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कृष्ण स्तोत्र इन्द्रकृत
इन्द्र द्वारा किये गये इस कृष्ण स्तोत्र का जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह इहलोक में श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और अन्त में निश्चय ही उनका दास्य-सुख प्राप्त कर लेता है। जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और शोक से छुटकारा पा जाता है और स्वप्न में भी कभी यमदूत तथा यमलोक को नहीं देखता।
कृष्ण स्तोत्रम् इन्द्रकृत
इन्द्र उवाच ।।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं
सनातनम् ।
गुणातीतं निराकारं
स्वेच्छामयमनंतकम् ।।१ ।।
भक्तध्यानाय सेवायै नानारूपधरं वरम्
।
शुक्लरक्तपीतश्यामं युगानुक्रमणेन च
।। २ ।।
शुक्लतेजःस्वरूपं च सत्ये
सत्यस्वरूपिणम् ।
त्रेतायां कुंकुमाकारं ज्वलंतं
ब्रह्मतेजसा ।। ३ ।।
द्वापरे पीतवर्णं च शोभितं पीतवाससा
।
कृष्णवर्णं कलौ कृष्णं परिपूर्णतमं
प्रभुम् ।। ४ ।।
नवधाराधरोत्कृष्टश्यामसुन्दरविग्रहम्
।
नन्दैकनन्दनं वन्दे यशोदानन्दनं प्रभुम्
।।५ ।।
गोपिकाचेतनहरं राधाप्राणाधिकं परम्
।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कौतुकेन
च ।।६ ।।
रूपेणाप्रतिमेनैव रत्नभूषणभूषितम् ।
कन्दर्पकोटिसौन्दर्यं बिभ्रतं
शान्तमीश्वरम् ।।७ ।।
क्रीडन्तं राधया सार्धं वृन्दारण्ये
च कुत्रचित् ।
कुत्रचिन्निर्जनेऽरण्ये राधावक्षःस्थलस्थितम्
।।८।।
जलक्रीडां प्रकुर्वन्तं राधया सह
कुत्रचित् ।
राधिकाकबरीभारं कुर्वन्तं
कुत्रचिद्वने ।। ९ ।।
कुत्रचिद्राधिकापादे
दत्तवन्तमलक्तकम् ।
सदा चर्वितताम्बूलं गृह्णन्तं
कुत्रचिन्मुदा ।।१० ।।
पश्यन्तं कुत्रचिद्राधां पश्यन्तीं
वक्रचक्षुषा ।
दत्तवन्तं च राधायै कृत्वा मालां च
कुत्रचित् ।। ११ ।।
कुत्रचिद्राधया सार्धं गच्छन्तं
रासमंडलम् ।
राधादत्तां गले मालां धृतवन्तं च
कुत्रचित् ।। १२ ।।
सार्धं गोपालिकाभिश्च विहरन्तं च
कुत्रचित् ।
राधां गृहीत्वा गच्छन्तं विहाय तां
च कुत्रचित् ।। १३ ।।
विप्रपत्नीदत्तमन्नं भुक्तवन्तं च
कुत्रचित् ।
भुक्तवन्तं तालफलं बालकैः सह
कुत्रचित् ।।१४ ।।
वस्त्रं गोपालिकानां च हरन्तं
कुत्रचिन्मुदा ।
गवां गणं व्याहरन्तं
कुत्रचिद्बालकैः सह ।। १५ ।।
कालीयमूर्ध्नि पादाब्जं दत्तवन्तं च
कुत्रचित् ।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं
कुत्रचिन्मुदा ।। १६ ।।
गायन्तं रम्यसङ्गीतं
कुत्रचिद्बालकैः सह ।
स्तुत्वा शक्रः स्तवेन्द्रेण
प्रणनाम हरिं भिया ।।१७ ।।
पुरा दत्तेन गुरुणा रणे वृत्रासुरेण
च ।
कृष्णेन दत्तं कृपया ब्रह्मणे च
तपस्यते ।।१८ ।।
एकादशाक्षरो मन्त्रः कवचं
सर्वलक्षणम् ।
दत्तमेतत्कुमाराय पुष्करे ब्रह्मणा
पुरा ।।१९।।
कुमारोऽङ्गिरसे दत्तं गुरवेऽङ्गिरसा
मुने ।
इदमिन्द्रकृतं स्तोत्रं नित्यं
भक्त्या च यः पठेत् ।। २० ।।
स हि प्राप्य दृढां भक्तिमन्ते
दास्यं लभेद्ध्रुवम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकेभ्यो
मुच्यते नरः ।।
न हि पश्यति स्वप्नेऽपि यमदूतं
यमालयम् ।।२१ ।।
इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे
श्रीकृष्णजन्मखण्डे कृष्ण स्तोत्रम् इन्द्रकृत सम्पूर्णं
।।२१।।
इन्द्रकृत कृष्ण स्तोत्र भावार्थ सहित
इन्द्र उवाच ।।
अक्षरं परमं ब्रह्म ज्योतीरूपं
सनातनम् ।
गुणातीतं निराकारं
स्वेच्छामयमनंतकम् ।।१ ।।
इन्द्र बोले–
जो अविनाशी, परब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप,
सनातन, गुणातीत, निराकार,
स्वेच्छामय और अनन्त हैं;
भक्तध्यानाय सेवायै नानारूपधरं वरम्
।
शुक्लरक्तपीतश्यामं युगानुक्रमणेन च
।। २ ।।
जो भक्तों के ध्यान तथा आराधना के
लिये नाना रूप धारण करते हैं; युग के अनुसार
जिनके श्वेत, रक्त, पीत और श्याम वर्ण
हैं;
शुक्लतेजःस्वरूपं च सत्ये
सत्यस्वरूपिणम् ।
त्रेतायां कुंकुमाकारं ज्वलंतं
ब्रह्मतेजसा ।। ३ ।।
सत्ययुग में जिनका स्वरूप शुक्ल
तेजोमय है तथा उस युग में जो सत्यस्वरूप हैं; त्रेता
में जिनकी अंगकान्ति कुंकुम के समान लाल है और जो ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान रहते
हैं,
द्वापरे पीतवर्णं च शोभितं पीतवाससा
।
कृष्णवर्णं कलौ कृष्णं परिपूर्णतमं
प्रभुम् ।। ४ ।।
द्वापर में जो पीत कान्ति धारण करके
पीताम्बर से सुशोभित होते हैं; कलियुग में
कृष्णवर्ण होकर ‘कृष्ण’ नाम धारण करते
हैं; इन सब रूपों में जो एक ही परिपूर्णतम परमात्मा हैं;
नवधाराधरोत्कृष्टश्यामसुन्दरविग्रहम्
।
नन्दैकनन्दनं वन्दे यशोदानन्दनं
प्रभुम् ।।५ ।।
जिनका श्रीविग्रह नूतन जलधर के समान
अत्यन्त श्याम एवं सुन्दर है; उन नन्दनन्दन
यशोदा कुमार भगवान गोविन्द की मैं वन्दना करता हूँ।
गोपिकाचेतनहरं राधाप्राणाधिकं परम्
।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं कौतुकेन
च ।।६ ।।
जो गोपियों का चित्त चुराते हैं तथा
राधा के लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, जो
कौतूहलवश विनोद के लिये मुरली की ध्वनि का विस्तार करते रहते हैं,
रूपेणाप्रतिमेनैव रत्नभूषणभूषितम् ।
कन्दर्पकोटिसौन्दर्यं बिभ्रतं
शान्तमीश्वरम् ।।७ ।।
जिनके रूप की कहीं तुलना नहीं है,
जो रत्नमय आभूषणों से विभूषित हो कोटि-कोटि कन्दर्पों का सौन्दर्य
धारण करते हैं; उन शान्त-स्वरूप परमेश्वर को मैं प्रणाम करता
हूँ।
क्रीडन्तं राधया सार्धं वृन्दारण्ये
च कुत्रचित् ।
कुत्रचिन्निर्जनेऽरण्ये
राधावक्षःस्थलस्थितम् ।।८।।
जो वृन्दावन में कहीं राधा के पास
क्रीड़ा करते हैं, कहीं निर्जन स्थल में
राधा के वक्ष: स्थल पर विराजमान होते हैं,
जलक्रीडां प्रकुर्वन्तं राधया सह
कुत्रचित् ।
राधिकाकबरीभारं कुर्वन्तं
कुत्रचिद्वने ।। ९ ।।
कहीं राधा के साथ जलक्रीड़ा करते
हैं,
कहीं वन में राधिका के केश-कलापों की चोटी गूंथते हैं,
कुत्रचिद्राधिकापादे
दत्तवन्तमलक्तकम् ।
सदा चर्वितताम्बूलं गृह्णन्तं
कुत्रचिन्मुदा ।।१० ।।
कहीं राधिका के चरणों में महावर
लगाते हैं, कहीं राधिका के चबाये हुए
ताम्बूल को सानन्द ग्रहण करते हैं,
पश्यन्तं कुत्रचिद्राधां पश्यन्तीं
वक्रचक्षुषा ।
दत्तवन्तं च राधायै कृत्वा मालां च
कुत्रचित् ।। ११ ।।
कहीं बाँके नेत्रों से देखती हुई
