पृथ्वी सूक्त

पृथ्वी सूक्त

इस सूक्त का नाम पृथ्वी सूक्त है। इसमें वर्णित धर्म और नीति के पालन से राजा प्रजा और प्रत्येक गृहस्थ और मनुष्यमात्र का कल्याण होता है । पृथ्वी सूक्त अथर्ववेद के बारहवें काण्ड का प्रथम सूक्त है। इस सूक्त में कुल 63 मंत्र हैं। उक्त सूक्त के मन्त्रदृष्टा ऋषि अथर्वा है। (गोपथ ब्राह्मण के अनुसार अथर्वन् का शाब्दिक अर्थ गतिहीन या स्थिर है।) इस सूक्त को पृथिवी सूक्त, भूमि सूक्त तथा मातृ सूक्त भी कहा जाता है। उक्त सूक्त राष्ट्रिय अवधारणा तथा वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को विकसित, पोषित एवं फलित करने के लिए अत्यन्त उपयोगी सूक्त है। इन मन्त्रों के माध्यम से ऋषि ने पृथ्वी के आदिभौतिक और आदिदैविक दोनों रूपों का स्तवन किया है। यहां सम्पूर्ण पृथ्वी ही माता के रूप में ऋषि को दृष्टिगोचर हुई है, अत: माता की इस महामहिमा को हृदयांगम करके उससे उत्तम वर के लिए प्रार्थना की है। यह सूक्त अथर्ववेद में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इस सूक्त में पृथ्वी के स्वरूप एवं उसकी उपयोगिता, मातृभूमि के प्रति प्रगाढ़ भक्ति पर विशद् विवेचन किया गया है।

पृथ्वी सूक्त

पृथ्वी सूक्तम्

काण्ड-12, सूक्त-1, ऋषि- अथर्वा, देवता- भूमि

स॒त्यं बृ॒हदृ॒तमु॒ग्रं दी॒क्षा तपो॒ ब्रह्म॑ य॒ज्ञः पृ॑थि॒वीं धा॑रयन्ति।

सा नो॑ भू॒तस्य॒ भव्य॑स्य॒ पत्न्यु॒रुं लो॒कं पृ॑थि॒वी नः॑ कृणोतु ॥१.१॥

पदार्थान्वयभाषाः -(बृहत्) बढ़ा हुआ (सत्यम्) सत्य कर्म, (उग्रम्) उग्र (ऋतम्) सत्यज्ञान, (दीक्षा) दीक्षा [आत्मनिग्रह], (ब्रह्म) ब्रह्मचर्य [वेदाध्ययन, वीर्यनिग्रह रूप] (तपः) तप [व्रतधारण] और (यज्ञः) यज्ञ [देवपूजा, सत्सङ्ग और दान] (पृथिवीम्) पृथिवी को (धारयन्ति) धारण करते हैं। (नः) हमारे (भूतस्य) बीते हुये और (भव्यस्य) होनेवाले [पदार्थ] की (पत्नी) पालन करनेवाली (सा पृथिवी) वह पृथिवी (उरुम्) चौड़ा (लोकम्) स्थान (नः) हमारे लिये (कृणोतु) करे ॥१॥

भावार्थभाषाः -सत्यकर्मी, सत्यज्ञानी, जितेन्द्रिय, ईश्वर और विद्वानों से प्रीति करनेवाले चतुर पुरुष पृथिवी पर उन्नति करते हैं। यह नियम भूत और भविष्यत् के लिये समान है ॥१॥

अ॑संबा॒धं ब॑ध्य॒तो मा॑न॒वानां॒ यस्या॑ उ॒द्वतः॑ प्र॒वतः॑ स॒मं ब॒हु।

नाना॑वीर्या॒ ओष॑धी॒र्या बिभ॑र्ति पृथि॒वी नः॑ प्रथतां॒ राध्य॑तां नः ॥१.२॥

पदार्थान्वयभाषाः -(मानवानाम्) मानवालों वा मननशीलों के (असंबाधम्) गति रोकनेवाले व्यवहार को (बध्यतः) मिटाती हुई (यस्याः) जिस [पृथिवी] के [मध्य] (उद्वतः) ऊँचे और (प्रवतः) नीचे देश और (बहु) बहुत से (समम्) सम स्थान हैं। (या) जो (नानावीर्याः) अनेकवीर्य [बल]वाली (ओषधीः) ओषधियों [अन्न, सोमलता आदि] को (बिभर्ति) रखती है, (पृथिवी) वह पृथिवी (नः) हमारे लिये (प्रथताम्) चौड़ी होवे और (नः) हमारे लिये (राध्यताम्) सिद्धि करे ॥२॥

भावार्थभाषाः -विचारशील मनुष्य पृथिवी पर ऊँचे, नीचे और सम स्थानों में विघ्नों को मिटाकर अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके कार्यसिद्धि करते जाते हैं ॥२॥

यस्यां॑ समु॒द्र उ॒त सिन्धु॒रापो॒ यस्या॒मन्नं॑ कृ॒ष्टयः॑ संबभू॒वुः।

यस्या॑मि॒दं जिन्व॑ति प्रा॒णदेज॒त्सा नो॒ भूमिः॑ पूर्व॒पेये॑ दधातु ॥१.३॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम्) जिस [भूमि] पर (समुद्रः) समुद्र (उत) और (सिन्धुः) नदी और (आपः) जलधाराएँ [झरने कूप आदि] हैं, (यस्याम्) जिस पर (अन्नम्) अन्न और (कृष्टयः) खेतियाँ (संबभूवुः) उत्पन्न हुई हैं। (यस्याम्) जिस पर (इदम्) यह (प्राणत्) श्वास लेता हुआ और (एजत्) चेष्टा करता हुआ [जगत्] (जिन्वति) चलता है, (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमें (पूर्वपेये) श्रेष्ठों से रक्षा योग्य पद पर (दधातु) ठहरावे ॥३॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य समुद्र, नदी, कूप और वृष्टि के जल तथा अन्य खेती आदि से नौका, यान, कलायन्त्र आदि में अनेक प्रकार उपकार लेते हैं, वे सब जगत् को आनन्द देकर श्रेष्ठ पद पाते हैं ॥३॥

यस्या॒श्चत॑स्रः प्र॒दिशः॑ पृथि॒व्या यस्या॒मन्नं कृ॒ष्टयः॑ संबभू॒वुः।

या बिभ॑र्ति बहु॒धा प्रा॒णदेज॒त्सा नो॒ भूमि॒र्गोष्वप्यन्ने॑ दधातु ॥१.४॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याः पृथिव्याः) जिस पृथिवी की (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ हैं, (यस्याम्) जिस में (अन्नम्) अन्न और (कृष्टयः) खेतियाँ (संबभूवुः) उत्पन्न हुई हैं। (या) जो (बहुधा) अनेक प्रकार से (प्राणत्) श्वास लेते हुए और (एजत्) चेष्टा करते हुए [जगत्] को (बिभर्ति) पोषती है, (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमें (गोषु) गौओं में (अपि) और भी (अन्ने) अन्न में (दधातु) रक्खे ॥४॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य सब ओर दृष्टि फैलाकर अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके सब प्राणियों की रक्षा करते हैं, वे इस भूमि पर गौ, बैल, अश्व आदि और अन्न आदि पदार्थों से परिपूर्ण रहते हैं ॥४॥

यस्यां॒ पूर्वे॑ पूर्वज॒ना वि॑चक्रि॒रे यस्यां॑ दे॒वा असु॑रान॒भ्यव॑र्तयन्।

गवा॒मश्वा॑नां॒ वय॑सश्च वि॒ष्ठा भगं॒ वर्चः॑ पृथि॒वी नो॑ दधातु ॥१.५॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम्) जिस [पृथिवी] पर (पूर्वे) पूर्वकाल में (पूर्वजनाः) पूर्वजों ने (विचक्रिरे) बढ़कर कर्तव्य किये हैं, (यस्याम्) जिस पर (देवाः) देवताओं [विजयी जनों] ने (असुरान्) असुरों [दुष्टों] को (अभ्यवर्तयन्) हराया है। (गवाम्) गौओं, (अश्वानाम्) अश्वों (च) और (वयसः) अन्न की (विष्ठा) चौकी [ठिकाना], (पृथिवी) वह पृथिवी (नः) हम को (भगम्) ऐश्वर्य और (वर्चः) तेज (दधातु) देवे ॥५॥

भावार्थभाषाः -जिस प्रकार पूर्वजों ने विघ्नों को हटाकर कर्तव्य करके ऐश्वर्य पाया है, इसी प्रकार मनुष्य पुरुषार्थ करके ऐश्वर्यवान् और प्रतापवान् होवें ॥५॥

वि॑श्वंभ॒रा व॑सु॒धानी॑ प्रति॒ष्ठा हिर॑ण्यवक्षा॒ जग॑तो नि॒वेश॑नी।

वै॑श्वान॒रं बिभ्र॑ती॒ भूमि॑र॒ग्निमिन्द्रऋ॑षभा॒ द्रवि॑णे नो दधातु ॥१.६॥

पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वम्भरा) सब को सहारा देनेवाली, (वसुधानी) धनों की रखनेवाली (प्रतिष्ठा) दृढ़ आधार (हिरण्यवक्षाः) सुवर्ण छाती में रखनेवाली, (जगतः) चलनेवाले [उद्योगी] की (निवेशनी) सुख देनेवाली, (वैश्वानरम्) सब नरों के हितकारी (अग्निम्) अग्नि [समान प्रतापी मनुष्य] की (बिभ्रती) पोषण करनेवाली, (इन्द्रऋषभा) इन्द्र [परमात्मा वा मनुष्य वा सूर्य] को प्रधान माननेवाली (भूमिः) भूमि (द्रविणे) बल [वा धन] के बीच (नः) हम को (दधातु) रक्खे ॥६॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य उद्योग करते हैं, वे भूपति होकर इस वसुधा पृथिवी पर सोना-चाँदी आदि की प्राप्ति से बली और धनी होकर सुख पाते हैं ॥६॥

यां रक्ष॑न्त्यस्व॒प्ना वि॑श्व॒दानीं॑ दे॒वा भूमिं॑ पृथि॒वीमप्र॑मादम्।

सा नो॒ मधु॑ प्रि॒यं दु॑हा॒मथो॑ उक्षतु॒ वर्च॑सा ॥१.७॥

पदार्थान्वयभाषाः -(याम्) जिस (विश्वदानीम्) सब कुछ देनेवाली (भूमिम्) भूमि [आश्रय स्थान], (पृथिवीम्) पृथिवी [फैले हुए धरातल] को (अस्वप्नाः) बिना सोते हुए (देवाः) देवता [विजयी पुरुष] (अप्रमादम्) बिना चूक (रक्षन्ति) बचाते हैं। (सा) वह (नः) हमको (प्रियम्) प्रिय (मधु) मधु [मधुविद्या, पूर्ण विज्ञान] (दुहाम्) दुहा करे, (अथो) और भी (वर्चसा) तेज [बल पराक्रम] के साथ (उक्षतु) बढ़ावे ॥७॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य निरालसी और अप्रमादी होकर भूमि की रक्षा करते हैं, वे इस पृथिवी पर विज्ञानी और तेजस्वी होते हैं ॥७॥

