कामकलाकाली खण्ड पटल २

कामकलाकाली खण्ड पटल २  

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल २ - इस पटल में कामकला काली के मन्त्र का स्वरूप, उस मन्त्र की महिमा, उसके ऋषि आदि का वर्णन करने के पश्चात् षडङ्गन्यास का वर्णन कर कामकला काली के ध्येय स्वरूप का वर्णन है। यह काली पके हुए जामुन के फल के रङ्गवाली, पैर तक लटके बालों वाली, सोलह भुजाओं वाली, रक्तपान में आसक्त, मनुष्य की आँत शिर अङ्गुली आदि का आभूषण धारण की हुई है। तलवार, त्रिशूल, चक्र, बाण, अंकुश आदि अस्त्रों तथा नृमुण्ड आदि को हाथों में ली हुई है। स्वरूपवर्णन के बाद इस काली के यन्त्र-निर्माण की प्रक्रिया को बतला कर काली की पूजा के लिए प्रयुक्त किये जाने वाले रजस् आदि उपचारों के अर्पण के मन्त्र एवं विधि के साथ बलि के अर्पण का मन्त्र बतलाया गया है।

कामकलाकाली खण्ड पटल २

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल २  

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 2

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: द्वितीयः पटलः

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड द्वितीय पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड दूसरा पटल

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड :)

द्वितीयः पटलः

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - कामकलाकाल्यास्त्रैलोक्याकर्षणमन्त्रोद्धारः

महाकाल उवाच-

आद्यवर्गाद्यवर्णोऽक्ष्णा वामेन परिशीलितः ।

मूर्ध्नि मूर्धा यतृतीययुगधः परिकीर्तितः ॥ १ ॥

कामकलाकाली के त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र का उद्धार - महाकाल ने कहा- आद्यवर्ग (=कवर्ग) का आदि वर्ण (=क) उसे बायीं आँख (= ई) से युक्त करे । शिर पर मूर्धा (= अनुस्वार) और नीचे यतृतीय (=ल) से युक्त करे (इस प्रकार 'क्लीं' बनेगा ) ॥ १ ॥

बिन्दुवामाक्षिसम्पृक्तो वह्निसर्वाद्यमस्तकः ।

वामश्रुत्यर्द्धचन्द्रेण तृतीयं सपरो भवेत् ॥ २ ॥

(फिर वही क) बिन्दु (= अनुस्वार) और वामनेत्र से युक्त होकर वह्नि (= र) के साथ युक्त होगा (= इस प्रकार 'क्रीं' बनेगा) स के बाद वाला (ह) वामश्रुति (ऊ) तथा अर्धचन्द्र (अनुस्वार) से युक्त हो तो ('हूँ' बनेगा ) ॥ २ ॥

दक्षस्कन्धोर्ध्वदन्ताभ्यां चाधो रो बिन्दुमस्तकः ।

ओष्ठवर्गद्वतीयो हपूर्वाधरोष्ठबिन्दुयुक् ॥ ३ ॥

दक्षस्कन्ध (=क) और ऊर्ध्वदन्त (= ए/ओ) से नीचे 'र्' को जोड़ें और मस्तक पर बिन्दु रखें (इस प्रकार 'क्रों' बनेगा) ओष्ठवर्ग का द्वितीय (= फ्) ह पूर्व (=स्) तथा अधरोष्ठ (=ए) एवं बिन्दु तथा '' से युक्त हो (तब 'स्फ्रें' बनेगा)॥३॥

षडक्षराणि सम्बोध्य यथानामस्थितिक्रमात् ।

प्रतिलोमेन चोद्धृत्य तानि बीजानि पञ्च वै ॥ ४ ॥

भूतबीजाद्यमारभ्य मारबीजान्तमेव हि ।

वैश्वानरवधूयुक्तो मन्त्रो ह्यष्टादशाक्षरः ॥ ५ ॥

इसके बाद नाम के क्रम से छह अक्षरों (=कामकला काली) का सम्बोधन करे (= कामकलाकालि) । इसके पश्चात् भूतबीज (=स्फ्रें) से लेकर काम बीज (=क्ली) तक उन पाँच बीजों का उल्टे क्रम से उद्धार करे (स्फ्रें, क्रों, हूँ, क्रीं क्लीं) (अन्त में) वैश्वानरवधू (=स्वाहा) से युक्त यह मन्त्र अट्ठारह अक्षरों वाला बनता है। (इसका स्वरूप इस प्रकार होगा- क्लीं क्रीं हूँ क्रों स्फ्रें कामकलाकालि स्फ्रें क्रों हूँ क्रीं क्लीं स्वाहा ॥ ४५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - उद्धृतमन्त्रमहिम्नः कीर्तनम् 

अस्य स्मरणमात्रेण यावत्यः सन्ति सिद्धयः ।

स्वयमायान्ति पुरतो जपादीनां तु का कथा ॥ ६ ॥

उक्त मन्त्र की महिमा का वर्णन - इस (मन्त्र) के स्मरणमात्र से जितनी सिद्धियाँ हैं (वे साधक के समक्ष स्वयं आ जाती हैं फिर जप आदि की क्या बात (अर्थात् जप आदि से वे निश्चित रूप से आ जाती हैं ) ॥ ६ ॥

सप्त कामकलाकाल्याः मनवः सन्ति गोपिताः।

तेषु सर्वेषु मन्त्रेषु मुख्योऽयं परिनिष्ठितः ॥ ७ ॥

कामकला काली के सात मन्त्र गुप्त रखे गये हैं। उन सभी मन्त्रों में यह (मन्त्र) मुख्य और परिपूर्ण है ॥ ७ ॥

