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कर्मकाण्ड

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एकादशी व्रत माहात्म्य

एकादशी व्रत माहात्म्य

नारद जी के पूछने पर एकादशी का माहात्म्य बताते हुए श्रीनारायण ने कहामुने! यह एकादशी व्रत देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। यह श्रीकृष्ण प्रीति का जनक तथा तपस्वियों का श्रेष्ठ तप है। जैसे देवताओं में श्रीकृष्ण, देवियों में प्रकृति, वर्णों में ब्राह्मण, तथा वैष्णवों में भगवान शिव श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार व्रतों में यह एकादशी व्रत श्रेष्ठ है। यह चारों वर्णों के लिये सदा ही पालनीय व्रत है। यतियों, वैष्णवों तथा विशेषतः ब्राह्मणों को तो इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिये।सचमुच ही ब्रह्महत्या आदि सारे पाप एकादशी के दिन चावल (भात)का आश्रय लेकर रहते हैं। जो मन्द-बुद्धि मानव इतने पापों का भक्षण करते हुए चावल खाता है, वह इस लोक में अत्यन्त पातकी है और अन्त में निश्चय ही नरकगामी होता है। दशमी के लंघन में जो दोष है, उसे बताता हूँ; सुनो।

एकादशी व्रत माहात्म्य

एकादशी व्रत का माहात्म्य, व्रत के सम्बन्ध में आवश्यक निर्णय

पूर्वकाल में धर्म के मुख से मैंने इसका श्रवण किया था। जो मूढ़ जान-बूझकर कलामात्र दशमी का लंघन करता है, उसे तुरंत ही दारुण शाप देकर लक्ष्मी उसके घर से निकल जाती हैं। इस लोक में निश्चय ही उसके वंश की और यश की भी हानि होती है।

जिस दिन दशमी, एकादशी और द्वादशी तीनों तिथियाँ हों, उस दिन भोजन करके दूसरे दिन उपवास-व्रत करना चाहिये। द्वादशी को व्रत करके त्रयोदशी को पारण करना चाहिये। उस दशा में व्रतधारियों को द्वादशी-लंघन से दोष नहीं होता। जब पूरे दिन और रात में एकादशी हो तथा उसका कुछ भाग दूसरे दिन प्रातःकाल तक चला गया हो, तब दूसरे दिन ही उपवास करना चाहिये। यदि परा तिथि बढ़कर साठ दण्ड की हो गयी हो और प्रातःकाल तीन तिथियों का स्पर्श हो तो गृहस्थ पूर्व दिन में ही व्रत करते हैं; यति आदि नहीं। उन्हें दूसरे दिन उपवास करके नित्य-कृत्य करना चाहिये। दो दिन एकादशी हो तो भी व्रत में सारा जागरण-सम्बन्धी कार्य पहली ही रात में करे। पहले दिन में व्रत करके दूसरे दिन एकादशी बीतने पर पारण करे। वैष्णवों, यतियों, विधवाओं, भिक्षुओं एवं ब्रह्मचारियों को सभी एकादशियों में उपवास करना चाहिये। वैष्णवेतर गृहस्थ शुक्लपक्ष की एकादशी को ही उपवास-व्रत करते हैं। अतः नारद! उनके लिये कृष्णा एकादशी का लंघन करने पर भी वेदों में दोष नहीं बताया गया है। हरिशयनी और हरिबोधिनीइन दो एकादशियों के बीच में जो कृष्णा एकादशियाँ आती हैं, उन्हीं में गृहस्थ पुरुष को उपवास करना चाहिये। इनके सिवा दूसरी किसी कृष्णपक्ष की एकादशी में गृहस्थ पुरुष को उपवास नहीं करना चाहिये। ब्रह्मन! इस प्रकार एकादशी के विषय में निर्णय कहा गया, जो श्रुति में प्रसिद्ध है। अब इस व्रत का विधान बताता हूँ, सुनो।

