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तन्त्र
तन्त्र शब्द एक विशेष शास्त्र या दार्शनिक सिद्धान्त का द्योतक समझा जाता है, जिसके अन्तर्गत विभिन्न देवी-देवताओं की रहस्यात्मक एवं अभिचार प्रधान पूजा पद्धति तथा तत्सम्बन्धी दार्शनिक मत एवं ग्रन्थों का बोध होता है । आधुनिक काल में वस्तुतः यही 'तन्त्र शब्द का विशेष एवं लोकप्रिय प्रयोग साहित्य जगत् में दिखाई पड़ता है । इस रूप में तन्त्र एक अत्यन्त व्यापक शास्त्र के रूप में लिया जाता है । जिसमें शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य एवं सौर तथा बौद्ध, जैन आदि सभी सम्प्रदायों में स्वीकृत या प्रचलित विशेष तान्त्रिक पूजा पद्धति और विचारधारा का समावेश होता है। तन्त्रों की रहस्यात्मकता तन्त्र का ज्ञान और व्यवहार पक्ष सदैव रहस्यात्मक तथा गुह्य माना गया है ।
तन्त्र की परिभाषा
'तत्रीति' धातोरिह धारणात् ।
'तन्त्र' शब्द
'तत्रि' धातु से बना है जिसका अर्थ है-
धारणा अर्थात् ज्ञान ।'
आज्ञा वस्तु समन्ताच्च गम्यत
इत्यागमो मतः ।
तनुते त्रायते नित्यं तन्त्रमित्थं
विदुर्बुधाः ।। (पिङ्गलामत तन्त्र)
पिङ्गला मत के अनुसार जिसके द्वारा
चारों ओर की वस्तुओं को जाना जाय वह (ज्ञान) अगम है और जो फैलाता है अर्थात् ज्ञान
विस्तार करता है और सदैव दैवी एवं भौतिक आपदाओं से रक्षा करता है वह तन्त्र है ।
विश्वसार तन्त्र में दी गई परिभाषा के अनुसार जो इसमें है वह और जगह भी हो सकता
है। किन्तु जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं है । वस्तुतः इससे तात्पर्य यह है कि
समस्त विश्व के प्रत्येक आध्यात्मिक अनुभवों का सार तन्त्र मार्ग द्वारा प्राप्त
किया जा सकता है । अन्ततः इसमें आपदाओं से मुक्ति के सभी प्रकार के उपाय एवं साधन
प्रयुक्त होते हैं । शैव सिद्धान्त के कामिकागम में तन्त्र की परिभाषा इस प्रकार
हैं-
तनोति विपुलानर्थान्
तत्त्वमन्त्रसमन्वितान् ।
त्राणाच्च कुरुते यस्मात्
तन्त्रमित्यभिधीयते ।।
"यह इसलिए तन्त्र कहलाता है
क्योंकि यह उन महान् अर्थों का विस्तार करता है जो (आध्यात्मिक) तत्त्व एवं
मन्त्रों से युक्त हैं और इस प्रकार तन्त्र (विपदाओं) से हमारी रक्षा करता
है।"
तन्त्रों की विषय वस्तु
वाराही तन्त्र के अनुसार १ सृष्टि २
प्रलय ३ देवताओं की पूजा ४, सभी प्रकार की
साधना अथवा सिद्धि, ५ पुरश्चरण, ६
षट्कर्म-साधन ७ तथा चार प्रकार का ध्यान - योग- इन सात लक्षणों से युक्त 'आगम' अर्थात् तन्त्र को विद्वान् लोग जानते हैं -
सृष्टिश्च प्रलयश्चैव देवतानां
यथार्चनम् ।
साधनं चैव सर्वेषां पुरश्चरणमेव च ॥
षट्कर्मसाधनं चैव सर्वेषां
ध्यानयोगाश्चतुर्विधाः ।
सप्तभिर्लक्षणैर्युक्तमागमं तद्
विदुर्बुधाः ॥
इस प्रकार तन्त्रों की परम्परा में
व्यवहार या क्रियापक्ष ही प्रधान तथ्य है ।
(१) ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और उनके
(२) प्रलय से सम्बन्धित सिद्धान्त सृष्टि एवं प्रलय के अन्तर्गत आते हैं । (३)
देवी-देवताओं की उपासना एवं उनके व्यापक स्वरूप का चिन्तन देवार्चन के अन्तर्गत
आता है । देवार्चन के पाँच प्रमुख अंग हैं- १. पटल, २. पद्धति, ३. कवच, ४
सहस्रनाम तथा ५ स्तोत्र । (४) तन्त्रों में सभी प्रकार की साधनाओं का वर्णन है जो
विभिन्न शारीरिक तथा आध्यात्मिक सिद्धियों की प्राप्ति के उपाय हैं । तान्त्रिक
साधना में इन सिद्धियों का सर्वोपरि महत्त्व है । (५) पुरश्चरण से अभिप्राय है-
तान्त्रिक साधना का व्यवस्थित विधान, जिनके माध्यम से साधक
विभिन्न सिद्धियों को प्राप्त करता है । इन्हीं के अन्तर्गत मारण, मोहन एवं उच्चाटन आदि विविध प्रकार की प्रक्रियाएँ है जो विभिन्न लक्ष्यों
की प्राप्ति के लिए की जाती है । (६) षट्कर्म का अर्थ है - १. मारण, २. मोहन, ३. उच्चाटन, ४. कीलन,
५. विद्वेषण, और ६. वशीकरण । इन्हीं के लिए
मन्त्रों का निर्देश षट्कर्म है और उसका क्रिया पक्ष 'पुरश्चरण'
है । (७) ध्यान-योग के अन्तर्गत विभिन्न कार्यों के लिए विभिन्न
प्रकार के ध्यान एवं चर्या का वर्णन आता है । तन्त्र विद्या का आधारभूत सिद्धान्त
शरीर- साधना' है जिसके कारण योग शास्त्र तन्त्र का अनिवार्य
एवं महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है । इसके अन्तर्गत समस्त शारीरिक शक्तियों का
संयमन होता है । इस प्रकार ज्ञान की प्राप्ति के लिए मन का केन्द्रीकरण ही योग एवं
ध्यान की पद्धति है । इस प्रकार तान्त्रिक - साधना के लिए प्रधान रूप से मन्त्र,
यन्त्र, योग, ध्यान,
समाधि ही सिद्धि प्राप्ति की आधारभित्ति है ।
तन्त्र शास्त्र
Tantra
दुर्गातन्त्रम्
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