स्मरणादस्य मन्त्रस्य मूर्च्छिताः सर्वदेवताः ।

स्तम्भिता वेपमानाश्च उत्तिष्ठन्त्यतिविह्वलाः ॥ ८ ॥

निदेशवर्तिनो भूत्वा वर्तन्ते चेटका इव ।

किं बहूक्तेन देवेशि सत्यपूर्वं ब्रवीम्यहम् ॥ ९ ॥

इस मन्त्र के स्मरण से मूर्च्छित एवं स्तम्भित समस्त देवतायें काँपती हुई तथा अत्यन्त विह्वल होकर उठ खड़ी होती है। (वे साधक) की आज्ञानुसारिणी बनकर चेटी के समान व्यवहार करती हैं। हे देवेशि ! अधिक कहने से क्या लाभ मैं सत्य कह रहा हूँ ।। ८-९ ॥

सहस्त्रवदनेनापि लक्षकोट्याननेन वा ।

महिमा वर्णितुं शक्यो नास्य वर्षायुतैर्मया ॥ १० ॥

सामान्यतो विजानीहि यद्यदिच्छति साधकः।

तत्तत्करोति सकलं प्रजापतिरिवापरः ॥ ११ ॥

त्रैलोक्याकर्षणो नाम मन्त्रः सर्वार्थसाधकः ।

मैं अपने हजार, लाख करोड़ मुखों से भी दशहजार वर्षों तक इसकी महिमा का वर्णन नहीं कर सकता। सामान्य रूप से यह समझ लो कि साधक जो-जो इच्छा करता है दूसरे प्रजापति की भाँति वह सब प्राप्त कर लेता है। त्रैलोक्याकर्षण नामक यह मन्त्र समस्त प्रयोजनों का साधक है । १०-१२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - मन्त्रस्यास्य ऋष्यादिनिर्देश: 

अतः परं प्रवक्ष्यामि छन्दश्चर्षि च बीजकम् ॥ १२ ॥

अस्य कामकलाकालीमन्त्रस्याहमृषिर्मतः ।

छन्दश्च बृहती ख्यातं देवी चेयं प्रकीर्तिता ॥ १३ ॥

आद्यं बीजं तु बीजं स्यात् क्रोधार्णं शक्तिरेव च ।

विनियोगोऽस्य सर्वत्र सर्वदा सर्वसिद्धये ॥ १४ ॥

इस मन्त्र के ऋषि आदि का निर्देश - इसके बाद ( मैं इस मन्त्र के ) ऋषि छन्द और बीज को बतलाऊँगा । इस कामकलाकाली मन्त्र का मैं ( महाकाल) ऋषि माना गया हूँ। छन्द वृहती और देवी यह (= कामकला काली) कही गयी है। आद्य बीज (=क्लीं) इसका बीज और क्रोधवर्ण (= हूँ) शक्ति है। सर्वत्र सर्वदा समस्त सिद्धियों के लिये इसका यही विनियोग है। (विनियोग के समय इस प्रकार कहना होगा- अस्य कामकलाकालीमन्त्रस्य महाकाल ऋषिः बृहती छन्दः कामकलाकाली देवता क्ली बीजं हूँ शक्तिः सर्वदा सर्वसिद्धये जपे विनियोगः) ॥ १२-१४ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - अस्य मन्त्रस्य षडङ्गन्यासविधि: 

षडङ्गं पञ्चबीजैस्तैर्नाम्नाप्येकं च कारयेत् ।

नामाक्षराणि प्रत्येकं तत्र देयानि पार्वति ॥ १५ ॥

इस मन्त्र की षडङ्गन्यास विधि - इसके षडङ्ग न्यास को पाँच बीज और एक इस (देवी) के नाम से करना चाहिये। हे पार्वति ! प्रत्येक के साथ नाम का एक-एक अक्षर भी देना चाहिये (इस प्रकार न्यास का स्वरूप होगा-क्लीं का हृदयाय नमः ।

क्रीं म शिरसे स्वाहा ।

हूँ क शिखायै वषट् ।

क्रों ला नेत्रत्रयाय वौषट् ।

स्फ्रें का कवचाय हुम् ।

कामकलाकाली ली अस्त्राय फट् ) ॥ १५ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - कामकलाकाल्याः ध्यानम् 

