महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १- देवी ने महाकाल से प्रश्न किया कि आपने तारा छिन्नमस्ता आदि अट्ठाईस तथा अन्य देवियों का वर्णन किया किन्तु कामकला काली का वर्णन नहीं किया । अतः उसका रहस्य कवच आदि के साथ वर्णन कीजिये। महाकाल ने कहा कि कामकलाकालीसदृश भोगमोक्षप्रद अन्य कोई साधन नहीं है। इन्द्र, वरुण, कुबेर बाणासुर, रावण, यम, विवस्वान्, विष्णु आदि देवता एवं ऋषिगण तथा मैने स्वयं इसकी उपासना की है। इसकी साधना से अणिमा आदि समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं तथा मारण आदि षट् कार्य सम्पन्न होते हैं। कोटि जन्म में अर्जित पुण्य का जब उदय होता है तब इसकी सिद्धि मिलती है। इसकी आराधना का प्रारम्भ कभी भी किया जा सकता है। इसके बाद महाकाल ने कामकला काली खण्ड के विषयों को उद्दिष्ट किया है । ये विषय हैं मन्त्र, ध्यान, पूजा, कवच आदि। काली के नव प्रकारों का नामोल्लेख कर कामकला काली को इनमें मुख्यतमा कहा गया है ।

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 1

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: प्रथमः पटल:

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड प्रथम पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड पहला पटल

श्रीः

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड :)

प्रथमः पटल:

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १- विषयप्रर्वत्तनम्

देव्युवाच-

परापर परेशान शशाङ्ककृतशेखर ।

योगाधियोगिन् सर्वज्ञ सर्वभूतदयापर ॥ १ ॥

त्वत्तः श्रुता मया मन्त्राः सर्वागमसुगोपिताः ।

विधिवत्पूजनं चापि नानावरणकक्रमैः ॥ २ ॥

देवी ने कहा- हे पर और अपर ( तथा परापर) अवस्था वाले, मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाले, योग के अधिकारवान योगी, समस्त प्राणियों के प्रति दयावान, परम स्वामी (अथवा परा शक्ति के स्वामी)! आपसे मैंने समस्त आगमों में भली-भाँति गोपित मन्त्रों को सुना । अनेक आवरणक्रमों से युक्त पूजन का विधिवत् श्रवण किया ॥ १-२ ॥

तारा च छिन्नमस्ता च तथा त्रिपुरसुन्दरी ।

बाला च बगला चापि त्रिपुरा भैरवी तथा ॥ ३ ॥

काली दक्षिणकाली च कुब्जिका शबरेश्वरी ।

अघोरा राजमातङ्गी सिद्धिलक्ष्मीररुन्धती ॥ ४ ॥

अश्वारूढा भोगवती नित्यक्लिन्ना च कुक्कुटी ।

कौमारी चापि वाराही चामुण्डा चण्डिकापि च ॥ ५ ॥

भुवनेशी तथोच्छिष्टचाण्डाली चण्डघण्टिका ।

कालसङ्कर्षणी चापि गुह्यकाली तथाऽपरा ।। ६ ।।

एताश्चान्याश्च वै देव्यः समन्त्राः कथितास्त्वयां ।

किन्तु कामकलाकालीं नोक्तवानसि मे प्रभो ॥ ७ ॥

तारा, छिन्नमस्ता, त्रिपुरसुन्दरी, बाला, बगला, त्रिपुरा, भैरवी, काली, दक्षिण- काली, कुब्जिका, शबरेश्वरी, अघोरा, राजमातङ्गी, सिद्धिलक्ष्मी, अरुन्धती, अश्वारूढा, भोगवती, नित्यक्लिन्ना, कुक्कुटी, कौमारी, वाराही, चामुण्डा, चण्डिका, भुवनेश्वरी, उच्छिष्टचाण्डालिनी, चण्डघण्टा, कालसङ्कर्षिणी, अपराइन तथा अन्य देवियों के विषय में मन्त्रों के साथ आपने बतलाया; किन्तु हे प्रभो! आपने कामकला काली के विषय में नहीं बतलाया ॥ ३-७ ॥

