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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
दुर्वासा कृत श्रीकृष्णस्तोत्र
दुर्वासा कृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम्
।। दुर्वासा उवाच ।।
त्राहि मां कमलाकान्त त्राहि मां
करुणानिधे ।।
दीनबन्धोऽतिदीनेश करुणासागर प्रभो
।। ९४ ।।
वेदवेदाङ्गसंस्रष्टुर्विधातुश्च
स्वयं विधे ।।
मृत्योर्मृत्युः कालकाल त्राहि मां
संकटार्णवे ।। ९५ ।।
संहारकर्तुः
संहारः सर्वेशः सर्वकारणः ।।
महाविष्णुतरोर्बीजं रक्ष मां
भवसागरे ।। ९६ ।।
शरणागतशोकार्तभयत्राणपरायण ।।
भगवन्नव मां भीतं नारायण नमोऽस्तु
ते ।। ९७ ।।
वेदेष्वाद्यं च यद्वस्तु वेदाः
स्तोतुं न च क्षमाः ।।
सरस्वती जडीभूता किं स्तुवन्ति
विपश्चितः ।। ९७ ।।
शेषः सहस्रवक्त्रेण यं स्तोतुं जडतां
व्रजेत् ।।
पञ्चवक्त्रो जडीभूतो
जडीभूतश्चतुर्मुखः ।। ९९ ।।
श्रुतयः स्मृतिकर्तारो वाणी
चेत्स्तोतुमक्षमा ।।
कोऽहं विप्रश्च वेदज्ञः शिष्यः किं
स्तौमि मानद ।। १०० ।।
मनूनां च महेन्द्राणामष्टाविंशतिमे
गते ।।
दिवानिशं यस्य विधेरष्टोत्तरशतायुषः
।। १०१ ।।
तस्य पातो भवेद्यस्य
चक्षुरुन्मीलनेन च ।।
तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि पाहि मां
प्रभो ।। १०२ ।।
इत्येवं स्तवनं कृत्वा पपात
चरणाम्बुजे ।।
नयनाम्बुजनीरेण सिषेच भयविह्वलः
।।१०३।।
दुर्वाससा कृतं स्तोत्रं हरेश्च
परमात्मनः ।।
पुण्यदं सामवेदोक्तं जगन्मङ्गलनामकम्
।। १०४ ।।
यः पठेत्संकटग्रस्तो भक्तियुक्तश्च
संयतः ।।
नारायणस्तं कृपया शीघ्रमागत्य
रक्षति ।। १०५ ।।
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे
भयाकुले ।।
शत्रुग्रस्ते दस्युभीतौ
हिंस्रजन्तुसमन्विते ।। ।। १०६।।
वेष्टिते राजसैन्येन मग्ने पोते
महार्णवे।।
स्तोत्रस्मरणमात्रेण मुच्यते नात्र
संशयः ।। १०७ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते दुर्वाससा
कृतं श्रीकृष्णस्तोत्रं समाप्तम् ।।
दुर्वासाकृत श्रीकृष्ण स्तुति
दुर्वासा उवाच
जय जय जगतां नाथ जितसर्व जनार्दन
सर्वात्मक
सर्वेश सर्वबीज पुरातन निर्गुण
निरीह ।। १ ।।
निर्लिप्त निरञ्जन निराकार
भक्तानुग्रहविग्रह
सत्यम्वरूपसनातन निःस्वरूप
नित्यनूतन ।। २ ।।
ब्रह्मेशशेषधनेशवन्दित पद्मया
सेवितपादपद्म
ब्रह्मज्योतिरनिर्वचनीय
वेदाविदितगुणरूप
महाकाशसंमाननीय परमात्मन्नमोऽस्तु
ते ।। ३ ।।
दुर्वासा बोले- जगदीश्वर! आप सब पर
विजय पाने वाले, जनार्दन, सबके
आत्म स्वरूप, सर्वेश्वर, सबके कारण,
पुरातन, गुणरहित, इच्छा
से परे, निर्लिप्त, निष्कलंक, निराकार, भक्तानुग्रहमूर्ति, सत्यस्वरूप,
सनातन, रूपरहित, नित्य
नूतन और ब्रह्मा, शिव, शेष तथा कुबेर
द्वारा वन्दित हैं। लक्ष्मी आपके चरण कमलों की सेवा करती रहती हैं। आप
ब्रह्मज्योति और अनिर्वचनयी हैं, वेद भी आपके रूप और गुण का
थाह नहीं लगा पाते और आप महाकाश के समान सम्माननीय हैं; आपकी
जय हो, जय हो। परमात्मन! आपको मेरा नमस्कार प्राप्त हो।
जगन्मंगल श्रीकृष्णस्तोत्र भावार्थ सहित
।। दुर्वासा उवाच ।।
त्राहि मां कमलाकान्त त्राहि मां
करुणानिधे ।
दीनबन्धोऽतिदीनेश करुणासागर प्रभो
।। ९४ ।।
दुर्वासा बोले–
कमलाकान्त! मेरी रक्षा कीजिये। करुणानिधे! मुझे बचाइये। प्रभो! आप
दीनों के बन्धु और अत्यन्त दुःखियों के स्वामी हैं। दया के सागर हैं।
वेदवेदाङ्गसंस्रष्टुर्विधातुश्च
स्वयं विधे ।
मृत्योर्मृत्युः कालकाल त्राहि मां
संकटार्णवे ।। ९५ ।।
वेद-वेदांगों के स्रष्टा विधाता के
भी विधाता हैं। मृत्यु की भी मृत्यु और काल के भी काल हैं। मैं संकट के समुद्र में
पड़ा हूँ। मेरी रक्षा कीजिये।
संहारकर्तुः संहारः सर्वेशः
सर्वकारणः ।
महाविष्णुतरोर्बीजं रक्ष मां
भवसागरे ।। ९६ ।।
आप संहारकर्ता के भी संहारक,
सर्वेश्वर और सर्वकारण हैं। महाविष्णुरूपी वृक्ष के बीज हैं। प्रभो!
