कठोपनिषद प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली
कठोपनिषद के प्रथम अध्याय की प्रथम
वल्ली में वाजश्रवा नामक ऋषि विश्वजीत यज्ञ करते हैं और अपने पुत्र नचिकेता से
यमराज को दान कर देते हैं। नचिकेता यम के पास जाते हैं और यमराज से तीन वरदान
मांगते हैं।
कठोपनिषद अध्याय १ वल्ली १
प्राणी इस धरा-धाम में एक अनंत
शून्य से खाली हांथ आता है और यहाँ पाप-पुण्य,धर्म-अधर्म,लाभ-हानि,धन-दौलत व
रिश्ते-नाते बनाते हुए खाली हांथ पुनः उसी शून्य में वापिस लौट जाता है। जब वह
लौटता है तो भगवान धर्मराज यमराज की सभा में हांथ बांधे अपने पाप-पुण्य का लेखा-जोखा
सुनते हुए खड़ा रहता है। भगवान यमराज को समर्पित यह कठोपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ
शाखा से सम्बन्धित है जिसमे यम और नचिकेता के सम्वाद द्वारा ब्रह्मविद्या का सुंदर
विवेचन किया गया है ।
नचिकेतोपाख्यान सर्वप्रथम तैत्तिरीय
आरण्यक ब्राह्मण के ३.१.८ में प्राप्त होता है ।
कठोपनिषद में २ अध्याय हैं और
प्रत्येक में तीन तीन वल्लियाँ हैं ।
प्रथम अध्याय में ७१ मन्त्र हैं।
द्वितीय अध्याय में ४८ मन्त्र हैं।
दोनों अध्यायों में कुल ११९/१२०
मन्त्र हैं-
प्रथम अध्याय
प्रथम वल्ली २९
द्वितीय वल्ली २५
तृतीय वल्ली १७
कुल-७१ मन्त्र(प्रथम अध्याय)
द्वितीय अध्याय
प्रथम वल्ली १५
द्वितीय वल्ली १५
तृतीय वल्ली १८
कुल -४८ मन्त्र(द्वितीय अध्याय)
नचिकेता वाजश्रवस् का पुत्र है ।
वाजश्रवस् ,वाजश्रवा के पुत्र थे इसीलिए वे वाजश्रवस् कहलाये ।
वाजश्रवा को अरुण भी कहा गया है ।
वाजश्रवा का अर्थ है जिसने वाज
अर्थात अन्न का दान करने से 'श्रव'
अर्थात यश को प्राप्त कर लिया है।
वाजश्रवा के पुत्र वाजश्रवस् थे।
वाजश्रवस् को उद्दालक ,गौतम, आरुणी,द्वायामुष्यायण भी कहा जाता है ।
वाजश्रवा का पुत्र होने के कारण
वाजश्रवस्,और उद्दालक
अरुण (वाजश्रवा का अन्य नाम अरुण)के
पुत्र होने के कारण आरुणि
गौतम वंश में उत्पन्न होने के कारण
गौतम
और द्वयामुष्यायण (जिसके दो पिता
हों)भी बोलते हैं।
वंशावली
वाजश्रवा/अरुण(ये नचिकेता के पिता
वाजश्रवस् के पिता थे)
|
|
वाजश्रवस्/उद्दालक/आरुणि/गौतम/द्वयामुष्यायण(ये
वाजश्रवा/अरुण के पुत्र तथा नचिकेता के पिता थे)
|
|
नचिकेता
वाजश्रवस ने विश्वजित नामक यज्ञ
किया ,विश्वजित को ही सर्ववेदस और
सर्वमेध कहा जाता है ।
कठोपनिषद प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली
कठोपनिषद के प्रथम अध्याय की प्रथम
वल्ली में यम को वैवस्वत कहा गया है।
विवस्वतः अपत्यं पुमान् इति
वैवस्वतं।
यम को सूर्य पुत्र कहा गया है।
नचिकेता यम से तीन वर माँगता है ।
प्रथम वर -पिता की प्रसन्नता
द्वितीय वर -अग्निविद्या का ज्ञान
तृतीय वर -मृत्यु पश्चात
आत्मास्तित्व सम्बन्धी ज्ञान
कठोपनिषद (काठकोपनिषद्) के प्रथम
अध्याय की प्रथम वल्ली उपाख्यान के रुप में यम-नचिकेता के गूढ आत्मज्ञान-संवाद की
मात्र भूमिका है।
इस कठोपनिषद को मानव जीवन के रहते
तो नित्य-प्रति पाठ या श्रवण अवश्य करें और यदि यह संभव न हो तो नरक चतुर्दशी से
यम द्वितीया तक अवश्य ही इसका पाठ या श्रवण अवश्य करें।
कठोपनिषद प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली
शान्तिपाठ
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह
वीर्यं करवावहै।
तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा
विद्विषावहै।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
शब्दार्थ: ॐ =परमात्मा का
प्रतीकात्मक नाम; नौ =हम दोनों (गुरु
और शिष्य) को; सह = साथ-साथ; भुनक्तु =
पालें, पोषित करें; सह =साथ-साथ;
वीर्यं = शक्ति को; करवावहै = प्राप्त करें;
नौ = हम दोनों को; अवधीतम् =पढी हुई विद्या;
तेजस्वि =तेजोमयी; अस्तु =हो; मा विद्विषावहै = (हम दोनों) परस्पर द्वेष न करें।
अर्थ: वह परमात्मा हम दोनों गुरु और
शिष्य की साथ- साथ रक्षा करें, हम
दोनों का साथ- साथ पालन करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त
