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गणेशगीता अध्याय ४
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गणेश गीता अध्याय ४
गणेशगीता
गणेशगीता चतुर्थोऽध्यायः वैधसंन्यासयोगः
॥ श्रीगणेशगीता ॥
॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥
॥ वैधसंन्यासयोगः ॥
वरेण्य उवाच
संन्यस्तिश्चैव योगश्च कर्मणां
वर्ण्यते त्वया ।
उभयोर्निश्चितं त्वेकं श्रेयो यद्वद
मे प्रभो ॥१ ॥
वरेण्य बोले- हे भगवन्! आप
कर्मसंन्यास (अर्थात् निष्काम भाव से कर्म करते-करते विशुद्ध चित्त होने पर
कर्मत्याग करने) - को ज्ञान का कारण कहकर फिर कर्मयोग को ज्ञान का कारण कहते हैं,
इन दोनों में जो हितकारी हो, उसे कहिये ॥ १ ॥
श्रीगजानन उवाच
क्रियायोगो वियोगश्चाप्युभौ
मोक्षस्य साधने ।
तयोर्मध्ये क्रियायोगस्त्यागात्तस्य
विशिष्यते ॥२ ॥
श्रीगणेशजी बोले - ( अधिकारियों के
भेद से) कर्मयोग और कर्मसंन्यास दोनों ही मुक्ति के साधन हैं,
उन दोनों में कर्मसंन्यास से कर्मयोग में विशेषता है ॥ २ ॥
द्वन्द्वदुःखसहोऽद्वेष्टा यो न
काङ्क्षति किंचन ।
मुच्यते बन्धनात्सद्यो नित्यं
संन्यासवान्सुखम् ॥३ ॥
जो द्वन्द्व और दुःख को सहकर किसी से
द्वेष नहीं करता और किसी बात की इच्छा नहीं करता, ऐसा प्राणी अनायास तत्काल कर्मबन्धन से सदा मुक्त हो जाता है ॥ ३ ॥
वदन्ति भिन्नफलकौ
कर्मणस्त्यागसंग्रहौ ।
मूढाल्पज्ञास्तयोरेकं संयुञ्जीत
विचक्षणः ॥४ ॥
कर्मसंन्यास और कर्मयोग को मूढ़ और
अज्ञानी ही पृथक्-पृथक् कहते हैं, परंतु
पण्डितगण उन्हें एक ही मानते हैं ॥ ४ ॥
यदेव प्राप्यते त्यागात्तदेव योगतः
फलम् ।
संग्रहं कर्मणो योगं यो विन्दति स
विन्दति ॥५ ॥
जो फल कर्मसंन्यास से मिलता है,
वही फल कर्मयोग से प्राप्त होता है, कर्मसंन्यास
और कर्मयोग को जो एक जानता है, वही यथार्थ ज्ञाता है ॥ ५ ॥
केवलं कर्मणां न्यासं संन्यासं न
विदुर्बुधाः ।
कुर्वन्ननिच्छया कर्म योगी ब्रह्मैव
जायते ॥६ ॥
पण्डितजन केवल कर्म के संन्यास को
ही संन्यास नहीं कहते, यदि योगी अनिच्छा से
कर्म करे तो वह ब्रह्म ही हो जाता है ॥ ६ ॥
निर्मलो यतचित्तात्मा जितखो
योगतत्परः ।
आत्मानं सर्वभूतस्थं पश्यन्कुर्वन्न
लिप्यते ॥७ ॥
शुद्धचित्त,
मन को वश में करनेवाले, जितेन्द्रिय, योग में तत्पर और सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित आत्मा को देखनेवाले कर्म
करते हुए भी लिप्त नहीं होते ॥ ७ ॥
तत्त्वविद्योगयुक्तात्मा करोमीति न
मन्यते ।
एकादशानीन्द्रियाणि कुर्वन्ति
कर्मसंख्यया ॥८ ॥
तत्त्व को जाननेवाला योगयुक्त
आत्मवान् पुरुष 'मैं कर्ता हूँ',
ऐसा नहीं मानता, अपितु मन सहित एकादश
इन्द्रियाँ कर्म करती हैं, ऐसा मानता है ॥ ८ ॥
तत्सर्वमर्पयेद्ब्रह्मण्यपि कर्म
करोति यः ।
न लिप्यते पुण्यपापैर्भानुर्जलगतो
यथा ॥९ ॥
जो कर्म करनेवाला सारे कर्म ब्रह्म में
अर्पण कर देता है, वह उसी प्रकार
पाप-पुण्य से लिप्त नहीं होता, जैसे जल में पड़ा हुआ सूर्य का
बिम्ब उससे लिप्त नहीं होता ॥ ९ ॥
कायिकं वाचिकं बौद्धमैन्द्रियं
