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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीपुरुषोत्तम माहात्म्य
श्रीपुरुषोत्तम माहात्म्य - श्रीराधा
ने भगवान् श्रीकृष्ण को आया देखकर परम भक्तिपूर्वक उन परमेश्वर की स्तुति की और परमात्मा
श्रीकृष्ण के साथ राधाजी रत्नसिंहासन पर विराजमान हुए। तब गोपियों ने उन युगल सरकार की सुन्दर श्रृंगार कर मनोहर झाँकी प्रस्तुत की। तत्पश्चात जो शान्तिमूर्ति,
कमनीय और नायिका के मन को हर लेने वाले हैं तथा मन्द-मन्द मुस्करा
रहे थे; उन प्रियतम श्रीकृष्ण से राधा एकान्त में मुस्कराती
हुई मधुर वचन बोलीं।
श्रीराधिका ने कहा- नाथ! जो स्वयं
मंगलों का भण्डार, संपूर्ण मंगलों का
कारण, मंगलरूप तथा मंगलों का प्रदाता है,उसके विषय में कुशल-मंगल का प्रश्न करना तो निष्फल ही है; तथापि इस समय कुशल पूछना समयानुसार उचित है; क्योंकि
लौकिक व्यवहार वेदों से भी बली माना जाता है। इसलिए रुक्मिणीकान्त! सत्यभामा के
प्राणपति! इस समय कुशल तो है न? तदनन्तर श्रीराधा ने भगवान
श्रीकृष्ण से उनके स्वरूप तथा अवतार लीला के संबंध में प्रश्न किया।
श्रीपुरुषोत्तममाहात्म्यम्
श्रीकृष्ण उवाच
श्रृणु राधे प्रवक्ष्यामि
ज्ञानमाध्यात्मिकं परम् ।
यच्छ्रुत्वा हालिको मूर्खः सद्यो
भवति पण्डितः ।। ८२ ।।
तब श्रीकृष्ण बोले- राधे! जिसे
सुनकर मूर्ख हलवाहा भी तत्काल ही पंडित हो जाता है, उस सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञान का मैं वर्णन करता हूँ, सुनो।
जात्याऽहं चगतां स्वामी किं
रुक्मिण्यादियोषिताम् ।
कार्यकारणरूपोऽहं व्यक्तो राधे
पृथक् पृथक् ।। ८३ ।।
राधे! मैं स्वभाव से ही सब लोकों का
स्वामी हूँ, फिर रुक्मिणी आदि महिलाओं की तो
बात ही क्या है। मैं कार्य कारण रूप से पृथक-पृथक व्यक्त होता हूँ।
एकात्माऽहं च विश्वेषां जात्या
ज्योतिर्मयः स्वयम् ।
सर्वप्राणिषु व्यक्त्या
चाप्याब्रह्मादितृणादिषु ।। ८४ ।।
एकस्मिंश्च भुक्तवति न तुष्टोऽन्यो
जनस्तथा ।
मय्यात्मनि गतेऽप्येको मृतोऽप्यन्यः
सुजीवति ।। ८५ ।।
जात्याऽहं कृष्णरूपश्च परिपूर्णतमः
स्वयम् ।
गोलोके गोकुले पुण्ये क्षेत्रे
वृन्दावने वने ।। ८६ ।।
स्वयं ज्योतिर्मय हूँ,
समस्त विश्वों का एकमात्र आत्मा हूँ और तृण से लेकर ब्रह्मपर्यन्त
संपूर्ण प्राणियों में व्याप्त हूँ। गोलोक में मैं स्वयं परिपूर्णतम श्रीकृष्ण रूप
से वर्तमान रहता हूँ और रमणीय क्षेत्र गोकुल के ‘वृन्दावन’
नामक वन में मैं ही राधापति हूँ।
द्विभुजो गोपवेषश्च स्वयं राधापतिः
शिशुः ।
गोपालैर्गोपिकाभिश्च सहितः
कामधेनुभिः ।। ८७ ।।
उस समय मैं द्विभुज होकर गोपवेष में
शिशुरूप से क्रीड़ा करता हूँ; ग्वाले,
गोपियाँ और गौएं ही मेरी सहायक होती हैं।
चतुर्भुजोऽहं वैकुण्ठे द्विधारूपः
सनातनः ।
लक्ष्मीसरस्वतीकान्तः सततं
शान्तविग्रहः ।। ८८ ।।
वैकुण्ठ में मैं चतुर्भुज रूप से
रहता हूँ;
वहाँ मैं ही लक्ष्मी और सरस्वती का प्रियतम हूँ और सदा शान्तरूप से
वास करता हूँ। इस प्रकार मैं सनातन परमेश्वर ही दो रूपों में विभक्त हूँ।
यन्मानसी सिन्धुकन्या
मर्त्यलक्ष्मीपतिर्भुवि ।
श्वेतद्वीपे च श्रीरीदे तत्रापि च
चतुर्भुजः ।। ८९ ।।
भूतल पर श्वेतद्वीप और क्षीरसागर
में मानसी, सिन्धुकन्या और मर्त्यलक्ष्मी
के जो पति हैं, वह भी मैं ही हूँ और वहाँ भी मैं चतुर्भुज
रूप से ही रहता हूँ।
अहं नारायणर्षिश्च नरो धर्मः सनातनः
।
धर्मवक्ता च धर्मिष्ठो धर्मवर्त्मप्रवर्तकः
।। ९० ।।
मैं स्वयं नारायण ऋषि हूँ और
धर्मवक्ता, धर्मिष्ठ तथा धर्म-मार्ग के
प्रवर्तक सनातन धर्म नर हैं।
