उद्घाटन कवच
उद्घाटन कवच का पाठ करने एवं
तान्त्रिक-शिव-सञ्जीवनी-प्रयोग से भय व बाधाओं से रक्षा होती है और मनोकामना की
पूर्ति होती है।
उद्घाटन कवच
Udghatan kavach
उद्घाटनकवचस्तोत्र
अनुष्ठान की पद्धति के अनुसार स्नान,
पूजा से निवृत्त होकर आसन पर बैठैं । आसन शुद्धि करें । शिखा बन्धन
करें। आत्म शुद्धि करें, आचमन करें । फिर रुद्रसूक्त पढ़ें,
सङ्कल्प ग्रहण करें । भूमि, वाराह, शेष, कूर्म का पञ्चोपचार से पूजन करें । क्रमानुसार
फिर कलश की सङ्क्षिप्त पूजा करके जल को अभिमन्त्रित कर आत्मप्रोक्षण पूजा सामग्री
का प्रोक्षण करें । पञ्चगव्य प्राशन कर लें । उचित समझें तो सर्वप्रथम दशविध स्नान
भी करें । दीपक का पूजन करें। दिग्रक्षा का विधान करें तथा गणपति के पूजन, अभिषेक, आरती व पुष्पाञ्जलि से निवृत्त होकर षोडशमातृका
पूजन, नवग्रह पूजन, कलश पूजन, ब्राह्मण-वरण (११ ब्राह्मणों की आवश्यकता होगी) पुण्याहवाचन
तथा प्रधान-देवता शिव का षोडशोपचार से पूजन करें । ब्राह्मणों को यथा-योग्य वरण-
साहित्य प्रदान करें । ध्यान से लेकर पाद्य, अर्घ्य, आचमन, स्नान, पञ्चामृत-स्नान,
शुद्धस्नान, वस्त्र, उपवस्त्र,
यज्ञोपवीत, गन्ध, अक्षत,
पुष्प, दूर्वा, शमीपत्र,
बिल्वपत्र, अबीर, गुलाल,
परिमल द्रव्य, धूप, दीपक,
नैवेद्य, ऋतुफल, आचमन,
अखण्ड ऋतुफल, पान, सुपारी,
लवङ्ग, इलायची, कर्पूर
(नागवल्ली-वीटिका) व द्रव्यदक्षिणा समर्पण करें । तदनन्तर मूर्ति (लिङ्ग) के आकार की
विशालता या लघुता का ध्यान रखकर साफ चावलों को शुद्ध जल से धोकर शुद्ध जल में
पकावें ।
मननाद् विश्वविज्ञानं त्राणं
संसार-बन्धनात् ।
यतः करोति संसिद्धिं ``मन्त्र'' इत्युच्यते बुधैः ॥
मन्त्र के स्थूल एवं सूक्ष्म रूप से
पुनः दो अङ्ग माने गये हैं जिनमें स्थूल रूप में-प्रणव,
बीज, कूट, अक्षर तथा
इनके विशिष्ट संयोजन से सम्बद्ध मन्त्र के पल्लवादि-विधान आते हैं; किन्तु सूक्ष्म रूप में उनके स्वरूप, ध्यान, शक्ति, गति, क्रियाकारित्व आदि
का समावेश होता है । इन में भी सर्वाधिक महत्त्व कुण्डलिनी-जागरण का है और यह कार्य
शरीरस्थ मूलाधारादि चक्रों के उन्मीलन की अपेक्षा रखता है । चक्रों के उन्मीलन का
प्रकार जप एवं ध्यान से सम्भव है । तत्तत् चक्रों की अधिष्ठात्री देवता जब तक
प्रसन्न नहीं होती, तब तक इस कार्य में भी बाधाएं आती हैं ।
ये बाधाएं केवल इसी जन्म से सम्बद्ध न होकर अपर जन्म में भी बाधक बनती हैं ।
सम्भवतः इसी दृष्टि से ``रुद्रयामल'' में
शक्ति-उपासकों के लिए एक ``उद्घाटन कवच'' स्तोत्र दिया है, जिसका भक्तिपूर्वक अजपा जप के
पश्चात् पाठ करना अत्यन्त लाभप्रद माना गया है । यह कवच इस प्रकार है-
उद्घाटन कवच स्तोत्रम्
मूलाधारे स्थिता देवि,
त्रिपुरा चक्रनायिका ।
