मलों से दूषित, दो योनियों से युक्त तथा
चार प्रकार के आहार से पोषित होता है। पञ्चात्मक कैसे है? पृथिवी,
जल, तेज, वायु, आकाश (इनसे रचा हुआ होनेके कारण) शरीर पञ्चात्मक है। इस शरीर में पृथिवी
क्या है? जल क्या है? तेज क्या है?
वायु क्या है? और आकाश क्या है? इस शरीर में जो कठिन तत्त्व है, वह पृथिवी है। जो
द्रव है, वह जल है: जो उष्ण है। वह तेज है; जो सञ्चार करता है, वह वायु है; जो छिद्र है, वह आकाश कहलाता है। इनमें पृथिवी धारण
करती है, जल एकत्रित करता है, तेज
प्रकाशित करता है, वायु अवयवों को यथास्थान रखता है, आकाश अवकाश प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त श्रोत्र शब्द को ग्रहण करने में,
त्वचा स्पर्श करने में, नेत्र रूप ग्रहण करने में,
जिह्वा रस का आस्वादन करने में, नासिका सूंघने
में, उपस्थ आनन्द लेने में तथा पायु मलोत्सर्ग के कार्य में
लगा रहता है। जीव बुद्धि द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, मन के
द्वारा सङ्कल्प करता है, वाक्-इन्द्रिय से बोलता है। शरीर छ:
आश्रयोंवाला कैसे है? इसलिये कि वह मधुर, अम्ल, लवण, तिक्त, कटु और कषाय इन छ: रसों का आस्वादन करता है। षड्ज, ऋषभ,
गान्धार, मध्यम, पञ्चम,
धैवत और निषाद-ये सप्त स्वर तथा इष्ट, अनिष्ट
और प्रणिधान कारक (प्रणवादि) शब्द मिलाकर दस प्रकार के शब्द (स्वर) होते हैं।
शुक्ल, रक्त, कृष्ण, धूम्र, पीत, कपिल और
पाण्डुर-ये सप्त रूप (रंग) हैं॥१॥
सप्तधातुमिति कस्मात् यदा
देवदत्तस्य द्रव्यादिविषया जायन्ते ॥
परस्परं सौम्यगुणत्वात् षड्विधो रसो
रसाच्छोणितं शोणितान्मांसं
मांसान्मेदो मेदसः स्नावा
स्नानोऽस्थीन्यस्थिभ्यो मज्जा मज्ज्ञः शुक्र
शुक्रशोणितसंयोगादावर्तते गर्भो
हृदि व्यवस्थां नयति ।
हृदयेऽन्तराग्निः अग्निस्थाने
पित्तं पित्तस्थाने वायुः
वायुस्थाने हृदयं
प्राजापत्यात्क्रमात् ॥ २॥
सात धातुओं से निर्मित कैसे है?