तत्किं मय्यपि गोप्यं ते प्रायशः परमेश्वर ।

न हीदृशं त्रिलोकेषु तव किञ्चन विद्यते ॥ ८ ॥

यदकथ्यं मयि भवेदपि प्राणाधिकायिकम् ।

तत्किं गोपयसि प्राज्ञ मयीदं दैवतं महत् ॥ ९ ॥

तो हे परमेश्वर! क्या (कोई ऐसा तत्त्व है जो ) मेरे विषय में भी आपके द्वारा प्रायः गोप्य है? तीनों लोकों में आपके लिये ऐसा कुछ नहीं है, जो मेरे विषय में प्राण और शरीर से बढ़कर अकथ्य हो । इसलिये हे प्राज्ञ ! मेरे प्रति इस महादेवता को क्यों छिपा रहे हैं ॥ ८-९ ॥

यद्यस्मि ते दयापात्रं मान्यास्मि स्नेहभाग्भव ।

अनुग्राह्यास्मि कान्तास्मि तदेमां वद साम्प्रतम् ॥ १० ॥

हे भव! यदि मैं आपकी दयापात्र, मान्या, अनुग्राह्या और प्रियतमा हूँ तो अब इस देवता के विषय में मुझको बतलाइये ॥ १० ॥

देवीं कामकलाकालीं समन्त्रां ध्यानपूर्विकाम् ।

सरहस्यां सकवचां कथयस्व मम प्रभो ॥ ११ ॥

हे प्रभो! देवी कामकला काली को मन्त्र, ध्यान, रहस्य और कवच के सहित मुझे बतलाइये ॥ ११ ॥

[ कामकलाकाल्याः मन्त्रस्य माहात्म्यस्य गोपनीयतायाश्चाभिधानम् ]

कामकलाकाली के मन्त्र, माहात्म्य और गोपनीयत्व का वर्णन -

महाकाल उवाच-

धन्यास्यनुगृहीतासि तया देव्यैव सर्वथा ।

यत्ते बुद्धिः समुत्पन्ना तां देवीं प्रति भामिनि ॥ १२ ॥

महाकाल ने कहाहे भामिनि ! तुम धन्य हो तथा उस देवी के द्वारा सब प्रकार से अनुगृहीत हो, जो कि उस देवी के प्रति तुम्हें ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई है ।। १२ ।।

न हीदृशं भुक्तिमुक्तिसाधनं भुवि विद्यते ॥ १३ ॥

विधाय शपथं देवि कथयामि तवाग्रतः ।

यथार्थमात्थ देवि त्वं गोप्यं त्वय्यपि सर्वथा ।

किन्तु भक्तिविशेषात्ते कथयामि न संशयः ॥ १४ ॥

हे देवि ! तुम्हारे आगे शपथ लेकर कह रहा हूँ कि इस धरती पर भोग-मोक्ष का इस प्रकार का साधन नहीं है। हे देवि! तुम सत्य कहती हो । यह देवता तुम्हारे प्रति भी सर्वथा गोप्य है; किन्तु भक्तिविशेष के कारण तुमको बतला रहा हूँ । इसमें सन्देह नहीं है ।। १३-१४ ॥

राज्यं दद्याद्धनं दद्यात् स्त्रियं दद्याच्छिरस्तथा ।

न तु कामकलाकालीं दद्यात्कस्मा अपि क्वचित् ॥ १५ ॥

राज्य दे दे, धन दे दे, अपनी स्त्री दे दे; यहाँ तक कि अपना शिर भी दे दे; किन्तु किसी के लिये कभी भी, कहीं भी कामकला काली (का रहस्य) न दे अर्थात् कभी भी न बतलाये ॥ १५ ॥

इन्द्रेणोपासिता पूर्वं देवराज्यमभीप्सता ।

वरुणेन कुबेरेण ब्रह्मणा च मया तथा ॥ १६ ॥

बाणेन रावणेनापि यमेनापि विवस्वता ।

चन्द्रेण विष्णुना चापि तथान्यैश्च महर्षिभिः ॥ १७ ॥

देवताओं का राज्य चाहने वाले इन्द्र के द्वारा, वरुण, कुबेर, ब्रह्मा, स्वयं मेरे द्वारा, बाणासुर, रावण, यम, विवस्वान् अर्थात् सूर्य, चन्द्रमा, विष्णु तथा अन्य महर्षियों के द्वारा पूर्व काल में इसकी उपासना की गयी ।। १६-१७ ॥

