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यम नचिकेता
नचिकेता और
यमराज के बीच हुए संवाद का उल्लेख हमें कठोपनिषद में मिलता है।
शाम का समय
था। पक्षी अपने-अपने घोसले की ओर लौट रहे थे, पर वह बढ़ा जा रहा था, बिना किसी थकान और पछतावे के। उसे अपनी मंजिल तक पहुंचना ही
था। यही उसके पिता की आज्ञा थी। उसका लक्ष्य था यमपुरी। वही यमपुरी,
जहां यमराज
निवास करते थे। उसे यमराज से ही मिलना था। यही उसके पिता का आदेश था।
लगातार तीन
पहर तक चलने के बाद वह यमपुरी के द्वार पर जा पहुंचा। वहां पर दो यमदूत पहरा दे
रहे थे।
उन्होंने जब
उस बालक को देखा तो आश्चर्यचकित रह गए। कौन है यह बालक,
जो मौत के
मुंह में चला आया? दोनों सोचने लगे। उसमें से एक यमदूत ने गरजती आवाज में उससे
पूछा- 'हे बालक, तू कौन है और यहां क्या करने आया है?'मेरा नाम नचिकेता है और मैं अपने पिता की आज्ञा से यमराजजी
के पास आया हूं।' उस बालक ने धीरता के साथ उत्तर दिया।
'लेकिन क्यों मिलना चाहते हो तुम यमराज से?'
दूसरे यमदूत
ने प्रश्न किया।
'क्योंकि मेरे पिताश्री ने उन्हें मेरा दान कर दिया है।'
नचिकेता की
बात सुनकर दोनों यमदूत हैरान रह गए। ये कैसा अजीब बालक है। इसे मृत्यु का भय नहीं।
यमराज से मिलने चला आया। उन्होंने उसे डराना चाहा,
पर नचिकेता
अपने निर्णय के आगे सूई की नोंक भर भी न डिगा। वह बराबर यमराज से मिलने की इच्छा
प्रकट करता रहा।
इस पर एक
यमदूत बोला- 'वे इस समय यमपुरी में नहीं हैं। तीन दिन बाद लौटेंगे,
तभी तुम आना।''कोई बात नहीं, मैं तीन दिन तक प्रतीक्षा कर लूंगा।'
नचिकेता ने
उत्तर दिया और वहीं द्वार के पास बैठ गया। सहसा उसकी आंखों के आगे बीती हुई एक-एक
घटना चित्र की भांति घूमने लगा।
नचिकेता के
पिता ऋषि वाजश्रवा ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया था। विद्वानों,
ऋषि-मुनियों
और ब्राह्मणों को उसने यज्ञ में आमंत्रित किया। ब्राह्मणों को आशा थी कि यज्ञ की
समाप्ति पर वाजश्रवा की ओर से उन्हें अच्छी दक्षिणा मिलेगी,
लेकिन जब यज्ञ
समाप्त हुआ और वाजश्रवा ने दक्षिणा देनी शुरू की तो सभी आश्चर्यचकित रह गए।
दक्षिणा में वह उन गायों को दे रहा था, जो कि बूढ़ी हो चुकी थीं और दूध भी न देती थीं।
यज्ञ के
प्रारंभ होने से पूर्व वाजश्रवा ने घोषणा की थी वह यज्ञ में अपनी समस्त संपत्ति
दान कर देगा। इसी कारण यज्ञ में कुछ ज्यादा ही लोग उपस्थित हुए थे। पर जब उन्होंने
दान का स्तर देखा तो मन ही मन नाराज होकर रह गए। क्रोध तो उन्हें बहुत आया पर
उनमें से कोई कुछ न कह सका। वाजश्रवा के पुत्र नचिकेता से यह न देखा गया। संपत्ति
के प्रति अपने पिता का यह मोह उसे बर्दाश्त न हुआ। वह अपने पिता के पास जाकर बोला-
'पिताजी, ये आप क्या कर रहे हैं?'