की हुई विद्या तेजप्रद हो, हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् त्रिविध ताप की शान्ति हो। आध्यात्मिक
ताप (मन के दु:ख) की, अधिभौतिक ताप (दुष्ट जन और हिंसक
प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो।
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।
कठोपनिषद प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली
कठोपनिषद
प्रथम अध्याय
प्रथम वल्ली
ॐ उशन् ह वै वाजश्रवस: सर्ववेदसं
ददौ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥१॥
शब्दार्थ: ॐ = सच्चिदानन्द परमात्मा
का नाम है, जो मंगलकारक एवं
अनिष्टनिवारक है; उशन्= कामनावाला; ह
और वै =पहले से बीते हुए वृत्तान्त को स्मरण कराने के लिए; वाज
=अन्न; श्रव = यश; दानदि के कारण जिसका
यश हो वाजश्रवा कहते हैं; सर्ववेदसं =(विश्वजित् यज्ञ में)
सारा धन; ददौ =दे दिया; तस्य =उसका; नचिकेता= नचिकेता, नाम ह= नाम से, पुत्र आस = पुत्र था।
अर्थ: वाजश्रवस्(उद्दालक) ने यज्ञ
के फल की कामना रखते हुए (विश्वजित यज्ञ में) अपना सब धन दान दे दिया। उद्दालक का
नचिकेता नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र था।
तû(गुं)ह कुमारû(गुं) सन्तं दक्षिणासु नीयमानसु श्रद्धा
आविवेश सोऽमन्यत ॥२॥
शब्दार्थ: दक्षिणासु नीयमानासु =दक्षिणा
के रुप में देने के लिए गौओं को ले जाते समय में;
कुमारम् सन्तम् =छोटा बालक होते हुए भी; तम् ह
श्रद्धा आविवेश =उस (नचिकेता) पर श्रद्धाभाव (पवित्रभाव, ज्ञान-चेतना)
का आवेश हो गया। स: अमन्यत = उसने विचार किया।
अर्थ: जिस समय दक्षिणा के लिए गौओं
को ले जाया जा रहा था, तब छोटा बालक
होते हुए भी उस नचिकेता में श्रद्धाभाव (ज्ञान-चेतना, सात्त्विक-भाव)
उत्पन्न हो गया तथा उसने चिन्तन-मनन प्रारंभ कर दिया।
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा
निरिन्द्रिया:।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति
ता ददत् ॥३॥
शब्दार्थ: पीतोदका: जो (अन्तिम बार)
जल पी चुकी हैं; जग्धतृणा: =जो
तिनके (घास )खा चुकी हैं;दुग्धदोहा: =जिनका दूध (अन्तिम बार
)दुहा जा चुका है; निरिन्द्रिया: = जिनकी इन्द्रियां सशक्त
नहीं रही हैं, शिथिल हो चुकी हैं; ता:
ददत्= उन्हें देनेवाला; अनन्दा नाम ते लोका:= आनन्द-रहित जो
वे लोक हैं; स तान् गच्छति= वह उन लोको को जाता है।
अर्थ: (ऐसी गौएं) जो (अन्तिम बार)जल
पी चुकी हैं, जो घास खा चुकी हैं,
जिनका दूध दुहा जा चुका है, जो मानोज
इन्द्रियरहित (जिनकी प्रजनन क्षमता समाप्त) हो गयी है, अर्थात
ऐसी गौएं मरणासन्न हो गया हो। उनको
देनवाला उन लोको को प्राप्त होता है, जो आनन्दशून्य हैं।
स होवाच पितरं तत कस्मै मां
दास्यतीति।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे
त्वा ददामीति॥४॥
शब्दार्थ: स ह पितरं उवाच =वह (यह
सोचकर)पिता से बोला; तत (तात)= हे प्रिय
पिता; मां कस्मै दास्यति इति = मुझे किसको देंगे? द्वितीयं तृतीयं तं ह उवाच = दूसरी, तीसरी बार (कहने
पर) उससे (पिता ने) कहा; त्वा मृत्यवे ददामि इति =तुझे मैं
मृत्यु को देता हूं।
अर्थ: वह ( नचिकेता) ऐसा विचार कर पिता से बोला-हे
तात, आप मुझे किसको देंगे? दूसरी, तीसरी बार (यों कहने पर )उससे पिता ने
कहा-तुझे मैं मृत्यु को देता हूं।
बहूनामेमि प्रथमों बहूनामेमि
मध्यम:।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य
करिष्यति ॥५॥
शब्दार्थ: बहूनां प्रथमो एमि = बहुत
से (शिष्यों )में तो प्रथम चलता आ रहा हूं;बहूनां मध्यम: एमि =बहुत से (शिष्यों मे) मध्यम श्रेणी के अन्तर्गत चलता आ
रहा हूं;यमस्य =यम का; किम् स्वित्
कर्तव्य् = (यम का) कौन-सा कार्य हो सकता है; यत् अद्य= जिसे
आज;मया करिष्यति =(पिताजी) मेरे द्वारा (मुझे देकर) करेंगे।
अर्थ: (व्यक्तियों की तीन श्रेणियां होती हैं-उत्तम,
मध्यम और अधम अथवा प्रथम, द्वितीय, और तृतीय) मैं बहुत से (शिष्यों एवं पुत्रों में) प्रथम श्रेणी में आ रहा
हूं, बहुत से मे द्वितीय श्रेणी में रहा हूं। यम का कौन सा
ऐसा कार्य है, जिसे पिताजी मेरे द्वारा (मुझे देकर) करेंगे?