सहेलं वा सलीलं वा यस्याः स्मरणमात्रतः ।

विद्यालक्ष्मी राज्यलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्वशे स्थिता ॥ १८ ॥

विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ।

राज्यार्थी लभते राज्यं कान्तार्थी कामिनीं शुभाम् ॥ १९ ॥

यशोऽर्थी कीर्तिमाप्नोति मुक्त्यर्थी मोक्षमव्ययम् ।

अणिमाद्यष्टसिद्ध्यर्थी सिद्ध्यष्टकमवाप्नुयात् ॥ २० ॥

वशीकरणमाकर्षं द्रावणं मोहनं तथा ।

स्तम्भनं च तथोच्चाटं मारणं द्वेषणं तथा ॥ २१ ॥

शोषणं मूर्च्छनं त्रासं तथापस्मारमेव च ।

क्षोभणं च महोन्मादं कुर्य्यादेतदुपासकः ॥ २२ ॥

अनादर के साथ अथवा क्रीड़ा करते समय भी जिसके स्मरणमात्र से विद्यालक्ष्मी, राज्यलक्ष्मी और मोक्षलक्ष्मी वश में हो जाती है। राज्यार्थी राज्य प्राप्त कर लेता है; कान्ता का इच्छुक शुभ लक्षणों वाली कामिनी को प्राप्त करता है; अणिमा आदि अष्टसिद्धियों को चाहने वाला अष्टसिद्धि प्राप्त करता है। ऐसी इस (कामकला काली) का उपासक वशीकरण, आकर्षण, द्रावण, मोहन, स्तम्भन, उच्चाटन, मारण, द्वेषण, शोषण, मूर्च्छन, त्रास, अपस्मार (मिर्गी), क्षोभण तथा महा उन्माद कर सकता है ।। १८-२२ ॥

अञ्जनं खड्गवेतालपादुकायक्षिणीगतिम् ।

गुटिकाधातुवादादि वर्षसाहस्त्रजीवनम् ॥ २३ ॥

साधयेत् खेचरत्वं च कामरूपित्वमेव च ।

नानया सदृशी विद्या त्रैलोक्ये क्वापि विद्यते ॥ २४ ॥

(इसका उपासक) अञ्जन, खड्ग, वेताल, पादुका, यक्षिणी की गति, गुटिका, धातु, वाद आदि, सहस्रवर्ष तक का जीवन, खेचरत्व, कामरूपित्व की सिद्धि कर लेता है। इस त्रैलोक्य में कहीं भी इसके समान कोई विद्या नहीं है ।। २३-२४ ॥

कुर्य्याद् ग्रहगतिस्तम्भं पिशाचोरगरक्षसाम् ।

कुर्य्यान्नद्यर्णवस्तम्भमनिलानलयोरपि ॥ २५ ॥

धारास्तम्भं शत्रुसैन्यस्तम्भं वाक्स्तम्भनं तथा ।

यद्यदिच्छति तत्सर्वं कुय्यदिव न संशयः ॥ २६ ॥

(यह उपासक) ग्रहों, पिशाचों, सर्पों, राक्षसों की गति को रोक देता है । नदी, समुद्र का स्तम्भन कर देता है। वायु और अग्नि की धारा का, शत्रु की सेना का, किसी की वाणी का स्तम्भन कर देता है। वह जो-जो चाहता है सब कर देता है। इसमें कोई संशय नहीं है ।। २५-२६ ॥

चतुर्वर्गश्चतुर्भद्रो लभ्यते यत्प्रसादतः ।

अन्यासां क्षुद्रसिद्धीनां तत्र कैव कथा प्रिये ॥ २७ ॥

हे प्रिये ! जिसकी प्रसन्नता से चतुर्वर्ग (धर्म-अर्थ- काम तथा मोक्ष) और चतुर्भद्र ( = धर्म-अर्थ- काम तथा मोक्ष) प्राप्त हो जाता है वहाँ अन्य कई छोटी-छोटी सिद्धियों की क्या बात ॥ २७ ॥