'देखते नहीं हो, मैं ब्राह्मणों को दान दे रहा हूं।'
वाजश्रवा ने
कहा।
'लेकिन ये गायें तो बूढ़ी हैं,
जबकि आपको
अच्छी गायें दान में देनी चाहिए।' नचिकेता ने विनम्रतापूर्वक कहा।
'क्या तुम मुझसे ज्यादा जानते हो कि कौन सी चीज दान में देनी
चाहिए, कौन सी नहीं?' वाजश्रवा ने झल्लाकर प्रश्न किया।
'हां पिताजी।' नचिकेता ने कहा- 'दान में वह वस्तु दी जानी चाहिए,
जो व्यक्ति को
सबसे ज्यादा प्रिय हो और सबसे प्रिय तो आपको मैं हूं। आप मुझे किसको दान में देंगे?'नचिकेता की इस बात का वाजश्रवा ने कोई उत्तर न दिया पर
नचिकेता ने हठ पकड़ ली। वह बार-बार यही प्रश्न करता रहा कि पिताजी आप मुझे किसको
दान में देंगे?'
काफी देर तक
वाजश्रवा देखता रहा, पर जब नचिकेता न माना तो वह झल्लाकर बोला,
'जा,
मैंने तुझे
यमराज को दान में दिया।' लेकिन अगले ही पल वाजश्रवा ठिठका। ये उसने क्या कह दिया?
अपने इकलौते
पुत्र को यमराज को दान में दिया? पर अब क्या हो सकता था?
नचिकेता भी
ठहरा दृढ़ निश्चयी। वह कहां पीछे रहने वाला था। पिता की बात सुनकर बोल पड़ा- 'मैं आपकी आज्ञा का पालन करूंगा पिताजी,
आप बिलकुल
चिंतित न हों।'
वाजश्रवा ने
बहु तेरा समझाया, पर नचिकेता न माना। उसने सभी परिजनों से अंतिम भेंट की और
यमराज से मिलने के लिए चल पड़ा। जिसने भी यह सुना आश्चर्यचकित हुए बिना न रह सका।
सभी उसके साहस की प्रशंसा करने लगे। यमपुरी के द्वार पर बैठा नचिकेता बीती बातें
सोच रहा था। उसे इस बात का संतोष था कि वह पिता की आज्ञा का पालन कर रहा था।
लगातार तीन दिन तक वह यमपुरी के बाहर बैठा यमराज की प्रतीक्षा करता रहा। तीसरे दिन
जब यमराज आए तो वे नचिकेता को देखकर चौंके।
जब उन्हें
उसके बारे में मालूम हुआ तो वे भी आश्चर्यचकित रह गए। अंत में उन्होंने नचिकेता को
अपने कक्ष में बुला भेजा।
यमराज के कक्ष
में पहुंचते ही नचिकेता ने उन्हें प्रणाम किया। उस समय उसके चेहरे पर अपूर्व तेज
था। उसे देखकर यमराज बोले- 'वत्स, मैं तुम्हारी पितृभक्ति और दृढ़ निश्चय से बहुत प्रसन्न
हुआ। तुम मुझसे कोई भी तीन वरदान मांग सकते हो।'यह सुनकर नचिकेता की प्रसन्नता की सीमा न रही।
नचिकेता ने
पहले वरदान में कहा कि जब वह घर वापस पहुंचे तो उसके पिता उसे स्वीकार करें एवं
उसके पिता का क्रोध शांत हो।
दूसरे वरदान
में नचिकेता ने जानना चाहा कि क्या देवी-देवता स्वर्ग में अजर एवं अमर रहते हैं और
निर्भय होकर विचरण करते हैं! तब यमराज ने नचिकेता को अग्नि ज्ञान दिया,
जिसे
नचिकेताग्नि भी कहते हैं।
तीसरे वरदान
में नचिकेता ने पूछा कि 'हे यमराज, सुना है कि आत्मा अजर-अमर है। मृत्यु एवं जीवन का चक्र चलता
रहता है। लेकिन आत्मा न कभी जन्म लेती है और न ही कभी मरती है।'
नचिकेता ने
पूछा कि इस मृत्यु एवं जन्म का रहस्य क्या है?
क्या इस चक्र
से बाहर आने का कोई उपाय है? तब यमराज ने कहा कि यह प्रश्न मत पूछो,
मैं तुम्हें
अपार धन, संपदा, राज्य इत्यादि इस प्रश्न के बदले दे दूंगा। लेकिन नचिकेता
अडिग रहे और तब यमराज ने नचिकेता को आत्मज्ञान दिया। नचिकेता द्वारा प्राप्त किया
गया आत्मज्ञान आज भी प्रासंगिक और विश्वज प्रसिद्ध है। सत्य हमेशा प्रासंगिक ही
होता है।
यमराज-नचिकेता
संवाद का वर्णन संक्षिप्त में...