ध्यानमस्याः प्रवक्ष्यामि कुरु चित्तैकतानताम् ।

उद्यद्घनाघनाश्लिष्यज्जवाकुसुमसन्निभाम् ॥ १६ ॥

मत्तकोकिलनेत्राभां पक्वजम्बूफलप्रभाम् ।

सुदीर्घप्रपदालम्बिविस्त्रस्तघनमूर्द्धजाम् ॥ १७ ॥

ज्वलदङ्गारवच्छोणनेत्रत्रितयभूषिताम् ।

उद्यच्छारदसम्पूर्णचन्द्रकोकनदाननाम् ॥ १८ ॥

दीर्घदंष्ट्रायुगोदञ्चद्विकरालमुखाम्बुजाम् ।

वितस्तिमात्रनिष्क्रान्तललज्जिह्वाभयानकाम् ॥ १९ ॥

व्यात्ताननतया दृश्यद्वात्रिंशद्दन्तमण्डलाम् ।

निरन्तरं वेपमानोत्तमाङ्गां घोररूपिणीम् ॥ २० ॥

अंसासक्तनृमुण्डासृक् पिबन्तीं वक्रकन्धराम् ।

सृक्कद्वन्द्वस्रवद्रक्तस्नापितोरोजयुग्मकाम् ॥ २१ ॥

उरोजा भोगसंसक्तसम्पतद्रुधिरोच्चयाम् ।

सशीत्कृतिधयन्तीं तल्लेलिहानरसज्ञया ॥ २२ ॥

कामकलाकाली का ध्यान - अब मैं इसके ध्यान को बतलाऊँगा । चित्त को एकतान करो । यह देवी उगते हुए (सूर्य के साथ संश्लिष्ट रक्तवर्ण वाले) बादल के समान, सघन परस्परसंश्लिष्ट जवाकुसुम के समान, मत्त कोकिल के नेत्र के समान, पके हुए जामुन फल की कान्तिवाली है। इसके बाल लम्बे, पैरों तक लटकने वाले विखरे हुए तथा सघन हैं। जलते हुए अङ्गार के समान लाल रंग के तीन नेत्रों से यह विभूषित है । इसका मुख उगते हुए शारदीय पूर्णचन्द्र तथा लाल कमल के समान है। दो लम्बे दाँत बाहर ऊपर की ओर निकलने से विकराल मुखकमल वाली बतलायी गयी हैं । एक बीत्ता बाहर निकली हुई लपलपाती जीभ के कारण यह भयानक है । मुख के खोल देने के कारण बत्तीसो दाँत दिखलायी दे रहे हैं। इसका शिर निरन्तर काँप रहा है अतएव घोर रूप वाली है। गले में लटके हुए नरमुण्ड से निकलने वाले रक्त को पीती हुई अतएव वक्रकन्धे वाली कही गयी हैं। इसके दोनों स्तन दोनों जबड़ों से स्रवित होने वाले रक्त से उपलिप्त हैं। उसके विस्तृत स्तनों से लिपट कर रक्त की धारा गिर रही है। उस रक्त को लेलिहान जिह्वा से सीत्कार के साथ वह पी रही है ।। १६-२२ ।।

ललाटे घननारासृग्विहितारुणचित्रकाम् ।

सद्यश्छिन्नगलद्रक्तनृमुण्डकृतकुण्डलाम् ॥ २३ ॥

श्रुतिनद्धकचालम्बिवतंसलसदंसकाम् ।

स्ववदस्त्रौघया शश्वन्मानव्या मुण्डमालया ॥ २४ ॥

आकण्ठगुल्फलम्बिन्यालङ्कृतां केशबद्धया ।

श्वेतास्थिगुलिकाहारमैवेयकमहोज्ज्वलाम् ॥ २५ ॥

शवदीर्घाङ्गलीपङ्किमण्डितोरःस्थलस्थिराम् ।

कठोरपीवरोत्तुङ्गवक्षोजयुगलान्विताम् ॥ २६ ॥

महामारकतप्राववेदिश्रोणिपरिष्कृताम् ।

विशालजघना भोगामतिक्षीणकटिस्थलाम् ॥ २७ ॥

अन्नद्धार्भकशिरोवलत्किङ्किणिमण्डिताम् ।

सुपीनषोडशभुजां महाशङ्खाञ्जदङ्गकाम् ॥ २८ ॥

शवानां धमनीपुङ्खैर्वेष्टितैः कृतकङ्कणाम् ।

प्रथितैः शवकेशस्त्रग्दामभिः कटिसूत्रिणीम् ॥ २९ ॥

शवपोतकर श्रेणीप्रथनैः कृतमेखलाम् ।

शोभमानाङ्गुलीं मांसमेदोमज्जाङ्गुलीयकैः ॥ ३० ॥

ललाट पर मनुष्य के सघन रक्त से लालरंग का चित्र बनायी हुई हैं। तत्काल कटे हुए अतएव गिरते हुए रक्त वाले नरमुण्ड का उसने कुण्डल धारण किया है । कानों में बँधे हुए बालों से लटकने वाला अवतंस (= अङ्गूठी के आकार वाला कर्णाभूषण) कन्धे तक लटक रहा है। (शिर के) बालों से परस्पर बँधे हुए नरमुण्डों की माला, जिससे कि निरन्तर रक्त टपक रहा है, कण्ठ से लेकर गुल्फ तक लटक रही है । इस माला से वे अलङ्कृत हैं। श्वेतवर्ण की हड्डी की गोली से बने हुए हार एवं ग्रैवेयक (धारण करने के कारण वे) अत्यन्त उज्ज्वल हैं। शव की लम्बी अङ्गुलियों की माला से उनका दृढ़ उरस्थल अलङ्कृत है । वे कठोर विशाल और ऊँचे दो स्तनों वाली हैं । इनके उत्तम नितम्ब महा मरकत पत्थर से निर्मित वेदी के समान (चिकने, कठोर और समतल) हैं। उनके जघन का विस्तार अत्यधिक हैं और कटि अत्यन्त क्षीण है । आँतों से बँधे हुए बच्चों के शिररूपी किङ्किणी (=करधनी) से वे मण्डित हैं । वे लम्बी सोलह भुजा वाली हैं। मनुष्य के कपाल उनके अङ्गों में शोभामान है। शवों की धमनियों को हाथ में लपेट कर कङ्कण बना लिया है। शव के गूँथे बालों की रस्सी से उनका कटिसूत्र रचा गया है। मृत शिशु के हाथों को गूँथकर उन्होंने करधनी बनायी है। अङ्गुलियों में मांस, मेदा, मज्जा की अङ्गूठियाँ पहन रखी हैं ।। २३-३० ॥