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य
तथापरे।
सस्यमिव मर्त्य: पच्यते
सस्यमिवाजायते पुन: ॥६॥
शब्दार्थ: पूर्वे यथा =पूर्वज जैसे
(थे); अनुपश्य = उस पर विचार कीजिये;अपरे (यथा) तथा प्रतिपश्य = (वर्तमान काल में)दूसरे(श्रेष्ठजन) जैसे (हैं
)उस पर भली प्रकार दृष्टि डालें; मर्त्य:=मरणधर्मा मनुष्य;सस्यम् इव =अनाज की भांति; पच्यते=पकता है;सस्यम् इव पुन: अजायते =अनाज की भांति ही पुन: उत्पन्न हो जाता है।
अर्थ: (आपके) पूर्वजों ने जिस प्रकार का आचरण किया है,
उस पर चिन्तन कीजिये, उपर अर्थात वर्तमान में
भी(श्रेष्ठ पुरुष कैसा आचरण करते हैं) उसको भी भंलीभाति देखिए। मरणधर्मा मनुष्य
अनाज की भांति पकता है (वृद्ध होता और मृत्यु को प्राप्त होता है ), अनाज की भांति फिर उत्पन्न हो जाता है।
वैश्वानर:
प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणों गृहान्।
तस्यैतां शान्ति कुर्वन्ति हर
वैवस्वतोदकम् ॥७॥
शब्दार्थ: वैवस्वत= हे सूर्यपुत्र
यमराज; वैश्वानर: ब्राह्मण: अतिथि:
गृहान् प्रविशति =वैवानर (अग्निदेव) ब्राह्मण अतिथि के रुप में (गृहस्थ के) घरों
में प्रवेश करते हैं (अथ्वा ब्राह्मण अतिथि अग्नि की भांति घर में प्रवेश करते हैं
);तस्य= उसकी;एताम्= ऐसी (पादप्रक्षालन
इत्यादि के द्वारा ); शान्ति कुर्वन्ति = शान्तिकरते हैं;उदकं हर = जल ले जाइये।
अर्थ: हे यमराज, (साक्षात)अग्निदेव ही (तेजस्वी) ब्राह्मण-अतिथि के रुप में (गृहस्थ) के
घरों में प्रवेश करते हैं (अथवा ब्राह्मण –अतिथि घर में
अग्नि की भांति प्रवेश करते हैं)। (उत्तम पुरुष) उसकी ऐसी शान्ति करते हैं,
आप जल ले जाइये।
आशा प्रतीक्षे संगतं सूनृतां च इष्टापूर्ते
पुत्रपशूंश्च सर्वान्।
एतद् वृड्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो
यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥८॥
शब्दार्थ: यस्य गृहे ब्राह्मण:
अनश्नन् वसति = जिसके घर में ब्राह्मण बिना भोजन किये रहता है १ अल्पमेधस:
पुरुषस्य =(उस) मन्दबुद्धि पुरुष की; आशा
प्रतीक्षे =आशा और प्रतीक्षा (कल्पित एवं इच्छित सुखद फल );संगतम्
= उनकी पूर्ति से होने वाले सुख (अथवा सत्संग –लाभ); इष्टापूर्ते च = और इष्ट एवं आपूर्त शुभ कर्मो के फल; सर्वान् पुत्रपशून् = सब पुत्र और पशु; एतद्
वृड्न्क्ते = इनको नष्ट कर देता है (अथवा यह सब नष्ट हो जाता है )।
अर्थ: जिसके घर में ब्राह्मण-अतिथि बिना भोजन किये
हुए रहता है, (उस) मन्दबुद्धि
मनुष्य की नाना प्रकार की आशा (संभावित एवं निश्चित की आशा) और प्रतीक्षा
(असंभावित एवं अनिश्चित की प्रतीक्षा), उनकी पूर्ति से
प्राप्त् होनेवाले सुख(अथवा सत्संग-लाभ) और सुन्दर वाणी के फल (अथवा
धर्म-संवाद-श्रवण) तथा यज्ञ दान तथा कूप निर्माण आदि शुभ कर्मो एवं सब पुत्रों और
पशुओं को ब्राह्मण का असत्कार नष्ट कर देता है।
तिस्त्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे
अनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्य:।
नमस्ते अस्तु ब्रह्मन् स्वस्ति में
अस्तु तस्मात् प्रति त्रीन् बरान् वृणीष्व॥९॥
शब्दार्थ: ब्रह्मन् =हे ब्राह्मण
देवता;नमस्य: अतिथि: =आप नमस्कार के
योग्य अतिथि हैं; ते नम: अस्तु =आपको नमस्कार हो; ब्रह्मन मे स्वस्ति अस्तु= हे ब्राह्मण देवता, मेरा
शुभ हो; यम् तिस्त्र: रात्री: मे गृहे अनश्नन् अवात्सी: =(आपने)
जो तीन रात मेरे घर में बिना भोजन ही निवस किया; तस्मात् =
अतएव; प्रति त्रीन् वरान् वृणीष्ठ = प्रत्येक के लिए आप
(कुल) तीन वर मांग लें।
अर्थ: यमराज ने कहा,
हे ब्राह्मण देवता, आप वन्दनीय अतिथि हैं।
आपको मेरा नमस्कार हो। हे ब्राह्मण देवता, मेरा शुभ हो। आपने
जो तीन रात्रियां मेरे घर में बिना भोजन ही निवास किया, इसलिए
आप मुझसे प्रत्येक के बदले एक अर्थात तीन वर मांग लें।
शान्तसकल्प: सुमना यथा
स्याद्वीतमन्युगौर्तमों माभि मृत्यो।
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत
एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥१०॥