नचिकेता
प्रश्न : किस तरह शरीर से होता है ब्रह्म का ज्ञान व दर्शन?
यमराज उत्तर :
मनुष्य शरीर दो आंखं, दो कान, दो नाक के छिद्र, एक मुंह, ब्रह्मरन्ध्र, नाभि, गुदा और शिश्न के रूप में ११ दरवाजों वाले नगर की तरह है,
जो ब्रह्म की
नगरी ही है। वे मनुष्य के हृदय में रहते हैं। इस रहस्य को समझकर जो मनुष्य ध्यान
और चिंतन करता है, उसे किसी प्रकार का दुख नहीं होता है। ऐसा ध्यान और चिंतन
करने वाले लोग मृत्यु के बाद जन्म-मृत्यु के बंधन से भी मुक्त हो जाता है।
नचिकेता
प्रश्न : क्या आत्मा मरती या मारती है?
यमराज उत्तर :
जो लोग आत्मा को मारने वाला या मरने वाला मानते हैं,
वे असल में
आत्मा को नहीं जानते और भटके हुए हैं। उनकी बातों को नजरअंदाज करना चाहिए,
क्योंकि आत्मा
न मरती है, न किसी को मार सकती है।
नचिकेता
प्रश्न : कैसे हृदय में माना जाता है परमात्मा का वास?
यमराज उत्तर :
मनुष्य का हृदय ब्रह्म को पाने का स्थान माना जाता है। यमदेव ने बताया मनुष्य ही
परमात्मा को पाने का अधिकारी माना गया है। उसका हृदय अंगूठे की माप का होता है।
इसलिए इसके अनुसार ही ब्रह्म को अंगूठे के आकार का पुकारा गया है और अपने हृदय में
भगवान का वास मानने वाला व्यक्ति यह मानता है कि दूसरों के हृदय में भी ब्रह्म इसी
तरह विराजमान है। इसलिए दूसरों की बुराई या घृणा से दूर रहना चाहिए।
नचिकेता
प्रश्न : क्या है आत्मा का स्वरूप?
यमराज उत्तर :
यमदेव के अनुसार शरीर के नाश होने के साथ जीवात्मा का नाश नहीं होता। आत्मा का
भोग-विलास, नाशवान, अनित्य और जड़ शरीर से इसका कोई लेना-देना नहीं है। यह
अनन्त, अनादि और दोष रहित है। इसका कोई कारण है,
न कोई कार्य
यानी इसका न जन्म होता है, न मरती है।
नचिकेता
प्रश्न : यदि कोई व्यक्ति आत्मा-परमात्मा के ज्ञान को नहीं जानता है तो उसे कैसे
फल भोगना पड़ते हैं?
यमराज उत्तर :
जिस तरह बारिश का पानी एक ही होता है, लेकिन ऊंचे पहाड़ों पर बरसने से वह एक जगह नहीं रुकता और
नीचे की ओर बहता है, कई प्रकार के रंग-रूप और गंध में बदलता है। उसी प्रकार एक
ही परमात्मा से जन्म लेने वाले देव, असुर और मनुष्य भी भगवान को अलग-अलग मानते हैं और अलग मानकर
ही पूजा करते हैं। बारिश के जल की तरह ही सुर-असुर कई योनियों में भटकते रहते हैं।
नचिकेता
प्रश्न : कैसा है ब्रह्म का स्वरूप और वे कहां और कैसे प्रकट होते हैं?
यमराज उत्तर :
ब्रह्म प्राकृतिक गुणों से एकदम अलग हैं, वे स्वयं प्रकट होने वाले देवता हैं। इनका नाम वसु है। वे
ही मेहमान बनकर हमारे घरों में आते हैं। यज्ञ में पवित्र अग्रि और उसमें आहुति
देने वाले भी वसु देवता ही होते हैं। इसी तरह सभी मनुष्यों,
श्रेष्ठ
देवताओं, पितरों, आकाश और सत्य में स्थित होते हैं। जल में मछली हो या शंख,
पृथ्वी पर
पेड़-पौधे, अंकुर, अनाज, औषधि हो या पर्वतों में नदी,
झरने और यज्ञ
फल के तौर पर भी ब्रह्म ही प्रकट होते हैं। इस प्रकार ब्रह्म प्रत्यक्ष देव हैं।
नचिकेता
प्रश्न : आत्मा निकलने के बाद शरीर में क्या रह जाता है?
