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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
संकष्टनामाष्टक
श्रीपद्मपुराण में वर्णित इस संकष्टनामाष्टक
स्तोत्र का पाठ पुत्र-पौत्र की वृद्धि करने वाला, संकटों को नाश करने वाला तथा
मनुष्यों को समस्त सिद्धियाँ देने वाला है ।
संकष्टनामाष्टकम्
Sankashta naam Ashtakam
संकष्ट नामाष्टक स्तोत्रम्
पद्मपुराणोक्त संकष्टनामाष्टकम्
श्री संकष्ट नाम अष्टकम्
नारद उवाच
जैगीषव्य मुनिश्रेष्ठ सर्वज्ञ
सुखदायक ।
आख्यातानि सुपुण्यानि श्रुतानि
त्वत्प्रसादतः ॥१॥
न तृप्तिमधिगच्छामि तव वागमृतेन च ।
वदस्वैकं महाभाग संकटाख्यानमुत्तमम्
॥२॥
नारदजी बोले- हे मुनिवर जैगीषव्य !
हे सर्वज्ञ ! हे सुखदायक ! आपकी कृपा से मैंने परम कल्याणदायक अनेक आख्यान सुने ।
किंतु आपकी अमृतमयी वाणी से मुझे तृप्ति नहीं हो रही है;
अतः हे महाभाग ! आप संकटादेवी का एक उत्तम आख्यान कहिये ॥१-२॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा
जैगीषव्योऽब्रवीत्ततः ।
संकष्टनाशनं स्तोत्रं शृणु देवर्षिसत्तम ॥३॥
तब उनका यह वचन सुनकर जैगीषव्य
बोले- हे देवर्षिश्रेष्ठ ! अब आप संकट का नाश करने वाले स्तोत्र को सुनें ॥३॥
द्वापरे तु पुरा वृत्ते
भ्रष्टराज्यो युधिष्ठिरः ।
भ्रातृभिः सहितो राज्यनिर्वेदं परमं
गतः ॥४॥
पूर्वकाल में जब द्वापरयुग चल रहा
था,
उसी समय महाराज युधिष्ठिर राज्य से च्युत हो जाने के कारण भाइयों
सहित महान् राज्य- कष्ट में पड़ गये ॥४॥
तदानीं तु ततः काशीं पुरीं यातो
महामुनिः ।
मार्कण्डेय इति ख्यातः सह
शिष्यैर्महायशाः ॥५॥
उस समय वे वहाँ से काशीपुरी पहुँचे,
जहाँ महायशस्वी तथा अतिप्रसिद्ध महर्षि मार्कण्डेयजी अपने शिष्यों
के साथ विद्यमान थे ॥५॥
तं दृष्ट्वा स समुत्थाय प्रणिपत्य
सुपूजितः ।
किमर्थं म्लानवदन एतत्त्वं मां
निवेदय ॥६॥
उन मुनि को देखकर युधिष्ठिर ने उठकर
प्रणाम किया । तत्पश्चात् उनके द्वारा भलीभाँति पूजित मार्कण्डेयजी ने उनसे पूछा- 'आपके मुख पर उदासी क्यों है; आप मुझे यह बताइये ॥६॥
युधिष्ठिर उवाच
संकष्टं मे महत्प्राप्तमेतादृग्वदनं
ततः ।
एतन्निवारणोपायं किञ्चिद् ब्रूहि
मुने मम ॥७॥
युधिष्ठिर बोले- मुझे महान् कष्ट
मिला है,
इसी कारण से मेरे मुख पर ऐसी उदासी है। हे मुने ! आप मेरे इस कष्ट
के निवारण का कोई उपाय बतलावें ॥७॥
मार्कण्डेय उवाच
आनन्दकानने देवी संकटा नाम विश्रुता
।
वीरेश्वरोत्तमे भागे पूर्वं
चन्द्रेश्वरस्य च ॥८॥
मार्कण्डेयजी बोले - आनन्दवन (काशी)
में 'संकटा' नामक भगवती कही गयी हैं, जो वीरेश्वर के उत्तरभाग में तथा चन्द्रेश्वर के पूर्वभाग में स्थित हैं ॥८॥