नृजन्मभीति-नाशार्थं,
सावधाना सदाऽस्तु मे ॥ १॥
स्वाधिष्ठानाख्यचक्रस्था,
देवी श्रीत्रिपुरेशिनी ।
पशुबुद्धिं नाशयित्वा,
सर्वैश्वर्यप्रदाऽस्तु मे ॥ २॥
मणिपूरे स्थिता देवी,
त्रिपुरेशीति विश्रुता ।
स्त्रीजन्म-भीतिनाशार्थं,
सावधाना सदाऽस्तु मे ॥ ३॥
स्वस्तिके संस्थिता देवी,
श्रीमत् त्रिपुरसुन्दरी ।
शोकभीति-परित्रस्तं,
पातु मामनघं सदा ॥ ४॥
अनाहताख्य-निलया,
श्रीमत् त्रिपुरवासिनी ।
अज्ञानभीतितो रक्षां,
विदधातु सदा मम ॥ ५॥
त्रिपुराश्रीरिति ख्याता,
विशुद्धाख्य-स्थलस्थिता ।
जरोद्भव-भयात् पातु,
पावनी परमेश्वरी ॥ ६॥
आज्ञाचक्रस्थिता देवी
त्रिपुरामालिनी तु या ।
सा मृत्युभीतितो रक्षां,
विदधातु सदा मम ॥ ७॥
ललाट-पद्म-संस्थाना,
सिद्धा या त्रिपुरादिका ।
सा पातु पुण्यसम्भूतिर्भीति-सङ्घात्
सुरेश्वरी ॥ ८॥
त्रिपुराम्बेति विख्याता,
शिरःपद्मे सुसंस्थिता ।
सा पापभीतितो रक्षां,
विदधातु सदा मम ॥ ९॥
ये पराम्बापदस्थान-गमने
विघ्न-सञ्चयाः ।
तेभ्यो रक्षतु योगेशी,
सुन्दरी सकलार्तिहा ॥ १०॥
उपर्युक्त स्तोत्र में भगवती के
श्रीचक्र में विराजमान आवरण- गत प्रमुख देवियों से प्रार्थना की गई है जो कि चक्र
नायिकाएं हैं । यहां नव आवरण रूप नौ शरीरगत चक्र एवं हृदय में विराजमान देवियों से
जिन-जिन भयों से रक्षा की प्रार्थना की गई है उनकी तालिका इस प्रकार है-
चक्र चक्र नायिका भय
१.
मूलाधार त्रिपुरा नृजन्म
२.
स्वाधिष्ठान त्रिपुरेशिनी पशुबुद्धि
३.
मणिपूर त्रिपुरेशी स्त्रीजन्म
४.
स्वस्तिक
त्रिपुरसुन्दरी शोक
५.
अनाहत त्रिपुरवासिनी अज्ञान
६.
विशुद्ध त्रिपुराश्री जरा
७.
आज्ञा
त्रिपुरामालिनी मृत्यु
८.
ललाटपद्म त्रिपुरा सिद्धा भीतिसङ्घ
९.
सहस्रार त्रिपुराम्बा पाप
१०. बिन्दु सुन्दरी योगेशी विघ्न
इन सब भयों से निवृत्ति की याचना
करते हुए इसमें पराम्बा के चरणों में शरण-प्राप्ति की कामना की गई है जो उचित ही
है । ऐसे ही अन्तर्याग के लिए अन्य उपयोगी विधान श्री रुद्रयामल में वर्णित हैं ।
उपर्युक्त चक्रों में ही प्रत्येक आवरण देवी के मन्त्र का जप किया जाता है ।
जैसे-जैसे साधना क्रम आगे बढ़ता है उसमें और भी विशिष्ट अवकाशानुसार
सहस्रनामार्चनादि भी किये जाते हैं । महानैवेद्य, आरती, पुष्पाञ्जलि, प्रदक्षिणा,
कामकलाध्यान, बलिदान, जप,
पुष्पाञ्जलिस्तोत्र, कल्याणवृष्टिस्तोत्र,
सर्वसिद्धिकृतस्तोत्र और क्षमा-प्रार्थना, गुरुस्तोत्रादि
का पाठ करके सुवासिनीपूजन, तत्त्वशोधन, पूजासमर्पण देवतोद्वासन शान्तिस्तव पाठ के साथ अर्चनविधि पूर्ण होती है ।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
उद्घाटनकवचस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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