एकादशी व्रत का विधान

दशमी के दिन पूर्वाह्न में एक बार हविष्यान्न भोजन करे। उसके बाद उस दिन फिर जल भी न ले। रात में कुश की चटाई पर अकेला शयन करे और एकादशी के दिन ब्राह्ममुहूर्त में उठकर प्रातःकालिक कार्य करके नित्य-कृत्य पूर्ण करने के पश्चात स्नान करे। फिर श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के उद्देश्य से व्रतोपवास का संकल्प लेकर संध्या-तर्पण करने के अनन्तर नैत्यिक पूजन आदि करे। दिन में नैत्यिक पूजन करके व्रतसम्बन्धी आवश्यक सामग्री का संग्रह करे। षोडशोपचार-सामग्री का सानन्द संग्रह करके शास्त्रीय विधि से प्रेरित हो आवश्यक कार्य करे। षोडश उपचारों के नाम ये हैंआसन, वस्त्र, पाद्य, अर्घ्य, पुष्प, अनुलेपन, धूप, दीप, नैवेद्य, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, स्नानीय पदार्थ, ताम्बूल, मधुपर्क और पुनराचमनीय जलइन सब सामानों को दिन में जुटाकर रात में व्रत-सम्बन्धी पूजनादि कार्य करे।

स्नान आदि से पवित्र हो धुले हुए धौत और उत्तरीय वस्त्र धारण करके आसन पर बैठे। फिर आचमन-प्राणायाम के पश्चात श्रीहरि को नमस्कार करके स्वस्तिवाचन करे। तदनन्तर शुभ बेला में सप्तधान्य के ऊपर मंगल-कलश की स्थापना करके उसके ऊपर फल-शाखा सहित आम्रपल्लव रखे। कलश में चन्दन का अनुलेप करे और मुनियों ने वेदों में कलश के स्थापन और पूजन की जो विधि बतायी है, उसका प्रसन्नतापूर्वक सम्पादन करे। फिर अलग-अलग धान्यपुंज पर छः देवताओं का आवाहन करके विद्वान पुरुष उत्कृष्ट पंचोपचार-सामग्री द्वारा उनका पूजन करे। वे छः देवता हैंगणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वती। इन सबकी पूजा और वन्दना करके श्रीहरि का स्मरण करते हुए व्रत करे। व्रती पुरुष यदि इन छः देवताओं की आराधना किये बिना नित्य और नैमित्तिक कर्म का अनुष्ठान करता है तो उसका वह सारा कर्म निष्फल हो जाता है। इस प्रकार व्रत की अंगभूत सारी आवश्यक विधि बतायी गयी। इसका काण्वशाखा में वर्णन है। महामुने! अब तुम अभीष्ट व्रत के विषय में सुनो।

एकादशी व्रत विधि

सामवेद में बताये हुए ध्यान के अनुसार परात्पर भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके मस्तक पर फूल रखकर फिर ध्यान करे। नारद! मैं गूढ़ ध्यान बता रहा हूँ, जो सबके लिये वांछनीय है। इसे अभक्त पुरुष के सामने नहीं प्रकाशित करना चाहिये। भक्तों के लिये तो यह ध्यान प्राणों से भी अधिक प्रिय है।

