गणेशगीता अध्याय २
गणेशगीता के अध्याय १ में साङ्ख्ययोग
को कहा गया है और अब अध्याय २ कर्मयोग को बतलाया गया है।
गणेशगीता दूसरा अध्याय
Ganesh geeta chapter 2
गणेश गीता अध्याय २
गणेशगीता
गणेशगीता द्वितीयोऽध्यायः कर्मयोगः
॥ श्रीगणेशगीता ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ कर्मयोगः ॥
वरेण्य उवाच
ज्ञाननिष्ठा कर्मनिष्ठा द्वयं
प्रोक्तं त्वया विभो ।
अवधार्य वदैकं मे निःश्रेयसकरं नु
किम् ॥१ ॥
वरेण्य ने कहा- हे भगवन्! आपने
ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा दोनों का वर्णन किया, आप दोनों में से एक निश्चय कर जो कल्याणदायक हो, उसे
कहिये ॥ १ ॥
गजानन उवाच
अस्मिंश्चराचरे स्थित्यौ पुरोक्ते
द्वे मया प्रिय ।
सांख्यानां बुद्धियोगेन वैधयोगेन
कर्मणाम् ॥२ ॥
श्रीगजानन बोले- हे प्रिय ! इस
चराचर जगत्में मेरे द्वारा पहले वर्णित दो प्रकार की स्थिति है,
सांख्यशास्त्र जाननेवालों की ज्ञानयोग से और कर्म के अधिकारीजनों की
कर्मयोग से शुद्धि होती है ॥ २ ॥
अनारम्भेण वैधानां निष्क्रियः
पुरुषो भवेत् ।
न सिद्धिं याति
संत्यागात्केवलात्कर्मणो नृप ॥३ ॥
कर्म में आसक्तजन कर्मों के आरम्भ न
करने से निष्क्रिय हो जाते हैं। हे राजन् ! केवल कर्मों के ही त्याग देने से
सिद्धि नहीं होती ॥ ३ ॥
कदाचिदक्रियः कोऽपि क्षणं
नैवावतिष्ठते ।
अस्वतन्त्रः प्रकृतिजैर्गुणैः कर्म
च कार्यते ॥४ ॥
किसी दशा में क्षणमात्र भी कर्म
बिना किये कोई नहीं रह सकता है। प्रकृति के स्वाभाविक तीनों गुण सबको ही अवश्य
करके कर्म कराते हैं ॥ ४ ॥
कर्मकारीन्द्रियग्रामं नियम्यास्ते
स्मरन्पुमान् ।
तद्गोचरान्मन्दचित्तो धिगाचारः स
भाष्यते ॥५ ॥
जो कर्म करनेवाला,
इन्द्रियों को रोककर मन-ही-मन में इन्द्रियों के विषयों का स्मरण
करता है, उस इन्द्रियलोलुप दुरात्मा को तुच्छ आचारवाला कहा
जाता है ॥ ५ ॥
तद् ग्रामं सन्नियम्यादौ मनसा कर्म
चारभेत् ।
इन्द्रियैः कर्मयोगं यो वितृष्णः स
परो नृप ॥ ६ ॥
हे राजन्! जो मन से इन्द्रियों का
संयम करके कर्मेन्द्रियों से निष्काम कर्मयोग का अनुष्ठान करता है,
वही श्रेष्ठ पुरुष है ॥ ६॥
अकर्मणः श्रेष्ठतमं कर्मानीहाकृतं
तु यत् ।
वर्ष्मणः स्थितिरप्यस्याकर्मणो नैव
सेत्स्यति ॥७ ॥
कर्म न करने से तो फल की कामना करके
भी कर्म करना श्रेष्ठ है, कारण कि सब कर्मों का
त्याग करने से तो शरीर यात्रा भी नहीं हो सकती ॥ ७
असमर्प्य निबध्यन्ते कर्म तेन जना
मयि ।
कुर्वीत सततं कर्मानाशोऽसङ्गो मदर्पणम्
॥८ ॥
जो प्राणी कर्मों का फल मुझमें
समर्पण नहीं करते, वे बन्धन में पड़ते
हैं, इस कारण से निष्काम कर्म का अनुष्ठान करते हुए निरन्तर
