श्रीराधास्वरूपवर्णन
श्रीराधास्वरूपवर्णन -गोपियों
सहित श्रीराधा ने देवी की वन्दना और स्तुति करके गौरीव्रत को पूर्ण किया। इसी समय
दुर्गतिनाशिनी दुर्गा वहाँ आकाश से प्रकट हुईं, जो
ब्रह्मतेज से प्रकाशित हो रही थीं। उनके प्रसन्न मुख पर मन्द हास्य की प्रभाव फैल
रही थी। वे सौ योगिनियों के साथ थीं। सिंह से जुते हुए रथ पर बैठी तथा रत्नमय
अलंकारों से विभूषित थीं। उनके दस भुजाएँ थीं। उन्होंने रत्नसारमय उपकरणों से
युक्त सुवर्णनिर्मित दिव्य रथ से उतरकर तुरंत ही श्रीराधा को हृदय से लगा लिया।
देवी दुर्गा को देखकर अन्य गोप कुमारियों ने भी प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम किया।
दुर्गा ने उन्हें आशीर्वाद देते हुए कहा– ‘तुम सबका मनोरथ
सिद्ध होगा।’ इस प्रकार गोपिकाओं को वर दे उनसे सादर सम्भाषण
कर देवी ने मुस्कराते हुए मुखारविन्द से राधिका को सम्बोधित करके कहा।
श्रीराधास्वरूपवर्णनम्
पार्वत्युवाच
।।
राधे सर्वेश्वरप्राणादधिके
जगदम्बिके ।
व्रतं ते लोकशिक्षार्थं
मायामानुषरूपिणि ।।
पार्वती बोलीं–
राधे! तुम सर्वेश्वर श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हो।
जगदम्बिके! तुम्हारा यह व्रत लोकशिक्षा के लिये है। तुम माया से मानवरूप में प्रकट
हुई हो।
गोलोकनाथं गोलोकं श्रीशैलं
गिरिजातटम् ।
श्रीरासमण्डलं दिव्यं
वृन्दावनमनोहरम् ।।
सुन्दरि! क्या तुम गोलोकनाथ,
गोलोक, श्रीशैल, विरजा
के तटप्रान्त, श्रीरासमण्डल तथा दिव्य मनोहर वृन्दावन को कुछ
याद करती हो?
चरितं रतिचोरस्य स्त्रीणां
मानसहारकम् ।
विदुषः कामशास्त्राणां
किंस्वित्स्मरसि सुन्दरि ।।
क्या तुम्हें प्रेमशास्त्र के
विद्वान तथा रतिचोर श्यामसुन्दर के उस चरित्र का किंचित भी स्मरण होता है,
जो नारियों के चित्त को बरबस अपनी ओर खींच लेता है?
श्रीकृष्णार्धाङ्गसंभूता
कृष्णतुल्या च तेजसा ।
तवांशकलया देव्यः कथं त्वं मानुषी
सती ।।
तुम श्रीकृष्ण के अर्धांग से प्रकट
हुई हो;
अतः उन्हीं के समान तेजस्विनी हो। समस्त देवांगनाएँ तुम्हारी अंशकला
से प्रकट हुई हैं; फिर तुम मानवी कैसे हो?
भवती च हरेः प्राणा भवत्याश्च हरिः
स्वयम् ।
वेदे नास्ति द्वयोर्भेदः कथं त्वं
मानुषी सती ।।
तुम श्रीहरि के लिये प्राणस्वरूपा
हो और स्वयं श्रीहरि तुम्हारे प्राण हैं। वेद में तुम दोनों का भेद नहीं बताया गया
है;
फिर तुम मानवी कैसे हो?
षष्टिवर्षसहस्राणि ब्रह्मा तप्त्वा
तपः पुरा ।
न ते ददर्श पादाब्जं कथं त्वं
मानुषी सती ।।
पूर्वकाल में ब्रह्मा जी साठ हजार
वर्षों तक तप करके भी तुम्हारे चरणकमलों का दर्शन न पा सके;
फिर तुम मानुषी कैसे हो?