मानसं तथा ।
त्यक्त्वाशां कर्म कुर्वन्ति
योगज्ञाश्चित्तशुद्धये ॥१० ॥
योग के जाननेवाले चित्तशुद्धि के
निमित्त आशा (फलाशा) -का त्यागकर शरीर, वचन,
बुद्धि, इन्द्रिय और मन से कर्म करते हैं ॥ १०
॥
योगहीनो नरः कर्म फलेहया करोत्यलम्
।
बध्यते कर्मबीजैः स ततो दुःखं
समश्नुते ॥११ ॥
योगहीन मनुष्य कर्मों को फल की
इच्छा से करता है, वह कर्मबीज से बँध
जाता है और इसी से दुःख को प्राप्त होता है ॥ ११ ॥
मनसा सकलं कर्म त्यक्त्वा योगी सुखं
वसेत् ।
न कुर्वन्कारयन्वापि नन्दन्श्वभ्रे
सुपत्तने ॥१२ ॥
न क्रिया न च कर्तृत्वं कस्य चित्सृज्यते
मया ।
न क्रियाबीजसम्पर्कः शक्त्या
तत्क्रियतेऽखिलम् ॥१३ ॥
कस्यचित्पुण्यपापानि न स्पृशामि
विभुर्नृप ।
ज्ञानमूढा विमुह्यन्ते
मोहेनावृतबुद्धयः ॥१४ ॥
योगी को उचित है कि मन से सम्पूर्ण
कर्मों को त्यागकर सुख से रहे तथा उत्तम नगर में आनन्द से वास करता हुआ भी न कुछ
करे,
न कराये और ऐसा जाने कि न कोई क्रिया करता हूँ, न कोई कर्तृत्वपना मुझमें है, न मैं कोई निर्माण
करता हूँ, न मेरा क्रिया के बीज से सम्बन्ध है, यह सब कुछ शक्ति अर्थात् प्रकृति से स्वयं होता रहता है । हे राजन् ! मैं
विभु आत्मा किसी के पुण्य और पापों को स्पर्श नहीं करता हूँ, मोह से मलिन बुद्धिवाले अज्ञानी ही मोह को प्राप्त होते हैं ॥ १२-१४ ॥
विवेकेनात्मनोऽज्ञानं येषां
नाशितमात्मना ।
तेषां विकाशमायाति
ज्ञानमादित्यवत्परम् ॥१५ ॥
जिन्होंने विवेक के द्वारा स्वयं ही
अपना अज्ञान नष्ट किया है, उनका ज्ञान सूर्य के
समान परम प्रकाशित होता है ॥ १५ ॥
मन्निष्ठा मद्धियोऽत्यन्तं
मच्चित्ता मयि तत्पराः ।
अपुनर्भवमायान्ति
विज्ञानान्नाशितैनसः ॥१६ ॥
जिनकी निष्ठा और बुद्धि मुझमें ही
है,
जिनका चित्त मुझमें अत्यन्त आसक्त है और जो सदा मेरे परायण हैं,
वे श्रेष्ठ ज्ञान द्वारा पाप का नाश करके मुक्त हो जाते हैं ॥ १६ ॥
ज्ञानविज्ञानसंयुक्ते द्विजे गवि
गजादिषु ।
समेक्षणा महात्मानः पण्डिताः श्वपचे
शुनि ॥१७ ॥
महात्मा पण्डितजन ज्ञानविज्ञानयुक्त
ब्राह्मण,
गौ, हाथी आदि प्राणी, चाण्डाल
और श्वान – इन सबमें समान दृष्टि रखते हैं ॥ १७ ॥
वश्यः स्वर्गो जगत्तेषां
जीवन्मुक्ताः समेक्षणाः ।
यतोऽदोषं ब्रह्म समं
तस्मात्तैर्विषयीकृतम् ॥१८ ॥
जिनका मन समता में स्थित है,
वे जीवन्मुक्त संसार और स्वर्ग को जीत चुके हैं, कारण कि ब्रह्म निर्दोष और समतायुक्त है, इस कारण वे
ब्रह्म में स्थित रहते हैं ॥ १८ ॥
प्रियाप्रिये प्राप्य हर्षद्वेषौ ये
प्राप्नुवन्ति न ।
ब्रह्माश्रिता असंमूढा ब्रह्मज्ञाः
समबुद्धयः ॥१९ ॥
जो महात्मा प्रिय और अप्रिय की
प्राप्ति में हर्ष - शोक नहीं करते, वे
समत्वबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन ब्रह्म में स्थित तथा ब्रह्म के जाननेवाले हैं ॥ १९
॥
वरेण्य उवाच
किं सुखं त्रिषु लोकेषु
देवगन्धर्वयोनिषु ।
भगवन्कृपया तन्मे वद विद्याविशारद
॥२० ॥
वरेण्य बोले- भगवन्! तीनों लोकों
तथा देवता और गन्धर्व आदि योनियों में यथार्थ सुख क्या है?