शब्दार्थ: मृत्यो =हे मृत्यु देव;यथा गौतम: मा अभि = जिस प्रकार गौतम वंशीय उद्दालक मेरे प्रति; शान्तसंकल्प: सुमना: वीतमन्यु: स्यात् = शान्त संकल्पवाले प्रसन्नचित
क्रोधरहित हो जायं; त्वत्प्रसृष्टं मा प्रतीत: अभिवदेत्
=आपके द्वारा भेजा जाने पर वे मुझ पर विश्वास करते हुए मेरे साथ प्रेमपूर्वक बात
करें; एतत् = यह; त्रयाणां प्रथमं वरं
वृणे = तीन में प्रथम वर मांगता हूं।
अर्थ: हे मृत्युदेव,
जिस प्रकार भी गौतमवंशीय (मेरे पिता) उद्दालक मेरे प्रति शान्त
सकल्पवाले (चिन्तरहित), प्रसन्नचित और क्रोधरहित एवं खेदरहित
हो जायं, आपके द्वारा वापस भेजे जाने पर वे मेरा विश्वास
करके मेरे साथ प्रेमपूर्वक वार्तालाप कर लें, (मैं) यह तीन
में से प्रथम वर मांगता हूं।
यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत
औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्ट:।
सुखं रात्री: शयिता वीतमन्युस्त्वां
ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ॥११॥
शब्दार्थ: त्वां मृत्युमुखात्
प्रमुक्तम् ददृशिवान् = तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त हुआ देखने पर;
मत्प्रसृष्ट: आरुणि: औद्दालकि: = मेरे द्वारा प्रेरित, आरुणि उद्दालक (तुम्हारा पिता); यथा पुरस्ताद्
प्रतीत: = पहले की भांति ही विश्वास करके; वीतमन्यु: भविता
=क्रोधरहित एवं दु:खरहित हो जायगा; रात्री:सुखम् शयिता =
रात्रियों में सुखपूर्वक सोयेगा।
अर्थ: यमराज ने नचिकेता से कहा-
तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त देखने पर मेरे द्वारा प्रेरित उद्दालक (तुम्हारा
पिता) पूर्ववत विश्वास करके क्रोध एवं दु:ख से रहित हो जायगा,
(जीवन भर) रात्रियों में सुखपूर्वक् सोयेगा।
स्वर्गे लोक न भयं किञ्चनास्ति न
तत्र त्वं न जरया बिभेति।
उभे तीर्त्वाशनायापिपासे शेकातिगो
मोदते स्वर्गलोके ॥१२॥
शब्दार्थ: स्वर्गे लोक किञ्चन भयम्
न अस्ति = स्वर्गलोक में किञ्चित् भय नहीं है;
तत्र त्वं न = वहां आप(मृत्यु) भी नहीं हैं; जरया
न बिभेति= कोई वृद्धावस्था से नहीं डरता; स्वर्गलोके =
स्वर्ग लोक में (वहां के निवासी ); अशनायापिपासे = भूख और
प्यास; उभे तीर्त्वा = दोनों को पार करके;शोकातिग: =शोक (दु:ख) से दूर रहकर; मोदते = सुख
भोगते हैं।
अर्थ: नचिकेता ने कहा-स्वर्गलोक में
किञ्चिन्मात्र भी भय नहीं है। वहां आप (मृत्युस्वरुप) भी नहीं हैं। वहां कोई जरा
(वृद्धावस्था) से नहीं डरता। स्वर्गलोक के निवासी भूख-प्यास दोनों को पार करके शोक
(दु:ख) सेदूर रहकर सुख भोगते हैं।
स त्वमग्नि स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यों
प्रब्रूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम।
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त एतद्
द्वितीयेन वृणे वरेण ॥१३॥
शब्दार्थ: मृत्यो =हे मृत्युदेव;स त्वं स्वर्ग्यम् अग्निं अध्येषि = वह आप स्वर्ग-प्राप्ति के साधनरुप
अग्नि को जनते हैं; त्वं मह्यम श्रद्दधानाय प्रब्रूहि =आप
मुझ श्रद्धालु को (उस अग्नि को) बतायें। स्वर्गलोका: अमृतत्वं भजन्ते =स्वर्गलोक
के निवासी अमरत्व को प्राप्त् होते हैं; एतद् द्वितीयेन वरेण
वृणे =(मैं) यह दूसरा वर मांगता हूं।
अर्थ: हे मृत्युदेव,
वह आप स्वर्गप्राप्ति की साधनरुप अग्नि को जानते हैं। आप मुझ
श्रद्धालु को उसे बता दें। स्वर्गलोक के निवासी अतृतभाव को प्राप्त हो जाते हैं।
मैं यह दूसरा वर मांगता हूं।
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निवोध
स्वर्ग्यमग्निं नचिकेत: प्रजानन्।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां विद्धि
त्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥१४॥
शब्दार्थ: नचिकेत: = हे नचिकेता;
स्वर्ग्यम् अग्निम् प्रजानन् ते प्रब्रवीमि= स्वर्गप्राप्ति की
साधनरुप अग्निविद्या को भली प्रकार जाननेवाला मैं तुम्हें इसे बता रहा हूं;तत् उ मे निबोध = उसे भली प्रकार मुझसे जान लो; त्वं