ध्यान

नवीननीरदो यद्वच्छ्यामसुन्दरविग्रहम् ।

शरत्पार्वणचन्द्राभाविनिन्द्यास्यमनुत्तमम् ।।

शरत्सूर्योदयाब्जानां प्रभामोचनलोचनम् ।

स्वांगसौंदर्यशोभाभी रत्नभूषणभूषितम् ।।

गोपीलोचनकोणैश्च प्रसन्नैरतिसूचकैः ।

शश्वन्निरीक्ष्यमाणं तत्प्राणैरिव विनिर्मितम् ।।

रासमण्डलमध्यस्थं रासोल्लाससमुत्सुकम् ।

राधावक्त्रशरच्चन्द्रसुधापानचकोरकम् ।।

कौस्तुभेन मणीन्द्रेण वक्षःस्थलसमुज्ज्वलम् ।

पारिजातप्रसूनानां मालाजालैर्विराजितम् ।।

सद्रत्नसारनिर्माणं किरीटोज्ज्वलशेखरम् ।

विनोदमुरलीन्यस्तहस्तं पूज्यं सुरासुरैः ।।

ध्यानासाध्यं दुराराध्यं ब्रह्मादीनां च वन्दितम् ।

कारणं कारणानां यस्तमीश्वरमहं भजे ।।

भगवान श्रीकृष्ण का शरीर-विग्रह नवीन मेघमाला के समान श्याम तथा सुन्दर है। उनका मुख शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की आभा को तिरस्कृत करता है। वे सर्वश्रेष्ठ एवं परम मनोहर हैं। उनके नेत्र शरत्काल के सूर्योदय की बेला में विकसित होने वाले धारित रत्नमय आभूषण उनके अपने ही अंगों की सौन्दर्य-शोभा से विभूषित होते हैं। गोपियों के प्रसन्नतापूर्ण एवं अनुरागसूचक नेत्रकोण उन्हें सतत निहारते रहते हैं, मानो भगवान का शरीर-विग्रह उनके प्राणों से ही निर्मित हुआ है। वे रासमण्डल के मध्यभाग में विराजमान तथा रासोल्लास के लिये अत्यन्त उत्सुक हैं। राधा के मुखरूपी शरच्चन्द्र की सुधा का पान करने के लिये चकोररूप हो रहे हैं। मणिराज कौस्तुभ की प्रभा से उनका वक्षःस्थल अत्यन्त उद्भासित हो रहा है और पारिजातपुष्पों की विविध मालाओं से वे अत्यन्त शोभायमान हैं। उनका मस्तक उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित दिव्य मुकुट की ज्योति से जगमगा रहा है। मनोविनोद की साधनभूता मुरली को उन्होंने अपने हाथ में ले रखा है। देवता और असुर सभी उनकी पूजा करते हैं। वे ध्यान के द्वारा भी किसी के वश में आने वाले नहीं हैं। उन्हें आराधना द्वारा रिझा लेना भी बहुत कठिन है। ब्रह्मा आदि देवता भी उनकी वन्दना करते हैं और वे समस्त कारणों के भी कारण हैं; उन परमेश्वर श्रीकृष्ण का मैं भजन करता हूँ।

इस विधि से ध्यान और आवाहन करके पूर्वोक्त सोलह प्रकार की उपहार-सामग्री अर्पित करते हुए भक्तिभाव से उनका पूजन करे। नारद! निम्नांकित मन्त्रों से उन्हें पूजनोपचार अर्पित करने चाहिये।

आसन

आसनं स्वर्णनिर्माणं रत्नसारपरिच्छदम् ।

नानाचित्र विचित्राढ्यं गृह्यतां परमेश्वर ।।

परमेश्वर! यह रत्नसारजटित सुवर्णनिर्मित सिंहासन भाँति-भाँति के विचित्र चित्रों से अलंकृत है। इसे ग्रहण कीजिये।

वस्त्र                                          

वह्निप्रक्षालितं वस्त्रं निर्मितं विश्वकर्मणा ।

मूल्यानिर्वचनीयं च गृह्यतां राधिकापते ।।     

राधावल्लभ! विश्वकर्मा द्वारा निर्मित इस दिव्य वस्त्र को प्रज्वलित आग में धोकर शुद्ध किया गया है। इसका मूल्य वर्णनातीत है। इसे धारण कीजिये।

पाद्य

पादप्रक्षालनार्हं च सुवर्णपात्रसंस्थितम् ।

सुवासितं शीतलं च गृह्यतां करुणानिधे ।।

करुणानिधान! आपके चरणों को पखारने के लिये सुवर्णमय पात्र में रखा हुआ यह सुवासित शीतल जल स्वीकार कीजिये।

अर्घ्य

इदमर्घ्यं पवित्रं च शङ्खतोयसमन्वितम् ।

पुष्पदूर्वाचन्दनाक्तं गृह्यतां भक्तवत्सल ।।

भक्तवत्सल! शंख-पात्र में रखे गये जल, पुष्प, दूर्वा तथा चन्दन से युक्त यह पवित्र अर्घ्य आपकी सेवा में प्रस्तुत है। इसे ग्रहण कीजिये।

पुष्प

सुवासितं शुक्लपुष्पं चन्दनागुरुसंयुतम् ।

सद्यस्ते प्रीतिजनकं गृह्यतां सर्वकारण ।।

सर्वकारण! चन्दन और अगुरु से युक्त यह सुवासित श्वेत पुष्प शीघ्र ही आपके मन में आनन्द का संचार करने वाला है। इसे स्वीकार कीजिये।

अनुलेपन

चन्दनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमोशीरमुत्तमम् ।

सर्वेप्सितमिदं कृष्ण गृह्यतामनुलेपनम् ।।

श्रीकृष्ण! चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुंकुम और खस से तैयार किया गया यह उत्तम अनुलेपन सबको प्रिय है। इसे ग्रहण कीजिये।