यार्ण॒वेऽधि॑ सलि॒लमग्र॒ आसी॒द्यां मा॒याभि॑र॒न्वच॑रन्मनी॒षिणः॑।

यस्या॒ हृद॑यं पर॒मे व्योमन्त्स॒त्येनावृ॑तम॒मृतं॑ पृथि॒व्याः।

सा नो॒ भूमि॒स्त्विषिं॒ बलं॑ रा॒ष्ट्रे द॑धातूत्त॒मे ॥१.८॥

पदार्थान्वयभाषाः -(या) जो [भूमि] (अर्णवे अधि) जल से भरे समुद्र के ऊपर (सलिलम्) जल [भाप] (अग्रे) पहिले (आसीत्) थी, (मनीषिणः) मननशील लोग (मायाभिः) अपनी बुद्धियों से (यान् अन्वचरन्) जिस [भूमि] के पीछे-पीछे चले हैं [सेवा करते रहे हैं]। (यस्याः पृथिव्याः) जिस पृथिवी का (हृदयम्) हृदय [भीतरी बल] (परमे) बहुत बड़े (व्योमन्) विविध रक्षक [आकाश] में (सत्येन) सत्य [अविनाशी परमात्मा] से (आवृतम्) ढका हुआ (अमृतम्) बिना मरा [सदा उपजाऊ] है। (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हम को (त्विषिम्) तेज और (बलम्) बल वा सेना (उत्तमे) सब से श्रेष्ठ (राष्ट्रे) राज्य के बीच (दधातु) दान करे ॥८॥

भावार्थभाषाः -सृष्टि के आदि में जल के मध्य यह पृथिवी बुदबुदे के समान थी, वह आकाश में ईश्वरनियम से दृढ़ होकर अनेक रत्नों की खानि है। पहिले विचारवानों के समान सब मनुष्य पराक्रम से पृथिवी की सेवा करके बड़े राज्य के भीतर तेजस्वी और बली होकर बढ़ती करें ॥८॥

यस्या॒मापः॑ परिच॒राः स॑मा॒नीर॑होरा॒त्रे अप्र॑मादं॒ क्षर॑न्ति।

सा नो॒ भूमि॒र्भूरि॑धारा॒ पयो॑ दुहा॒मथो॑ उक्षतु॒ वर्च॑सा ॥१.९॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम्) जिस भूमि पर (परिचराः) सेवाशीलवाले (समानीः) एक से स्वभाववाली (आपः) आप्त प्रजाएँ [सत्यवक्ता लोग] (अहोरात्रे) दिन-राति (अप्रमादम्) बिना चूक (क्षरन्ति) बहते हैं। (भूरिधारा) अनेक धारण शक्तियोंवाली (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमको (पयः) अन्न (दुहाम्) दुहा करे, (अथो) और भी (वर्चसा) तेज के साथ (उक्षतु) बढ़ावे ॥९॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को योग्य है कि समदर्शी परोपकारी महात्माओं के समान दृढ़चित्त होकर परस्पर सेवा करते हुए पृथिवी पर अन्न आदि के लाभ से बल वीर्य बढ़ावें ॥९॥

याम॒श्विना॒वमि॑मातां॒ विष्णु॒र्यस्यां॑ विचक्र॒मे।

इन्द्रो॒ यां च॒क्र आ॒त्मने॑ऽनमि॒त्रां शची॒पतिः॑।

सा नो॒ भूमि॒र्वि सृ॑जतां मा॒ता पु॒त्राय॑ मे॒ पयः॑ ॥१.१०॥

पदार्थान्वयभाषाः -(याम्) जिस [भूमि] को (अश्विनौ) दिन और राति ने (अमिमाताम्) नापा है, (यस्याम्) जिस [भूमि] पर (विष्णुः) व्यापक सूर्य ने (विचक्रमे) पाँव रक्खा है। (याम्) जिस [भूमि] को (शचीपतिः) वाणियों, कर्मों और बुद्धियों में चतुर (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] ने (आत्मने) अपने लिये (अनमित्राम्) शत्रुरहित (चक्रे) किया है। (सा भूमिः) वह भूमिः (नः) हमारे [हम सब के] हित के लिये (मे) मुझ को (पयः) अन्न [वा दूध] (वि) विविध प्रकार (सृजताम्) देवे, [जैसे] (माता) माता (पुत्राय) पुत्रको [अन्न वा दूध देती है] ॥१०॥

भावार्थभाषाः -जिस पृथिवी को दिन और राति अपने गुणों से उपजाऊ बनाते हैं, जिस को सूर्य अपने आकर्षण, प्रकाश और वृष्टि आदि कर्म से स्थिर रखता है, और जिस पर यथार्थवक्ता, यथार्थकर्मा और यथार्थज्ञाता पुरुष विजय पाते हैं, उस पृथिवी को उपयोगी बनाकर प्रत्येक मनुष्य सब का हित करे ॥१०॥

गि॒रय॑स्ते॒ पर्व॑ता हि॒मव॒न्तोऽर॑ण्यं ते पृथिवि स्यो॒नम॑स्तु।

ब॒भ्रुं कृ॒ष्णां रोहि॑णीं वि॒श्वरू॑पां ध्रु॒वां भूमिं॑ पृथि॒वीमिन्द्र॑गुप्ताम्।

अजी॒तोऽह॑तो॒ अक्ष॒तोऽध्य॑ष्ठां पृथि॒वीमह॑म् ॥१.११॥

पदार्थान्वयभाषाः -(पृथिवी) हे पृथिवि ! [हमारे लिये] (ते) तेरी (गिरयः) पहाड़ियाँ और (हिमवन्तः) हिमवाले (पर्वताः) पहाड़, और (ते) तेरा (अरण्यम्) वन भी (स्योनम्) मनभावना (अस्तु) होवे। (बभ्रुम्) पोषण करनेवाली, (कृष्णाम्) जोतने योग्य, (रोहिणीम्) उपजाऊ, (विश्वरूपाम्) अनेक [सुनैले, रुपैले आदि] रूपवाली, (ध्रुवाम्) दृढ़ स्वभाववाली, (भूमिम्) आश्रय स्थान, (पृथिवीम्) फैली हुई, (इन्द्रगुप्ताम्) इन्द्रों [ऐश्वर्यशाली वीर पुरुषों] से रक्षा कियी गई (पृथिवीम्) पृथिवी का (अजीतः) बिना जीर्ण हुए, (अहतः) बिना मारे गये और (अक्षतः) बिना घायल हुए (अहम्) मैं (अधि अस्थाम्) अधिष्ठाता बना हूँ ॥११॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य कला, यन्त्र, यान, विमान आदि से दुर्गम्य स्थानों में निर्विघ्न पहुँचकर पृथिवी को उपजाऊ बनावें ॥११॥

यत्ते॒ मध्यं॑ पृथिवि॒ यच्च॒ नभ्यं॒ यास्त॒ ऊर्ज॑स्त॒न्वः संबभू॒वुः।

तासु॑ नो धेह्य॒भि नः॑ पवस्व मा॒ता भूमिः॑ पु॒त्रो अ॒हं पृ॑थि॒व्याः

प॒र्जन्यः॑ पि॒ता स उ॑ नः पिपर्तु ॥१.१२॥

पदार्थान्वयभाषाः -(पृथिवी) हे पृथिवी ! (यत्) जो (ते) तेरा (मध्यम्) न्याययुक्त कर्म है, (च) और (यत्) जो (नभ्यम्) क्षत्रियों का हितकारी कर्म है, और (याः) जो (ऊर्जः) बलदायक [अन्न आदि] पदार्थ (ते) तेरे (तन्वः) शरीर से (संबभूवुः) उत्पन्न हुए हैं। (तासु) उन सब [क्रियाओं] के भीतर (नः) हम को (धेहि) तू रख, और (नः) हमें (अभि) सब ओर से (पवस्व) शुद्ध कर, (भूमिः) भूमि (माता) [मेरी] माता [तुल्य है], (अहम्) मैं (पृथिव्याः) पृथिवी का (पुत्रः) पुत्र [नरक, महाकष्ट से बचानेवाला हूँ]। (पर्जन्यः) सींचनेवाला मेघ (पिता) [मेरे] पिता [तुल्य पालक है], (सः) वह (उ) भी (नः) हमें (पिपर्तु) पूर्ण करे ॥१२॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य नीतिविद्या, भूगर्भविद्या, भूतलविद्या और मेघविद्या आदि में निपुण होकर पृथिवी को उपकारी और सुखदायक बनावें ॥१२॥

यस्यां॒ वेदिं॑ परिगृ॒ह्णन्ति॒ भूम्यां॒ यस्यां॑ य॒ज्ञं त॒न्वते॑ वि॒श्वक॑र्माणः।

यस्यां॑ मी॒यन्ते॒ स्वर॑वः पृथि॒व्यामू॒र्ध्वाः शु॒क्रा आहु॑त्याः पु॒रस्ता॑त्।

सा नो॒ भूमि॑र्वर्धय॒द्वर्ध॑माना ॥१.१३॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम् भूम्याम्) जिस भूमि पर (विश्वकर्माणः) विश्वकर्मा [सब कामों में चतुर] लोग (वेदिम्) वेदी [यज्ञस्थान] को (परिगृह्णन्ति) घेर लेते हैं, (यस्याम्) जिस [भूमि] पर (यज्ञम्) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दानव्यवहार] को (तन्वते) फैलाते हैं। (यस्याम् पृथिव्याम्) जिस पृथिवी पर (ऊर्ध्वाः) ऊँचे और (शुक्राः) उजले (स्वरवः) विजयस्तम्भ (आहुत्याः) आहुति [पूर्णाहुति, यज्ञपूर्ति] से (पुरस्तात्) पहिले (मीयन्ते) गाढ़े जाते हैं। (सा) वह (वर्धमाना) बढ़ती हुई (भूमिः) भूमि (नः) हमें (वर्धयत्) बढ़ाती रहे ॥१३॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि कर्मकुशल लोगों के समान अपना कर्त्तव्य पूरा करके संसार में दृढ़ कीर्ति स्थापित करें ॥१३॥