द्विसप्ततितमं यावत्पुरुषाः पूर्वजाः स्मृताः ।

तेषां भाग्योदयैः पूर्णैर्विद्येयं यदि लभ्यते ॥ २८ ॥

तदा सर्वस्वदानेन गृह्णीयादविचारयन् ।

कृतकृत्यं मन्यमानो गुरोः पादावभिस्पृशन् ॥ २९ ॥

बहत्तरवीं पीढ़ी तक के पुरुष पूर्वज माने गये हैं । यदि उनका पूर्ण भाग्योदय होता है तो यह विद्या प्राप्त होती है। उस समय अपने को कृतकृत्य मानते हुए गुरु के चरणों का स्पर्श कर विना विचारे सर्वस्व दान के द्वारा (इस विद्या का) ग्रहण करना चाहिये ॥ २८-२९ ॥

नात्र सिद्धाद्यपेक्षास्ति न कालनियमस्तथा ।

नैव शुक्रास्तदोषादि मलमासादिको न च ॥ ३० ॥

इस (विद्या के ग्रहण) के विषय में न तो सिद्ध आदि की अपेक्षा है, न ही काल का कोई नियम है तथा शुक्रास्त मलमास (= पुरुषोत्तम मास ) आदि का दोष भी नहीं होता है ॥ ३०॥

एकतः प्राणदानं स्यादेकतश्चैतदर्पणम् ।

तुलया विधृतं चेत्स्यादेतद्दानं विशिष्यते ॥ ३१ ॥

एक ओर प्राणदान और दूसरी ओर इस (विद्या) का दान; दोनों को यदि तुला पर रखा जाय तो इसका दान भारी पड़ता है ॥ ३१ ॥

पद्मिनीपत्रसंस्थायिजलवज्जीवनं चलम् ।

ततोऽपि चञ्चला सम्पद्दत्तयोश्चेत्तर्योर्द्वयोः ॥ ३२ ॥

लभ्यतेऽसौ महाविद्या किं नु भाग्यमतः परम् ।

कोटिजन्मार्जितैः पुण्यैर्लभ्यते वा न लभ्यते ॥ ३३ ॥

(मनुष्य का) जीवन कमल के पत्ते पर स्थित जल की बूँद के समान चञ्चल होता है (अर्थात् कभी भी च्युत हो सकता है) इससे भी चञ्चल लक्ष्मी है । यदि उन दोनों के देने से यह महाविद्या प्राप्त हो जाती है तो इससे बढ़कर और सौभाग्य की बात क्या हो सकती है । करोड़ों जन्मों में अर्जित पुण्य से भी यह प्राप्त हो सकती है, नहीं भी प्राप्त हो सकती (अत: जब भी यह मिले किसी भी मूल्य पर इसे ले लेना चाहिये) ॥ ३२-३३ ॥

शपथं कुरु देवेशि प्रकाश्येयं न कुत्रचित् ।

सत्यं सत्यं त्रिसत्यं मे ततो वक्ष्यामि ते त्विमाम् ॥ ३४ ॥

हे देवेशि ! तुम शपथ लो कि तुम इसे कहीं प्रकाशित नहीं करोगी । (यह शपथ) मेरे लिये सत्य होगा, सत्य होगा, त्रिसत्य होगा (यदि ऐसा है) तो मैं इसे तुमको बतलाऊँगा ॥ ३४ ॥

नो चेत्तेऽपि न वक्ष्यामि प्रमाणं तत्र सैव मे ।

तस्मात्कुरुष्व शपथं यदि शुश्रूषसे प्रिये ॥ ३५ ॥

यदि ऐसा नहीं है तो मैं तुमको नहीं बतलाऊँगा । इस विषय में वह (महाविद्या) ही प्रमाण है । इसलिये हे प्रिये ! यदि सुनना चाहती तो शपथ लो ॥ ३५ ॥