धूप

रसो वृक्षविशेषस्य नानाद्रव्यसमन्वितः।

सुगन्धियुक्तः सुखदो धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।।

भगवन! नाना द्रव्यों से मिश्रित यह सुगन्धयुक्त सुखद धूप वृक्षविशेष का रस है। इसे स्वीकार कीजिये।

दीप

दिवानिशं सुप्रदीप्तो रत्नसारविनिर्मितः ।

पुनर्ध्वान्तनाशबीजं दीपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।।

प्रभो! रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित तथा दिन-रात भलीभाँति प्रकाशित होने वाला यह दिव्य दीप अन्धकार-नाश का हेतु है। इसे ग्रहण कीजिये।

नैवेद्य

नानाविधानि द्रव्याणि स्वादूनि सुरभीणि च ।

चोष्यादीनि पवित्राणि स्वात्माराम प्रगृह्यताम् ।।

स्वात्माराम! ये नाना प्रकार के स्वादिष्ट, सुगन्धित और पवित्र भक्ष्य, भोज्य तथा चोष्य आदि द्रव्य आपकी सेवा में प्रस्तुत है। इन्हें अंगीकार कीजिये।

यज्ञोपवीत

सावित्रीग्रन्थिसयुक्तं स्वर्णतन्तुविनिर्मितम् ।

गृह्यतां देवदेवेश रचितं चारु कारुणा ।।

देवदेवेश्वर! गायत्री-मन्त्र से दी गयी ग्रन्थि से युक्त तथा सुवर्णमय तन्तुओं से निर्मित यह चतुर शिल्पी द्वारा रचित यज्ञोपवीत ग्रहण कीजिये।

भूषण                             

अमूल्यरत्नरचितं सर्वा वयवभूषणम् ।

त्विषा जाज्वल्यमानं च गृह्यतां नन्दनन्दन ।।

नन्दनन्दन! बहुमूल्य रत्नों द्वारा रचित दिव्य प्रभा से प्रकाशमान तथा समस्त अवयवों को विभूषित करने वाला यह भूषण स्वीकार कीजिये।

गन्ध

प्रधानो वर्णनीयश्च सर्वमङ्गलकर्मणि ।

प्रगृह्यतां दीनबन्धो गन्धोऽयं मङ्गलप्रदः ।।

दीनबन्धो! समस्त मंगल-कर्म में वर्णनीय तथा मंगलदायक यह प्रमुख गन्ध सेवा में समर्पित है। इसे स्वीकार कीजिये।

स्नानीय

धात्री श्रीफलपत्रोत्थं विष्णुतैलं मनोहरम् ।

वाञ्छितं सर्वलोकानां भगवन्प्रतिगृह्यताम् ।।

भगवन! आँवला तथा बिल्वपत्र से तैयार किया गया यह मनोहर विष्णु-तैल समस्त लोकों को अभीष्ट है। इसे ग्रहण कीजिये।

ताम्बूल

वाञ्छनीयं च सर्वेषां कर्पूरादिसुवासितम् ।

मया निवेदितं नाथ ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ।।

नाथ! जिसे सब चाहते हैं, वह कर्पूर आदि से सुवासित ताम्बूल मैंने आपकी सेवा में अर्पित किया है। इसे अंगीकार कीजिये।

मधुपर्क

सर्वेषां प्रीतिजनकं सुमिष्टं मधुरं मधु ।

सद्रत्नसारपात्रस्थं गोपीकान्त प्रगृह्यताम् ।।

गोपीकान्त! उत्तम रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित पात्र में रखा हुआ यह मधुर मधु बहुत ही मीठा और स्वादिष्ट है। इसके सेवन से सबको प्रसन्नता होती है। अतः कृपापूर्वक इसे ग्रहण कीजिये।

पुनराचमनीय जल

निर्मलं जाह्नवीतोयं सुपवित्रं सुवासितम् ।

पुनराचमनीयं च गृह्यतां मधुसूदन ।।

मधुसूदन! यह परम पवित्र, सुवासित और निर्मल गंगा-जल पुनः आचमन के लिये अंगीकार कीजिये।