मुझे अर्पण करके कर्मबन्धन का नाश करना चाहिये ॥ ८ ॥
मदर्थे यानि कर्माणि तानि बध्नन्ति
न क्वचित् ।
सवासनमिदं कर्म बध्नाति देहिनं
बलात् ॥९ ॥
जो कर्म मेरे निमित्त किये जाते हैं,
वे कहीं और कभी बन्धन के कारण नहीं होते, किंतु
जो वासनापूर्वक (फलासक्तिपूर्वक) किये गये कर्म हैं, वे ही
बलात् प्राणी को बाँधते हैं ॥ ९ ॥
वर्णान् सृष्ट्वावदं चाहं
सयज्ञांस्तान् पुरा प्रिय ।
यज्ञेन ऋध्यतामेष कामदः
कल्पवृक्षवत् ॥ १० ॥
पूर्वकाल में मैंने यज्ञरूप
नित्यकर्म के ही साथ-साथ मनुष्यों के वर्णों को रचकर कहा - हे मनुष्यो ! तुम यज्ञ से
वृद्धि को प्राप्त हो, यह शिक्षा
कल्पवृक्ष के समान तुम्हारी इष्टसिद्धि को देनेवाली हो ॥ १० ॥
सुरांश्चान्नेन प्रीणध्वं सुरास्ते
प्रीणयन्तु वः ।
लभत्वं परमं
स्थानमन्योन्यप्रीणनात्स्थिरम् ॥ ११ ॥
तुम देवताओं को अन्न से तृप्त करो,
देवता तुमको (वर्षा आदि से) प्रसन्न करें, इस
प्रकार परस्पर वृद्धि करते हुए तुम और देवता सब श्रेष्ठ स्थान को प्राप्त हों ॥ ११
॥
इष्टा देवाः प्रदास्यन्ति
भोगानिष्टान् सुतर्पिताः ।
तैर्दत्तांस्तान्नरस्तेभ्योऽदत्त्वा
भुङ्गे स तस्करः ॥ १२ ॥
देवता प्रसन्न होकर तुम्हारे
मनोवांछित मनोरथों को पूर्ण करेंगे, उन
देवताओं के दिये पदार्थों से उनकी आराधना किये बिना जो भोग भोगता है, वह चोर है ॥ १२ ॥
हुतावशिष्टभोक्तारो मुक्ताः स्युः
सर्वपातकैः ।
अदन्त्येनो महापापा आत्महेतोः
पचन्ति ये ॥ १३ ॥
जो देवाराधनरूप यज्ञ करके अवशिष्ट
अन्न का भोजन करते हैं, वे सब पापों से
मुक्त होते हैं और जो अपने निमित्त ही भोजन बनाते हैं, वे
पापी मानो पाप का ही भोजन करते हैं ॥ १३ ॥
ऊर्जा भवन्ति भूतानि देवादन्नस्य
सम्भवः ।
यज्ञाच्च देवसम्भूतिस्तदुत्पत्तिश्च
वैधतः ॥ १४ ॥
अन्न से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं,
अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है, वर्षा यज्ञ से
उत्पन्न होती है और कर्म से यज्ञ की उत्पत्ति होती है ॥ १४ ॥
ब्रह्मणो वैधमुत्पन्नं मत्तो
ब्रह्मसमुद्भवः ।
अतो यज्ञे च विश्वस्मिन् स्थितं मां
विद्धि भूमिप ॥ १५ ॥
कर्म ब्रह्मा से उत्पन्न होता है और
ब्रह्मा मुझसे उत्पन्न होते हैं- इस कारण हे राजन् ! आप इस यज्ञ में और विश्व में
स्थित मुझे ही जानिये ॥ १५ ॥
संसृतीनां महाचक्रं क्रामितव्यं
विचक्षणैः ।
स मुदा प्रीणते
भूपेन्द्रियक्रीडोऽधमो जनः ॥१६ ॥
इस आवागमनरूपी संसारचक्र से
बुद्धिमानों को पार जाना उचित है, हे राजन्! जो
अधम प्राणी है, वह इसमें इन्द्रियों की क्रीडा से सुख मानता
है ॥ १६ ॥
अन्तरात्मनि यः प्रीत
