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कर्मकाण्ड

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यमुनाष्टक

यमुनाष्टक

श्रीमद् शङ्कराचार्य विरचित इस यमुनाष्टक स्तोत्र का नित्य पाठ करने से सभी दुखों का नाश होता है और सभी कामनाओं की पूर्ति होता है।

यमुनाष्टक

श्रीयमुनाष्टकम्

Yamunashtakam

यमुना अष्टकम्

श्रीयमुनाष्टकम्

यमुना अष्टक स्तोत्र

कृपापारावारां तपनतनयां तापशमनीं

मुरारिप्रेयस्कां भवभयदवां भक्तवरदाम् ।

वियज्जालान्मुक्तां श्रियमपि सुखाप्तेः प्रतिदिनं

सदा धीरो नूनं भजति यमुनां नित्यफलदाम् ॥१॥

जो कृपा की समुद्र, सूर्यकुमारी, ताप को शान्त करनेवाली, श्रीकृष्णचन्द्र का प्रेमिका, संसारभीति के लिये दावानलस्वरूप, भक्तों को वर देनेवाली और आकाशजाल से मुक्त लक्ष्मीस्वरूपा हैं, उन नित्यफलदायनी यमुनाजी का धीर पुरुष सुखप्राप्ति के लिये निश्चयपूर्वक निरन्तर प्रतिदिन भजन करता है॥१॥

मधुवनचारिणि भास्करवाहिनि जाह्रविसङ्गिनि सिन्धुसुते

मधुरिपुभूषिणि माधवतोषिणि गोकुलभीतिविनाशकृते ।

जगदघमोचिनि मानसदायिनि केशवकेलिनिदानगते

जय यमुने जय भीति निवारिणि सङ्कटनाशिनि पावय माम् ॥२॥

हे मधुवन में विहार करनेवाली ! हे भास्करवाहिनि ! हे गङ्गाजी की सहचरी ! हे सिन्धुसुते ! हे श्रीमधुसूदनविभूषिणि ! हे माधवतृप्तिकारिणि ! हे गोकुल का भय दूर करनेवाली ! हे जगत्पापविनाशिनि ! हे वाञ्छितफलदायिनि ! हे कृष्णकेलि की आश्रयभूता सकलभयनिवारिणी संकटनाशिनी यमुने ! तुम्हारी जय हो ! जय हो ! तुम मुझे पवित्र करो॥२॥

अयि मधुरे मधुमोदविलासिनि शैलविहारिणि वेगभरे

परिजनपालिनि दुष्टनिषूदिनि वाञ्छितकामविलासधरे ।

व्रजपुरवासिजनार्जितपातकहारिणि विश्वजनोद्धरिके

जय यमुने जय भीति निवारिणि सङ्कटनाशिनि पावय माम् ॥३॥

अयि मधुरे ! अयि मधुगन्धविलासिनि ! हे पर्वतों में विहार करनेवाली ! परम वेगवती अपने तीरवर्ती भक्तजनों का पालन करनेवाली, दुष्टों का संहार करनेवाली, इच्छित कामनाओं की विलासभूमि, व्रजभूमिनिवासियों के अर्जित पापों को हरण करनेवाली तथा सम्पूर्ण जीवों का उद्धार करनेवाली, सकलभयनिवारिणी संकटनाशिनी यमुने ! तुम्हारी जय हो ! जय हो ! तुम मुझे पवित्र करो ॥ ३ ॥

अतिविपदम्बुधिमग्नजनं भवतापशताकुलमानसकं

गतिमतिहीनमशेषभयाकुलमागतपादसरोजयुगम् ।

ऋणभयभीतिमनिष्कृतिपातककोटिशतायुतपुञ्जतरं

जय यमुने जय भीति निवारिणि सङ्कटनाशिनि पावय माम् ॥४॥

जो महान् विपत्तिसागर में निमग्न है, सैकड़ों सांसारिक संतापों से जिसका मन व्याकुल है, जो गति (आश्रय) और मति (विचार) से शून्य तथा सब प्रकार के भयों से व्याकुल है, जो ऋण और भय से दबा हुआ तथा सैकड़ों-हजारों-करोड़ों प्रतिकारशून्य पापों का पुतला है, तुम्हारे चरणकमलयुगल में प्राप्त हुए ऐसे मुझको, हे सकलभयनिवारिणी संकटनाशिनी यमुने ! तुम्हारी जय हो ! जय हो ! तुम मुझे पवित्र करो ॥ ४॥