असिं त्रिशूलं चक्रं च शरमङ्कुशमेव च ।

लालनं च तथा कर्त्रीमक्षमालां च दक्षिणे ॥ ३१ ॥

पाशं च परशुं नागं चापं मुद्गरमेव च ।

शिवापोतं खर्परं च वसासृङमेदसान्वितम् ॥ ३२ ॥

लम्बत्कचं नृमुण्डं च धारयन्तीं स्ववामतः ।

विलसन्नूपुरां देवीं प्रथितैः शवपञ्जरैः ॥ ३३ ॥

(वे अपने) दायें हाथों में खड्ग, त्रिशूल, चक्र, बाण, अङ्कुश, लालन (= मूषक की आकृतिवाला विषधर जन्तु), कैंची और अक्षमाला तथा अपने बायें हाथों में पाश, परशु, नाग, धनुष, मुद्गर, सियार का बच्चा तथा वसा रक्त और मेदा से भरा कपाल ली हुई हैं । गूँथे हुए शवपञ्जरों के नूपुर से शोभायमान हैं ॥ ३१-३३ ॥

श्मशानप्रज्वलद्घोरचिताग्निज्वालमध्यगाम् ।

अधोमुखमहादीर्घप्रसुप्तशवपृष्ठगाम् ॥ ३४ ॥

वमन्मुखानलज्वालाजालव्याप्तदिगन्तराम् ।

प्रोत्थायैव हि तिष्ठन्तीं प्रत्यालीढपदक्रमाम् ॥ ३५ ॥

श्मशान में जलती हुई घोर चिताग्नि की ज्वाला के मध्य में स्थित, औंधे मुँह सोए हुए विशाल शव की पीठ पर खड़ी हैं। उनके मुख से उगली हुई अग्नि की ज्वालायें दिग् दिगन्तर में फैली हुई हैं। एक पैर पर खड़ी होकर दूसरे को उठाकर आगे रखने की स्थिति में वर्तमान हैं ।। ३४-३५ ।।  

वामदक्षिणसंस्थाभ्यां नदन्तीभ्यां मुहुर्मुहुः ।

शिवाभ्यां घोररूपाभ्यां वमन्तीभ्यां महानलम् ॥ ३६ ॥

विद्युदङ्गारवर्णाभ्यां वेष्टितां परमेश्वरीम् ।

सर्वदैवानुलग्नाभ्यां पश्यन्तीभ्यां महेश्वरीम् ॥ ३७ ॥

अतीव भषमाणाभ्यां शिवाभ्यां शोभितां मुहुः ।

कपालसंस्थं मस्तिष्कं ददतीं च तयोर्द्वयोः ॥ ३८ ॥

उनके बायें और दायें भयङ्कर रूपों वाली दो सियारिने खड़ी हैं जो अपने मुख से आग उगल रही हैं। विद्युत और अङ्गार के वर्ण वाली ये दोनों सियारिने कामकला- काली को घेरे हुए हैं। वे सदा उनके सन्निकट रहकर उनको देखती रहती हैं। वह देवी कपाल में स्थित मस्तिष्क को उन दोनों को देती रहती हैं और वे शिवायें उसको निरन्तर खाती रहती हैं ।। ३६-३८ ॥

दिगम्बरां मुक्तकेशीमट्टहासां भयानकाम् ।

सप्तधा नद्धनारान्त्रयोगपट्टविभूषिताम् ॥ ३९ ॥

 संहार भैरवेणैव सार्द्धं सम्भोगमिच्छतीम् ।

अतिकामातुरां काली हसन्तीं खर्वविग्रहाम् ॥ ४० ॥

कोटिकालानलज्वालान्यक्कारोद्यत्कलेवराम् ।

महाप्रलयकोट्यर्क्सविद्युदर्बुदसन्निभाम् ॥ ४१ ॥

कल्पान्तकारिणीं काली महाभैरवरूपिणीम् ।

महाभीमां दुर्निरीक्ष्यां सेन्द्रैरपि सुरासुरैः ॥ ४२ ॥

शत्रुपक्षक्षयकरी दैत्यदानवसूदनीम् ।

चिन्तयेदीदृशीं देवीं काली कामकलाभिधाम् ॥ ४३ ॥

यह देवी नग्न, खुले बालों वाली, अट्टहास करती हुई और भयानक हैं। सात बार ग्रथित नर की आँत के योगपट्ट से विभूषित हैं। वह काली संहारभैरव के साथ निरन्तर सम्भोग चाहती हैं । अत्यन्त कामातुर वह नाटे कद की हैं तथा हँसती रहती हैं। उनका शरीर करोड़ों कालानल को तिरस्कृत करने वाला है तथा महाप्रलय के समय दीप्यमान करोड़ों सूर्य और अरबों विद्युत् के समान है। यह काली कल्प का अन्त करने वाली, महाभैरवरूपिणी, महाभयङ्करी, इन्द्र के सहित सुरों और असुरों के द्वारा दुर्निरीक्ष्य हैं। शत्रुपक्ष का नाश करने वाली, दैत्यदानव का संहार करने वाली कामकला नामक काली का ध्यान करना चाहिये ।। ३९-४३ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - कामकलाकाल्याः सपरिवाराया अर्चाविधिः 