एतम् =तुम इसे;अनन्तलोकाप्तिम् = अनन्तलोक की प्राप्ति
करानेवाली; प्रतिष्ठाम् =उसकी आधाररुपा; अथो = तथा;गुहायाम् निहितम् = बुद्धिरुपी गुहा में
स्थित (अथवा रहस्यमय एवं गूझ् ); विद्धि =समझो।
अर्थ: हे नचिकेता स्वर्गप्रदा
अग्निविद्या को जाननेवाला मैं तुम्हारे लिए भलीभांति समझाता हूं। (तुम) इसे मुझसे
जान लो। तुम इस विद्या को अनन्लोक की प्राप्ति करानेवाली,
उसकी आधाररुपा और गुहा मे स्थित समझो।
लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै या
इष्टका यावतीर्वा यथा वा।
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्तमथास्य
मृत्यु: पुनरेवाह तुष्ट:॥१५॥
शब्दार्थ: तम् लोकादिम् अग्निम्
तस्मै उवाच = उस लोकादि (स्वर्ग-लोक की साधन-रुपा) अग्निविद्या को उस (नचिकेता )को
कह दिया; या वा यावती: इष्टका: = (उसमें
कुण्डनिर्माण आदि के लिए )जो-जो अथवा जितनी-जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं );
वा यथा = अथवा जिस प्रकार(उनका चयन हो; च स
अपि तत् यथोक्तम् प्रत्यवदत् =और उस (नचिकेता)ने भी उसे जैसा कहा गया था, पुन: सुना दिया; अथ= इसके बाद; मृत्यु: अस्य तुष्ट: = यमराज उस पर संतुष्ट होकर; पुन:
एव आह = पुन: बोले।
अर्थ: उस लोकादि अग्निविद्या को उसे
(नचिकेता को )कह दिया। (कुण्डनिर्माण इत्यादि में) जो–जो अथवा जितनी-जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं) अथवा जिस प्रकार (उनका चयन
हो)। और उस (नचिकेता) ने भी उसे जैसा कहा गया था, पुन: सुना
दिया। इसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट होकर पुन: बोले।
तमब्रवीत प्रीयमाणो महात्मा वरं
तवेहाद्य ददामि भूय:।
तवैव नामा भवितायमग्नि: सृक्ङां
चेमामनेकरुपां गृहाण ॥१६॥
शब्दार्थ: प्रीयमाण: महात्मा तम्
अब्रवीत् =प्रसन्न एवं परितुष्ट हुए महात्मा यमराज उससे बोले;अद्य तव इह भूय: वरम् ददामि = अब (मैं) तुम्हें यहां पुन: (एक अतिरिक्त)वर
देता हूं; अयम् अग्नि: तव एव नाम्रा भविता = यह अग्नि
तुम्हारे ही नाम से (प्रख्यात) होगी; च इमाम् अनेकरुपाम्
सृक्ङाम् गृहाण = और इस अनेक रुपों वाली (रत्नों की) माला को स्वीकार करो।
अर्थ: महात्मा यमराज प्रसन्न एवं
परितुष्ट होकर उससे बोले-अब मैं तुम्हें यहां पुन: एक (अतिरिक्त) वर देता हूं। यह
अग्नि तुम्हारे ही नाम से विख्यात होगी। और इस अनेक रुपोंवाली माला को स्वीकार
करो।
त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं
त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।
ब्रह्मजज्ञ। देवमीड्यं विदित्वा
निचाय्येमां शानितमत्यन्तमेति ॥१७॥
शब्दार्थ: त्रिणाचिकेत: = नाचिकेत
अग्नि का तीन बार अनुष्ठान् करनेवाला; त्रिभि:
सन्धिम् एत्य =तीनों(ऋक्, साम, यजु:वेद)
के साथ सम्बन्ध जोड़कर अथवा माता, पिता, गुरु से सम्बद्ध होकर मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् ब्रूयात् (बृ० उप०
४.१.२); त्रिकर्मकृत = तीन कर्मों (यज्ञ दान तप) को करनेवाला
मनुष्य;जन्ममृत्यु तरति= जन्म और मृत्यु को पार कर लेता है,
जन्म और मृत्यु के चक्र से ऊपर उठ जाता है; ब्रह्मजज्ञम्
=ब्रह्म से उत्पन्न सृष्टि (अथवा अग्निदेव) के जानने वाले;'ब्रह्मजज्ञ'
का अर्थ अग्नि भी है, जैसे अग्नि को जातवेदा
भी कहते हैं।'ब्रह्मजज्ञ' का एक अर्थ
सर्वज्ञ भी है "ब्रह्मणों हिरण्यगर्भात् जातो ब्रह्मज:, ब्रह्मजश्चासौ ज्ञश्चेति ब्रह्मजज्ञ: सर्वज्ञों हि असौ
(शंकराचार्य)।" ईड्यम देवम् = स्तवनीय अग्निदेव (अथवा ईश्वर) को;विदित्वा=जानकर; निचाय्य = इसका चयन करके इसको भली
प्रकार समझकर देखकर; इमाम् अत्यन्तम् शान्तिम् एति = इस
अत्यन्त शान्ति को प्राप्त् हो जाता है।
अर्थ: जो भी मनुष्य इस नाचिकेत
अग्नि का तीन बर अनुष्ठान् करता है और तीनों (ऋक्,
साम, यजु:वेदों) से सम्बद्ध हो जाता है तथा
तीनों कर्म(यज्ञ, दान, तप) करता है,
वह जन्म-मृत्यु को पार कर लेता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न उपासनीय