इस प्रकार भक्तपुरुष प्रसन्नतापूर्वक सोलह उपचार अर्पित करके निम्नांकित मन्त्र से यत्नपूर्वक फूल और माला चढ़ावे।

पुष्प और पुष्प माला

नानाप्रकारपुष्पैश्च ग्रथितं शुक्लतन्तुना ।

प्रवरं भूषणानां च माल्यं च गृह्यतां प्रभो ।।

प्रभो! श्वेत डोरे में नाना प्रकार के फूलों से गुँथा हुआ यह पुष्पहार समस्त आभूषणों में श्रेष्ठ है। इसे स्वीकार कीजिये।

इस प्रकार पुष्पमाला अर्पित करके व्रती पुरुष मूल-मन्त्र से पुष्पांजलि दे और भक्तिभाव से दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति करे।

स्तुति

हे कृष्ण राधिकानाथ करुणासागर प्रभो ।

संसारसागरे घोरे मामुद्धर भयानके ।।

शतजन्मकृतायासादुद्विग्नस्य मम प्रभो ।

स्वकर्मपाशनिगडैर्बद्धस्य मोक्षणं कुरु ।।

प्रणतं पादपद्मे ते पश्य मां शरणागतम् ।

भवपाशभयाद्भीतं पाहि त्वं शरणागतम् ।।

भक्तिहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च वेदतः ।

वस्तुमन्त्रविहीनं यत्तत्संपूर्णं कुरु प्रभो ।।

वेदोक्तविहिताऽज्ञानात्स्वाङ्गहीने च कर्मणि ।

त्वन्नामोच्चारणेनैव सर्वं पूर्णं भवेद्धरे ।।

हे श्रीकृष्ण! हे राधाकान्त! हे करुणासागर! हे प्रभो! घोर एवं भयानक संसार-सागर से मेरा उद्धार कीजिये। प्रभो! सैकड़ों जन्मों से सांसारिक क्लेश भोगने के कारण मैं उद्विग्न हो उठा हूँ और अपने कर्मपाशरूपी बेड़ियों से बँधा हूँ। आप इस बन्धन से मुझे छुड़ाइये। नाथ! आपके चरणों में पड़ा हूँ। मुझ शरणागत की ओर कृपापूर्वक देखिये। भवपाश के भय से डरे हुए मुझ शरणापन्न की रक्षा कीजिये। प्रभो! जो वस्तु भक्तिहीन, क्रियाहीन, विधिहीन तथा वेद मन्त्रों से रहित हो और इस प्रकार जिसके समर्पण में त्रुटि आ गयी हो; उसे आप स्वयं ही पूर्ण कीजिये। हरे! वेदोक्त विधि को न जानने के कारण अंगहीन हुए कर्म में आपके नामोच्चारण से ही समस्त न्यूनताओं की पूर्ति होती है।

इस प्रकार स्तुति और प्रणाम करके ब्राह्मण को दक्षिणा दे और महोत्सवपूर्वक व्रती पुरुष रात में जागरण करे। यदि व्रत और उपवास करके कोई नींद ले ले अथवा पुनः जल पी ले तो उसे उस व्रत का आधा ही फल मिलता है; अतः विप्रवर! यत्नपूर्वक एक ही बार हविष्यान्न ग्रहण करे। उस समय श्रीकृष्ण के चरणों का स्मरण करते हुए निम्नांकित मन्त्र को पढ़े।

अन्नं हि प्राणिनां प्राणा ब्रह्मणा निर्मितं पुरा ।

देहि मे विष्णुरूपं त्वं व्रतोपवासयोः फलम् ।।

विष्णुरूप अन्न! ब्रह्मा द्वारा प्राणियों के प्राण के रूप में तुम्हारा निर्माण हुआ है; अतः तुम मुझे व्रत और उपवास का फल दो।

जो इस प्रकार भारतवर्ष में भक्तिपूर्वक इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करता है, वह पहले और बाद की सात-सात पीढ़ियों का तथा अपना भी अवश्य ही उद्धार करता है। व्रती मनुष्य निश्चय ही माता, पिता, भाई, सास, ससुर, पुत्री, दामाद तथा भृत्य-वर्ग का भी उद्धार कर देता है।

इति श्रीब्रह्मववर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे एकादशीव्रतनिरूपणं नाम षड्विंशोऽध्यायः।।२६।।

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