हे विद्याविशारद! कृपाकर आप मुझसे यह वर्णन कीजिये ॥ २० ॥
श्रीगजानन उवाच
आनन्दमश्नुतेऽसक्तः स्वात्मारामो
निजात्मनि ।
अविनाशि सुखं तद्धि न सुखं
विषयादिषु ॥२१ ॥
श्रीगणेशजी बोले- जो अपनी आत्मा में
ही रमण करते हैं और कहीं आसक्त नहीं होते, वे
ही आनन्द भोगते हैं, उसी का नाम अविनाशी सुख है, विषयादिकों में (वास्तविक) सुख नहीं है ॥ २१ ॥
विषयोत्थानि सौख्यानि दुःखानां तानि
हेतवः ।
उत्पत्तिनाशयुक्तानि तत्रासक्तो न
तत्त्ववित् ॥२२ ॥
विषयों से उत्पन्न हुए सुख तो दुःख के
ही कारण हैं और उत्पत्ति तथा नाशवाले हैं। तत्त्ववित् उनमें आसक्त नहीं होते ॥ २२
॥
कारणे सति कामस्य क्रोधस्य सहते च
यः ।
तौ जेतुं वर्ष्मविरहात्स सुखं
चिरमश्नुते ॥२३ ॥
काम, क्रोध आदि का कारण उपस्थित रहने पर भी जो उनके आवेग को रोक लेता है तथा
शरीर के प्रति अनासक्त होकर उन्हें जीतने का प्रयत्न करता है, वह बहुत कालतक सुख भोगता है ॥ २३ ॥
अन्तर्निष्ठोऽन्तःप्रकाशोऽन्तःसुखोऽन्तारतिर्लभेत्
।
असंदिग्धोऽक्षयं ब्रह्म
सर्वभूतहितार्थकृत् ॥२४ ॥
जिनके हृदय में निष्ठा है,
ज्ञान का प्रकाश है, सुख है तथा वैराग्य है,
जो सब प्राणियों का हित करता है, वह निश्चय ही
अक्षय ब्रह्म को प्राप्त करता है ॥ २४ ॥
जेतारः षड्रिपूणां ये शमिनो
दमिनस्तथा ।
तेषां समन्ततो ब्रह्म
स्वात्मज्ञानां विभात्यहो ॥२५ ॥
जो काम-क्रोधादि छहों शत्रुओं को
जीत चुके हैं, जो शम और दम का पालन करते हैं,
उन आत्मज्ञानियों को सर्वत्र ब्रह्म ही दीखता है ॥ २५ ॥
आसनेषु
समासीनस्त्यक्त्वेमान्विषयान्बहिः ।
संस्तभ्य भृकुटीमास्ते
प्राणायामपरायणः ॥२६ ॥
सब बाह्य विषयों का त्यागकर एकान्त में
आसन में स्थित हो, दृष्टि को भ्रूमध्य
में स्थिरकर प्राणायाम करे ॥२६॥
प्राणायामं तु संरोधं
प्राणापानसमुद्भवम् ।
वदन्ति मुनयस्तं च त्रिधाभूतं
विपश्चितः ॥२७ ॥
प्राण और अपान वायु के रोकने को
प्राणायाम कहते हैं, बुद्धिमान् ऋषियों ने
उसके तीन भेद कहे हैं ॥ २७ ॥
प्रमाणं भेदतो विद्धि
लघुमध्यममुत्तमम् ।
दशभिर्द्व्यधिकैर्वर्णैः प्राणायामो
लघुः स्मृतः ॥२८ ॥
प्रमाण के भेद से प्राणायाम लघु,
मध्यम और उत्तम - तीन प्रकार का है, बारह
अक्षर का प्राणायाम लघु कहलाता है ॥ २८ ॥
चतुर्विंशत्यक्षरो यो मध्यमः स
उदाहृतः ।
षट्त्रिंशल्लघुवर्णो य उत्तमः
सोऽभिधीयते ॥२९ ॥
चौबीस अक्षरों का मध्यम और छत्तीस
अक्षरों का उत्तम कहा जाता है ।। २९ ।।
सिंहं शार्दूलकं वापि मत्तेभं