शान्तिर्लक्ष्मीस्वरूपा च धर्मिष्ठा
च पतिव्रता ।
अत्र तस्याः पतिरहं पुण्यक्षेत्रे च
भारते ।। ९१ ।।
धर्मिष्ठा तथा पतिव्रता शान्ति
लक्ष्मीस्वरूपा है और इस पुण्यक्षेत्र भारत वर्ष में मैं उसका पति हूँ।
सिद्धेशः सिद्धिदः साक्षात्कपिलोऽहं
सतीपतिः ।
नानारूपधरोऽहं च व्यक्तिभेदेन
सुन्दरि ।। ९२ ।।
मैं ही सिद्धेश्वर,
सिद्धियों के दाता और साक्षात कपिल हूँ। सुंदरि! इस प्रकार
व्यक्तिभेद से मैं नाना रूप धारण करता हूँ।
अहं चतुर्भुजः शश्वद्द्वार्वत्यां
रुक्मिणीवतिः ।
अहं क्षीरोदशायी च सत्यभामागृहे
शुभे ।। ९३ ।।
चतुर्भुजरूपधारी मैं ही सदा द्वारका
में रुक्मिणी का स्वामी होता हूँ, क्षीरसागर में
शयन करने वाला मैं ही सत्यभामा के शुभ भवन में वास करता हूँ।
अन्यासां मन्दिरेऽहं च
कायव्यूहात्पृथक्पृथक् ।
अहं नारायणर्षिश्च फाल्गुनस्यास्य
सारथिः ।। ९४ ।।
तथा अन्यान्य रानियों के महलों में
मैं ही पृथक-पृथक शरीर धारण करके क्रीड़ा करता हूँ। मैं नारायण ऋषि ही इस अर्जुन
का सारथि हूँ।
स नरर्षिर्धर्मपुत्रो मदंशो
बलवान्भुवि ।
तपसाऽऽराधितस्तेन सारथ्येऽहं च
पुष्करे ।। ९५ ।।
अर्जुन नर ऋषि है,
धर्म का पुत्र है, बलवान है और मेरे अंश से
भूतल पर उत्पन्न हुआ है। उसने पुष्कर क्षेत्र में सारथि-कार्य के लिए तपस्या
द्वारा मेरी आराधना की है।
यथा त्वं राधिका देवी गोलेके गोकुले
तथा ।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्भवती च
सरस्वती ।। ९६ ।।
राधे! जैसे तुम गोलोक में राधिका
देवी हो,
उसी तरह गोकुल में भी हो। तुम्हीं वैकुण्ठ में महालक्ष्मी और
सरस्वती हो।
भवती मर्त्यलक्ष्मीश्च
क्षीरोदशायिनः प्रिया ।
धर्मपुत्रवधूस्त्वं च
शान्तिर्लक्ष्मीस्वरूपिणी ।। ९७ ।।
क्षीरोदशायी की प्रियतमा
मर्त्यलक्ष्मी तुम्हीं हो। धर्म की पुत्रवधू लक्ष्मीस्वरूपिणी शान्ति के रूप में
तुम्हीं वर्तमान हो।
कपिलस्य प्रिया कान्ताभारते भवती
सती ।
त्वं सीता मिथिलायां च त्वच्छाया
द्रौपदी सती ।। ९८ ।।
भारतवर्ष में कपिल की प्यारी पत्नी
सती भारती तुम्हारा ही नाम है। तुम्हीं मिथिला में सीता नाम से विख्यात हो। सती
द्रौपदी तुम्हारी ही छाया है।
द्वारवत्यां महाल्क्ष्मीर्भवती
रुक्मिणी सती ।
पञ्चानां पाण्डवानां च भवती कलया
प्रिया ।। ९९ ।।
द्वारका में महालक्ष्मी के अंश से
प्रकट हुई सती रुक्मिणी के रूप में तुम्हीं वास करती हो। पाँचों पाण्डवों की पत्नी
द्रौपदी तुम्हारी कला है।
रावणेन हृता त्वं च स्वं च रामस्य
कामिनी ।
नानारूपा यथा त्वं च च्छायया कलया
सती ।। १०० ।।
तुम्हीं राम की पत्नी सीता हो;
रावण ने तुम्हारा ही अपहरण किया था। सति! जैसे तुम अपनी छाया और कला
से नाना रूपों में प्रकट हो।
नानारूपस्तथाऽहं च श्वांशेन कलया
तथा ।
परिपूर्णतमोऽहं च परमात्मा परात्परः
।। १०१ ।।
वैसे ही मैं भी अपने अंश और कला से
अनेक रूपों में व्यक्त हूँ। मैं ही परिपूर्णतम परात्पर परमात्मा हूँ।
इति ते कथितं सर्वमाध्यात्मिकमिदं
सति ।
राधे कर्वापराधं मे क्षमस्व
परमेश्वरी ।। १०२ ।।
सती राधे! इस प्रकार मैंने तुम्हें
यह सारा आध्यात्मिक ज्ञान बता दिया। परमेश्वरी! अब तुम मेरे सारे अपराधों को क्षमा
कर दो।
श्रीकृष्णवचनं श्रुत्वा परितुष्टा च
राधिका ।
परितुष्टाश्च गोप्यश्च प्रणेमुः
परमेश्वरम् ।। १०३ ।।
श्रीकृष्ण का कथन सुकर राधिका तथा
सभी गोपिकाओं को महान हर्ष हुआ। वे सभी परमेश्वर श्रीकृष्ण को प्रणाम करने लगीं।
इति श्रीब्रह्मo महाo श्रीकृष्णजन्मखo उत्तo नारदनाoषड्विंशत्यधिकशततमोध्यायः ।। १२६ ।।
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