यो नो॒ द्वेष॑त्पृथिवि॒ यः पृ॑त॒न्याद्योभि॒दासा॒न्मन॑सा॒ यो व॒धेन॑।

तं नो॑ भूमे रन्धय पूर्वकृत्वरि ॥१.१४॥

पदार्थान्वयभाषाः -(पृथिवि) हे पृथिवी ! (यः) जो [दुष्ट] (नः) हम से (द्वेषत्) वैर करे, (यः) जो (पृतन्यात्) सेना चढ़ावे, (यः) जो (मनसा) मन से, (यः) जो (वधेन) मारू हथियार से (अभिदासात्) सतावे। (पूर्वकृत्वरि) हे श्रेष्ठों के लिये काम करनेवाली (भूमे) भूमि ! (तम्) उस को (नः) हमारे लिये (रन्धय) नाश कर ॥१४॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य धर्म से सत्कारपूर्वक पृथिवी की रक्षा करते हैं, वे शत्रुओं को नाश कर सकते हैं ॥१४॥

त्वज्जा॒तास्त्वयि॑ चरन्ति॒ मर्त्या॒स्त्वं बि॑भर्षि द्वि॒पद॒स्त्वं चतु॑ष्पदः।

तवे॒मे पृ॑थिवि॒ पञ्च॑ मान॒वा येभ्यो॒ ज्योति॑र॒मृतं॒ मर्त्ये॑भ्य उ॒द्यन्त्सूर्यो॑ र॒श्मिभि॑रात॒नोति॑ ॥१.१५॥

पदार्थान्वयभाषाः -(त्वत्) तुझ से (जाताः) उत्पन्न हुए (मर्त्याः) मनुष्य (त्वयि) तुझ पर (चरन्ति) चलते हैं, (त्वम्) तू (द्विपदः) दो पायों को और (त्वम्) तू (चतुष्पदः) चौपायों को (बिभर्षि) आश्रय देती है। (पृथिवि) हे पृथिवी ! (इमे) यह सब (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश, इन पाँच तत्त्व से] संबन्धवाले (मानवाः) मनुष्य (तव) तेरे हैं, (येभ्यः मर्त्येभ्यः) जिन मनुष्यों के लिये (उद्यन्) उदय होता हुआ (सूर्यः) सूर्य (अमृतम्) विना मरी हुई (ज्योतिः) ज्योति (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (आतनोति) सब ओर फैलाता है ॥१५॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य पृथिवी पर उत्पन्न होकर उद्योग करते हैं, वे सब प्राणियों की रक्षा करके सूर्य की पुष्टिकारक किरणों से वृष्टि आदि द्वारा सदा आनन्द पाते हैं ॥१५॥

ता नः॑ प्र॒जाः सं दु॑ह्रतां सम॒ग्रा वा॒चो मधु॑ पृथिवि धेहि॒ मह्य॑म् ॥१.१६॥

पदार्थान्वयभाषाः -(समग्राः) सब (ताः) वे (प्रजाः) प्रजाएँ (नः) हमें (सम् दुह्रताम्) मिलकर भरपूर करें, (पृथिवि) हे पृथिवी ! (वाचः) वाणी की (मधु) मधुरता (मह्यम्) मुझ को (धेहि) दे ॥१६॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य वाणी की मधुरता अर्थात् सत्य वचन आदि से सब प्राणियों से उपकार लेते हैं, वे सुख पाते हैं ॥१६॥

वि॑श्व॒स्वं मा॒तर॒मोष॑धीनां ध्रु॒वां भूमिं॑ पृथि॒वीं धर्म॑णा धृ॒ताम्।

शि॒वां स्यो॒नामनु॑ चरेम वि॒श्वहा॑ ॥१.१७॥

पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वस्वम्) सब उत्पन्न करनेवाली, (ओषधीनाम्) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] की (मातरम्) माता, (ध्रुवाम्) दृढ़, (भूमिम्) आश्रय स्थान, (धर्मणा) धर्म [धरने योग्य स्वभाव वा कर्म] से (धृताम्) धारण की गयी, (शिवाम्) कल्याणी, (स्योनाम्) मनभावनी (पृथिवीम् अनु) पृथिवी के पीछे (विश्वहा) अनेक प्रकार (चरेम) हम चलें ॥१७॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य धर्म के साथ भूमि का शासन करके समस्त उत्तम गुणों और पदार्थों से सुख प्राप्त करें ॥१७॥

म॒हत्स॒धस्थं॑ मह॒ती ब॒भूवि॑थ म॒हान्वेग॑ ए॒जथु॑र्वे॒पथु॑ष्टे।

म॒हांस्त्वेन्द्रो॑ रक्ष॒त्यप्र॑मादम्।

सा नो॑ भूमे॒ प्र रो॑चय॒ हिर॑ण्यस्येव सं॒दृशि॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥१.१८॥

पदार्थान्वयभाषाः -(महती) बड़ी होकर तू (महत्) बड़ा (सधस्थम्) सहवास (बभूविथ) हुई है, (ते) तेरा (वेगः) वेग, (एजथुः) चलना और (वेपथुः) हिलना (महान्) बड़ा है। (महान्) बड़ा (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाला मनुष्य] (अप्रमादम्) बिना चूक (त्वा रक्षति) तेरी रक्षा करता है। (सा) सो तू, (भूमे) हे भूमि ! (नः) हमें (हिरण्यस्य इव) सुवर्ण के जैसे (संदृशि) रूप में (प्र रोचय) प्रकाशमान कर दे, (कश्चन) कोई भी (नः) हम से (मा द्विक्षत्) न द्वेष करे ॥१८॥

भावार्थभाषाः -पुरुषार्थी पुरुष अनेक प्रयत्नों के साथ पृथिवी पर सब से मिलकर विद्या द्वारा सुवर्ण आदि धन प्राप्त करके तेजस्वी होते हैं ॥१८॥

अ॒ग्निर्भूम्या॒मोष॑धीष्व॒ग्निमापो॑ बिभ्रत्य॒ग्निरश्म॑सु।

अ॒ग्निर॒न्तः पुरु॑षेषु॒ गोष्वश्वे॑ष्व॒ग्नयः॑ ॥१.१९॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूम्याम्) भूमि में [वर्तमान] (अग्निः) अग्नि [ताप] (ओषधीषु) ओषधियों [अन्न सोमलता आदि] में है, (अग्निम्) अग्नि को (आपः) जल (बिभ्रति) धारण करते हैं, (अग्निः) अग्नि (अश्मसु) पत्थरों [वा मेघों] में है। (अग्निः) अग्नि (पुरुषेषु अन्तः) पुरुषों के भीतर है, (अग्नवः) अग्नि [के ताप] (गोषु) गौओं में और (अश्वेषु) घोड़ों में हैं ॥१९॥

भावार्थभाषाः –ईश्वर नियम से पृथिवी में का अग्निताप अन्न आदि पदार्थों और प्राणियों में प्रवेश करके उन में बढ़ने तथा पुष्ट होने का सामर्थ्य देता है ॥१९॥ यहाँ पर अथर्व० ३।२१।१, २। भी देखो ॥

अ॒ग्निर्दि॒व आ त॑पत्य॒ग्नेर्दे॒वस्यो॒र्वन्तरि॑क्षम्।

अ॒ग्निं मर्ता॑स इन्धते हव्य॒वाहं॑ घृत॒प्रिय॑म् ॥१.२०॥

पदार्थान्वयभाषाः -(अग्निः) अग्नि [ताप] (दिवः) सूर्य से (आ तपति) आकर तपता है, (देवस्य) कामनायोग्य (अग्नेः) अग्नि का (उरु) चौड़ा (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [अवकाश] है। (हव्यवाहम्) हव्य [आहुति के द्रव्य अथवा नाड़ियों में अन्न के रस] को ले चलनेवाले, (घृतप्रियम्) घृत के चाहनेवाले (अग्निम्) अग्नि को (मर्तासः) मनुष्य लोग (इन्धते) प्रकाशमान करते हैं ॥२०॥

भावार्थभाषाः -वह अग्नि ताप भूमि में [म० १९] सूर्य से आता है, तथा आकाश के पदार्थों में प्रवेश करके उन्हें बलयुक्त करता है। उस अग्नि को मनुष्य आदि प्राणी भोजन आदि से शरीर में बढ़ा कर पुष्ट और बलवान् होते हैं। तथा उसी अग्नि को हव्यद्रव्यों से प्रज्वलित करके मनुष्य वायु, जल और अन्न को शुद्ध निर्दोष करते हैं ॥२०॥

अ॒ग्निवा॑साः पृथि॒व्यसित॒ज्ञूस्त्विषी॑मन्तं॒ संशि॑तं मा कृणोतु ॥१.२१॥

पदार्थान्वयभाषाः -(अग्निवासाः) अग्नि के साथ निवास करनेवाली [अथवा अग्नि के वस्त्रवाली], (असितज्ञूः) बन्धनरहित कर्म को [जतानेवाली] (पृथिवी) पृथिवी (मा) मुझ को (त्विषिमन्तम्) तेजस्वी और (संशितम्) तीक्ष्ण [फुरतीला] (कृणोतु) करे ॥२१॥

भावार्थभाषाः -जैसे भूमि भीतर और बाहिर सूर्यताप से बल पाकर अपने मार्ग पर बेरोक चलती रहती है, वैसे ही मनुष्य भीतरी और बाहिरी बल बढ़ाकर सुमार्ग में बढ़ता चले ॥२१॥

भूम्यां॑ दे॒वेभ्यो॑ ददति य॒ज्ञं ह॒व्यमरं॑कृतम्।

भूम्यां॑ मनु॒ष्या॑ जीवन्ति स्व॒धयान्ने॑न॒ मर्त्याः॑।

सा नो॒ भूमिः॑ प्रा॒णमायु॑र्दधातु ज॒रद॑ष्टिं मा पृथि॒वी कृ॑णोतु ॥१.२२॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूम्याम्) भूमि पर (देवेभ्यः) उत्तम गुणों के लिये (मनुष्याः) मनुष्य (हव्यम्) देने-लेने योग्य, (अरंकृतम्) शोभित करनेवाले वा शक्तिमान् करनेवाले (यज्ञम्) संगतिकरण व्यवहार को (ददति) दान करते हैं। (भूम्याम्) भूमि पर (मर्त्याः) मनुष्य (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (अन्नेन) अन्न द्वारा (जीवन्ति) जीवते हैं। (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हम को (प्राणम्) प्राण [आत्मबल] और (आयुः) आयु [जीवन] (दधातु) देवे, और [वही] (पृथिवी) पृथिवी (मा) मुझ को (जरदष्टिम्) स्तुति के साथ प्रवृत्ति वा भोजनवाला (कृणोतु) करे ॥२२॥