ततो निःसार्य्यं हृत्पद्मात्पीठे श्रीकाममोहने ।

यजेतावाह्य तां देवीं परिवारायुधैः सह ॥ ४४ ॥

कामकलाकाली की सपरिवार अर्चनविधि - ध्यान करने के बाद हृदयकमल से निकाल कर आवाहन कर श्रीकाममोहन पीठ पर परिवार और आयुधों के साथ उस देवी की पूजा करनी चाहिये ॥ ४४ ॥

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल २

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - कामकलाकाल्याः यन्त्रस्य स्वरूपाभिधानम्

यन्त्रमस्याः प्रवक्ष्यामि तत्र धेहि मनः प्रिये ।

भूपुरे वसुवज्राढ्ये पद्ममष्टदलान्वितम् ॥ ४५ ॥

केसराणि प्रकल्प्यानि तत्रान्तश्चापि कर्णिका ।

कर्णिकान्तस्त्रिकोणस्य त्रितयं पृथगेव हि ॥ ४६ ॥

बहित्रिकोणकोणेषु लिखेद् बीजत्रयं शुभम् ।

मायाबीजं तु वामे स्यात् क्रोधबीजं च दक्षिणे ॥ ४७ ॥

अधः पाशं विनिर्दिश्य कन्दर्पार्णं तु मध्यतः ।

तदन्तः स्थायिनी देवी तत्र सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ ४८ ॥

एतद् यन्त्रं महादेवि सर्वकामफलप्रदम् ।

एतस्य सर्वयन्त्राणि कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ४९ ॥

कामकलाकाली के यन्त्रस्वरूप का वर्णन - हे प्रिये! (अब मैं) इसके यन्त्र को बतलाऊँगा । उसमें मन लगाओ। रत्नों और हीरों से अलङ्कृत भूपुर में अष्टदल कमल बनाये । उसमें केसर और केसरों के बीच कर्णिका की रचना करे । कर्णिका के भीतर पृथक्-पृथक् तीन त्रिकोण बनाये । बाह्य त्रिकोण के कोणों में तीन शुभ बीज लिखे । बायें कोण में माया बीज (= ह्रीं) दायें कोण में क्रोधबीज (= हूं) नीचे (के कोण) में पाश (=आं) और मध्य में कन्दर्पबीज (=क्ली) लिखे। उसके भीतर देवी रहती है और उसमें सब प्रतिष्ठित है। हे महादेवि ! यह यन्त्र सर्वकामफलप्रद है। अन्य यन्त्र इसकी सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं है ।। ४५-४९ ॥

 कामकलाकाली खण्ड पटल २ - पूजाविधिनिरूपणम् 

भूतशुद्धिं विधायादौ पूर्ववत्कथितां प्रिये ।

मातृकान्यासपीठादिन्यासं कुर्यात्पुरोक्तवत् ॥ ५० ॥

क्वचिच्च गुह्यकालीवत् क्वचिद् दक्षिणकालिवत् ।

न्यासपूजादिकं सर्वं विशेषः कुत्रचित् प्रिये ॥ ५१ ॥

सामान्यं च विशेषं च स्थापयेदर्घ्ययुग्मकम् ।

कुर्याच्च मानसीं पूजामुपचारैश्च पार्थिवः ।

चतुरः पूजयेद् देवान् गणार्काच्युतशूलिनः ॥ ५२ ॥

ततो मुख्यां यजेताद्यां कालीं कामकलाभिधाम् ॥ ५३ ॥

कामकलाकाली की पूजाविधि - हे प्रिये ! सर्वप्रथम पहले कही गयी की भाँति भूतशुद्धि करने के बाद मातृकान्यास पीठ आदि न्यास को पूर्वोक्त की भाँति करना चाहिये। हे प्रिये! कहीं गुह्यकाली की भाँति कहीं दक्षिणकाली की भाँति न्यास पूजा आदि (करणीय होते हैं)। कहीं विशेष (भी करना पड़ता है)। सामान्य और विशेष दोनों प्रकार के अर्घ्य की स्थापना करनी चाहिये । तत्पश्चात् गणेश सूर्य, विष्णु और शिव इन चार देवताओं की पूजा करे। उसके बाद मुख्य कामकला नामक आद्या काली का यजन करे ।। ५०-५३ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - कामकलाकाल्या आवाहनमन्त्रः 

आवाहयेदनेनैव मन्त्रेण शृणु पार्वति ।

तारं मायां स्मरं पाशमुच्चार्यार्णचतुष्टयम् ॥ ५४ ॥

षडक्षराणि सम्बोध्य देवीनाम यथार्थवत् ।

आगच्छ द्वितयं तिष्ठ युगलं तदनु क्षिपेत् ॥ ५५ ॥

पूजां गृहाणेति युगं वह्निजायान्तमेव हि ।

आवाहयेदनेनैव मन्त्रेण परमेश्वरीम् ॥ ५६ ॥

मूलमन्त्रेण वै कार्यमन्यत्सर्वं शुचिस्मिते।

कामकलाकाली का आवाहन मन्त्र- हे पार्वति ! सुनो निम्नलिखित मन्त्र से आवाहन करना चाहिये - तार ( =ॐ) माया (= ह्रीं) स्मर (=क्लीं) पाश (= आं) इन चारों वर्णों का उच्चारण कर छह अक्षरों का सम्बोधन कर (= कामकलाकालि) देवी नाम (= देवी) 'आगच्छ' को दो बार फिर 'तिष्ठ' को दो बार पढ़ने के बाद 'पूजां गृहाण' को दो बार पढ़कर अन्त में वह्निजाया (= स्वाहा ) पढ़ना चाहिये । ( इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप होगा- ॐ ह्रीं क्लीं आं कामकलाकालि देवी आगच्छ आगच्छ तिष्ठ तिष्ठ पूजां गृहाण गृहाण स्वाहा ) हे शुचिस्मिते! इस मन्त्र से आवाहन करना चाहिये। अन्य सब कार्य मूलमन्त्र से करना चाहिये ।। ५४-५७ ।।