अग्निदेव को जानकर और उसकी अनुभुति करके परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है।
त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य
एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्।
स मृत्यृपाशानृ पुरत: प्रणोद्य
शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥
शब्दार्थ: एतत् त्रयम् = इन तीनों
(ईंटो के स्वरुप संख्या और चयन विधि)को; विदित्वा
= जानकर; त्रिणाचिकेत: = तीन बार नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान
करनेवाला; य एवम् विद्वान् = जो भी इस प्रकार जाननेवाला
ज्ञानी पुरुष: नाचिकेतम् चिनुते = नाचिकेत अग्निका चयन करता है; स मृत्युपाशान् पुरत: प्रणोद्य =वह मृत्यु के पाशों को उपने सामने ही
(अपने जीवनकाल में ही) काटकर;शोकातिग: स्वर्गलोके मोदते =
शोक को पार करके स्वर्ग लोक में आनन्द का अनुभव करता है। (मृत्युं जयति
मृत्युञ्जय:)
अर्थ: इन तीनों (ईंटों के स्वरुप
संख्या और चयन-विधि) को जानकर तीन बर नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करनेवाला जो भी
विद्वान पुरुष नाचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह (अपने जीवनकाल मे ही) मृत्यु के पाशों को अपने सामने ही काटकर, शोक को पार कर, स्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता
है।
एष तेऽग्निर्नचिकेत: स्वर्ग्यो
यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण।
एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति
जनासस्तृतीयं वरं नचिकेतो वृष्णीष्व॥१९॥
शब्दार्थ: नचिकेत:= हे नचिकेता;
एष ते स्वर्ग्य: अग्नि: = यह तुमसे कही हुई स्वर्ग की साधनरुपा
अग्निविद्या है; यम् द्वितीयेन वरेण अवृणीथा: =जिसे तुमने
दूसरे वर से मांगा था; एतम् अग्निम् =इस अग्निको;जनास: =लोग;तव एव प्रवक्ष्यन्ति =तुम्हारी ही
(तुम्हारे नाम से ही) कहा करेंगे;नचिकेत = हे नचिकेता;
तृतीयम् वरम् वृणीष्व= तीसरा वर मांगों।
अर्थ: हे नचिकेता,
यह तुमसे कही हुई स्वर्गसाधनरुपा अग्निविधा है, जिसे तुमने दूसरे वर से मांगा था। इस अग्नि को लोग तुम्हारे नाम से कहा
करेंगे। हे नचिकेता, तीसरा वर मांगों।
येयं प्रेते विचिकित्सा
मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं
वराणामेष वरस्तृतीय: ॥२०॥
शब्दार्थ: प्रेते मनुष्ये या इयं
विचिकित्सा = मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है;एके अयम् अस्ति इति = कोई तो (कहते हैं) यह आत्मा (मृत्यु के बाद) रहता है;
च एके न अस्ति इति = और कोई (कहते हैं) नहीं रहता है; त्वया अनुशिष्ट: अहम् = आपके द्वारा उपदिष्ट मैं; एतत्
विद्याम् =इसे भली प्रकार जान लूं; एष वराणाम् तृतीय: वर: =
यह वरों में तीसरा वर है।
अर्थ: मृतक मनुष्य के संबंध में यह
जो संशय है कि कोई कहते हैं कि यह आत्मा(मृत्यु के पश्चात) रहता है और कोई कहते
हैं कि नहीं रहता, आपसे उपदेश पाकर
मैं इसे जान लूं, यह वरों मे तीसरा वर है।
देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि
सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म:।
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा
मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥
शब्दार्थ: नचिकेत:= हे नचिकेता;
अत्र पुरा देवै: अपि विचिकित्सितम् =यहां (इस विषय में) पहले
देवताओं द्वारा भी सन्देह किया गया; हि एष: धर्म: अणु:
=क्योकि यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म है; न सुविज्ञेयम् = सरल
प्रकार से जानने के योग्य नहीं है; अन्यम् वरम् वृणीष्व =
अन्य वर मांग लो; मा मा उपरोत्सी: मुझ पर दवाव मत डालो;
एनम् मा अतिसृज = इस (आत्मज्ञान-सम्बन्धी वर )को मुझे छोड़ दो।
अर्थ: हे नचिकेता,
इस विषय में पहले भी देवताओं द्वारा सन्देह किया गया था, क्योकि यह विषय अत्यन्त् सूक्ष्म है और सुगमता से जानने योग्य् नहीं है।
तुम कोई अन्य वर मांग लो। मुझ पर बोझ मत डालो। इस आत्मज्ञान संबंधी वर को मुझे
छोड़ दो।
देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल त्वं
च मृत्यों यत्र सुविज्ञेममात्थ।
वक्ता चास्य त्वादृगन्यों न लभ्यो
नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥२२॥
शब्दार्थ: मृत्यों =हे यमराज;त्वम् यत् आत्थ = आपने जो कहा; अत्र किल देवै: अपि
विचिकित्सितम् = इस विषय में वास्तव में देवताओं द्वारा भी संशय किया गया; च न सुविज्ञेयम् = और वह सुविज्ञैय भी नहीं है; च
अस्य वक्ता = और इसका वक्ता; त्वादृक् अन्य: लभ्य: = आपके
सृदश अन्य कोई प्राप्त नहीं हो सकता; एतस्य तुल्य: अन्य:
कश्चित् वर: न =इस (वर) के समान अन्य कोई वर नहीं है।
अर्थ: नचिकेता ने कहा-हे यमराज,
आपने जो कहा कि इस विषय में वास्तव में देवताओं द्वारा भी संशय किया
गया और वह (विषय) सुगम भी नहीं है। और, इसका उपदेष्टा आपके
तुल्य अन्य कोई लभ्य नहीं हो सकता। इस (वर) के समान अन्य कोई वर नहीं है।
शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व
बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव
शरदो यावदिच्छसि ॥२३॥
शब्दार्थ: शतायुष: =शतायुवाले;
पुत्रपौत्रान् = बेटे पोतों को; बहून पशून् =
बहुत से गौ आदि पशुओं को; हस्तिहिरण्यम् = हाथी और हिरण्य
(स्वर्ग)को;अश्वान वृणीष्व =अश्वों को मांग लो; भूमें: महत् आयतनम् = भूमि के महान् विस्तार को; वृणीष्व
= मांग लो; स्वयम् च = तुम स्वयं भी; यावत्
शरद: इच्छसि जीव = जीवन शरद् ऋतुओं (वर्षों तक इच्छा करो, जीवित
रहो।
अर्थ: शतायु (दीर्घायु )पुत्र-पौधों
को, बहुत से (गौ आदि) पशुओं को,
हाथी-सुवर्ण को, अश्वो को मांग लो, भूमि के महान् विस्तार को मांग लो, स्वयं भी जितने
शरद् ऋतुओं (वर्षो) तक इच्छा हो, जीवित रहो।
एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं वृणीष्व
वित्तं चिरजीविकां च।
महाभूभौ नचिकेतस्त्वमेधि कामानां
त्वा कामभाजं करोमि॥२४॥
शब्दार्थ: नचिकेता:हे नचिकेता;यदि त्वम् एतत् तुल्यम् वरम् मन्यसे वृणीष्व =यदि तुम इस आत्मज्ञान के
समान (किसी अन्य) पर को मनते हो, मांग लो; वित्तं चिरजीविकाम् = धन को और अनन्तकाल तक जीवनयापन के साधनों को;व महभूमौ =और विशाल भूमि पर;एधि= फलो-फूलो, बढो, शासन करो; त्वा कामानाम्
कामभाजम् करोमि = तुम्हें (समस्त कामनाओं का उपभोग करनेवाला बना देता हूँ।
अर्थ: हे नचिकेता,
यदि तुम इस आत्मज्ञान के समान (किसी अन्य) वर को मांगते हो, मांग लो –धन, जीवनयापन के
साधनों को और विशाल भूमि पर (अधिपति होकर) वृद्धि करो, शासन
करो। तुम्हें (समस्त) कामनाओं का उपभोग करनेवाला बना देता हूँ।
ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके
सर्वान् कामांश्छन्दत: प्रार्थयस्व।
इमा रामा: सरथा: सतूर्या न हीदृशा
लम्भनीया मनुष्यै:।
आभिर्मत्प्रत्ताभि: परिचारयस्व्
नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ॥२५॥
शब्दार्थ: ये ये कामा: मर्त्यलोके
दुर्लभा: (सन्ति) =जो-जो भोग मनुष्यलोक में दुर्लभ हैं;
सर्वान् कामान् छन्दत: प्रार्थयस्व = उन सम्पूर्ण भोगो को
इच्छानुसार मांग लो; सरथा: सतूर्या: इमा: रामा: =रथोंसहित,
तूर्यों (वाद्यों, वाजों )सहित, इन स्वर्ग की अप्सराओं को; मनुष्यै: ईदृशा: न हि
लम्भनीया: =मनुष्यों द्वारा ऐसी स्त्रियॉँ प्राप्य नहीं हैं, मत्प्रत्ताभि: आभि: पिरचारयस्व = मेरे द्वारा प्रदत्त इनसे सेवा कराओ;नचिकेत:= हे नचिकेता;मरणं मा अनुप्राक्षी:=मरण (के
संबंध में प्रश्न को) मत पूछो।
अर्थ: हे नचिकेता,
जो-जो भोग मृत्युलोक में दुर्लभ हैं, उन सबको
इच्छानुसार मांग लो-रथोंसहित, वाद्योंसहित इन अप्सराओं को
(मांग लो), मनुष्यों द्वारा निश्चय ही ऐसी स्त्रियां अलभ्य
हैं। इनसे अपनी सेवा कराओ, मृत्यु के संबंध में मत पूछो।
श्वो भावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्
सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज:।
अपि सर्वम् जीवितमल्पेमेव तवैव
वाहास्तव नृत्यगीते ॥२६॥
शब्दार्थ: अन्तक =हे मृत्यों;श्वो भावा:= कल तक ही रहनेवाले अर्थात नश्वर, क्षणिक,