भावार्थभाषाः -जिस प्रकार मनुष्य उत्तम पुरुषों से मिलकर श्रेष्ठ-श्रेष्ठ गुण प्राप्त करते और दूसरों को प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार हम उत्तम गुण प्राप्त करके अपना जीवन श्रेष्ठ बनावें ॥२२॥

यस्ते॑ ग॒न्धः पृ॑थिवि संब॒भूव॒ यं बिभ्र॒त्योष॑धयो॒ यमापः॑।

यं ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रस॑श्च भेजि॒रे तेन॑ मा सुर॒भिं कृ॑णु॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥१.२३॥

पदार्थान्वयभाषाः -(पृथिवी) हे पृथिवी ! (यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) गन्ध [अंश] (संबभूव) उत्पन्न हुआ है, (यम्) जिस [अंश] को (ओषधयः) ओषधें [अन्न, सोमलता आदि] और (यम्) जिसको (आपः) जल (बिभ्रति) धारण करते हैं। (यम्) जिसको (गन्धर्वाः) पृथिवी [के अंशः] को धारण करनेवाले [प्राणियों ने (च) और (अप्सरसः)] आकाश में चलनेवाले [जीवों और लोकों] ने (भेजिरे) भोगा है, (तेन) उस [गन्ध वा अंश] से (मा) मुझे (सुरभिम्) ऐश्वर्यवान् (कृणु) तू कर, (कश्चन) कोई भी [प्राणी] (नः) हम से (मा द्विक्षत) न वैर करे ॥२३॥

भावार्थभाषाः -गन्धवती पृथिवी का आश्रय लेकर अनेक प्रकार से सब प्राणी और सब लोक आकार धारण करके ठहरते हैं। मनुष्य उस पृथिवी के तत्त्वज्ञान से सब कार्य सिद्ध करके ऐश्वर्यवान् होवें ॥२३॥

यस्ते॑ ग॒न्धः पुष्क॑रमावि॒वेश॒ यं सं॑ज॒भ्रुः सू॒र्याया॑ विवा॒हे।

अम॑र्त्याः पृथिवि ग॒न्धमग्रे॒ तेन॒ मा सु॑र॒भिं कृ॑णु॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥१.२४॥

पदार्थान्वयभाषाः -(पृथिवी) हे पृथिवी ! (यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) [अंश] (पुष्करम्) पोषक पदार्थ [वा कमल] में (आविवेश) प्रविष्ट हुआ है, (यं गन्धम्) जिस गन्ध को (सूर्यायाः) सूर्य की चमक के (विवाहे) ले चलने में (अमर्त्याः) अमर [पुरुषार्थी] लोगों ने (अग्रे) पहिले (संजभ्रुः) समेटा है, (तेन) उसी [अंश] से (मा) मुझको (सुरभिम्) ऐश्वर्यवान् (कृणु) तू कर, (कश्चन) कोई भी [प्राणी] (नः) हम से (मा द्विक्षत) न वैर करे ॥२४॥

भावार्थभाषाः -पृथिवी का गन्ध अर्थात् अंश प्रविष्ट होकर पदार्थों को पुष्ट करता और सूर्य के ताप द्वारा देश-देशान्तरों में पहुँचता है। उस पृथिवी से तत्त्ववेत्ता लोग उपकार लेकर प्रसन्न होते हैं ॥२४॥

यस्ते॑ ग॒न्धः पुरु॑षेषु स्त्री॒षु पुं॒सु भगो॒ रुचिः॑।

यो अश्वे॑षु वी॒रेषु॒ यो मृ॒गेषू॒त ह॒स्तिषु॑।

क॒न्यायां॒ वर्चो॒ यद्भू॑मे॒ तेना॒स्माँ अपि॒ सं सृ॑ज॒ मा नो॑ द्विक्षत॒ कश्च॒न ॥२.२५॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यः) जो (ते) तेरा (गन्धः) गन्ध [अंश] (पुरुषेषु) अग्रगामी (पुंसु) रक्षक मनुष्यों में और (स्त्रीषु) स्त्रियों में (भगः) सेवनीय ऐश्वर्य और (रुचिः) कान्ति है। (यः) जो [गन्ध] (वीरेषु) वेगवान् (अश्वेषु) घोड़ों में (उत) और (यः) जो (मृगेषु) हरिणों में और (हस्तिषु) हाथियों में है और (यत्) जो (वर्चः) तेज (कन्यायाम्) चमकती हुई कन्या [कन्या आदि राशि ज्योतिश्चक्र] में है, (भूमे) हे भूमि ! (तेन) उस [तेज] के साथ (अस्मान् अपि) हमें भी (सं सृज) मिला, (कश्चन) कोई भी [प्राणी] (मा) मुझ से (मा द्विक्षत) वैर न करे ॥२५॥

भावार्थभाषाः -पृथिवी का आश्रय लेकर संसार के देहधारी मनुष्य आदि सब प्राणी और अन्तरिक्ष के तारागण आदि सब लोक स्थित हैं, वैसे ही मनुष्य सब प्रकार उपकारी और तेजस्वी होकर विघ्नों का नाश करें ॥२५॥

शि॒ला भूमि॒रश्मा॑ पां॒सुः सा भूमिः॒ संधृ॑ता धृ॒ता।

तस्यै॒ हिर॑ण्यवक्षसे पृथि॒व्या अ॑करं॒ नमः॑ ॥२.२६॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमिः) भूमि (शिला) शिला, (अश्मा) पत्थर और (पांसुः) धूलि है, (सः) वह (संधृता) यथावत् धारण की गयी (भूमिः) भूमि (धृतः) धरी हुई है। (तस्यै) उस [हिरण्यवक्षसे] सुवर्ण आदि धन छाती में रखनेवाली (पृथिव्यै) पृथिवी के लिये (नमः अकरम्) मैंने अन्न किया [खाया] है ॥२६॥

भावार्थभाषाः -जिस भूमि पर अनेक बड़े-छोटे पदार्थ हैं और जिस में अनेक रत्न भरे हैं, उस पृथिवी के हित के लिये मनुष्य अन्न जल आदि पदार्थ खावें ॥२६॥

यस्यां॑ वृ॒क्षा वा॑नस्प॒त्या ध्रु॒वास्तिष्ठ॑न्ति वि॒श्वहा॑।

पृ॑थि॒वीं वि॒श्वधा॑यसं धृ॒ताम॒च्छाव॑दामसि ॥१.२७॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम्) जिस [पृथिवी] पर (वानस्पत्याः) वनस्पतियों [बड़े-बड़े पेड़ों] से उत्पन्न हुए (वृक्षाः) वृक्ष (ध्रुवाः) दृढ़ होकर (विश्वहा) अनेक प्रकार (तिष्ठन्ति) ठहरते हैं (विश्वधायसम्) [उस] सब की धारण करनेवाली, (धृताम्) [वीरों से] धारण की गयी (पृथिवीम्) पृथिवी को (अच्छावदामसि) स्वागत करके हम आवाहन करते हैं ॥२७॥

भावार्थभाषाः -जिस पृथिवी पर हमारे उपकार के लिये फल फूल पत्र आदिवाले वृक्ष उत्पन्न होते हैं, उसकी सावधानी हम सदा करते रहें ॥२७॥

उ॒दीरा॑णा उ॒तासी॑ना॒स्तिष्ठ॑न्तः प्र॒क्राम॑न्तः।

प॒द्भ्यां द॑क्षिणस॒व्याभ्यां॒ मा व्य॑थिष्महि॒ भूम्या॑म् ॥१.२८॥

पदार्थान्वयभाषाः -(उदीराणाः) उठते हुए (उत) और (आसीनाः) बैठे हुए (तिष्ठन्तः) खड़े होते हुए और (प्रक्रामन्तः) चलते-फिरते हुए हम (दक्षिणसव्याभ्याम्) दोनों सीधे और डेरे (पद्भ्याम्) पाँवों से (भूम्याम्) भूमि पर (मा व्यथिष्महि) न डगमगावें ॥२८॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य पृथिवी पर सावधान और स्वस्थ रहकर सदा सब को सुख देवें ॥२८॥

वि॒मृग्व॑रीं पृथि॒वीमा व॑दामि क्ष॒मां भूमिं॒ ब्रह्म॑णा वावृधा॒नाम्।

ऊर्जं॑ पु॒ष्टं बिभ्र॑तीमन्नभा॒गं घृ॒तं त्वा॑भि॒ नि षी॑देम भूमे ॥१.२९॥

पदार्थान्वयभाषाः -(विमृग्वरीम्) विविध खोजने योग्य, (पृथिवीम्) चौड़ी, (क्षमाम्) सहनशील, (ब्रह्मणा) ब्रह्म [वेदज्ञान, अन्न वा धन] द्वारा (वावृधानाम्) बढ़ी हुई (भूमिम्) भूमि को (आ वदामि) मैं आवाहन करता हूँ।(भूमि) हे भूमि ! (ऊर्जम्) बलकारक पदार्थ, (पुष्टम्) पोषण, (अन्नभागम्) अन्न के विभाग और (घृतम्) घी को (बिभ्रतीम्) धारण करती हुई (त्वा अभि) तुझ पर (निषीदेम) हम बैठें ॥२९॥

भावार्थभाषाः -विज्ञानी लोग भूगर्भविद्या, भूतलविद्या आदि द्वारा भूमि को खोजकर अनेक प्रकार के उपकारी पदार्थ प्राप्त करके स्वस्थ पुष्ट होवें ॥२९॥

शु॒द्धा न॒ आप॑स्त॒न्वे क्षरन्तु॒ यो नः॒ सेदु॒रप्रि॑ये॒ तं नि द॑ध्मः।

प॒वित्रे॑ण पृथिवि॒ मोत्पु॑नामि ॥१.३०॥

पदार्थान्वयभाषाः -(शुद्धाः) शुद्ध (आपः) जल (नः) हमारे (तन्वे) शरीर के लिये (क्षरन्तु) बहें, (यः) जो (नः) हमारा (सेदुः) नाश करने का व्यवहार है, (तम्) उस [व्यवहार] को (अप्रिये) [अपने] अप्रिय [शत्रु] पर (नि दध्मः) हम डालते हैं। (पृथिवि) हे पृथिवी ! (पवित्रेण) शुद्ध व्यवहार से (मा) अपने को (उत् पुनामि) सर्वथा शुद्ध करता हूँ ॥३०॥

भावार्थभाषाः -जैसे निर्मल जल से शरीर शुद्ध करके मल का नाश करते हैं, वैसे ही मनुष्य अन्तःकरण का मल दूर करके पृथिवी पर धार्मिक व्यवहार से आत्मा की शुद्धि करें ॥३०॥