जब देवदत्त नामक व्यक्ति को द्रव्य आदि भोग्य-विषय जुड़ते हैं,
तब उनके परस्पर अनुकूल होने के कारण षट्-पदार्थ प्राप्त होते हैं
जिनसे रस बनता है। रस से रुधिर, रुधिर से मांस, मांस से मेद, मेद से स्नायु, स्नायु
से अस्थि, अस्थि से मज्जा और मज्जा से शुक्र—ये सात धातुएँ उत्पन्न होती हैं। पुरुष के शुक्र और स्त्री के रक्त के
संयोग से गर्भ का निर्माण होता है। ये सब धातुएँ हृदय में रहती हैं, हृदय में अन्तराग्नि उत्पन्न होती है, अग्निस्थान में
पित्त, पित्त के स्थान में वायु और वायु से हृदय का निर्माण
सृजन-क्रम से होता है॥२॥
ऋतुकाले सम्प्रयोगादेकरात्रोषितं
कलिलं भवति सप्तरात्रोषितं
बुदबुदं भवति अर्धमासाभ्यन्तरेण
पिण्डो भवति मासाभ्यन्तरेण
कठिनो भवति मासद्वयेन शिरः
सम्पद्यते मासत्रयेण पादप्रवेशो भवति ।
अथ चतुर्थे मासे जठरकटिप्रदेशो भवति
।
पञ्चमे मासे पष्ठवंशो भवति ।
षष्ठे मासे मुखनासिकाक्षिश्रोत्राणि
भवन्ति ।
सप्तमे मासे जीवेन संयुक्तो भवति ।
अष्टमे मासे सर्वसम्पूर्णो भवति ।
पितू रेतोऽतिरिक्तात् पुरुषो भवति ।
मातुः रेतोऽतिरिक्तात्स्त्रियो
भवन्त्युभयो।
जतुल्यत्वान्नपुंसको भवति ।
व्याकुलितमनसोऽन्धाः खञ्जाः कुब्जा
वामना भवन्ति ।
अन्योन्यवायुपरिपीडितशुक्रद्वैध्याइविधा
तनुः स्यात्ततो युग्माः प्रजायन्ते ॥
पञ्चात्मकः समर्थः पञ्चात्मकतेजसेद्धरसश्च
सम्यग्ज्ञानात्
ध्यानात् अक्षरमोङ्कारं चिन्तयति ।
तदेतदेकाक्षरं ज्ञात्वाऽष्टौ
प्रकृतयः षोडश विकाराः शरीरे तस्यैवे देहिनाम् ।
अथ मात्राऽशितपीतनाडीसूत्रगतेन
प्राण आप्यायते ।
अथ नवमे मासि सर्वलक्षणसम्पूर्णो
भवति पूर्वजातीः
स्मरति कृताकृतं च कर्म विभाति
शुभाशुभं च कर्म विन्दति ॥ ३॥
ऋतुकाल में सम्यक् प्रकार से
गर्भाधान होने पर एक रात्रि में शुक्रशोणित के संयोग से कलल बनता है। सात रात में
बुद्बुद बनता है। एक पक्ष में उसका पिण्ड (स्थूल आकार) बनता है। वह एक मास में
कठिन होता है। दो महीनों में वह सिर से युक्त होता है,
तीन महीनों में पैर बनते हैं, पश्चात् चौथे
महीने गुल्फ (पैर की घुट्ठियाँ), पेट तथा कटिप्रदेश तैयार हो
जाते हैं। पाँचवें महीने पीठ की रीढ़ तैयार होती है। छठे महीने मुख, नासिका, नेत्र और श्रोत्र बन जाते हैं। सातवें महीने
जीव से युक्त होता है। आठवें महीने सब लक्षणों से पूर्ण हो जाता है। पिता के शुक्र
की अधिकता से पुत्र, माता के रुधिर की अधिकता से पुत्री तथा
शुक्र और शोणित दोनों के तुल्य होने से नपुंसक संतान उत्पन्न होती है।
व्याकुलचित्त होकर समागम करने से अन्धी, कुबड़ी, लंगड़ा या पंगु तथा बौनी संतान उत्पन्न होती है। परस्पर वायु के संघर्ष से
शुक्र दो भागों में बँटकर सूक्ष्म हो जाता है, उससे युग्म
(जुड़वाँ) संतान उत्पन्न होती है। पञ्चभूतात्मक शरीर के समर्थ-स्वस्थ होने पर
चेतना में पञ्च ज्ञानेन्द्रियात्मक बुद्धि होती है; उससे
गन्ध, रस आदि के ज्ञान होते हैं। वह अविनाशी अक्षर ॐकार का