क्षणभंगुर ये भोग;मर्त्यस्य्
सर्वेन्द्रियाणाम् यत् तेज: एतत् जरयन्ति = मरणशील मनुष्य की सब इन्द्रियों का जो
तेज (है) उसे क्षीण कर देते हैं; अपि सर्वम् जीवितम् अल्पम्
एव = इसके अतिरिक्त समस्त आयु अल्प ही है; तव वाहा:
न्त्यगीते तव एव = आपके रथादि वाहन, स्वर्ग के नृत्य और
संगीत आपके ही (पास) रहें।
अर्थ: हे यमराज,
(आपके द्वारा वर्णित) कल तक ही रहनेवाले (एक ही दिन के, क्षणभंगुर) भोग मरणधर्मा मनुष्य की सब इन्द्रियों के तेज को क्षीण कर देते
हैं। इसके अतिरिक्त समस्त आयु अल्प ही है। आपके रथादि वाहन, स्वर्ग
के नृत्य और संगीत आपके ही पास रहें।
न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो
लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा।
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं
वरस्तु मे वरणीय: स एव॥२७॥
शब्दार्थ: मनुष्य: वित्तेन तर्पणीय:
न = मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं हो सकता;चेत्= यदि, जब कि;त्वा
अद्राक्ष्म =(हमने) आपके दर्शन पा लिये हैं;वित्तम्
लप्स्यामहे = धन को (तो हम) पा ही लेंगे;त्वम् यावद्
ईशिष्यसि = आप जब तक ईशन(शासन) करते रहेंगे, जीविष्याम:= हम
जीवित ही रहेंगे;मे वरणीय: वर: तु स एव = मेरे मांगने के
योग्य वर तो वह ही है।
अर्थ: मनुष्य धन से तृप्त नहीं हो
सकता। जब कि (हमने) आपके दर्शन पा लिये हैं, धन तो हम पा ही लेंगे। आप जब तक शासन करते रहेंगे, हम
जीवित भी रह सकेंगे। मेरे मांगने के योग्य वर तो वह ही है।
अजीर्यताममृतानामुपेत्य जीर्यन्
मर्त्यः व्कधःस्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदानदीर्घे
जीविते को रमेत ॥२८॥
शब्दार्थः जीर्यन् मर्त्यः = जीर्ण
होनेवाला मरणधर्मा मनुष्य; अजीर्यताम्
अमृतानाम् = वयोहानिरूप जीर्णता को प्राप्त न होनेवाले अमृतों (देवताओं, महात्माओं) की सन्निधि में, निकतटता में; उपेत्य= प्राप्त होकर, पहुँचकर; प्रजानन्= आत्मतत्त्व की महिमा का जाननेवाला अथवा उन (देवताओं, महात्माओ) से प्राप्त होनेवाले लाभ को जाननेवाला; व्कधःस्थः=व्कधः
(कु=पृथ्वी, अन्तरिक्ष आदि से अधः, नीचे
होने के कारण पृथ्वी व्कधः कहलाती है-शंकराचार्य) में स्थित व्कधःस्थ, नीचे पृथ्वी पर स्थित होकर; कः= कौन; वर्णरतिप्रमोदान् अभिध्यायन्=रूप, रति और भोगसुखों
का ध्यान करता हुआ (अथवा उनकी व्यर्थता पर विचार करता हुआ); अतिदीर्घे
जीविते रमेत=अतिदीर्घ काल तक जीवित रहने में रुचि लेगा। (इस श्लोक के अनेक अन्वय
और अर्थ किए गए हैं।
अर्थ: जीर्ण होनेवाला मरणधर्मा
मनुष्य, जीर्णता को प्राप्त न होनेवाले
देवताओं (अथवा महात्माओं) के समीप जाकर, आत्मविद्या से
परिचित होकर, (अथवा महात्माओं से प्राप्त होनेवाले लाभ को
सोचकर) पृथ्वी पर स्थित होनेवाला, कौन भौतिक भोगों का स्मरण
करता हुआ (अथवा उनकी निरर्थकता को समझता हुआ) अतिदीर्घ जीवन में सुख मानेगा?
यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो
यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो नान्यं
तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥
शब्दार्थः मृत्यो=हे यमराज;
यस्मिन् इदम् विचिकित्सन्ति= जिस समय यह विचिकित्सा (सन्देह,
विवाद) होती है; यत् महति साम्पराये = जो
महान् परलोक-विज्ञान में है; तत्=उसे; नः
ब्रूहि=हमें बता दो; यः अयम् गूढम् अनुप्रविष्टः वरः= जो यह
वर (अब) गूढ रहस्यमयता को प्रवेश कर गया है (अधिक रहस्यपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण हो
गया है); तस्मात् अन्यम्= इससे अतिरिक्त अन्य (वर) को;
नचिकेता न वृणीते= नचिकेता नहीं माँगता। (इस श्लोक के भी अनेक अन्वय
और अर्थ किए गए हैं। )
अर्थ: हे यमराज,
जिस विषय में सन्देह होता है, जो महान्
परलोक-विज्ञान में है, उसे हमें कहो। जो यह (तृतीय) वह है,
(अब) गूढ रहस्यमयता में प्रवेश कर गया है (अधिक रहस्यपूर्ण हो गया
है)। उसके अतिरिक्त अन्य (वर को) नचिकेता नहीं माँगता।

Post a Comment