यास्ते॒ प्राचीः॑ प्र॒दिशो॒ या उदी॑ची॒र्यास्ते॑ भूमे अध॒राद्याश्च॑ प॒श्चात्।

स्यो॒नास्ता मह्यं॒ चर॑ते भवन्तु॒ मा नि प॑प्तं॒ भुव॑ने शिश्रिया॒णः ॥१.३१॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमे) हे भूमि ! (याः) जो (ते) तेरी (प्राचीः) सन्मुखवाली (प्रदिशः) बड़ी दिशाएँ, (याः) जो (उदीचीः) ऊपरवाली, (याः) जो (ते) तेरी (अधरात्) नीचे की ओर (च) और (याः) जो (पश्चात्) पीछे की ओर हैं। (ताः) वे सब (मह्यम् चरते) मुझ विचरते हुए के लिये (स्योनाः) सुख देनेवाली (भवन्तु) होवें, (भुवने) संसार में (शिश्रियाणः) ठहरा हुआ मैं (मा नि पप्तम्) न गिर जाऊँ ॥३१॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य चलते-फिरते रहकर पुरुषार्थ करते रहते हैं, वे पृथिवी पर सब दिशाओं में सुख भोगते हैं ॥३१॥

मा नः॑ प॒श्चान्मा पु॒रस्ता॑न्नुदिष्ठा॒ मोत्त॒राद॑ध॒रादु॒त।

स्व॒स्ति भू॑मे नो भव॒ मा वि॑दन्परिप॒न्थिनो॒ वरी॑यो यावया व॒धम् ॥१.३२॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमे) हे भूमि ! (नः) हम को (मा) न तो (पश्चात्) पीछे से, (मा) न (पुरस्तात्) आगे से, (मा) न (उत्तरात्) ऊपर से (उत) और (अधरात्) नीचे से (नुदिष्ठाः) ढकेल, (नः) हमारे लिये (स्वस्ति) कल्याणी (भव) हो, (परिपन्थिनः) वटमार लोग [हम को] (मा विदन्) न पावें, (वधम्) मारू हथियार को (वरीयः) बहुत दूर (यावय) हटा दे ॥३२॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य सब दिशाओं में सावधान रहकर दुराचारियों के फन्दों से बचें ॥३२॥

याव॑त्ते॒ऽभि वि॒पश्या॑मि॒ भूमे॒ सूर्ये॑ण मे॒दिना॑।

ताव॑न्मे॒ चक्षु॒र्मा मे॒ष्टोत्त॑रामुत्तरां॒ समा॑म् ॥१.३३॥                                              

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमे) हे भूमि ! (यावत्) जब तक (मेदिना) स्नेही (सूर्येण) सूर्य के साथ (अभि) सब ओर (ते विपश्यामि) तेरा विविध प्रकार दर्शन करूँ। (तावत्) तब तक (मे) मेरी (चक्षुः) दृष्टि (उत्तरामुत्तराम्) उत्तम-उत्तम (समाम्) अनुकूल क्रिया को (मा मेष्ट) नहीं नाश करे ॥३३॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य ऐसा प्रयत्न करें कि विद्यायत्नपूर्वक ईश्वर की अद्भुत रचनाओं से सदा उत्तम-उत्तम क्रियाएँ करते रहें, जैसे सूर्य प्रकाश आदि से उपकार करता है ॥३३॥

यच्छया॑नः प॒र्याव॑र्ते॒ दक्षि॑णं स॒ख्यम॒भि भू॑मे पा॒र्श्वम्।

उ॒त्ता॒नास्त्वा॑ प्र॒तीचीं॒ यत्पृ॒ष्टीभि॑रधि॒शेम॑हे।

मा हिं॑सी॒स्तत्र॑ नो भूमे॒ सर्व॑स्य प्रतिशीवरि ॥१.३४॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमे) हे भूमि ! (यत्) जब (शयानः) सोता हुआ मैं (दक्षिणम्) दाहिने [वा] (सव्यम्) बाएँ (पार्श्वम् अभि) करवट से (पर्य्यावर्ते) लेटता हूँ। (यत्) जब (उत्तानाः) चित होकर हम (प्रतीचीम्) प्रत्यक्ष मिलती हुई (त्वा) तुझ पर (पृष्टीभिः) [अपनी] पसलियों से (अधिशीमहे) सोते हैं। (सर्वस्य प्रतिशीवरि) हे सब को शयन देनेवाली (भूमे) भूमि ! (तत्र) उस [काल] में (नः) हमको (मा हिंसीः) मत कष्ट दे ॥३४॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य पृथिवी को समचौरस बनाकर रहते हैं, वे सुख पाते हैं ॥३४॥

यत्ते॑ भूमे वि॒खना॑मि क्षि॒प्रं तदपि॑ रोहतु।

मा ते॒ मर्म॑ विमृग्वरि॒ मा ते॒ हृद॑यमर्पिपम् ॥१.३५॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमे) हे भूमि ! (यत्) जो कुछ (ते) तेरा (विखनामि) मैं खोद डालूँ, (तत्) वह (क्षिप्रम् अपि) शीघ्र ही (रोहतु) उगे। (विमृग्वरि) हे खोजने योग्य ! (मा) न तो (ते) तेरे (मर्म) मर्म स्थल को और (मा) न (ते) तेरे (हृदयम्) हृदय को (अर्पिपम्) मैं हानि करूँ ॥३५॥

भावार्थभाषाः -भूतलविद्या और भूगर्भविद्या में चतुर लोग भूमि को उचित रीति से खोदकर और हल से जोतकर रत्न और अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करें ॥३५॥

ग्री॒ष्मस्ते॑ भूमे व॒र्षाणि॑ श॒रद्धे॑म॒न्तः शिशि॑रो वस॒न्तः।

ऋ॒तव॑स्ते॒ विहि॑ता हाय॒नीर॑होरा॒त्रे पृ॑थिवि नो दुहाताम् ॥१.३६॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमे) हे भूमि ! (ते) तेरे (ग्रीष्मः) घाम ऋतु [ज्येष्ठ-आषाढ़], (वर्षाणि) बरसा [श्रावण-भाद्र], (शरत्) शरद् ऋतु [आश्विन-कार्तिक], (हेमन्तः) शीतकाल [अग्रहायण-पौष], (शिशिरः) उतरता हुआ शीतकाल [माघ-फाल्गुन] और (वसन्तः) वसन्त काल [चैत्र-वैशाख] (ऋतवः) ऋतु हैं, [उनको] (पृथिवि) हे पृथिवी ! (विहिताः) विहित [स्थापित] (हायनीः) वर्षों, तक (ते) तेरे (अहोरात्रे) दिन-राति [दोनों] (नः) हमारे लिये (दुहाताम्) पूर्ण करें ॥३६॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि पृथिवी पर सब ऋतुओं में उचित कर्म करके पूर्ण आयु भागें ॥३६॥ इस मन्त्र का मिलान करो−अ० ६।५५।२ ॥

याप॑ स॒र्पं वि॒जमा॑ना वि॒मृग्व॑री॒ यस्या॒मास॑न्न॒ग्नयो॒ ये अ॒प्स्वन्तः।

परा॒ दस्यू॒न्दद॑ती देवपी॒यूनिन्द्रं॑ वृणा॒ना पृ॑थि॒वी न वृ॒त्रम्।

श॒क्राय॑ दध्रे वृष॒भाय॒ वृष्णे॑ ॥१.३७॥

पदार्थान्वयभाषाः -(या) जो (विमृग्वरी) विविध प्रकार खोजने योग्य [पृथिवी] (अप सर्पम्) सरक कर (विजमाना) चलनेवाली है, (यस्याम्) जिस [पृथिवी] पर (अग्नयः) वे अग्नि ताप (आसन्) हैं (ये) जो (अप्सु अन्तः) प्राणियों के भीतर हैं (देवपीयून्) विद्वानों के सतानेवाले (दस्यून्) दुष्टों को (परा ददती) दूर छोड़ती हुई, [इस प्रकार] (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् पुरुष को (वृणाना) चाहती हुई और (वृत्रम्) शत्रु को (न) न [चाहती हुई] (पृथिवी) पृथिवी (शक्राय) शक्तिमान्, (वृषभाय) बलवान्, (वृष्णे) वीर्यवान् पुरुष के लिये (दध्रे) धारण की गयी है ॥३७॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य आगे की चलती हुई पृथिवी को खोजकर अपने भीतर पुरुषार्थरूप तेज धारण करते हैं, उन विघ्ननाशक वीरों के लिये यह पृथिवी सुखदायिनी और दुराचारी दुष्टों को दुःखदायिनी होती है ॥३७॥

यस्यां॑ सदोहविर्धा॒ने यूपो॒ यस्यां॑ निमी॒यते॑।

ब्र॒ह्माणो॒ यस्या॒मर्च॑न्त्यृ॒ग्भिः साम्ना॑ यजु॒र्विदः॑।

यु॒ज्यन्ते॒ यस्या॑मृ॒त्विजः॒ सोम॒मिन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥१.३८॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम्) जिस [भूमि] पर (सदोहविर्धाने) सभा और अन्नस्थान हैं, (यस्याम्) जिस पर (यूपः) जयस्तम्भ (निमीयते) गाड़ा जाता है। (यस्याम्) जिस पर (ब्रह्माणः) ब्रह्मा [वेदवेत्ता] लोग (ऋग्भिः) ऋचाओं [वेदवाणियों] से और (यजुर्वेदः) यजुर्वेदी [परमात्मा देव की पूजा जाननेवाले] लोग (साम्ना) मोक्षज्ञान के साथ [परमात्मा को] (अर्चन्ति) पूजते हैं। (यस्याम्) जिस पर (ऋत्विजः) सब ऋतुओं में यज्ञ [परमात्मा का पूजन] करनेवाले [योगी जन] (इन्द्राय) इन्द्र [ऐश्वर्ययुक्त जीव] के लिये (सोमम्) सोम [अमृत, मोक्षसुख] (पातवे) पान करने को (युञ्जन्ते) समाधि लगाते हैं ॥३८॥

भावार्थभाषाः -जिस भूमि पर जितेन्द्रिय वीर पुरुष शत्रुओं को जीतते हैं, और वेदज्ञानी, योगीन्द्र परमात्मा के तत्त्वज्ञान से मोक्ष आनन्द भोगते हैं, उस भूमि पर हम अपना इष्ट सिद्ध करें। मन्त्र ३८ और ३९ का अन्वय मन्त्र ४० के साथ है ॥३८॥