आत्मारामोऽखिलप्रियः ।
आत्मतृप्तो नरो यः स्यात्तस्यार्थो
नैव विद्यते ॥ १७ ॥
जो अन्तरात्मा में प्रीति करनेवाला
है,
वही आत्माराम और सबका प्यारा है, जो प्राणी
आत्मतृप्त है, उसे किसी बात की इच्छा नहीं रहती ॥ १७ ॥
कार्याकार्यकृतीनां स नैवाप्नोति
शुभाशुभे ।
किञ्चिदस्य न साध्यं
स्यात्सर्वजन्तुषु सर्वदा ॥ १८ ॥
इस प्रकार का प्राणी कार्याकार्य
करके भी शुभ-अशुभ फल को नहीं प्राप्त होता तथा सम्पूर्ण प्राणियों में इसका कभी
कुछ साध्य नहीं होता ॥ १८ ॥
अतोऽसक्ततया भूप कर्तव्यं कर्म
जन्तुभिः ।
सक्तोऽगतिमवाप्नोति मामवाप्नोति
तादृशः ॥१९ ॥
इस कारण,
हे राजन् ! प्राणियों को आसक्तिरहित होकर कर्म करना उचित है,
जो आसक्त होता है, उसकी दुर्गति होती है और
अनासक्त मुझे प्राप्त हो जाता है ॥ १९ ॥
परमां सिद्धिमापन्नाः पुरा राजर्षयो
द्विजाः ।
सङ्ग्रहाय हि लोकानां तादृशं कर्म
चारभेत् ॥ २० ॥
[हे राजन्!] प्राचीन काल में कर्म
करने से बहुत से राजर्षि और ब्रह्मर्षि परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं । लोकसंग्रह के
निमित्त ही अनासक्त होकर कर्म करना उचित है ॥ २० ॥
श्रेयान्यत्कुरुते कर्म
तत्करोत्यखिलो जनः ।
मनुते यत्प्रमाणं स तदेवानुसरत्यसौ
॥२१ ॥
जो कर्म महान् पुरुष करते हैं,
वही कर्म अन्य सब करते हैं, वह जिसको प्रमाण
मानते हैं, दूसरे भी उसी को मानते हैं ॥ २१ ॥
विष्टपे मे न साध्योऽस्ति
कश्चिदर्थो नराधिप ।
अनालब्धश्च लब्धब्यः कुर्वे कर्म
तथाप्यहम् ॥ २२ ॥
हे राजन् ! मुझे कोई वस्तु
स्वर्गादि में भी दुर्लभ नहीं है और मैं कर्म करके किसी अप्राप्त वस्तु को प्राप्त
करने की भी इच्छा नहीं करता हूँ, फिर भी मैं
कर्म करता हूँ ॥ २२ ॥
न कुर्वेऽहं यदा कर्म
स्वतन्त्रोऽलसभावितः ।
करिष्यन्ति मम ध्यानं सर्वे वर्णा
महामते ॥ २३ ॥
और हे महामते ! यदि मैं आलसी तथा
स्वच्छन्द होकर कर्म न करूँ तो सभी वर्ण कर्म छोड़कर केवल मेरा अनुगमन करने लगेंगे
॥ २३ ॥
भविष्यन्ति ततो लोका उच्छिन्नाः
सम्प्रदायिनः ।
हन्ता स्यामस्य लोकस्य विधाता
सङ्करस्य च ॥ २४ ॥
तब मेरे ऐसा करने से सब वर्ण आचार भ्रष्ट
होकर नष्ट हो जायँगे। इससे इस संसार का नाश करनेवाला और वर्णसंकर को उत्पन्न करनेवाला
मैं ही होऊँगा ॥ २४ ॥
कामिनो हि सदा
कामैरज्ञानात्कर्मकारिणः ।
लोकानां सङ्ग्रहायैतद्विद्वान्
कुर्यादसक्तधीः ॥ २५ ॥
जिस प्रकार से कामनावाले अज्ञान से
सदा कर्म करते रहते हैं, इसी प्रकार विद्वान्को
उचित है कि लोकसंग्रह के निमित्त आसक्तिरहित होकर वह कर्म करता रहे ॥ २५ ॥
विभिन्नत्वमतिं जह्यादज्ञानां कर्मचारिणाम्
।
योगयुक्तः सर्वकर्माण्यर्पयेन्मयि कर्मकृत्