यमराज उत्तर :
जब आत्मा शरीर से निकल जाती है तो उसके साथ प्राण और इन्द्रिय ज्ञान भी निकल जाता
है। मृत शरीर में क्या बाकी रहता है, यह नजर तो कुछ नहीं आता,
लेकिन वह
परब्रह्म उस शरीर में रह जाता है, जो हर चेतन और जड़ प्राणी में विद्यमान हैं।
नचिकेता
प्रश्न : मृत्यु के बाद आत्मा को क्यों और कौन सी योनियां मिलती हैं?
यमराज उत्तर :
यमदेव के अनुसार अच्छे और बुरे कामों और शास्त्र,
गुरु,
संगति,
शिक्षा और
व्यापार के माध्यम से देखी-सुनी बातों के आधार पर पाप-पुण्य होते हैं। इनके आधार
पर ही आत्मा मनुष्य या पशु के रूप में नया जन्म प्राप्त करती है। जो लोग बहुत
ज्यादा पाप करते हैं, वे मनुष्य और पशुओं के अतिरिक्त अन्य योनियों में जन्म पाते
हैं। अन्य योनियां जैसे पेड़-पौध, पहाड़, तिनके आदि।
नचिकेता
प्रश्न : क्या है आत्मज्ञान और परमात्मा का स्वरूप?
यमराज उत्तर :
मृत्यु से जुड़े रहस्यों को जानने की शुरुआत बालक नचिकेता ने यमदेव से धर्म-अधर्म
से संबंध रहित, कार्य-कारण रूप प्रकृति,
भूत,
भविष्य और
वर्तमान से परे परमात्म तत्व के बारे में जिज्ञासा कर की। यमदेव ने नचिकेता को ‘ऊँ’ को प्रतीक रूप में परब्रह्म का स्वरूप बताया। उन्होंने
बताया कि अविनाशी प्रणव यानी ऊंकार ही परमात्मा का स्वरूप है। ऊंकार ही परमात्मा
को पाने के सभी आश्रयों में सबसे सर्वश्रेष्ठ और अंतिम माध्यम है। सारे वेद कई तरह
के छन्दों व मंत्रों में यही रहस्य बताए गए हैं। जगत में परमात्मा के इस नाम व
स्वरूप की शरण लेना ही सबसे बेहतर उपाय है।
उसके बाद
यमराज ने नचिकेता को आशीर्वाद देकर उसे उसके पिता के पास वापस भेज दिया।
वहां से लौटने
के बाद नचिकेता अध्ययन में लग गया, क्योंकि जीवन की सही राह उसे प्राप्त हो चुकी थी। उसी राह
पर चलकर वह एक बहुत बड़ा विद्वान बना और सारे संसार में उसका नाम अमर हो गया।
महात्मा यमराज
और नचिकेता संवाद का रहस्य (कठोपनिषद् के आधार पर)
(प्रस्तुत संदर्भ में मानव जीवन के गुह्यतम् रहस्यों के बारे में विवेचना हुई है। द्वारा-मधुरिता झा)
मनुष्य शरीर
और इन्द्रियां विनाशवान हैं और आत्मा जो परमात्मा का ही अंश है वह
अविनाशी, पूर्ण सच्चिदानन्द, इन इन्द्रियों से परे है । इन मन,
बुद्धि,
चित्त और
अहंकार से भी परे ।
तो फिर ये साधना, ये शास्त्र पुराण, ये विभिन्न धर्म आदि किस लिये? आखिर परमात्मा को पाने के लिए कौन से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि की आवश्यकता है और वे चीजें कैसे प्राप्त हो सकती हैं? किस तरह की साधना चाहिए तथा हमें किस तरह की उपलब्धि प्राप्त होती है इससे ? आत्मा, परमात्मा, प्रकृति आदि क्या हैं? जिनके बारे में चार वेद, अठारह पुराण, छः शास्त्र, उपनिषद आदि ग्रन्थ भरे पड़े हैं, सदियों से ऋषि -महर्षि , महात्मा, भक्त आदि आ-आकर किस परमात्मा की, किस आत्मा की बातें बतातें हैं? उन्होंने इसे कैसे पाया? इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है । इस सन्दर्भ में कृष्ण-यजुर्वेद की कठ शाखा के अन्तर्गत कठोपनिषद का विवेचन अधिक उपयुक्त होगा जिसमें नचिकेता तथा मृत्यु के देवता यमराज का वार्तालाप है । इन प्रश्नों के उपयुक्त उत्तर या तो महात्मा यमराज या स्वयं भगवान ही दे सकते हैं । साथ ही ब्रह्मज्ञानि ऋषि भी।