देव्युवाच-

शपे त्वच्चरणाब्जाभ्यां हिमाद्रिशिरसा शपे ।

शपे स्कन्दैकदन्ताभ्यां यद्येनामन्यतो ब्रुवे ॥ ३६ ॥

देवी ने कहा – (हे देव!) मैं तुम्हारे चरणकमलों की शपथ लेती हूँ । (अपने पूज्य पिता) हिमालय के शिर (मस्तक) की शपथ लेती हूँ। (अपने प्रिय पुत्रों) गणेश और स्कन्द की शपथ लेती हूँ कि मैं इस (महाविद्या) को अन्यत्र किसी को भी नहीं बतलाऊँगी ॥ ३६ ॥

शपेऽथवा तया देव्या यां मे त्वं कथयिष्यसि ।

प्रकाशयामि यद्येतां सैव मे विमुखी भवेत् ॥ ३७ ॥

अथवा उसी देवी की शपथ लेती हूँ जिसे तुम मुझे बतलाओगे । यदि मैं इसे (अन्यत्र) प्रकाशित करूँ तो वही मुझसे विमुख हो जाय ॥ ३७ ॥

[ सम्पूर्णग्रन्थस्य विषयाणां समष्ट्याभिधानम् ]

ग्रन्थ के सम्पूर्ण विषयों का साकल्येन निर्वचन –

महाकाल उवाच-

साधु साधु महाभागे प्रतीतिर्मेऽधुना त्वयि ।

अकार्षीः शपथं यस्मात्तस्माद् वक्ष्याम्यसंशयम् ॥ ३८ ॥

समाहिता सावधाना भव देवि वराङ्गने ।

विधेहि चित्तमेकाग्रं बध्यतामञ्जलिस्तथा ॥ ३९ ॥

महाकाल ने कहा- हे महाभागे ! धन्यवाद, अब मुझे तुम्हारे ऊपर पूर्ण विश्वास हो गया है। चूँकि तुमने शपथ ली इसलिये निःसन्देह अब मैं इसे तुमको बतलाऊँगा । हे देवि ! हे वराङ्गने ! तुम समाहित और सावधान हो जाओ। अब अपने चित्त को एकाग्र करो और हाथ जोड़ लो ।। ३८-३९ ॥

काली कामकलापूर्वी शृणुष्वावहिता मम ।

मन्त्रं ध्यानं तथा पूजां कवचं च निशामय ॥ ४० ॥

सहस्त्रनामस्तोत्रं च प्रयोगान् विविधानपि ।

सर्वं तेऽहं प्रवक्ष्यामि यद्यज्जानामि पार्वति ॥ ४१ ॥

ध्यान देकर मुझसे कामकलाकाली को सुनो। उसके मन्त्र ध्यान पूजा और कवच को सुनो। काली सहस्रनामस्तोत्र उसके अनेक प्रकार के प्रयोग जो-जो मुझे ज्ञात है, हे पार्वति! वह सब मैं तुमको बतलाऊँगा ॥ ४०-४१ ॥

काली नवविधा प्रोक्ता सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।

आद्या दक्षिणकाली सा भद्रकाली तथापरा ॥ ४२ ॥

अन्या श्मशानकाली च कालकाली चतुर्थिका ।

पञ्चमी गुह्यकाली च पूर्वं या कथिता मया ॥ ४३ ॥

षष्ठी कामकलाकाली सप्तमी धनकालिका ।

अष्टमी सिद्धिकाली च नवमी चण्डकालिका ॥ ४४ ॥

समस्त तन्त्रों में गोपित काली नव प्रकार की कही गयी है- १. दक्षिणकाली, २. भद्रकाली, ३. श्मशानकाली, ४. कालकाली, ५. गुह्यकाली जो कि मेरे द्वारा पहले ही बतलायी जा चुकी है, ६. कामकलाकाली, ७. धनकाली, ८. सिद्धिकाली और ९. चण्डकाली ॥ ४२-४४ ॥