मृदुतां यथा ।
नयन्ति प्राणिनस्तद्वत्प्राणापानौ
सुसाधयेत् ॥३० ॥
सिंह, व्याघ्र अथवा मतवाले हाथी को जैसे मनुष्य नम्र करके अपने अधीन करता है,
इसी प्रकार प्राण और अपान वायु को साधना चाहिये ॥ ३० ॥
पीडयन्ति मृगास्ते न लोकान्वश्यं
गता नृप ।
दहत्येनस्तथा वायुः संस्तब्धो न च
तत्तनुम् ॥३१ ॥
हे राजन् ! जिस प्रकार अपने वश में
हुए सिंहादि मृगों को सताते हैं, किंतु वश में
करनेवाले लोगों को पीड़ा नहीं देते, इसी प्रकार यह वायु प्राणायाम
से स्थिर होकर पापों को भस्म करता है, परंतु शरीर को नहीं जलाता॥३१॥
यथा यथा नरः
कश्चित्सोपानावलिमाक्रमेत् ।
तथा तथा वशीकुर्यात्प्राणापानौ हि
योगवित् ॥३२ ॥
जिस प्रकार क्रम से मनुष्य सीढ़ियों
पर चढ़ता है, इसी प्रकार योगी के लिये क्रम से
प्राणापान को वश में करना उचित है ॥ ३२ ॥
पूरकं कुम्भकं चैव रेचकं च
ततोऽभ्यसेत् ।
अतीतानागतज्ञानी ततः स्याज्जगतीतले
॥३३ ॥
*
पूरक कुम्भक और रेचक का अभ्यास करके यह प्राणी इस जगत् में भूत,
भविष्य तथा वर्तमान तीनों काल का ज्ञाता हो जाता है ॥ ३३ ॥
* पूरक-
वायुको ऊपर खींचना, कुम्भक- वायुका रोध करना, रेचक- वायुका त्याग करना - ये तीन प्राणायामके अंग हैं।
प्राणायामैर्द्वादशभिरुत्तमैर्धारणा
मता ।
योगस्तु धारणे द्वे स्याद्योगीशस्ते
सदाभ्यसेत् ॥३४ ॥
बारह उत्तम प्राणायाम से उत्तम
धारणा होती है, दो धारणा से योग सिद्ध होता है,
योगी निरन्तर धारणा का अभ्यास करे ॥ ३४ ॥
एवं यः कुरुते राजंस्त्रिकालज्ञः स
जायते ।
अनायासेन तस्य स्याद्वश्यं लोकत्रयं
नृप ॥३५ ॥
हे राजन्! जो इस प्रकार साधना करते
हैं,
उन्हें त्रिकाल का ज्ञान हो जाता है और अनायास त्रिलोकी उनके वश में
हो जाती है ॥ ३५ ॥
ब्रह्मरूपं जगत्सर्वं पश्यति
स्वान्तरात्मनि ।
एवं योगश्च संन्यासः समानफलदायिनौ
॥३६ ॥
वह अपने अन्तरात्मा में सब जगत् को
ब्रह्मरूप देखता है। इस प्रकार से कर्मसंन्यास और कर्मयोग दोनों समान फल के
देनेवाले हैं ॥ ३६॥
जन्तूनां हितकर्तारं कर्मणां
फलदायिनम् ।
मां ज्ञात्वा मुक्तिमाप्नोति
त्रैलोक्यस्येश्वरं विभुम् ॥३७ ॥
सब प्राणियों के हितकारी और कर्म का
फल देनेवाले एवं त्रिलोकी के व्यापक मुझ ईश्वर को जानकर मनुष्य मुक्त हो जाते हैं
॥ ३७ ॥
॥ इति श्रीगणेशपुराणे
गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां वैधसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 5
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