इन सब
प्रश्नों का उत्तर जानने से पहले हमें जीवात्मा,
परमात्मा तथा
माया के बारे में जानने की आवश्यकता है क्योंकि वेदान्त अर्थात् हमारे उपनिषदों
में हमारे ऋषियों-मुनियों ने इन शब्दों का बार-बार प्रयोग किया है ।
परमात्मा :
परमात्मा आनन्दमय है, नित्य, अनादि, असीम है । यह सर्वशक्तिमान,
सर्वस्वरूप,
सबके परम कारण
तथा सर्वान्तर्यामी है । सांसारिक विषयों को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों की वहां
पहुंच नही हैं ।
जीवात्मा :
जीवात्मा या आत्मा भी अनादि है । यह परमात्मा का ही अंश है परंतु है - ससीम
अर्थात् जिसकी सीमा हो । यह सान्त है । यह भी नित्य है क्योंकि सत्स्वरूप है । यह
शरीर से अलग है क्योंकि शरीर नश्वर है, अनित्य है और विनाशवान है । फिर भी लोग इन दोनों को एक
मानते हैं । इससे बढ़कर अज्ञान और किसे कहा जाय ?
परमात्मा तथा
जीवात्मा का सम्बन्ध
परमात्मा तथा
जीवात्मा के बीच के संबंधो को भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस जी ने इस प्रकार प्रकाशित किया है - ‘‘पानी और बुलबुला वस्तुतः एक ही हैं । बुलबुला पानी में ही
उत्पन्न होता है, पानी में ही रहता है और अंत में पानी में ही समा जाता है ।
उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा वस्तुतः एक ही है । उनमें अंतर केवल उपाधि के
तारतम्य का है - एक सान्त-सीमित है तो दूसरा अनन्त-असीम,
एक आश्रित है
तो दूसरा स्वतंत्र ।’’ यह अविद्या के ही कारण है कि हमें आत्मा ससीम प्रतीत होता
है । अविद्या के नष्ट हो जाने पर आत्मा जो नितान्त अभेद है परमात्मा से,
अपने स्वरूप
को अपने आप ही प्रकट कर देता है अर्थात् वह भी परमात्मा ही हो जाता है ।
माया :
जीवात्मा को परमात्मा से मिलने में जो बाधा डालता है वही माया अर्थात् प्रकृति है
- सांख्य योग में इन तत्त्वों की गणना अर्थात् संख्या बताई गई है अतः इन्हें
सांख्य योग कहा गया है । इसमें 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 कर्मेन्द्रिय, 5 महाभूत, 5 तन्मात्रायें तथा मन, बुद्धि, चित्त एवं अहंकार के रूप में 24 तत्त्वों की गणना हुई है । ये वही तत्त्व हैं जो जीव को 25वें तत्व परमात्मा से मिलने में विक्षेप पैदा करता है ।माया
को देखने की इच्छा से प्रार्थना करते हुए एक दिन भगवान श्री रामकृष्ण को इस प्रकार का दर्शन हुआ था -
‘‘एक छोटा सा बिन्दू धीरे-धीरे बढ़ते हुए एक बालिका के रूप
में परिणत हुआ । बालिका क्रमशः बड़ी हुई
और उसके गर्भ हुआ, फिर उसने एक बच्चे को जन्म दिया और साथ-ही-साथ उसे निगल गई
। इस प्रकार उसके गर्भ से अनेक बच्चे जन्मते गये और वह सबको निगलती गई । तब मेरी
समझ में आया कि यही माया है।’’
अर्थात् जो
अभी है और दूसरे पल नहीं । वही माया है । माया परमात्मा की शक्ति है । वह अनादि
तथा त्रिगुणात्मिका अर्थात् सत्व, रज तथा तम युक्त है । माया से ही समस्त सृश्टि की उत्पत्ति