॥ २६ ॥
अज्ञान से कर्म करनेवालों की
भेदबुद्धि का त्याग करे तथा योगयुक्त होकर कर्म करता हुआ वे सब कर्म मुझे अर्पण कर
दे ॥ २६ ॥
अविद्यागुणसाचिव्यात्कुर्वन् कर्माण्यतन्द्रितः
।
अहङ्काराद्भिन्नबुद्धिरहं कर्तेति योऽब्रवीत्
॥ २७॥
[हे राजन्!] अविद्या और गुणों के वशीभूत हुआ
निरन्तर कर्म करने में लगा हुआ व्यक्ति अहंकार से मूढ़ होकर अपने को कर्ता बताता
है ॥ २७ ॥
यस्तु वेत्त्यात्मनस्तत्त्वं
विभागाद्गुणकर्मणोः ।
करणं विषये वृत्तमिति मत्वा न
सज्जते ॥२८ ॥
जो कोई आत्मज्ञ सत्त्वादि गुण तथा
उनके कर्मों के विभाग को इस प्रकार जानते हैं कि इन्द्रियाँ अपने विषयों में
वर्तमान हैं तो वे ऐसा जानकर कर्म में लिप्त नहीं होते ॥ २८ ॥
कुर्वन्ति सफलं कर्म
गुणैस्त्रिभिर्विमोहिताः ।
अविश्वस्तः स्वात्मद्रुहो
विश्वविन्नैव लङ्घयेत् ॥ २९ ॥
सत्त्व,
रज, तम- इन तीन गुणों से मोहित हुए प्राणी फल की
इच्छा से कर्म करते हैं, उन अविश्वासी और आत्मद्रोहियों को
सर्वज्ञ पुरुष कर्ममार्ग से चलायमान न करे ॥ २९ ॥
नित्यं नैमित्तिकं तस्मान्मयि
कर्मार्पयेद्बुधः ।
त्यक्त्वाहं ममताबुद्धिं परां
गतिमवाप्नुयात् ॥३० ॥
इस प्रकार पण्डित को उचित हैं कि
मुझमें ही नित्य नैमित्तिक कर्म को अर्पण कर दे तो वह अहं और ममता बुद्धि का त्याग
करके परमगति को प्राप्त हो जायगा ॥ ३० ॥
अनीर्ष्यन्तो भक्तिमन्तो ये
मयोक्तमिदं शुभम् ।
अनुतिष्ठन्ति ये सर्वे
मुक्तास्तेऽखिलकर्मभिः ॥३१ ॥
ईर्ष्या न करनेवाले जो भक्तिमान्
मनुष्य मेरे कहे हुए इस शुभ मार्ग का अनुष्ठान करते हैं,
वे सब कर्मों से मुक्त हो जाते हैं ॥ ३१ ॥
ये चैव नानुतिष्ठन्ति त्वशुभा
हतचेतसः ।
ईर्ष्यमाणान् महामूढान्नष्टांस्तान्
विद्धि मे रिपून् ॥ ३२ ॥
जो अज्ञान से चित्त के नष्ट होने के
कारण इस मार्ग का अनुष्ठान नहीं करते हैं, उन
ईर्ष्यालु मूर्ख और नष्टबुद्धियों को मेरा शत्रु जानो ॥ ३२ ॥
तुल्यं प्रकृत्या कुरुते कर्म
यज्ज्ञानवानपि ।
अनुयाति च तामेवाग्रहस्तत्र मुधा
मतः ॥३३ ॥
जब ज्ञानवान् भी अपने स्वभाव के
अनुसार चेष्टा करता है और उसी स्वभाव का अनुगमन करता है तो स्वभाव को ग्रहण न करना
व्यर्थ है ॥ ३३ ॥
कामश्चैव तथा क्रोधः खानामर्थेषु
जायते ।
नैतयोर्वश्यतां यायादम्यविध्वंसकौ
यतः ॥३४ ॥
कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय के
विषयों में काम और क्रोध उत्पन्न होते हैं, इनके
वश में नहीं होना चाहिये, कारण कि यही प्राणी के शत्रुरूप हैं
॥ ३४ ॥
शस्तोऽगुणो निजो धर्मः
साङ्गादन्यस्य धर्मतः ।
निजे तस्मिन् मृतिः श्रेयोऽपरत्र
भयदः परः ।। ३५ ।।
अपना धर्म यदि गुणरहित हो तो भी