कामकलाकाली खण्ड पटल २ -  उपचारार्पणस्य सामान्यमन्त्रः 

ङेऽन्तं तन्नाम चोच्चार्य कामबीजाद्यमग्रतः ॥ ५७ ॥

सर्वेष्वेवोपचारेषु मन्त्रोऽसौ परिकीर्तितः ।

विशेषमन्त्रो नो यत्र तत्रासौ मनुरिष्यते ॥ ५८ ॥

यत्र यत्र विशेषोऽस्ति तत्प्रवक्ष्ये न संशयः ।

उपचारार्पण मन्त्र - पहले काम बीज फिर उसका ङेऽन्त नाम उच्चारण करे । (जैसे- क्लीं कामकलाकाल्यैइसके बाद 'नमः' जोड़ें)। यह मन्त्र समस्त उपचारों के विषय में (प्रयोज्य) कहा गया है। जहाँ विशेष मन्त्र (का कथन ) नहीं है वहाँ यही मन्त्र वाञ्छित है। जहाँ विशेष है उसे निःसन्देह मैं कहूँगा ।। ५७-५९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - अर्घ्यदानमन्त्रः 

अर्घ्यदाने विशेषोऽस्ति तदपि व्याहरामि ते ॥ ५९ ॥

प्रणवं पाशरोषौ च लज्जां भौतं च बीजकम् ।

श्मशानवासिनीं ङेऽन्तां ङेऽन्तं नाम तथोच्चरेत् ॥ ६० ॥

एषोऽर्घो नम इत्युक्त्वा दद्यादर्घं सुकल्पितम् ।

अर्घ्यदानमन्त्र - अर्घ्यदान के विषय में विशेष मन्त्र है । वह मैं तुमको बतला रहा हूँ। प्रणव, पाश, रोष, लज्जा, भूत बीज, ङे अन्त वाले श्मशानवासिनी पद के बाद डेऽन्त नाम का उच्चारण करे। तत्पश्चात् 'एषोऽर्घो नमः' कहकर सुकल्पित अर्घ्यदान करे । ( मन्त्र का स्वरूप होगा ॐ आं हूँ ह्रीं स्फ्रें श्मशानवासिन्यै कामकलाकाल्यै एषोऽर्घो नमः) ॥५९-६१॥

मूलमन्त्रेण नाम्ना च ह्युपचारांश्च षोडश ॥ ६१ ॥

निवेदयेन्महाकाल्यै यद्यदुक्तं प्रपूजने ।

न गन्धदाने मन्त्रोऽस्ति न वा पुष्पसमर्पणे ॥ ६२ ॥

तयोरेव विशेषोऽस्ति कथयिष्यामि तच्छृणु ।

मूलमन्त्र से षोडशोपचारार्पण - पूजन के विषय में जो-जो कहा गया मूलमन्त्र और (कामकलाकाली के) नाम से सोलह उपचारों का महाकाली के लिये निवेदन करना चाहिये । न गन्धदान के और न ही पुष्पसमर्पण के विषय में किसी मन्त्र का विधान है । उन्हीं दोनों में जो विशेष है उसे बतला रहा हूँ सुनो ॥ ६१-६३ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - अनङ्गगन्धपरिचय: 

यदष्टादशवार्षिक्या न्यूनाया अपि वा भवेत् ॥ ६३ ॥

आर्त्तवं मासिकं यत्स्यादाद्याहोजातशोणितम् ।

अनङ्गगन्धस्तन्नाम नाधिकायाः कदाचन ॥ ६४ ॥

तद्दानफलबाहुल्यं वक्तुमेव न शक्यते ।

स्वयमागत्य देवी सा गृह्णाति शिरसार्पितम् ॥ ६५ ॥

तस्माद् घृणां न कुर्वीत तद्दाने प्रयतेत वै ।

अनङ्गगन्ध का परिचय - अट्ठारह अथवा उससे कम वय की (कन्या का) जो मासिक आर्तव (= रज) होता है उसमें प्रथम दिन का जो रक्त होता है वह अनङ्गगन्ध होता है । (अट्ठारह वर्ष से अधिक का (रज) कभी भी (अनङ्गगन्ध ) नहीं होता । (देवी के लिये) उसके अर्पणफल का माहात्म्य कहा नहीं जा सकता । शिर से ( अर्थात् भक्तिपूर्वक) अर्पित उसको देवी स्वयं आकर ग्रहण कर लेती है । इसलिये (रज से) कभी घृणा नहीं करनी चाहिये बल्कि उसके दान के विषय में प्रयत्न करना चाहिये ॥ ६३-६६ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - अनङ्गगन्धदानमन्त्रः 