यस्यां॒ पूर्वे॑ भूत॒कृत॒ ऋष॑यो॒ गा उदा॑नृ॒चुः।

स॒प्त स॒त्रेण॑ वे॒धसो॑ य॒ज्ञेन॒ तप॑सा स॒ह ॥१.३९॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम्) जिस [भूमि] पर (पूर्वे) निवासस्थान [शरीर] में [वर्तमान] (भूतकृतः) यथार्थ कर्म करनेवाले, (वेधसः) ज्ञानवान् (सप्त) सात (ऋषयः) विषय प्राप्त करनेवाले ऋषियों [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] ने (सत्त्रेण) सत्पुरुषों के रक्षक (यज्ञेन) यज्ञ [देवपूजा, संगतिकरण और दान] और (तपसा सह) [ब्रह्मचर्य आदि] तप के साथ (गाः) वेदवाणियों को (उत्) उत्तमता से (आनृचुः) पूजा है ॥३९॥

भावार्थभाषाः -जिस भूमि पर मनुष्य अपने शरीर की इन्द्रियों द्वारा वेदज्ञान प्राप्त करके आत्मोन्नति करते हैं, उस भूमि पर हम पुरुषार्थ करके सुख प्राप्त करें−मन्त्र ४० देखो ॥३९॥ यजुर्वेद ३४।५५। में वर्णन है−(सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे) सात ऋषि अर्थात् शब्द आदि विषय को प्राप्त करनेवाले पाँच ज्ञानेन्द्रिय, मन और बुद्धि शरीर में प्रतीति के सात ठहरे हुए हैं ॥

सा नो॒ भूमि॒रा दि॑शतु॒ यद्धनं॑ का॒मया॑महे।

भगो॑ अनु॒प्रयु॑ङ्क्ता॒मिन्द्र॑ एतु पुरोग॒वः ॥१.४०॥

पदार्थान्वयभाषाः -(सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमको (धनम्) वह धन (आ) यथावत् (दिशतु) देवे, (यत्) जिसे (कामयामहे) हम चाहते हैं। (भगः) ऐश्वर्य [हमें] (अनुप्रयुङ्क्ताम्) निरन्तर मिले, (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् पुरुष (पुरोगवः) अग्रगामी होकर (एतु) चले ॥४०॥

भावार्थभाषाः -इस मन्त्र का अन्वय मन्त्र ३८ और ३९ के साथ है। मनुष्य पृथिवी पर वीर, महात्मा, ब्राह्मणों, योगियों के अनुकरण से वेदविद्या प्राप्त करके ऐश्वर्यवान् होकर अग्रगामी होवें ॥४०॥

यस्यां॒ गाय॑न्ति॒ नृत्य॑न्ति॒ भूम्यां॒ मर्त्या॒ व्यैलबाः।

यु॒ध्यन्ते॒ यस्या॑माक्र॒न्दो यस्यां॒ वद॑ति दुन्दु॒भिः।

सा नो॒ भूमिः॒ प्र णु॑दतां स॒पत्ना॑नसप॒त्नं मा॑ पृथि॒वी कृ॑णोतु ॥१.४१॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्यां भूम्याम्) जिस भूमि पर (व्यैलबाः) विविध प्रकार वाणियों के बोलनेवाले (मर्त्याः) मनुष्य (गायन्ति) गाते हैं और (नृत्यन्ति) नाचते हैं। (यस्यां भूम्याम्) जिस भूमि पर (आक्रन्दः) कोलाहल करनेवाले [योद्धा] (युध्यन्ते) लड़ते हैं, (यस्याम्) जिस पर (दुन्दुभिः) ढोल (वदति) बजता है। (सा भूमिः) वह भूमि (नः) हमारे (सपत्नान्) वैरियों को (प्र णुदताम्) हटा देवे, (पृथिवी) पृथिवी (मा) मुझ को (असपत्नम्) बिना शत्रु (कृणोतु) करे ॥४१॥

भावार्थभाषाः -जिस पृथिवी पर मनुष्य ऊँचे, नीचे और मध्यम स्वर से गाते, नाचते और बाजे बजाकर युद्ध करते हैं, वहाँ पर धर्मात्मा लोग निर्विघ्न होकर सुख प्राप्त करें ॥४१॥

यस्या॒मन्नं॑ व्रीहिय॒वौ यस्या॑ इ॒माः पञ्च॑ कृ॒ष्टयः॑।

भूम्यै॑ प॒र्जन्य॑पत्न्यै॒ नमो॑ऽस्तु व॒र्षमे॑दसे ॥१.४२॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याम्) जिस [भूमि] पर (अन्नम्) अन्न, (व्रीहियवौ) चावल और जौ हैं, (यस्याः) जिस के [ऊपर] (पञ्च) पाँच [पृथिवी, जल, तेज, वायु और आकाश] से सम्बन्धवाले (इमाः) यह (कृष्टयः) मनुष्य हैं। (वर्षमेदसे) वर्षा से स्नेह रखनेवाली, (पर्जन्यपत्न्यै) मेघ से पालन की गयी (भूम्यै) उस भूमि के लिये (नमः अस्तु) [हमारा] अन्न होवे ॥४२॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य पृथिवी के हित के लिये पृथिवी आदि पाँच तत्त्वों से उपकार लेकर अन्न आदि प्राप्त करें ॥४२॥

यस्याः॒ पुरो॑ दे॒वकृ॑ताः॒ क्षेत्रे॒ यस्या॑ विकु॒र्वते॑।

प्र॒जाप॑तिः पृथि॒वीं वि॒श्वग॑र्भा॒माशा॑माशां॒ रण्यां॑ नः कृणोतु ॥१.४३॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्याः) जिसके (पुरः) नगर [राजभवन, गढ़ आदि] (देवकृताः) विद्वानों के बनाये हैं, (यस्याः) जिसके (क्षेत्रे) खेत में [मनुष्य] (विकुर्वते) विविध कर्म करते हैं। (प्रजापतिः) प्रजापति [परमेश्वर] (विश्वगर्भाम्) सब के गर्भ (पृथिवीम्) पृथिवी को (आशामाशाम्) दिशा-दिशा में (नः) हमारे लिये (रण्याम्) रमणीय (कृणोतु) करे ॥४३॥

भावार्थभाषाः -जिस भूमि पर धर्मात्मा पुरुष राजभवन, कार्यालय आदि बनाकर अनेक प्रकार से उन्नति के काम करते हैं और जिस में से अनेक रत्न उत्पन्न होते हैं, उस पर परमात्मा हमें धर्म में स्थिर रखकर सर्वत्र प्रसन्न रक्खे ॥४३॥

नि॒धिं बिभ्र॑ती बहु॒धा गुहा॒ वसु॑ म॒णिं हिर॑ण्यं पृथि॒वी द॑दातु मे।

वसू॑नि नो वसु॒दा रास॑माना दे॒वी द॑धातु सुमन॒स्यमा॑ना ॥१.४४॥

पदार्थान्वयभाषाः -(गुहा) अपनी गुहा [गढ़े] में (निधिम्) निधि [धन का कोश] (बहुधा) अनेक प्रकार (बिभ्रती) रखती हुई (पृथिवी) पृथिवी (मे) मुझे (वसु) धन (मणिम्) मणि और (हिरण्यम्) सुवर्ण (ददातु) देवे। (वसुदाः) धन देनेवाली, (वसूनि) धनों को (रासमाना) देती हुई (देवी) वह देवी [उत्तम गुणवाली पृथिवी] (सुमनस्यमाना) प्रसन्न मन होकर (नः दधातु) हमारा पोषण करे ॥४४॥

भावार्थभाषाः -जो विद्वान् मनुष्य पृथिवी को खोजते हैं, वे खानों में से अनेक रत्न और सुवर्ण आदि पाकर प्रसन्नचित्त होते हैं ॥४४॥

जनं॒ बिभ्र॑ती बहु॒धा विवा॑चसं॒ नाना॑धर्माणं पृथि॒वी य॑थौक॒सम्।

स॒हस्रं॒ धारा॒ द्रवि॑णस्य मे दुहां ध्रु॒वेव॑ धे॒नुरन॑पस्फुरन्ती ॥१.४५॥

पदार्थान्वयभाषाः -(विवाचसम्) विशेष वचन सामर्थ्यवाले, (नानाधर्माणम्) अनेक गुणवाले (जनम्) जन [मनुष्यसमूह] को (यथौकसम्) स्थान के अनुसार (बहुधा) बहुत प्रकार से (बिभ्रती) धारण करती हुई (पृथिवी) पृथिवी, (ध्रुवा) दृढ़ स्वभाववाली, (अनपस्फुरन्ती) निश्चल (धेनुः इव) गौ के समान, (मे) मेरे लिये (द्रविणस्य) धन की (सहस्रम्) सहस्र (धाराः) धाराएँ (दुहाम्) दुहे ॥४५॥

भावार्थभाषाः -जैसे गौ अल्पमूल्य तृण आदि खाकर गोपाल की चतुराई के अनुसार बहुमूल्य दूध देती है, वैसे ही मनुष्य परिश्रम से अनेक विद्याएँ और अनेक गुण प्राप्त करके पृथिवी पर अपनी योग्यता के अनुसार बहुत प्रकार से धनवान् होवें ॥४५॥

यस्ते॑ स॒र्पो वृश्चि॑कस्तृ॒ष्टदं॑श्मा हेम॒न्तज॑ब्धो भृम॒लो गुहा॒ शये॑।

क्रिमि॒र्जिन्व॑त्पृथिवि॒ यद्य॒देज॑ति प्रा॒वृषि॒ तन्नः॒

सर्प॒न्मोप॑ सृप॒द्यच्छि॒वं तेन॑ नो मृड ॥१.४६॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यः) जो (तृष्टदंश्मा) डंक मारने से पियास उत्पन्न करनेवाला (सर्पः) साँप [वा] (वृश्चिकः) बिच्छू (हेमन्तजब्धः) ठण्ड से ठिठरा हुआ, (भृमलः) भ्रमल [घबड़ाता हुआ] (ते) तेरे (गुहा) गढ़े में (शये) सोता है। (क्रिमिः) [जो] कीड़ा और (यद्यत्) जो-जो (प्रावृषि) वर्षा ऋतु में (जिन्वत्) प्रसन्न होता हुआ (एजति) रेंगता है, (पृथिवि) हे पृथिवि ! (तत्) वह (सर्पत्) रेंगता हुआ [जन्तु] (नः) हम पर (मा उप सृपत्) आकर न रेंगे, (यत्) जो कुछ (शिवम्) मङ्गल है, (तेन) उस से (नः) हमें (मृड) सुखी कर ॥४६॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य सदा सावधान रहें कि सब ऋतुओं में दुष्ट जीव-जन्तुओं से उन्हें क्लेश न होवे ॥४६॥

ये ते॒ पन्था॑नो ब॒हवो॑ ज॒नाय॑ना॒ रथ॑स्य॒ वर्त्मान॑सश्च॒ यात॑वे।

यैः सं॒चर॑न्त्यु॒भये॑ भद्रपा॒पास्तं पन्था॑नं जयेमानमि॒त्रम॑तस्क॒रं यच्छि॒वं तेन॑ नो मृड ॥१.४७॥