अच्छा है और दूसरे का धर्म गुणयुक्त होने से भी भला नहीं,
अपने धर्म में मरना भी परलोक में कल्याणकारी है, परंतु दूसरे का श्रेष्ठ धर्म भी भय प्रदान करता है ॥ ३५ ॥
वरेण्य उवाच
पुमान् यत्कुरुते पापं स हि केन
नियुज्यते ।
अकाङ्क्षन्नपि हेरम्ब प्रेरितः
प्रबलादिव ॥ ३६ ॥
वरेण्य ने कहा- हे गणेशजी ! प्राणी
जो पाप करता है, वह किसके द्वारा प्रेरित होता
है ? इच्छा नहीं करता हुआ भी बलात् किससे प्रेरित होता हुआ
वह पापाचरण करता है ? ॥ ३६ ॥
श्रीगजानन उवाच
कामक्रोधौ महापापौ गुणद्वयसमुद्भवौ
।
नयन्तौ वश्यतां लोकान् विद्ध्येतौ
द्वेषिणौ वरौ ॥ ३७ ॥
श्रीगणेशजी बोले –
रजोगुण और तमोगुण से उत्पन्न हुए ये काम और क्रोध ही दो महापापी
हैं। ये लोगों को अपने वश में करते हैं, इन्हीं दोनों को तुम
महान् शत्रु जानो ॥ ३७ ॥
आवृणोति यथा माया जगद्वाष्पो जलं
यथा ।
वर्षामेघो यथा भानुं
तद्वत्कामोऽखिलांश्च रुट् ॥ ३८ ॥
जिस प्रकार माया जगत् को ढकती है,
जैसे भाप जल को और जैसे वर्षाकाल का मेघ सूर्य को ढक लेता है,
इसी प्रकार काम ने सबको ढक लिया है ॥ ३८ ॥
प्रतिपत्तिमतो ज्ञानं छादितं सततं
द्विषा ।
इच्छात्मकेन तरसा दुष्पोषेण च
शुष्मिणा ॥३९ ॥
महाबली,
सदैव द्वेष करनेवाले और कभी पूरा न हो सकनेवाले इस इच्छारूप काम ने
ही बुद्धिमानों के ज्ञान को भी ढक रखा है ॥ ३९ ॥
आश्रित्य बुद्धिमनसी इन्द्रियाणि स
तिष्ठति ।
तैरेवाच्छादितप्रज्ञो ज्ञानिनं
मोहयत्यसौ ॥४० ॥
यह काम बुद्धि,
मन तथा इन्द्रियों के आश्रित होकर रहता है, उन्हीं
से ज्ञान को आच्छादित करके यह ज्ञानियों को भी मोहित करता है ॥ ४० ॥
तस्मान्नियम्य तान्यादौ स मनांसि
नरो जयेत् ।
ज्ञानविज्ञानयोः शान्तिकरं पापं मनोभवम्
॥४१ ॥
अतः पहले मन के सहित इन्द्रियों को
वश में करके ज्ञान और विज्ञान के नाश करनेवाले इस मनोद्भव पापी काम को जीतना
चाहिये ॥ ४१ ॥
यतस्तानि पराण्याहुस्तेभ्यश्च परमं
मनः ।
ततोऽपि हि परा बुद्धिरात्मा बुद्धेः
परो मतः ॥४२ ॥
स्थूल देह से इन्द्रियाँ परे हैं,
इन्द्रियों से परे मन है, मन से परे बुद्धि है
और बुद्धि से परे आत्मा है ॥ ४२ ॥
बुद्ध्वैवमात्मनात्मानं
संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
हत्वा शत्रुं कामरूपं परं
पदमवाप्नुयात् ॥४३ ॥
इस प्रकार बुद्धि से आत्मा को जानकर,
बुद्धि से ही मन को स्थिर करके कामरूपी शत्रु को मारकर परम पद को
प्राप्त करना चाहिये ॥ ४३ ॥
॥ इति श्रीगणेशपुराणे उत्तरखण्डे गजाननवरेण्यसंवादे
गणेशगीतायां कर्मयोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 3

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