अनङ्गगन्धदानस्य मन्त्रमाकर्णय प्रिये ॥ ६६ ॥

तारं वाग्भवबीजं च प्रासादें कमलार्णकम् ।

क्रोधमारपिशाचार्णं मायां पाशमुदीर्य च ॥ ६७ ॥

ङेऽन्तं रतिप्रियाशब्दं प्रोच्चरेन्नवबीजतः ।

ङेऽन्तं तन्नाम चोच्चार्य एष तन्नाम चोद्धरेत् ॥ ६८ ॥

हार्दमन्त्रं समुच्चार्य गन्धं दद्याच्च साधकः ।

अनङ्गगन्धदान का मन्त्र - हे प्रिये! अनङ्गगन्धदान का मन्त्र सुनो। तार ( =ॐ) वाग्भवबीज (= ऐं) प्रासाद ( = हौं) कमलार्णक (= श्रीं) क्रोध (= हूँ) मार ( = क्लीं) पिशाच ( = ठः) माया (= ह्रीं) पाश (= आं) का उच्चारण कर रतिप्रिया शब्द के चतुर्थ्यन्त का उच्चारण करे। उक्त नव बीजाक्षरों के बाद डेन्त उसका नाम उच्चारित कर 'एष:' और उस गन्ध का नाम कहे । तत्पश्चात् साधक हृदय मन्त्र (नमः) का उच्चारण कर गन्ध दे । (उक्त मन्त्र का स्वरूप होगा- ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हूँ क्लीं ठः ह्रीं आं रतिप्रियायै कामकलाकाल्यै एष अनङ्गगन्धो नमः) ॥ ६६-६९ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - स्वयम्भूकुसुमपरिचयः 

जाताद्यरजसो नार्यायदाद्यदिनसम्भवम् ॥ ६९ ॥

पुष्पं स्वयम्भूपुष्यं तत्तदानन्दाय कल्पते ।

न सौवर्णेन पुष्पेण न मुक्तामणिभिस्तथा ॥ ७० ॥

न दीपैर्नापि नैवेद्यैर्नापि पूजादिसम्भरैः ।

न होमैर्न जपैर्नापि तर्पणैः प्रीयते शिवा ॥ ७१ ॥

यथा स्वयम्भूपुष्पेण प्रीयते जगदम्बिका ।

तत्रापि परयोषाया इत्यागमसुगोपितम् ॥ ७२ ॥

स्वयम्भू कुसुम परिचय पहले पहल रजोधर्मवती नारी का पहले दिन का पुष्प (=रज) स्वयम्भूपुष्प(कहलाता) है। वह आनन्द के लिये होता है न सुवर्णरचित पुष्पों न मुक्तामणियों से और न दीप नैवेद्य आदि पूजा सामग्रियों तथा होम जप तर्पण से शिवा उतना प्रसन्न होती है जितना कि इस स्वयम्भूपुष्प से जगदम्बा प्रसन्न होती है। उसमें भी यदि दूसरे की स्त्री का हो (तो अति उत्तम) ऐसा आगमों में गोपनीय ढंग से वर्णित है ।। ६९-७२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - स्वयम्भूकुसुमार्पणमन्त्रः 

अधुना कथ्यते तस्य दानमन्त्री वराङ्गने ।

प्रणवादी त्रपारत्यौ ङेऽन्तं नाम ततो वदेत् ॥ ७३ ॥

क्रोधं पाशं समुच्चार्य डेऽन्ता च भगमालिनी ।

वाग्भवं च वधूबीजं ङेऽन्ता चापि भगप्रिया ॥ ७४ ॥

पैशाचं कामलं बीजं डेऽन्ता च मदनातुरा ।

एतत्पुष्पस्य नामापि नम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ७५ ॥

प्रोच्चार्य दद्यात्तद्देव्यै सर्वकामार्थसिद्धये ।

परमाभीष्टमाप्नोति दत्वैतत्पुष्पमुत्तमम् ॥ ७६ ॥

धूपे दीपे च नैवेद्ये मूलमन्त्रः प्रकीर्तितः ।

चामरच्छत्रदाने च स एव परिकीर्तितः ॥ ७७ ॥

स्वयम्भू पुष्प के अर्पण का मन्त्र - हे वराङ्गने ! अब उसके अर्पण का मन्त्र कहा जा रहा हैपहले प्रणव फिर त्रपा ( = ह्रीं) फिर प्रणव के बाद रति (=क्लीं) फिर डेऽन्त नाम का उच्चारण करे। क्रोध और पाश का उच्चारण कर 'भगमालिनी' शब्द के चतुर्थ्यन्त का उच्चारण करे। वाग्भव, वधूबीज (स्त्री) के बाद भगप्रिया का चतुर्थ्यन्त उच्चारण कर पैशाच (=ठः) तथा कमला बीज (श्री) का उच्चारण कर डेन्त मदनातुरा का उच्चारण करे । इस पुष्प का नाम और 'नमः' का उच्चारण कर सर्वकामार्थसिद्धि के लिये उसे देवी के लिये अर्पण करे (मन्त्र का स्वरूप - ॐ ह्रीं ॐ क्लूं कामकलाकाल्यै हूं आं भगमालिन्यै ऐं स्त्री भगप्रियायै ठः श्री मदनातुरायै इदं स्वयम्भूकुसमं नमः) । इस उत्तम पुष्प को देकर साधक परम अभीष्ट को प्राप्त करता है। धूप दीप नैवेद्य के विषय में मूलमन्त्र ( का उच्चारण) कहा गया है चामर और छत्र के दान में भी उसी मन्त्र (के उच्चारण का विधान) वर्णित है ॥ ७३-७७ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - पूजायां बल्यर्पणमन्त्रः 

