recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

वृन्दावन

वृन्दावन

मथुरा में स्थित वृन्दावन को भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का स्थान माना जाता है। वृन्दावन को 'ब्रज का हृदय' कहते हैं।

वृन्दावन मथुरा से 12 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर-पश्चिम में यमुना तट पर स्थित है। यह कृष्ण की लीलास्थली है। हरिवंश पुराण, श्रीमद्भागवत, विष्णु पुराण आदि में वृन्दावन की महिमा का वर्णन किया गया है। कालिदास ने इसका उल्लेख रघुवंश में इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में शूरसेनाधिपति सुषेण का परिचय देते हुए किया है।

'संभाव्य भर्तारममुंयुवानंमृदुप्रवालोत्तरपुष्पशय्ये,

वृन्दावने चैत्ररथादनूनं निर्विशयतां संदरि यौवनश्री' -रघुवंश 6,50

 इससे कालिदास के समय में वृन्दावन के मनोहारी उद्यानों की स्थिति का ज्ञान होता है। श्रीमद्भागवत के अनुसार गोकुल से कंस के अत्याचार से बचने के लिए नंद जी कुटुंबियों और सजातियों के साथ वृन्दावन निवास के लिए आये थे।

वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननं

गोपगोपीगवां सेव्य पुण्याद्रितृणवीरूधम् ।

तत्तत्राद्यैव यास्याम: शकटान्युड्क्तमाचिरम् ,

गोधनान्यग्रतो यान्तु भवतां यदि रोचते ।

वृन्दावन सम्प्रविष्य सर्वकालसुखावहम्,

तत्र चकु: व्रजावासं शकटैरर्धचन्द्रवत्।

वृंदावन गोवर्धनं यमुनापुलिनानि च,

वीक्ष्यासीदुत्तमाप्रीती राममाधवयोर्नृप' -श्रीमद्भागवत, 10,11,28-29-35-36 ।

 विष्णु पुराण में इसी प्रसंग का उल्लेख है।

'वृन्दावन भगवता कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा

शुभेण मनसाध्यातं गवां सिद्धिमभीप्सता । -'विष्णुपुराण 5,6,28

 विष्णुपुराण में अन्यत्र वृन्दावन में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन भी है। आदि।

'यथा एकदा तु विना रामं कृष्णो वृन्दावन ययु:' दे. -विष्णुपुराण 5,13,24

प्राचीन वृन्दावन

कहते है कि वर्तमान वृन्दावन असली या प्राचीन वृन्दावन नहीं है। श्रीमद्भागवत के वर्णन

वनं वृन्दावनं नाम पशव्यं नवकाननम् ।

गोपगोपीगवां सेव्यं पुण्याद्रितृणवीरूधम् ॥ (श्रीमद्भभागवत 10/11/28

 तद् भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां यद् गोकुलेऽपि कतमाड्घ्रिरजोऽभिषेकम् ।

चज्जीवितं तु निखिलं भगवान् मुकुन्द-स्त्वद्यापि यत्पदरज: श्रुतिमृग्यमेव ॥(श्रीमद्भभागवत 10/14/34)

 आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।

या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ॥ (श्रीमद्भभागवत 10/47/61)

 पुण्या बत ब्रजभुवो यदयं नृलिंग- गूढ: पुराणपुरुषो वनचित्रमाल्य:।

गा: पालयन् सहबल: क्वणयंश्चवेणुं विक्रीड़यांचति गिरित्ररमार्चिताड्घ्रि: ॥ (श्रीमद्भभागवत 10/44/13)

 वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्ति यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि।

गोविन्दवेणुमनुमत्तमयूरनृत्यं प्रेक्ष्याद्रिसान्वपरतान्यसमस्तसत्त्वम् ॥ (श्रीमद्भभागवत 10/21/10)

 बर्हापीडं नटवरपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद् वास: कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।

रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: ॥(श्रीमद्भभागवत 10/21/5)

 वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति' (ब्रह्मयामल

तथा अन्य उल्लेखों से जान पड़ता है कि प्राचीन वृन्दावन गोवर्धन के निकट था। गोवर्धन-धारण की प्रसिद्ध कथा की स्थली वृन्दावन पारसौली (परम रासस्थली) के निकट था। अष्टछाप कवि सूरदास इसी ग्राम में दीर्घकाल तक रहे थे। सूरदास जी ने वृन्दावन रज की महिमा के वशीभूत होकर गाया है-