चिन्तन करता है, तब इस एकाक्षर को जानकर उसी चेतन के शरीर में
आठ प्रकृतियाँ (प्रकृति, महत्-तत्त्व, अहङ्कार
और पाँच तन्मात्राएँ) तथा सोलह विकार (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच स्थूल भूत तथा मन) होते
हैं। पश्चात् माता का खाया हुआ अन्न एवं पिया हुआ जल नाडियों के सुत्रों द्वारा
पहुँचाया जाकर गर्भस्थ शिशु के प्राणों को तृप्त करता है। तदनन्तर नवें महीने वह
ज्ञानेन्द्रिय आदि सभी लक्षणों से पूर्ण हो जाता है। तब वह पूर्व-जन्म का स्मरण
करता है। उसके शुभ-अशुभ कर्म भी उसके सामने आ जाते हैं॥३॥
नानायोनिसहस्राणि दृष्ट्वा चैव ततो
मया ।
आहारा विविधा भुक्ताः पीताश्च
विविधाः स्तनाः ॥
जातस्यैव मृतस्यैव जन्म चैव पुनः
पुनः ।
अहो दुःखोदधौ मग्नः न पश्यामि
प्रतिक्रियाम ॥
यन्मया परिजनस्यार्थे कृतं कर्म
शुभाशुभम् ।
एकाकी तेन दह्यामि गतास्ते फलभोगिनः
॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि सांख्यं
योगं समाश्रये ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम्
॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं
प्रपद्ये महेश्वरम् ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम्
॥
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि तं
प्रपद्ये भगवन्तं नारायणं देवम् ।
अशुभक्षयकर्तारं फलमुक्तिप्रदायकम्
।
यदि योन्यां प्रमुञ्चामि ध्याये
ब्रह्म सनातनम् ॥
अथ जन्तुः स्त्रीयोनिशतं योनिद्वारि
सम्प्राप्तो यन्त्रेणापीड्यमानो
महता दुःखेन जातमात्रस्तु वैष्णवेन
वायुना संस्पृश्यते
तदा न स्मरति जन्ममरणं न च कर्म
शुभाशुभम् ॥ ४॥
तब जीव सोचने लगता है-'मैंने सहस्रों पूर्वजन्मों को देखा, उनमें नाना
प्रकार के भोजन किये, नाना प्रकार के-नाना योनियों के स्तनों
का पान किया। मैं बारम्बार उत्पन्न हुआ, मृत्यु को प्राप्त
हुआ। अपने परिवारवालों के लिये जो मैंने शुभाशुभ कर्म किये, उनको
सोचकर मैं आज यहाँ अकेला दग्ध हो रहा हूँ। उनके भोगों को भोगनेवाले तो चले गये,
मैं यहाँ दुःख के समुद्र में पड़ा कोई उपाय नहीं देख रहा हूँ। यदि
इस योनि से मैं छूट जाऊँगा-इस गर्भ के बाहर निकल गया तो अशुभ कर्मो का नाश
करनेवाले तथा मुक्तिरूप फल को प्रदान करनेवाले महेश्वर के चरणों का आश्रय लूँगा।
यदि मैं योनि से छूट जाऊँगा तो अशुभ कर्मो का नाश करनेवाले और मुक्तिरूप फल प्रदान
करनेवाले भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करूंगा। यदि मैं योनि से छूट जाऊँगा तो अशुभ
कर्मों का नाश करनेवाले और मुक्तिरूप फल प्रदान करनेवाले सांख्य और योग का अभ्यास
करूंगा। यदि मैं इस बार योनि से छूट गया तो मैं ब्रह्म का ध्यान करूंगा। ' पश्चात् वह योनिद्वार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े
कष्ट से जन्म ग्रहण करता है। बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह
अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट
जाते हैं॥४॥
शरीरमिति कस्मात् साक्षादग्नयो
ह्यत्र श्रियन्ते ज्ञानाग्निदर्शनाग्निः कोष्ठाग्निरिति ।
तत्र
कोष्ठाग्निर्नामाशितपीतलेह्यचोष्यं पचतीति ।
दर्शनाग्नी रूपादीनां दर्शनं करोति
।
ज्ञानाग्निः शुभाशुभं च कर्म
विन्दति ।
तत्र त्रीणि स्थानानि भवन्ति हृदये
दक्षिणाग्निरुदरे गार्हपत्यं
मुखमाहवनीयमात्मा यजमानो बुद्धिं
पत्नीं निधाय
मनो ब्रह्मा लोभादयः पशवो
धृतिर्दीक्षा सन्तोषश्च बुद्धीन्द्रियाणि
यज्ञपात्राणि कर्मेन्द्रियाणि
हवींषि शिरः कपालं केशा दर्भा मुखमन्तर्वेदिः
चतुष्कपालं शिरः षोडश
पार्श्वदन्तोष्ठपटलानि सप्तोत्तरं मर्मशतं
साशीतिकं सन्धिशतं सनवकं स्नायुशतं
सप्त शिरासतानि
पञ्च मज्जाशतानि अस्थीनि च ह वै
त्रीणि शतानि
षष्टिश्चार्धचतस्रो रोमाणि कोट्यो
हृदयं पलान्यष्टौ
द्वादश पलानि जिह्वा पित्तप्रस्थं
कफस्याढकं शुक्लं कुडवं मेदः
प्रस्थौ द्वावनियतं
मूत्रपुरीषमाहारपरिमाणात् ।
पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तं
पैप्पलादं मोक्षशास्त्रं परिसमाप्तमिति ॥
देह-पिण्ड का 'शरीर' नाम कैसे होता है? इसलिये
कि ज्ञानाग्नि, दर्शनाग्नि तथा जठराग्नि के रूप में अग्नि
इसमें आश्रय लेता है। इनमें जठराग्नि वह है, जो खाये,
पिये, चाटे और चूसे हुए पदार्थों को पचाता है।
दर्शनाग्नि वह है, जो रूपों को दिखलाता है; ज्ञानाग्नि शुभाशुभ कर्मो को सामने खड़ा कर देता है। अग्नि के शरीर में
तीन स्थान होते हैं- आहवनीय अग्नि मुख में रहता है। गार्हपत्य अग्नि उदर में रहता
है और दक्षिणाग्नि हृदय में रहता है। आत्मा यजमान है, मन
ब्रह्मा है, लोभादि पशु हैं, धैर्य और
संतोष दीक्षाएँ हैं, ज्ञानेन्द्रियाँ यज्ञ के पात्र हैं,
कर्मेन्द्रियाँ हवि (होम करने की सामग्री) हैं, सिर कपाल है, केश दर्भ हैं, मुख
अन्तर्वेदिका है, सिर चतुष्कपाल है, पार्श्व
की दन्तपङ्कियाँ षोडश कपाल हैं, एक सौ सात मर्मस्थान हैं,
एक सौ अस्सी संधियाँ हैं, एक सौ नौ स्नायु हैं,
सात सौ शिराएँ हैं, पाँच सौ मज्जाएँ हैं,
तीन सौ साठ अस्थियाँ हैं, साढ़े चार करोड़ रोम
हैं, आठ पल (तोले) हृदय है, द्वादश पल
(बारह तोला) जिह्वा है, प्रस्थमात्र (एक सेर) पित्त, आढकमात्र (ढाई सेर) कफ, कुडवमात्र (पावभर) शुक्र तथा
दो प्रस्थ (दो सेर) मेद है; इसके अतिरिक्त शरीर में आहार के
परिमाण से मलमूत्र का परिमाण अनियमित होता है। यह पिप्पलाद ऋषि के द्वारा प्रकटित
मोक्षशास्त्र है, पैप्पलाद मोक्षशास्त्र है॥५॥
गर्भ उपनिषद ॥ शान्तिपाठ॥
ॐ सह नाववतु ।
सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै ।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै
॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इसके भावार्थ के लिए कठोपनिषत् देखें।
॥ इति गर्भोपनिषत्समाप्त ॥
॥ गर्भ उपनिषद समाप्त ॥
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