पदार्थान्वयभाषाः -(ये) जो (ते) तेरे (बहवः) बहुत से (पन्थानः) मार्ग (जनायनाः) मनुष्यों के चलने योग्य हैं, [और जो] (रथस्य) रथ के (च) और (अनसः) छकड़े [वा अन्न] के (यातवे) चलने के लिये (वर्त्म) मार्ग है। (यैः) जिनसे (उभये) दोनों (भद्रपापाः) भले और बुरे [प्राणी] (संचरन्ति) चले चलते हैं, (तम्) उस (अनमित्रम्) शत्रुरहित और (अतस्करम्) तस्करशून्य (पन्थानम्) मार्ग को (जयेम) हम जीतें, (यत्) जो कुछ (शिवम्) मङ्गल है, (तेन) उससे (नः) हमें (मृड) सुखी कर ॥४७॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य पृथिवी पर ऊँचे-नीचे, भले-बुरे मार्गो का विचार करके सुमार्ग पर चलते हैं, वे कुमार्गियों से बचकर सदा सुखी रहते हैं ॥४७॥

म॒ल्वं बिभ्र॑ती गुरु॒भृद्भ॑द्रपा॒पस्य॑ नि॒धनं॑ तिति॒क्षुः।

व॑रा॒हेण॑ पृथि॒वी सं॑विदा॒ना सू॑क॒राय॒ वि जि॑हीते मृ॒गाय॑ ॥१.४८॥

पदार्थान्वयभाषाः -(मल्वम्) धारण सामर्थ्य को और (गुरुभृत्) गुरुत्व [भारीपन] रखनेवाले सामर्थ्य को (बिभ्रती) धारण करनेवाली, (भद्रपापस्य) भले और बुरे के (निधनम्) कुल [समूह] को (तितिक्षुः) सहनेवाली, (वराहेण) मेघ के साथ (संविदाना) मिली हुई (पृथिवी) पृथिवी (सूकराय) सुन्दर [सुखद] किरणोंवाला (मृगाय) गमनशील सूर्य के लिये (वि) विविध प्रकार (जिहीते) प्राप्त होती है ॥४८॥

भावार्थभाषाः -पृथिवी अपने धारण आकर्षण से सब पदार्थों को अपने पर रखती है और सूर्य के सन्मुख चलने से जल आकाश में चढ़ता और बरसता है। उस पृथिवी को उपयोगी बनाने में मनुष्य प्रयत्न करें ॥४८॥

ये त॑ आर॒ण्याः प॒शवो॑ मृ॒गा वने॑ हि॒ताः सिं॒हा व्या॒घ्राः पु॑रु॒षाद॒श्चर॑न्ति।

उ॒लं वृकं॑ पृथिवि दु॒च्छुना॑मि॒त ऋ॒क्षीकां॒ रक्षो॒ अप॑ बाधया॒स्मत् ॥१.४९॥

पदार्थान्वयभाषाः -(ये ते) वे जो (आरण्याः) वन में उत्पन्न हुए (पशवः) पशु (हितः) हितकारी (मृगाः) हरिण आदि और (पुरुषादः) मनुष्यों के खानेवाले (सिंहाः) [हिंसक] सिंह और (व्याघ्राः) [सूँघ कर मारनेवाले] बाघ आदि (वने) वन के बीच (चरन्ति) चरते-फिरते हैं। [उनमें से] (पृथिवि) हे पृथिवि ! (उलम्) [उष्ण स्वभाववाले] बनबिलाव, (वृकम्) भेड़िये को और (दुच्छुनाम्) दुष्ट गतिवाली (ऋक्षीकाम्) [हिंसक] रीछिनी आदि, (रक्षः) राक्षस [दुष्ट जीवों] को (इतः) यहाँ पर (अस्मत्) हम से (अप बाधय) हटा दे ॥४९॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि हितकारी पशुओं की रक्षा करके हिंसक प्राणियों का नाश करें ॥४९॥ इस मन्त्र के प्रथम पाद का मिलान अ० ११।२।२४। के प्रथम पाद से करो ॥

ये ग॑न्ध॒र्वा अ॑प्स॒रसो॒ ये चा॒रायाः॑ किमी॒दिनः॑।

पि॑शा॒चान्त्सर्वा॒ रक्षां॑सि॒ तान॒स्मद्भू॑मे यावय ॥१.५०॥

पदार्थान्वयभाषाः -(ये) जो (गन्धर्वाः) दुखदायी हिंसक (अप्सरसः) विरुद्ध चलनेवाले हैं, (च) और (ये) जो (अरायाः) कंजूस (किमीदिनुः) दूसरे पुरुष हैं। (भूमे) हे भूमि ! (तान्) उन (पिशाचान्) पिशाचों [मांसभक्षकों, पीड़ाप्रदों] और (सर्वा) सब (रक्षांसि) राक्षसों को (अस्मत्) हम से (यावय) अलग रख ॥५०॥

भावार्थभाषाः -विवेकी मनुष्यों को योग्य है कि पृथिवी पर के दुष्ट प्राणियों और रोगों का नाश करके धर्मात्माओं को सुखी रक्खें ॥५०॥

यां द्वि॒पादः॑ प॒क्षिणः॑ सं॒पत॑न्ति हं॒साः सु॑प॒र्णाः श॑कु॒ना वयां॑सि।

यस्यां॒ वातो॑ मात॒रिश्वेय॑ते॒ रजां॑सि कृ॒ण्वंश्च्या॒वयं॑श्च वृ॒क्षान्।

वात॑स्य प्र॒वामु॑प॒वामनु॑ वात्य॒र्चिः ॥१.५१॥

पदार्थान्वयभाषाः -(याम्) जिस पर (द्विपादः) दो पाँववाले (पक्षिणः) पक्षी [अर्थात्] (हंसाः) हंस, (सुपर्णाः) बड़े उड़नेवाले, [गरुड़ आदि], (शकुनाः) शक्तिवाले [गिद्ध चील आदि] (वयांसि) पक्षीगण (संपतन्ति) उड़ते रहते हैं। (यस्याम्) जिस पर (मातरिश्वा) आकाश में चलनेवाला (वातः) वायु (रजांसि) जलवाले बादलों को (कृण्वन्) बनाता हुआ (च) और (वृक्षान्) वृक्षों को (च्यावयन्) हिलाता हुआ (ईयते) चलता है। और (अर्चिः) प्रकाश (वातस्य) वायु के (प्रवाम्) फैलाव और (उपवाम् अनु) संकोच के साथ-साथ (वाति) चलता है ॥५१॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य पक्षियों, वायु, मेघ, प्रकाश आदि के ज्ञान और गुणों से लाभ उठाकर आनन्दित होवें−इस मन्त्र का अन्वय अगले मन्त्र ५२ के साथ है ॥५१॥ इस मन्त्र का दूसरा पाद अ० ११।२।२४। के दूसरे पाद में आया है ॥

यस्यां॑ कृ॒ष्णम॑रु॒णं च॒ संहि॑ते अहोरा॒त्रे विहि॑ते॒ भूम्या॒मधि॑।

व॒र्षेण॒ भूमिः॑ पृथि॒वी वृ॒तावृ॑ता॒ सा नो॑ दधातु भ॒द्रया॑ प्रि॒ये धाम॑निधामनि ॥१.५२॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यस्यां भूम्याम् अधि) जिस भूमि के ऊपर (अरुणम्) सूर्यवाले (च) और (कृष्णम्) काले वर्णवाले (संहिते) आपस में मिले हुए (अहोरात्रे) दिन और राति (विहिते) विधानपूर्वक ठहराये गये हैं। (वर्षेण) मेह से (वृता) लपेटी हुई और (आवृता) ढकी हुई (सा) वह (पृथिवी) चौड़ी (भूमिः) भूमि [आश्रय स्थान] (नः) हमको (भद्रया) कल्याणी मति के साथ (प्रिये धामनिधामनि) प्रत्येक रमणीय स्थान में (दधातु) रक्खे ॥५२॥

भावार्थभाषाः -ईश्वरनियम से जिस प्रकार दिन-राति मिले हुए हैं और पृथिवी मेघमण्डल से छायी है, वैसे ही मनुष्य पृथिवी पर उत्तम बुद्धि के साथ रहकर सब स्थानों में आनन्द करें ॥५२॥

द्यौश्च॑ म इ॒दं पृ॑थि॒वी चा॒न्तरि॑क्षं च मे॒ व्यचः॑।

अ॒ग्निः सूर्य॒ आपो॑ मे॒धां विश्वे॑ दे॒वाश्च॒ सं द॑दुः ॥१.५३॥

पदार्थान्वयभाषाः -(मे) मुझ को (द्यौः) प्रकाश (च) और (पृथिवी) पृथिवी (च च) और (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष ने (इदम्) यह (व्यचः) विस्तार [दिया है], (मे) मुझ को (अग्निः) अग्नि, (सूर्यः) सूर्य, (आपः) जल (च) और (विश्वे) सब (देवाः) उत्तम पदार्थों ने (मेधाम्) धारणावती बुद्धि (सम्) ठीक-ठीक (ददुः) दी है ॥५३॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य संसार के पदार्थों में विज्ञानपूर्वक फैलते चले जाते हैं, वे ही विज्ञानी बुद्धि बढ़ाकर संसार को सुख देते हैं ॥५३॥

अ॒हम॑स्मि॒ सह॑मान॒ उत्त॑रो॒ नाम॒ भूम्या॑म्।

अ॑भी॒षाड॑स्मि विश्वा॒षाडाशा॑माशां विषास॒हिः ॥१.५४॥

पदार्थान्वयभाषाः -(अहम्) मैं [मनुष्य] (सहमानः) जीतनेवाला और (भूम्याम्) भूमि पर (नाम) नाम के साथ (उत्तरः) अधिक ऊँचा (अस्मि) हूँ। मैं (अभीषाट्) विजयी, (विश्वाषाट्) सर्वविजयी और (आशामाशाम्) प्रत्येक दिशा में (विषासहिः) हरा देनेवाला (अस्मि) हूँ ॥५४॥

भावार्थभाषाः -जब मनुष्य योग्यता प्राप्त करके आगे बढ़ता जाता है, तब संसार में कीर्ति बढ़ाकर सब में उच्च पद पाता है ॥५४॥

अ॒दो यद्दे॑वि॒ प्रथ॑माना पु॒रस्ता॑द्दे॒वैरु॒क्ता व्यस॑र्पो महि॒त्वम्।

आ त्वा॑ सुभू॒तम॑विशत्त॒दानी॒मक॑ल्पयथाः प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ॥१.५५॥