होती है । माया न सत् है, न असत् और न सद्सत् ही,
यह न नित्य है,
न अनित्य और न
नित्यानित्य ही, वह न खण्ड है न अखण्ड और न खण्डाखण्ड ही । वह अत्यद्भुत है,
अवर्णनीय है ।
माया दो तरह
की हैं एक है विद्या-माया और अविद्या-माया । विद्या-माया जीव को ईश्वर की ओर ले
जाती है और अविद्या-माया उसे ईश्वर से दूर । ज्ञान,
भक्ति,
दया,
वैराग्य- यह
विद्या-माया का ही खेल है इन्हीं का आश्रय ले मनुश्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है
। बिल्ली जब अपने बच्चे को दाँतों से पकड़ती है तो उसे कुछ नहीं होता,
लेकिन जब चूहे
को पकड़ती है तो चूहा मर जाता है । इसी
तरह माया भक्त को नष्ट नहीं करती,
भले ही वह दूसरों
का विनाश कर डालती हैं । अर्थात् परमात्मा अशुद्ध मन,
बुद्धि,
चित्त से परे
है परंतु वही परमात्मा विशुद्ध मन, बुद्धि, चित्त में अपने आप को प्रकट कर देते हैं ।
परमात्मा
प्राप्ति के तकनीक:
यमराज ने
नचिकेता को परमात्मा (या ब्रह्म ) की प्राप्ति के तकनीक दो चरणों में बतायें हैं -
प्रथम चरण -
किसी वस्तु के पूर्ण ज्ञान के लिये उसके अस्तित्व और सार तत्व दोनों का जानना
आवश्यक होता है । यही बात ब्रह्म के लिये
भी लागू होता है उसके अस्तित्व के लिये ही किसी अनुभवी गुरू अर्थात् आत्मोपलब्ध
श्रेश्ठ पुरूष को वरण करना चाहिए जिससे यह स्पष्ट
हो सके कि हमारे शरीर, मन, इन्द्रियों से परे इस भौतिक जगत के पीछे कोई तत्व ब्रह्म है
। इसी संदर्भ में प्रथम चरण की आवश्यकता है जब साधक निश्चिंत विश्वास से परमात्मा को स्वीकार कर लेता है
और परमात्मा अवश्य हैं और अपने हृदय में ही विराजमान हैं तथा वे
साधक को अवश्य मिलते हैं।
ऐसे दृढतम
निश्चय से निरन्तर उसकी प्राप्ति के लिये उत्कंठा के साथ प्रयत्नशील रहता है तो उस
परमात्मा का तात्विक, दिव्य स्वरूप उसके विशुद्ध हृदय में अपने आप प्रकट हो जाता
है । इस प्रकार का ज्ञान होने से आत्मा के प्रति अज्ञान से सीमित देह की
अज्ञान-भावना खंडित हो जाती है । फिर उस मनुष्य
को भले ही वह न चाहे, ‘मैं मनुष्य हूँ’
इस भाव से भी
मुक्ति मिल जाती है। इस तरह साधक देहात्मबुद्धि से मुक्त हो जाता है और साधक को यह
बोध हो जाता है कि वह अनन्त, असीम, पूर्ण बोध युक्त परमात्मा अर्थात् ब्रह्म है तब वह ‘सोSहम्’ या ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की भावना से अनुप्राणित हो उठता है और विविधता से भरे
विश्व से परे एकात्मकता के बोध को प्राप्त
हो जाता है।
द्वितीय चरण -
इस चरण में परमात्मा या ब्रह्म साक्षात्कार के बारे में बताते हुये कहा गया है कि
ससीम मानव मन के लिए आत्मा या परमात्मा या ब्रह्म जो असीम चेतना की ज्योति है,
आत्मा की भी
आत्मा है, पर ध्यान करना अत्यंत दुश्कर है । अतः वेदान्त साधकों को कई
जगत् विख्यात त्रैलोक्यवंदित उपमाओं द्वारा सहयोग करता है । यथा –
अंगुष्ठमात्रः
पुरूशोन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविश्ठ: ।
तं
स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुंजादिवेशीकां धैर्येण । तं विद्यांच्छुक्रममृतं तं