राधा को स्वयं निहारते हैं, कहीं फूलों की माला
तैयार करके राधिका को अर्पित करते हैं,
कुत्रचिद्राधया सार्धं गच्छन्तं
रासमंडलम् ।
राधादत्तां गले मालां धृतवन्तं च
कुत्रचित् ।। १२ ।।
कहीं राधा के साथ रासमण्डल में जाते
हैं,
कहीं राधा की दी हुई माला को अपने कण्ठ में धारण करते हैं,
सार्धं गोपालिकाभिश्च विहरन्तं च
कुत्रचित् ।
राधां गृहीत्वा गच्छन्तं विहाय तां
च कुत्रचित् ।। १३ ।।
कहीं गोपाङ्गनाओं के साथ विहार करते
हैं,
कहीं राधा को साथ लेकर चल देते हैं और कहीं उन्हें भी छोड़कर चले
जाते हैं।
विप्रपत्नीदत्तमन्नं भुक्तवन्तं च
कुत्रचित् ।
भुक्तवन्तं तालफलं बालकैः सह
कुत्रचित् ।।१४ ।।
जिन्होंने कहीं ब्राह्मणपत्रियों के
दिये हुए अन्न का भोजन किया है और कहीं बालकों के साथ ताड़का फल खाया है;
वस्त्रं गोपालिकानां च हरन्तं
कुत्रचिन्मुदा ।
गवां गणं व्याहरन्तं
कुत्रचिद्बालकैः सह ।। १५ ।।
जो कहीं आनन्दपूर्वक गोप-किशोरियों के
चित्त चुराते हैं, कहीं ग्वालबालों के
साथ दूर गयी हुई गौओं को आवाज देकर बुलाते हैं,
कालीयमूर्ध्नि पादाब्जं दत्तवन्तं च
कुत्रचित् ।
विनोदमुरलीशब्दं कुर्वन्तं
कुत्रचिन्मुदा ।। १६ ।।
गायन्तं रम्यसङ्गीतं
कुत्रचिद्बालकैः सह ।
जिन्होंने कहीं कालियनाग के मस्तक पर
अपने चरणकमलों को रखा है और जो कहीं मौज में आकर आनन्द- विनोद के लिये मुरली की
तान छेड़ते हैं तथा कहीं ग्वालबालों के साथ मधुर गीत गाते हैं ;
उन परमात्मा श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करता हूँ।
कृष्ण स्तोत्रम् इन्द्रकृत फलश्रुति
स्तुत्वा शक्रः स्तवेन्द्रेण
प्रणनाम हरिं भिया ।।१७ ।।
पुरा दत्तेन गुरुणा रणे वृत्रासुरेण
च ।
इस स्तवराज से स्तुति करके इन्द्र
ने श्रीहरि को भय से प्रणाम किया। पूर्वकाल में वृत्रासुर के साथ युद्ध के समय
गुरु बृहस्पति ने इन्द्र को यह स्तोत्र दिया था।
कृष्णेन दत्तं कृपया ब्रह्मणे च
तपस्यते ।।१८ ।।
एकादशाक्षरो मन्त्रः कवचं
सर्वलक्षणम् ।
सबसे पहले श्रीकृष्ण ने तपस्वी
ब्रह्मा को कृपापूर्वक एकादशाक्षर-मन्त्र, सब
लक्षणों से युक्त कवच और यह स्तोत्र दिया था।
दत्तमेतत्कुमाराय पुष्करे ब्रह्मणा
पुरा ।।१९।।
कुमारोऽङ्गिरसे दत्तं गुरवेऽङ्गिरसा
मुने ।
फिर ब्रह्मा ने पुष्कर में कुमार को,
कुमार ने अंगिरा को और अंगिरा ने बृहस्पति को इसका उपदेश दिया था।
इदमिन्द्रकृतं स्तोत्रं नित्यं
भक्त्या च यः पठेत् ।। २० ।।
स हि प्राप्य दृढां भक्तिमन्ते
दास्यं लभेद्ध्रुवम् ।
इन्द्र द्वारा किये गये इस स्तोत्र
का जो प्रतिदिन भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह
इहलोक में श्रीहरि की सुदृढ़ भक्ति और अन्त में निश्चय ही उनका दास्य-सुख प्राप्त
कर लेता है।
जन्ममृत्युजराव्याधिशोकेभ्यो
मुच्यते नरः ।।
न हि पश्यति स्वप्नेऽपि यमदूतं
यमालयम् ।।२१ ।।
जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि और शोक से
छुटकारा पा जाता है और स्वप्न में भी कभी यमदूत तथा यमलोक को नहीं देखता।
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