पूजायां बलिदानस्य मन्त्रमाकर्णय प्रिये ।

एकं तारं समुद्धृत्य मारमायारुषोऽर्णकान् ॥ ७८ ॥

त्रित्रिः प्रोच्चार्य ह्रां ह्रीं ह्वमेतत्त्रितयमुद्धरेत् ।

भगप्रिये त्विति पदं भगमालिनि चेति च ॥ ७९ ॥

महाबलिमिति स्मृत्वा गृह्णेति च पदद्वयम् ।

भक्षयेति पदद्वन्द्वं मम शत्रूनथापि च ॥ ८० ॥

नाशयोच्चाटय हन त्रुट छिन्धि पचापि च ।

मथ विध्वंसय तथा मारय द्रावयापि च ॥ ८१ ॥

युगं युगं दश भवेन्मायाग्निवनितायुतः ।

बलिदाने महामन्त्रः सर्वकामफलप्रदः ॥ ८२ ॥

पूजा में बलि के अर्पण का मन्त्र - हे प्रिये! पूजा में बलिदान का मन्त्र सुनो । एक बार प्रणव का उच्चारण कर काम माया और क्रोध बीजों का तीन-तीन बार उच्चारण कर ह्रां ह्रीं हूँ इन तीन वर्णों का उच्चारण करना चाहिये । इसके बाद 'भगप्रिये' 'भगमालिनि महाबलिम्' को कहकर 'ग्रहण' और 'भक्षय' पदों को दो-दो बार उच्चारित करे । इसके बाद 'मम शत्रून्' कहने के बाद 'नाशय उच्चाटय हन त्रुट छिन्धि पच मथ विध्वंसय मारय द्रावय' इन दश पदों को दो-दो बार कहकर माया तथा अग्निवनिता ( = स्वाहा ) कहे । ( इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप होगा-ॐ क्लीं क्लीं क्लीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं ह्रां ह्रीं हूं भगप्रिये भगमालिनि महाबलिं गृह्ण गृह्ण भक्षय भक्षय मम शत्रून् नाशय नाशय उच्चाटय उच्चाटय हन हन त्रुट त्रुट छिन्धि छिन्धि पच पच मथ मथ विध्वंसय विध्वंसय मारय मारय द्रावय द्रावय ह्रीं स्वाहा ) । बलिदान के विषय में यह महामन्त्र सर्वकामफलप्रद है ।। ७८-८२ ॥

कामकलाकाली खण्ड पटल २ - भोजने बल्यर्पणस्य पृथङ् मन्त्रः 

भोजने बलिदानस्य मन्त्रोऽन्योऽस्ति वरानने ।

प्रणवं पूर्वमुच्चार्य लज्जां हं युग्मयुग्मकम् ॥ ८३ ॥

क्षौं क्षौं भूतार्णयुगलं पाशयुग्मं स्मरद्वयम् ।

नाम सम्बोध्य देव्यास्तु महाकामातुरेऽपि च ॥ ८४॥

महाकालप्रिये चापि ममानिष्टं ततो वदेत् ।

निवारय पदद्वन्द्वं शत्रूनिति पदं ततः ॥ ८५ ॥

स्तम्भयेति पदद्वन्द्वं मारयेति तथैव च ।

दम युग्मं मर्दययुगं शोषयेति युगं ततः ॥ ८६ ॥

इमं बलिं गृह्ण गृह्ण तत एतावदुच्चरेत् ।

खादयेति पदद्वन्द्वं क्रोधाग्निवनितायुतः ॥ ८७ ॥

भोजन में बलि के अर्पण का मन्त्र- हे वरानने! भोजन के विषय में बलिदान का मन्त्र दूसरा है। पहले प्रणव फिर लज्जा और हं का दो-दो बार, फिर क्षौं क्षौं, फिर भूतवर्ण दो बार दो पाश, दो स्मर तत्पश्चात् देवी के नाम का सम्बोधन, महाकालप्रिये' कहने के बाद 'ममानिष्टं' कहे। फिर 'निवारय' को दो बार पुनः 'शत्रून्' कहने के बाद 'स्तम्भय' को दो बार 'मारय' को भी दो बार, दम मर्दय शोषय को दो-दो बार कहने के पश्चात् 'इमं बलिं गृह्ण गृह्ण' कहे । फिर 'खादय' को दो बार कह कर क्रोध और अग्निवनिता का उच्चारण करे। (इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप होगा- ॐ ह्रीं ह्रीं हं हं क्षौं क्षौ स्फ्रें स्फ्रें आं आं क्लीं क्लीं कामकलाकालि महाकामातुरे महाकालप्रिये ममानिष्टं निवारय निवारय शत्रून् स्तम्भय स्तम्भय मारय मारय दम दम मर्दय मर्दय शोषय शोषय इमं बलिं गृह्ण गृह्ण खादय खादय हूं स्वाहा ) ॥ ८३-८७ ॥

भोजनादौ महामन्त्रो बलिदाने प्रकीर्तितः ।

एवं निर्वर्त्य देव्यास्तु पूजां सर्वोपचारिकाम् ॥ ८८ ॥

सप्तावरणपूजां तामारभेत ततः क्रमात् ॥ ८९ ॥

भोजन आदि एवं बलिदान में महामन्त्र का वर्णन किया गया। देवी की इस प्रकार सर्वोपचार वाली पूजा करने के बाद साधक को क्रम से सप्तावरण पूजा का प्रारम्भ करना चाहिये ।। ८८-८९ ॥

॥ इति श्रीमदादिनाथविरचितायां पञ्चशतसाहख्यां महाकालसंहितायां द्वितीयः पटलः ॥ २ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित पचास हजार श्लोकों वाली महाकाल- संहिता के कामकलाकाली खण्ड के मन्त्रोद्धार आदि वर्णन नामक द्वितीय पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ २ ॥

आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 3

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