इस भवसागर से मेरी रक्षा कीजिये।
शरणागतशोकार्तभयत्राणपरायण ।
भगवन्नव मां भीतं नारायण नमोऽस्तु
ते ।। ९७ ।।
शरणागत एवं शोकाकुल जनों का भय दूर
करके उनकी रक्षा में लगे रहने वाले भगवन! मुझ भयभीत का उद्धार कीजिये। नारायण!
आपको नमस्कार है।
वेदेष्वाद्यं च यद्वस्तु वेदाः
स्तोतुं न च क्षमाः ।
सरस्वती जडीभूता किं स्तुवन्ति
विपश्चितः ।। ९७ ।।
वेदों में जिन्हें आदिसत्ता कहा गया
है,
वेद भी जिनकी स्तुति नहीं कर सकते और सरस्वती भी जिनके स्तवन में
जड़वत हो जाती हैं; उन्हीं प्रभु की दूसरे विद्वान क्या
स्तुति कर सकते हैं?
शेषः सहस्रवक्त्रेण यं स्तोतुं
जडतां व्रजेत् ।
पञ्चवक्त्रो जडीभूतो जडीभूतश्चतुर्मुखः
।। ९९ ।।
शेष सहस्र मुखों से जिनकी स्तुति
करने में जड़भाव को प्राप्त होते हैं, पंचमुख
महादेव और चतुर्मुख ब्रह्मा भी जड़ीभूत हो जाते हैं।
श्रुतयः स्मृतिकर्तारो वाणी
चेत्स्तोतुमक्षमा ।
कोऽहं विप्रश्च वेदज्ञः शिष्यः किं
स्तौमि मानद ।। १०० ।।
श्रुतियाँ,
स्मृतिकार और वाणी भी जिनकी स्तुति में अपने को असमर्थ पाती हैं;
उन्हीं का स्तवन मुझ-जैसा ब्राह्मण कैसे कर सकता है? मानद! मैं वेदों का ज्ञाता क्या हूँ, वेदवेत्ता
विद्वानों का शिष्य हूँ। मुझमें आपकी स्तुति करने की क्या योग्यता है?
मनूनां च महेन्द्राणामष्टाविंशतिमे
गते ।
दिवानिशं यस्य विधेरष्टोत्तरशतायुषः
।। १०१ ।।
अट्टाईसवें मनु और महेन्द्र के
समाप्त हो जाने पर जिनका एक दिन-रात का समय पूरा होता है,
वे विधाता अपने वर्ष से एक सौ आठ वर्ष तक जीवित रहते हैं।
तस्य पातो भवेद्यस्य
चक्षुरुन्मीलनेन च ।
तमनिर्वचनीयं च किं स्तौमि पाहि मां
प्रभो ।। १०२ ।।
परंतु जब उनका भी पतन होता है,
तब आपके नेत्रों की एक पलक गिरती है; ऐसे
अनिर्वचनीय परमेश्वर की मैं क्या स्तुति कर सकूँगा? प्रभो!
मेरी रक्षा कीजिये।
इत्येवं स्तवनं कृत्वा पपात
चरणाम्बुजे ।
नयनाम्बुजनीरेण सिषेच भयविह्वलः
।।१०३।।
इस प्रकार स्तुति करके भय से विह्वल
हुए दुर्वासा श्रीहरि के चरणकमलों में गिर पड़े और अपने अश्रुजल से उन्हें सींचने
लगे।
दुर्वाससा कृतं स्तोत्रं हरेश्च
परमात्मनः ।
पुण्यदं सामवेदोक्तं
जगन्मङ्गलनामकम् ।। १०४ ।।
यः पठेत्संकटग्रस्तो भक्तियुक्तश्च
संयतः ।
नारायणस्तं कृपया शीघ्रमागत्य
रक्षति ।। १०५ ।।
दुर्वासा द्वारा किये गये परमात्मा
श्रीहरि के इस सामवेदोक्त जगन्मंगल नामक पुण्यदायक स्तोत्र का जो संकट में पड़ा
हुआ मनुष्य भक्तिभाव से पाठ करता है, नारायण
देव कृपया शीघ्र आकर उसकी रक्षा करते हैं।
राजद्वारे श्मशाने च कारागारे
भयाकुले ।
शत्रुग्रस्ते दस्युभीतौ
हिंस्रजन्तुसमन्विते ।। १०६।।
वेष्टिते राजसैन्येन मग्ने पोते
महार्णवे ।
स्तोत्रस्मरणमात्रेण मुच्यते नात्र
संशयः ।। १०७ ।।
राजद्वार में,
श्मशान में, कारागार में, शत्रुओं के मध्य व राजसैन्य से घिर जाने, हिंस्क
पशुओं से घिर जाने आदि संकट होने पर भी इस स्तोत्र के स्मरणमात्र से ही सारे
संकटों का नाश हो जाता है इसमें संशय नहीं है ।
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