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कर्मकाण्ड

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नर्मदा स्तुति

नर्मदा स्तुति

व्यासकृत इस नर्मदा स्तुति का जो शुद्धभाव से पाठ करता है, उस पर देवी नर्मदा प्रसन्न हो जाती हैं और सभी पापों का नाश करती हैं।

नर्मदा स्तुति

नर्मदास्तुतिः

Narmada stuti

नर्मदा स्तुति

व्यास उवाच

जय भगवति देवि नमो वरदे

जय पापविनाशिनि बहुफलदे ।

जय शुम्भनिशुम्भकपालधरे

प्रणमामि तु देवनरार्त्तिहरे ॥ १ ॥

व्यासजी बोले हे वरदायिनी देवि ! हे भगवति ! तुम्हारी जय हो । हे पापों को नष्ट करनेवाली और अनन्त फल देनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो ! हे शुम्भ-निशुम्भ के मुण्डों को धारण करनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो । देवताओं तथा मनुष्यों की पीड़ा हरनेवाली हे देवि ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ॥१॥

जय चन्द्रदिवाकरनेत्रधरे

जय पावकभूषितवक्त्रवरे ।

जय भैरवदेहनिलीनपरे

जय अन्धकरक्तविशोषकरे ॥ २ ॥

हे सूर्य-चन्द्रमारूपी नेत्रों को धारण करनेवाली ! तुम्हारी जय हो । हे अग्नि के समान देदीप्यमान मुख से शोभित होनेवाली ! तुम्हारी जय हो । हे भैरव शरीर में लीन रहनेवाली और अन्धकासुर के रक्त का शोषण करनेवाली देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो ॥ २ ॥

जय महिषविमर्दिनि शूलकरे

जय लोकसमस्तकपापहरे।

जय देवि पितामहरामनते

जय भास्करशक्रशिरोऽवनते ॥ ३ ॥

महिषासुर का मर्दन करनेवाली, शूलधारिणी और लोक के समस्त पाप को दूर करनेवाली हे भगवति! तुम्हारी जय हो । ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और इन्द्र से विनम्रभाव से नमस्कृत होनेवाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो ॥३॥

जय षण्मुखसायुधईशनुते 

जय सागरगामिनि शम्भुनुते ।

जय दुःखदरिद्रविनाशकरे 

जय पुत्रकलत्रविवृद्धिकरे ॥ ४ ॥

सशस्त्र शंकर और कार्तिकेयजी के द्वारा वन्दित होनेवाली हे देवि ! तुम्हारी जय हो । शिव के द्वारा प्रशंसित एवं सागर में मिलनेवाली हे देवि! तुम्हारी जय हो। दुःख और दरिद्रता का नाश तथा पुत्र- कलत्र की वृद्धि करनेवाली हे देवि! तुम्हारी जय हो, जय हो ॥ ४ ॥

जय देवि समस्तशरीरधरे 

जय नाकविदर्शिनि दुःखहरे ।

जय व्याधिविनाशिनि मोक्षकरे 

जय वाञ्छितदायिनि सिद्धिवरे ॥ ५ ॥

हे देवि! तुम्हारी जय हो। तुम समस्त शरीरों को धारण करनेवाली, स्वर्गलोक का दर्शन करानेवाली और दुःखहारिणी हो। हे व्याधिनाशिनी देवि! तुम्हारी जय हो । मोक्ष तुम्हारे करतलगत है, मनोवांछित फल देनेवाली श्रेष्ठ सिद्धियों से सम्पन्न हे देवि ! तुम्हारी जय हो ॥ ५ ॥

नर्मदा स्तुति महात्म्य

एतद् व्यासकृतं स्तोत्रं यः पठेच्छिवसन्निधौ ।

गृहे वा शुद्धभावेन कामक्रोधविवर्जितः ॥ ६॥

तस्य व्यासो भवेत्प्रीतः प्रीतश्च वृषवाहनः ।

प्रीता स्यान्नर्मदा देवी सर्वपापक्षयङ्करी ॥ ७ ॥

न ते यान्ति यमालोकं यैः स्तुता भुवि नर्मदा ॥ ८ ॥

जो काम-क्रोध से रहित होकर शुद्धभाव से भगवान् शिव के समक्ष अथवा घर पर ही व्यासजी द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है, उस पर व्यासजी प्रसन्न हो जाते हैं, वृषवाहन भगवान् शिव प्रसन्न हो जाते हैं और सभी पापों का विनाश करनेवाली देवी नर्मदा भी प्रसन्न हो जाती हैं। पृथ्वीलोक पर जो नर्मदा की स्तुति करते हैं, वे यम के दृष्टिपथ में नहीं जा पाते हैं॥६८॥

॥ इति श्रीस्कन्दमहापुराणे रेवाखण्डे व्यासकृता नर्मदास्तुतिः सम्पूर्णा ॥

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणान्तर्गत रेवाखण्ड में व्यासजी द्वारा की गयी नर्मदास्तुति सम्पूर्ण हुई ॥

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