नवजलदद्युतिकोटिलसत्तनुहेममयाभररञ्जितके

तडिदवहेलिपदाञ्चलचञ्चलशोभितपीतसुचैलधरे ।

मणिमयभूषणचित्रपटासनरञ्जितगञ्जितभानुकरे

जय यमुने जय भीति निवारिणि सङ्कटनाशिनि पावय माम् ॥५॥

तुम्हारा शरीर करोड़ों नवीन मेघों की कान्ति से सुशोभित तथा सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित है, जिसका चञ्चल अञ्चल चपला की भी अवहेलना करता है, ऐसे पीत दुकूल को धारण करके तुम परम शोभायमान हो रही हो तथा मणिमय आभूषण और चित्र-विचित्र वस्त्र एवं आसन से रञ्जित होकर तुमने सूर्य की किरणों को भी कण्ठित कर दिया है; है। सकलभयनिवारिणी संकटहारिणी यमुने! तुम्हारी जय हो, जय हो! तुम मुझ पवित्र करो॥ ५॥

शुभपुलिने मधुमत्तयदूद्भवरासमहोत्सवकेलिभरे

उच्चकुलाचलराजितमौक्तिकहारमयाभररोदसिके ।

नवमणिकोटिकभास्करकञ्चुकिशोभिततारकहारयुते

जय यमुने जय भीति निवारिणि सङ्कटनाशिनि पावय माम् ॥६॥

हे सुन्दर तटोंवाली ! हे मधुमत्त-यदुकुलोत्पन्न श्रीकृष्ण और बलराम के रास महोत्सव की क्रीडाभूमि ! हे ऊँचे-ऊँचे कुलपर्वतों की श्रेणियों पर शोभायमान मुक्तावलीरूप आभूषणों से पृथ्वी और आकाश को विभूषित करनेवाली, हे करोड़ों भास्करों के समान नवीन मणियों की कञ्चुकी से सुशोभित तथा तारावलीरूप हार से युक्त, सकलभयनिवारिणी सङ्कटहारिणी यमुने! तुम्हारी जय हो, जय हो ! तुम मुझे पवित्र करो॥ ६॥

करिवरमौक्तिकनासिकभूषणवातचमत्कृतचञ्चलके

मुखकमलामलसौरभचञ्चलमत्तमधुव्रतलोचनिके ।

मणिगणकुण्डललोलपरिस्फुरदाकुलगण्डयुगामलके

जय यमुने जय भीति निवारिणि सङ्कटनाशिनि पावय माम् ॥७॥

तुम्हारी नासिका की भूषणरूप गजमुक्ता वायु से चञ्चल होकर झिलमिला रही है, तुम्हारे नेत्ररूप मतवाले भौरे मानो मुखकमल की सुवास से चञ्चल हो रहे हैं तथा दोनों अमल कपोल हिलते हुए मणिमय कुण्डलों की झलक से झिलमिला रहे हैं, हे सकलभयनिवारिणी सङ्कटहारिणी यमुने ! तुम्हारी जय हो, जय हो ! तुम मुझे पवित्र करो ।। ७ ।।

कलरवनूपुरहेममयाचितपादसरोरुहसारुणिके

धिमिधिमिधिमिधिमितालविनोदितमानसमञ्जुलपादगते ।

तव पदपङ्कजमाश्रितमानवचित्तसदाखिलतापहरे

जय यमुने जय भीति निवारिणि सङ्कटनाशिनि पावय माम् ॥८॥

तुम्हारे अरुण चरणकमल सुवर्णमय नूपुरों के कलरव से युक्त हैं, तुम मन को प्रसन्न करनेवाली 'धिमि धिमि' स्वरमयी मनोहर गति से गमन करती हो, जो मनुष्य तुम्हारे चरणकमलों में चित्त लगाता है, तुम उसके सम्पूर्ण ताप हर लेती हो; हे सकलभयनिवारिणी संकटहारिणी यमुने ! तुम्हारी जय हो ! जय हो ! तुम मुझे पवित्र करो॥ ८ ॥

यमुनाष्टकम् फलश्रुति

भवोत्तापाम्भोधौ निपतितजनो दुर्गतियुतो

यदि स्तौति प्रातः प्रतिदिनमनन्याश्रयतया ।

हयाहृषैः कामं करकुसुमपुरैरविरतं

सदा भोक्ता भोगान्मरणसमये याति हरिताम् ॥९॥

जो मनुष्य संसार के सन्तापसमुद्र में डूबकर अत्यन्त दुर्गतिग्रस्त हो रहा है, वह यदि प्रतिदिन प्रातःकाल अनन्य चित्त से (इस स्तोत्र द्वारा श्रीयमुनाजी की) स्तुति करेगा, वह (यावज्जीवन) घोड़ों की हिनहिनाहट तथा हाथों में पुष्पपुञ्ज से सुशोभित होकर, निरन्तर सम्पूर्ण भोगों को भोगेगा और मरने के समय भगवद्रूप हो जायगा ॥ ९ ॥

इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं यमुनाष्टकं सम्पूर्णम् । 

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