कृष्णाज्ञया च त्वं देवि गोपीरूपं
विधाय च ।
आगताऽसि महीं शान्ते कथं त्वं
मानुषी सती ।।
तुम तो साक्षात देवी हो। श्रीकृष्ण
की आज्ञा से गोपी का रूप धारण करके पृथ्वी पर पधारी हो;
शान्ते! तुम मानवी स्त्री कैसे हो?
सुयज्ञो हि नृपश्रेष्ठो
मनुवंशसमुद्भवः ।
त्वत्तो जगाम गोलोकं कथं त्वं
मानुषी सती ।।
मनुवंश से उत्पन्न नृपश्रेष्ठ
सुयज्ञ तुम्हारी ही कृपा से गोलोक में गये थे; फिर
तुम मानुषी कैसे हो?
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां चकार
पृथिवीं भृगुः ।
तव मन्त्रेण कवचात्कथं त्वं मानुषी
सती ।।
तुम्हारे मन्त्र और कवच के प्रभाव
से ही भृगुवंशी परशुराम जी ने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रिय-नरेशों से शून्य
कर दिया था। ऐसी दशा में तुम्हें मानवी स्त्री कैसे कहा जा सकता है?
शंकरात्प्राप्य त्वन्मन्त्रं सिद्धं
कृत्वा च पुष्करे ।
जघान कार्तवीर्यं च कथं त्वं मानुषी
सती ।।
परशुराम जी ने भगवान शंकर से
तुम्हारे मन्त्र को प्राप्त कर पुष्कर तीर्थ में उसे सिद्ध किया और उसी के प्रभाव
से वे कार्तवीर्य अर्जुन का संहार कर सके; फिर
तुम मानुषी कैसे हो?
बभञ्ज दर्पाद्दन्तं च गणेशस्य
महात्मनः ।
त्वत्तो नाम भयं चक्रे कथं त्वं
मानुषी सती ।।
उन्होंने अभिमानपूर्वक महात्मा गणेश
का एक दाँत तोड़ दिया। वे केवल तुमसे ही भय मानते थे;
फिर तुम मानवी स्त्री कैसे हो?
मय्युद्धतायां कोपेन
भस्मसात्कर्तुमीश्वरः ।
ररक्षागत्य मत्प्रीत्या कथं त्वं
मानुषी सती ।।
जब मैं क्रोध से उन्हें भस्म करने
को उद्यत हुई, तब हे ईश्वरि! मेरी प्रसन्नता
के लिये तुमने स्वयं आकर उनकी रक्षा की; फिर तुम मानुषी कैसे
हो?
कल्पे कल्पे तव पतिः कृष्णो जन्मनि
जन्मनि ।
व्रतं लोकहितार्थाय जगन्मातस्त्वया
कृतम् ।।
श्रीकृष्ण प्रत्येक कल्प में तथा
जन्म-जन्म में तुम्हारे पति हैं। जगन्मातः! तुमने लोकहित के लिये ही यह व्रत किया
है।
अहो श्रीदामशापेन भारावतरणेन च ।
भूमौ तवाधिष्ठानं च कथं त्वं मानुषी
सती ।।
अहो! श्रीदाम के शाप से और भूमिका
का भार उतारने के लिये पृथ्वी पर तुम्हारा निवास हुआ है;
फिर तुम मानवी स्त्री कैसे हो?
अयोनिसंभवा त्वं च जन्ममृत्युजरापहा
।
कलावतीसुता पुण्या कथं त्वं मानुषी
सती ।।
तुम जन्म,
मृत्यु और जरा का नाश करने वाली देवी हो। कलावती की अयोनिजा पुत्री
एवं पुण्यमयी हो; फिर तुम्हें साधारण मानुषी कैसे माना जा
सकता है?