विद्यांच्छुक्रममृतमिति ।।
(कठोपनिषद्, द्वितीय अध्याय, तृतीय बल्ली,श्लोक संख्या-१७)
अन्तरात्मा-सबका
अन्तर्यामी, अंगुष्ठमात्रः-अंगुष्ठमात्र परिमाणवाला,
पुरुषः-परम्
पुरूष, सदा-सदैव, जनानाम्-मनुष्यों के, हृदये -हृदय में, सन्निविश्ठः-भलीभांति प्रविश्ट है,
तम्-उसको,
मुन्जात्-मूंज
से, इशीकाम इव-सींक की भांति,
स्वात्-अपने
से, शरीरात्-शरीर से, धैर्येण-धीरतापूर्वक, प्रबृहेत्-पृथक करके देखे,
तम्-उसी को,
शुक्रम अमृतम्
विधात्-विशुद्ध अमृतस्वरूप समझे, तम शुक्रम अमृतम् विधात्-और उसी को विशुद्ध अमृत स्वरूप
समझे ।
अर्थात् ऐसी
भावना करे कि अंगुष्ठ मात्र पुरूष, जो जीवों के हृदय में स्थित उनका अन्तरात्मा है,
उसे
धैर्यपूर्वक मूंज से सींक के निकालने के समान श रीर से पृथक है। श रीर से पृथक
किये हुए उस अंगुष्ठ मात्र पुरूष को ही चिन्मात्र विशु द्ध अर्थात् निर्धूम अग्नि
के समान तेजोमय और अमृतमय ब्रह्म जाने ।
इस तरह से
प्रथम चरण में तो परमात्मा की प्राप्ति के योग्य सुदृढ़ मनःस्थिति तथा उदार हृदय
की प्राप्ति की तकनीक बताई गई है परन्तु द्वितीय चरण में परमात्मा प्राप्ति का
उपाय बताया गया है । वैसे ध्यान मे तो इसी स्थूल हृदय में इस प्रक्रिया को करना
प्रतीत होता है परन्तु ध्यान की प्रगाढ़ अवस्था मे स्थूल हृदय के पीछे एक सूक्ष्य
हृदय है वह खुल जाता है और फिरविशुद्ध
अमृतमय ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है । इसके बाद कहने को कुछ नहीं रह जाता
है, वह अवर्णनीय होता है । हम परमात्मा से प्रार्थना करते हैं
कि वह हमारे हृदय में प्रकट होकर हमें कृतार्थ करें ।
अगर देखा जाये
तो मूंज घास से सींक के निकालने की प्रक्रिया बडी नाजुक होती है । घास पत्ती में
से कोमल भीतरी भाग को निकालना, बिना देानों को क्षति पहुंचाये बहुत कठिन होती है । यहां धीरज
व सतत् प्रयास आवश्यक है ।
यह धीरज तथा
प्रयत्नशीलता तब शक्य होती है जब साधक आश्वस्त हो जाता है कि दुष्कर साधना के बाद
मिलने वाला फल मनुश्य के लिए श्रेष्ठतम, उच्चतम फल है, जो कि प्रज्ञा और अमरत्व है । अंत में यम घोषणा करते हैं कि
आत्मा ही प्रकाश व अमृत है । वही मानव हृदय में सदा निवास करती हैं: "सदा
जनानां हृदये सन्निविष्टः।"
यह बोध ही
आध्यात्म है । यही है -नचिकेता का मूर्तिमंत वेदांत का अनन्तिम दर्शन । वेदांत
केवल घोषणा ही नहीं करता है - ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का, बल्कि उसे प्रत्यक्ष भी करता है । अंत में कठोपनिषद उदारता
पूर्वक कहता है - अन्योप्येवं योविद्ध्यातमं एवम्-और भी जो ब्रह्मसाक्षात्कार
करेगा, उसी प्रकार अमर हो जायेगा । अर्थात् यह विद्या केवल नचिकेता
के लिये ही नहीं है । यह तो सृष्टि एवं उसमें विराजमान ईश्वर द्वारा समस्त
मानवजाति को दिया हुआ आशीर्वाद है ।
हम उठें, जागें, आगे बढ़ें एवं उसे स्वीकार करें - तभी यह धर्म सजीव हो उठेगा, जीवन का अंग बनेगा, हर गति में, हर लय में, रोम-रोम में समायेगा । वेदांत सार तभी साकार हो उठेगा-समग्र रूप से ।
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