पदार्थान्वयभाषाः -(देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली पृथिवी] (यत्) जब (पुरस्तात्) आगे को (प्रथमाना) फैलती हुई और (देवैः) व्यवहारकुशलों करके (उक्ता) कही गयी तूने (अदः) उस (महित्वम्) महिमा को (व्यसर्पः) फैलाया। (तदानीम्) तब (सुभूतम्) सुभूति [सुन्दर ऐश्वर्य] ने (त्वा) तुझ में (आ सब ओर से (अविशत्) प्रवेश किया, और (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) बड़ी दिशाओं को (अकल्पयथाः) तूने समर्थ बनाया ॥५५॥

भावार्थभाषाः -जब मनुष्य पृथिवी की विस्तृत महिमा को खोजते हुए आगे बढ़ते हैं, वे ऐश्वर्यवान् होकर सब दिशाओं से समर्थ होते हैं ॥५५॥

ये ग्रामा॒ यदर॑ण्यं॒ याः स॒भा अधि॒ भूम्या॑म्।

ये सं॑ग्रा॒माः समि॑तय॒स्तेषु॒ चारु॑ वदेम ते ॥१.५६॥

पदार्थान्वयभाषाः -(ये ग्रामाः) जो गाँव, (यत् अरण्यम्) जो वन, (याः सभाः) जो सभाएँ (भूम्याम् अधि) भूमि पर हैं। (ये संग्रामाः) जो संग्राम और (समितयः) समितिएँ [सम्मेलन] हैं, (तेषु) उन सब में (ते) तेरा (चारु) सुन्दर यश (वदेम) हम कहें ॥५६॥

भावार्थभाषाः -मनुष्यों को उचित है कि सब स्थानों, सब अवस्थाओं और राजसभा, न्यायसभा, धर्मसभा आदि में पृथिवी के गुणों की महिमा जानकर और बखानकर देशभक्ति करें ॥५६॥

अश्व॑ इव॒ रजो॑ दुधुवे॒ वि ताञ्जना॒न्य आक्षि॑यन्पृथि॒वीं यादजा॑यत।

म॒न्द्राग्रेत्व॑री॒ भुव॑नस्य गो॒पा वन॒स्पती॑नां॒ गृभि॒रोष॑धीनाम् ॥१.५७॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यात्) जब से (अजायत) वह उत्पन्न हुई है [तब से], (अश्वः इव) जैसे घोड़ा (रजः) धूलि को, [वैसे ही] (मन्द्रा) हर्षदायिनी, (अग्रेत्वरी) अग्रगामिनी, (भुवनस्य) संसार की (गोपाः) रक्षाकारिणी, (वनस्पतीनाम्) वनस्पतियों [पीपल आदि] और (ओषधीनाम्) ओषधियों [सोमलता अन्न आदि] की (गृभिः) ग्रहण स्थान उस [पृथिवी] ने (तान् जनान्) उन मनुष्यों को (वि दुधुवे) हिला दिया है, (ये) जिन्होंने (पृथिवीम्) पृथिवी को (आक्षियन्) सताया है ॥५७॥

भावार्थभाषाः -जिन अभिमानियों ने पृथिवी पर अत्याचार करके मस्तक उठाया है, वे ईश्वरनियम से सदा नष्ट हुए हैं, जैसे घोड़ा थकावट उतारने को पृथिवी पर लोटकर शरीर की मलिन धूलि हिलाकर गिरा देता है ॥५७॥

यद्वदा॑मि॒ मधु॑म॒त्तद्व॑दामि॒ यदीक्षे॒ तद्व॑नन्ति मा।

त्विषी॑मानस्मि जूति॒मानवा॒न्यान्ह॑न्मि॒ दोध॑तः ॥१.५८॥

पदार्थान्वयभाषाः -(यत्) जो कुछ (वदामि) मैं बोलता हूँ, (तत्) वह (मधुमत्) उत्तम ज्ञान युक्त (वदामि) बोलता हूँ, (यत्) जो कुछ (ईक्षे) मैं देखता हूँ, (तत्) उसको (मा) मुझे (वनन्ति) वे [ईश्वरनियम] सेवते हैं। मैं (त्विषिमान्) तेजस्वी, (जूतिमान्) वेगवान् (अस्मि) हूँ, (दोधतः) क्रोधी (अन्यान्) दूसरे [शत्रुओं] को (अव हन्मि) मार गिराता हूँ ॥५८॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य समझ-बूझकर बोलते, देखते और काम करते हैं, वे ईश्वरनियम से प्रतापी और फुरतीले होकर विघ्नों को मिटाते हैं ॥५८॥

श॑न्ति॒वा सु॑र॒भिः स्यो॒ना की॒लालो॑ध्नी॒ पय॑स्वती।

भूमि॒रधि॑ ब्रवीतु मे पृथि॒वी पय॑सा स॒ह ॥१.५९॥

पदार्थान्वयभाषाः -(शन्तिवा) शान्तिवाली, (सुरभिः) ऐश्वर्यवाली, (स्योना) सुखदा, (कीलालोघ्नी) अमृतमय स्तनवाली (पयस्वती) दुधैल, (भूमिः) सर्वाधार (पृथिवी) पृथिवी (पयसा सह) अन्न के साथ (मे) मेरे लिये (अधि ब्रवीतु) अधिकारपूर्वक बोले ॥५९॥

भावार्थभाषाः -उद्योगी पुरुष परस्पर उपदेश करके पृथिवी से अनेक सुख प्राप्त करते और कराते हैं ॥५९॥

याम॒न्वैच्छ॑द्ध॒विषा॑ वि॒श्वक॑र्मा॒न्तर॑र्ण॒वे रज॑सि॒ प्रवि॑ष्टाम्।

भु॑जि॒ष्यं पात्रं॒ निहि॑तं॒ गुहा॒ यदा॒विर्भोगे॑ अभवन्मातृ॒मद्भ्यः॑ ॥१.६०॥

पदार्थान्वयभाषाः -(विश्वकर्मा) विश्वकर्मा [सब कर्मों में चतुर मनुष्य] ने (हविषा) देने लेने योग्य गुण के साथ [वर्तमान], (अर्णवे) जलवाले (रजसि अन्तः) अन्तरिक्ष के भीतर (प्रविष्टाम्) प्रवेश की हुई (याम्) जिस [पृथिवी] को (अन्वैच्छत्) खोजा। (भुजिष्यम्) भोजनयोग्य (पात्रम्) पात्र [रक्षासाधन] (गुहा) [पृथिवी के] गढ़े में (यत्) जो (निहितम्) रक्खा था [वह] (मातृमद्भ्यः) माताओंवाले [प्राणियों] के लिये (भोगे) आहार [वा पालन] में (आविः अभवत्) प्रकट हुआ है ॥६०॥

भावार्थभाषाः -जैसे-जैसे मनुष्य मेघमण्डल से घिरी पृथिवी को खोजते जाते हैं, उसमें अधिक-अधिक पालनशक्तियों को पाते हैं, जैसे माताओं में प्राणियों के पालन के लिये दुग्ध प्रकट होता है ॥६०॥

त्वम॑स्या॒वप॑नी॒ जना॑ना॒मदि॑तिः काम॒दुघा॑ पप्रथा॒ना।

यत्त॑ ऊ॒नं तत्त॒ आ पू॑रयाति प्र॒जाप॑तिः प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॑ ॥१.६१॥

पदार्थान्वयभाषाः -[हे पृथिवी !] (त्वम्) तू (आवपनी) बड़ी उपजाऊ होकर (जनानाम्) मनुष्यों की (अदितिः) अखण्डव्रता, (कामदुघा) कामना पूरी करनेवाली (पप्रथाना) प्रख्यात (असि) है। (यत्) जो (ते) तेरा (ऊतम्) न्यून है, (ऋतस्य) यथावत् नियम का (प्रथमजाः) पहिले उत्पन्न करनेवाला (प्रजापतिः) प्रजापति [जगत्पालक परमेश्वर] (ते) तेरे (तत्) उस [न्यून भाग] को (आ) सब प्रकार (पूरयाति) पूरा करे ॥६१॥

भावार्थभाषाः -जैसे परमेश्वर ने पृथिवी में अन्न आदि से प्राणियों की पालन शक्ति दी है, वैसे ही प्राणी जो कुछ खाते-पीते हैं, वह न्यूनता ईश्वरनियम से वृष्टि आदि द्वारा पूर्ण हो जाती है ॥६१॥

उ॑प॒स्थास्ते॑ अनमी॒वा अ॑य॒क्ष्मा अ॒स्मभ्यं॑ सन्तु पृथिवि॒ प्रसू॑ताः।

दी॒र्घं न॒ आयुः॑ प्रति॒बुध्य॑माना व॒यं तुभ्यं॑ बलि॒हृतः॑ स्याम ॥१.६२॥

पदार्थान्वयभाषाः -(पृथिवी) हे पृथिवी ! (ते) तेरी (उपस्थाः) गोदें (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (अनमीवाः) नीरोग और (अयक्ष्माः) राजरोगरहित (प्रसूताः) उत्पन्न (सन्तु) होवें। (नः) अपने (आयुः) आयु [जीवन] को (दीर्घम्) दीर्घकाल तक (प्रतिबुध्यमानाः) जगाते हुए (वयम्) हम (तुभ्यम्) तेरे लिये (बलिहृतः) बलि [सेवा धर्म] देनेवाले (स्याम) रहें ॥६२॥

भावार्थभाषाः -मनुष्य प्रयत्नपूर्वक पृथिवी पर स्वस्थ और चेतन्य रहकर धर्म के साथ परस्पर पालन करें ॥६२॥

भूमे॑ मात॒र्नि धे॑हि मा भ॒द्रया॒ सुप्र॑तिष्ठितम्।

सं॑विदा॒ना दि॒वा क॑वे श्रि॒यां मा॑ धेहि॒ भूत्या॑म् ॥१.६३॥

पदार्थान्वयभाषाः -(भूमे मातः) हे धरती माता ! (मा) मुझ को (भद्रया) कल्याणा मति के साथ (सुप्रतिष्ठितम्) बड़ी प्रतिष्ठावाला (नि धेहि) बनाए रख। (कवे) हे गतिशीले ! [जो चलती है वा जिस पर हम चलते हैं] (दिवा) प्रकाश के साथ (संविदाना) मिली हुई तू (मा) मुझ को (श्रियाम्) श्री [सम्पत्ति] में और (भूत्याम्) विभूति [ऐश्वर्य] में (धेहि) धारण कर ॥६३॥

भावार्थभाषाः -जो मनुष्य उत्तम भाव से पृथिवी पर अपना कर्तव्य पालते हैं, वे बड़ी प्रतिष्ठा पाकर ऐश्वर्यवान् और श्रीमान् होते हैं ॥६३॥

इति पृथिवी सूक्तम् ॥

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