त्रिषु मासेष्वतीतेषु मधुमासे
मनोहरे ।
निर्जने निर्मले रात्रौ सुयोग्ये
रासमण्डले ।।
सर्वाभिर्गोपिकाभिश्च सार्धं
वृन्दावने वने ।
हर्षेण हरिणा सार्धं क्रीडा ते
भविता सति ।।
तीन मास व्यतीत होने पर जब मनोहर
मधुमास (चैत्र) उपस्थित होगा, तब रात्रि के
समय निर्जन, निर्मल एवं सुन्दर रासमण्डल में वृन्दावन के
भीतर श्रीहरि के साथ समस्त गोपिकाओं सहित तुम्हारी रासक्रीड़ा सानन्द सम्पन्न
होगी।
विधात्रा लिखिता क्रीडा कल्पे कल्पे
महीतले ।
तव श्रीहरिणा सार्धं केन राधे
निवार्यते ।।
सती राधे! प्रत्येक कल्प में भूतल
पर श्रीहरि के साथ तुम्हारी रसमयी लीला होगी, यह
विधाता ने ही लिख दिया है। इसे कौन रोक सकता है?
यथा सौभाग्ययुक्ताऽहं हरस्य
श्रीहरिप्रिये ।
तथा सौभाग्ययुक्ता त्वं भव कृष्णस्य
सुन्दरि ।।
सुन्दरी! श्रीहरिप्रिये! जैसे मैं
महादेव जी की सौभाग्यवती पत्नी हूँ, उसी
प्रकार तुम श्रीकृष्ण की सौभाग्यशालिनी वल्लभा हो।
यथा क्षीरेषु धावल्यं यथा वह्नौ च
दाहिका ।
भुवि गन्धो जले शैत्यं तथा कृष्णे
स्थितिस्तव ।।
जैसे दूध में धवलता,
अग्नि में दाहिका शक्ति, भूमि में गन्ध और जल
में शीतलता है; उसी प्रकार श्रीकृष्ण में तुम्हारी स्थिति
है।
देवी वा मानुषी वाऽपि गान्धर्वी
राक्षसी तथा ।
त्वत्तः परा च सौभाग्या न भूता न
भविष्यति ।।
देवांगना,
मानवकन्या, गन्धर्वजाति की स्त्री तथा राक्षसी–
इनमें से कोई भी तुमसे बढ़कर सौभाग्यशालिनी न तो हुई है और न होगी
ही।
परात्परो गुणातीतो ब्रह्मादीनां च
वन्दितः ।
स्वयं कृष्णस्तवाधीनो मद्वरेण
भविष्यति ।।
मेरे वर से ब्रह्मा आदि के भी
वन्दनीय,
परात्पर एवं गुणातीत भगवान श्रीकृष्ण स्वयं तुम्हारे अधीन होंगे।
ब्रह्मानन्तशिवाराध्यो भविता
त्वद्वशः सति ।
ध्यानासाध्यो दुराराध्यः सर्वेषामपि
योगिनाम् ।।
पतिव्रते! ब्रह्मा, शेषनाग तथा शिव भी जिनकी आराधना करते हैं, जो ध्यान से भी वश में होने वाले नहीं हैं तथा जिन्हें आराधना द्वारा रिझा लेना समस्त योगियों के लिये भी अत्यन्त कठिन है; वे ही भगवान तुम्हारे अधीन रहेंगे।
त्वं च भाग्यवती राधे स्त्रीजातिषु
न ते परा ।
कृष्णेन सार्धं पश्चात्त्वं गोलोकं
च गमिष्यसि ।।
राधे! स्त्रीजाति में तुम विशेष
सौभाग्यशालिनी हो। तुमसे बढ़कर दूसरी कोई स्त्री नहीं है। तुम दीर्घकाल तक यहाँ
रहने के पश्चात श्रीकृष्ण के साथ ही गोलोक में चली जाओगी।
इति श्रीराधास्वरूपवर्णनम् ।।
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