शृणु नामाष्टकं तस्याः
सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ।
संकटा प्रथमं नाम द्वितीयं विजया
तथा ॥९॥
तृतीयं कामदा प्रोक्तं चतुर्थं
दुःखहारिणी ।
शर्वाणी पञ्चमं नाम षष्ठं कात्यायनी
तथा ॥१०॥
सप्तमं भीमनयना सर्वरोगहराऽष्टमम् ।
नामाष्टकमिदं पुण्यं त्रिसंध्यं
श्रद्धयाऽन्वितः ॥११॥
यः पठेत्पाठ्येद्वापि नरो मुच्येत
संकटात् ।
इत्युक्त्वा तु
द्विजश्रेष्ठमृषिर्वाराणसीं ययौ ॥१२॥
मनुष्यों को सभी सिद्धियाँ प्रदान
करने वाले उनके नामाष्टक स्तोत्र को सुनिये । उनका पहला नाम संकटा,
दूसरा विजया, तीसरा नाम कामदा, चौथा नाम दुःखहारिणी, पाँचवाँ शर्वाणी, छठा कात्यायनी, सातवाँ भीमनयना और आठवाँ नाम सर्वरोगहरा कहा गया है। जो
मनुष्य श्रद्धा से युक्त होकर देवी संकटा के इस कल्याणकारी नामाष्टक स्तोत्र का
तीनों सन्ध्याकालों में पाठ करता या कराता है, वह संकट से
मुक्त हो जाता है। द्विजवर नारद से ऐसा कहकर ऋषि जैगीषव्य वाराणसी चले गये ॥९-१२॥
इति तस्य वचः श्रुत्वा नारदो
हर्षनिर्भरः ।
ततः सम्पूजितां देवीं
वीरेश्वरसमन्विताम् ॥१३॥
भुजैस्तु दशभिर्युक्तां
लोचनत्रयभूषिताम् ।
मालाकमण्डलुयुतां पद्मशङ्खगदायुताम् ॥१४॥
त्रिशूलडमरुधरां
खड्ङ्गचर्मविभूषिताम् ।
वरदाभयहस्तां तां प्रणम्य विधिनन्दनः ॥१५॥
वारत्रयं गृहीत्वा तु ततो
विष्णुपुरं ययौ ।
उनकी यह बात सुनकर नारदजी आनन्द से
परिपूर्ण हो गये। इसके बाद उन्होंने वीरेश्वरसहित दस भुजाओं तथा तीन नेत्रों से
सुशोभित,
माला तथा कमण्डलु धारण करने वाली, कमल-शंख-
गदा से समन्वित त्रिशूल तथा डमरू धारण करने वाली, खड्ग तथा
ढाल से विभूषित, हाथ में वर तथा अभय मुद्रा धारण करने वाली
भगवती संकटा का पूजन किया । इस प्रकार सम्यक् रूप से पूजित उन देवी को प्रणाम करके
तथा तीन बार उनका चरणोदक लेकर ब्रह्मापुत्र नारद विष्णुलोक को चले गये ॥१३-१५अ॥
संकष्टनामाष्टकम् महात्म्य
एतत्स्तोत्रस्य पठनं
पुत्रपौत्रविवर्धनम् ॥१६॥
संकष्टनाशनं चैव त्रिषु लोकेषु
विश्रुतम् ।
गोपनीयं प्रयत्नेन
महावन्ध्याप्रसूतिकृत् ॥१७॥
इस स्तोत्र का पाठ पुत्र-पौत्र की
वृद्धि करने वाला है। संकट का नाश करने वाला यह स्तोत्र तीनों लोकों में प्रसिद्ध
है और यह महावन्ध्या स्त्री को भी संतान देने वाला है । इस स्तोत्र को प्रयत्न
पूर्वक अतिगोपनीय रखना चाहिये ॥१६-१७॥
॥ इति श्रीपद्ममहापुराणे
संकष्टनामाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीपद्ममहापुराण में
वर्णित संकष्टनामाष्टक सम्पूर्ण हुआ ॥
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