गंगा स्तुति

गंगा स्तुति

श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत जह्नुमुनि द्वारा की गयी गंगा स्तुति का पाठ पापों का नाश करने वाला और मोक्ष देनेवाली हैं।

गंगा स्तुति

गङ्गास्तुतिः

Ganga stuti

जह्नुमुनिकृता गङ्गास्तुतिः

गंगास्तुतिः

गङ्गा स्तुतिः

मुनिरुवाच

मातस्त्वं परमासि शक्तिरतुला सर्वाश्रया पावनी

     लोकानां सुखमोक्षदाऽखिलजगत्संवन्द्यपादाम्बुजा ।

न त्वां वेद विधिर्न वा स्मररिपुर्नो वा हरिर्नापरे

     सञ्जानन्ति शिवे महेशशिरसा मान्ये कथं वेद्मयहम् ॥ १॥

जनुमुनि बोले- माता ! आप सर्वश्रेष्ठ, अतुलनीया पराशक्ति, सर्वाश्रयदात्री, लोगों को पवित्र करनेवाली, आनन्द और मोक्ष को प्रदान करनेवाली तथा सम्पूर्ण जगत्द्वारा वन्दित चरणकमलवाली हैं। आपको ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश (तत्त्वतः) नहीं जानते तथा अन्य लोग भी नहीं जानते। भगवान् शिव के मस्तक से सम्मानित शिवे ! फिर मैं आपको कैसे जान सकता हूँ ॥ १ ॥

किं तेऽहं प्रवदामि रूपचरितं यच्चेतसो दुर्गमं

     पारावारविवर्जितं सुरधुनी ब्रह्मादिभिः पूजिता ।

स्वेच्छाचारिणि संवितत्य करुणां स्वीयैर्गुणैर्मां शिवे

     पुण्यं त्वं तु कृतागसं शरणगं गङ्गे क्षमस्वाम्बिके ॥ २॥

मैं आपके अचिन्त्य और अपार रूप तथा चरित्र का क्या वर्णन करूँ? ब्रह्मादि देवताओं के द्वारा पूजित आप सुरनदी के रूप में प्रतिष्ठित हैं। स्वतन्त्ररूप से विचरण करनेवाली शिवे! मातः ! आप अपने शुभ गुणों से पुण्य तथा करुणा का विस्तार करके मुझ कृतापराध और शरणागत को क्षमा कीजिये ॥ २ ॥

धन्यं मे भुवि जन्म कर्म च तथा धन्यं तपो दुष्करं

     धन्यं मे नयनं यतस्त्रिनयनाराध्या दृशाऽऽलोकये ।

धन्यं मत्करयुग्मकं तव जलं स्पृष्टं यतस्तेन वै

     धन्यं मत्तनुरप्यहो तव जलं तस्मिन्यतः सङ्गतम् ॥ ३॥

मेरा इस पृथ्वी पर जन्म और कर्म दोनों धन्य हुए, मेरी कठिन तपस्या धन्य हुई तथा मेरे ये दोनों नेत्र भी धन्य हुए; जो त्रिलोचन भगवान् शंकर की आराध्या आपका मैं अपने नेत्रों से दर्शन कर रहा हूँ । आपके जल के स्पर्श से ये मेरे दोनों हाथ धन्य हो गये और यह मेरा शरीर भी धन्य हुआ, जिसमें आपका पावन जल गया है ॥ ३ ॥

नमस्ते पापसंहर्त्रि हरमौलिविराजिते ।

नमस्ते सर्वलोकानां हिताय धरणीगते ॥ ४॥

पापों का संहार करनेवाली, भगवान् शंकर के मस्तक पर विराजमान तथा सभी प्राणियों के हित के लिये पृथ्वी पर अवतीर्ण आपको नमस्कार है, नमस्कार है॥ ४ ॥ 

स्वर्गापवर्गदे देवि गङ्गे पतितपावनि ।

त्वामहं शरणं यातः प्रसन्ना मां समुद्धर ॥ ५॥

देवी गंगे ! आप स्वर्ग और मोक्ष देनेवाली हैं, पतितों को पवित्र करनेवाली हैं, मैं आपकी शरण में हूँ, आप मुझ पर प्रसन्न होकर मेरा उद्धार कीजिये ॥ ५ ॥

॥ इति श्रीमहाभागवते महापुराणे जह्नुमुनिकृता गङ्गास्तुतिः सम्पूर्णा ॥

॥ इस प्रकार श्रीमहाभागवतमहापुराण के अन्तर्गत जह्नुमुनि द्वारा की गयी गंगा-स्तुति सम्पूर्ण हुई ॥

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