तत्राद्या दक्षिणा काली पुरैव कथिता त्वयि ।

भद्रकाली च कथिता समन्त्रध्यानपूजना ॥ ४५ ॥

श्मशानकाल्या भेदास्तु डामरे प्रतिपादिताः ।

भीमातन्त्रे कालकालीमनुरुक्तो मया तव ॥ ४६ ॥

शास्त्रेऽस्मिन्नेव कथितो गुह्यकालीमहामनुः ।

या गुह्यकाली सैवेयं काली कामकलाभिधा ॥ ४७ ॥

उनमें से प्रथम दक्षिण काली को मैंने तुमको पहले ही बतला दिया है । भद्रकाली को भी मन्त्र ध्यान और पूजा के सहित बतलाया। श्मशानकाली के भेद डामरतन्त्र में प्रतिपादित हैं। कालकाली का मन्त्र मैंने तुमको भीमातन्त्र में बतलाया । गुह्यकाली का महामन्त्र इसी शास्त्र में कहा गया। जो गुह्यकाली है वही कामकला नामक काली है । ४५-४७ ॥

मन्त्रभेदाद् ध्यानभेदाद् भवेत् कामकलात्मिका ।

प्रयोगभेदतश्चापि पूजाया भेदतस्तथा ॥ ४८ ॥

यथा त्रिभेदा तारा स्यात्सुन्दरी सप्तसप्ततिः ।

दक्षिणा पञ्चभेदा स्यात्तथेयं गुह्यकालिका ॥ ४९ ॥

सप्तधा ध्यानमन्त्राभ्यां भिन्नाभ्यां भिन्नरूपिणी ।

यथा पञ्चाक्षरो मन्त्रो देवी चैकजटा स्मृता ॥ ५० ॥

द्वाविंशत्यक्षरो मन्त्रो देवी दक्षिणकालिका ।

तथान्येष्वपि भेदेषु तिष्ठत्सु बहुषु प्रिये ॥ ५१ ॥

देवी कामकलाकाली मनुरष्टादशाक्षरः ।

षोडशार्णा यथा मुख्या सर्वश्रीचक्रमध्यगा ॥ ५२ ॥

तथेयं नवकालीषु सदा मुख्यतमा स्मृता ।

[ आगामिपटलस्थविषयसंसूचनम् ]

त्रैलोक्याकर्षणो नाम मन्त्रोऽस्याः परिकीर्त्तितः ॥ ५३ ॥

आगामि पटलों के विषय का निरूपण - मन्त्रभेद, ध्यानभेद, पूजाभेद और प्रयोग के भेद से यह कामकला हो जाती है। जैसे तारा के तीन भेद हैं; त्रिपुरसुन्दरी (= षोडशी) के सतहत्तर भेद हैं; दक्षिण काली पाँच भेदों वाली है, उसी प्रकार यह गुह्यकाली भी भिन्न ध्यान और भिन्न मन्त्र के कारण भिन्न रूप से सात प्रकार की बतलाई गई हैं । जैसे कि जो पाँच अक्षरों वाला मन्त्र है उसकी देवी एकजटा कही गयी है। जो बाईस अक्षरों वाला मन्त्र है उसकी देवी दक्षिणकालिका है। हे प्रिये! इसी प्रकार वह अन्य बहुत भेदों वाली है। कामकला काली का मन्त्र अट्ठारह अक्षरों वाला बतलाया गया है। जैसे सम्पूर्ण श्रीचक्र के रहने वाली देवी सोलह वर्णों की है। और यही मुख्य है उसी प्रकार नवकालियों में यह (कामकला काली) मुख्यतम मानी गयी है । इसके मन्त्र का नाम त्रैलोक्याकर्षण कहा गया है ।। ४८-५३ ॥

तस्योद्धारं प्रवक्ष्यामि शृणु यत्नेन पार्वति ।

श्रुत्वा च धारयस्वैनं सर्वकल्याणहेतवे ॥ ५४ ॥

हे पार्वति ! उस (मन्त्र) का उद्धार बतला रहा हूँ । यत्नपूर्वक सुनो और सुनकर इसे लोककल्याण के लिये (हृदय में) धारण करो ॥ ५४ ॥

॥ इत्यादिनाथविरचितायां पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां विषयप्रवर्त्तननाम प्रथमः पटलः ॥ १ ॥

॥ इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित पचास हजार श्लोकों वाली महाकालसंहिता के कामकलाकाली खण्ड के मन्त्रमाहात्म्यादि नामक प्रथम पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई ॥ १ ॥

आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 2

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