हम ना भई वृन्दावन रेणु, हम ना भई वृन्दावन रेणु।

तिन चरनन डोलत नंद नन्दन नित प्रति चरावत धेनु।

हम ते धन्य परम ये द्रुम वन बाल बच्छ अरु धेनु।

सूर सकल खेलत हँस बोलत संग मध्य पीवत धेनु॥ -सूरदास

साभार krishnakosh.org

वृन्दावन

वृन्दावन

भारतवर्ष में इस कानन का नाम वृन्दावनक्यों हुआ? इसकी व्युत्पत्ति अथवा संज्ञा क्या है?

पहले सत्ययुग की बात है। राजा केदार सातों द्वीपों के अधिपति थे। वे सदा सत्य धर्म में तत्पर रहते थे और अपनी स्त्रियों तथा पुत्र-पौत्रवर्ग के साथ सानन्द जीवन बिताते थे। उन धार्मिक नरेश ने समस्त प्रजाओं का पुत्रों की भाँति पालन किया। सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके भी राजा केदार ने इन्द्र पद पाने की इच्छा नहीं की। वे नाना प्रकार के पुण्यकर्म करके भी स्वयं उनका फल नहीं चाहते थे। उनका सारा नित्यनैमित्तिक कर्म श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये होता था। केदार के समान राजाधिराज न तो कोई पहले हुआ है और न पुनः होगा ही। उन्होंने अपनी त्रिभुवन मोहिनी पत्नी तथा राज्य की रक्षा का भार पुत्रों पर रखकर जैगीषव्य मुनि के उपदेश से तपस्या के लिये वन को प्रस्थान किया। वे श्रीहरि के अनन्य भक्त थे और निरन्तर उन्हीं का चिन्तन करते थे। मुने! भगवान का सुदर्शन चक्र राजा की रक्षा के लिये सदा उन्हीं के पास रहता था। वे मुनिश्रेष्ठ नरेश चिरकाल तक तपस्या करके अन्त में गोलोक को चले गये। उनके नाम से केदारतीर्थ प्रसिद्ध हुआ। अवश्य ही आज भी वहाँ मरे हुए प्राणी को तत्काल मुक्तिलाभ होता है।

उनकी कन्या का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मी की अंश थी। उसने योगशास्त्र में निपुण होने के कारण किसी को अपना पुरुष नहीं बनाया। दुर्वासा ने उसे परम दुर्लभ श्रीहरि का मन्त्र दिया। वह घर छोड़कर तपस्या के लिये वन में चली गयी। उसने साठ हजार वर्षों तक निर्जन वन में तपस्या की। तब उसके सामने भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने प्रसन्नमुख से कहा– ‘देवि! तुम कोई वर माँगो।वह सुन्दर विग्रह वाले शान्तस्वरूप राधिका-कान्त को देखकर सहसा बोल उठी– ‘तुम मेरे पति हो जाओ।उन्होंने तथास्तुकहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। वह कौतूहलवश श्रीकृष्ण के साथ गोलोक में गयी और वहाँ राधा के समान श्रेष्ठ सौभाग्यशालिनी गोपी हुई। वृन्दा ने जहाँ जप किया था, उस स्थान का नाम वृन्दावनहुआ। अथवा वृन्दा ने जहाँ क्रीड़ा की थी, इसलिये वह स्थान वृन्दावनकहलाया।

दूसरा पुण्यदायक इतिहास

जिससे इस कानन का नाम वृन्दावनपड़ा।

राजा कुशध्वज के दो कन्याएँ थीं। दोनों ही धर्मशास्त्र के ज्ञान में निपुण थीं। उनके नाम थेतुलसी और वेदवती। संसार चलाने का जो कार्य है, उससे उन दोनों बहिनों को वैराग्य था। उनमें से वेदवती ने तपस्या करके परम पुरुष नारायण को प्राप्त किया। वह जनककन्या सीता के नाम से सर्वत्र विख्यात है। तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, किंतु दैववश दुर्वासा के शाप से उसने शंखचूड़ को प्राप्त किया।

फिर परम मनोहर कमलाकान्त भगवान नारायण उसे प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त हुए। भगवान श्रीहरि के शाप से देवेश्वरी तुलसी वृक्षरूप में प्रकट हुई और तुलसी के शाप से श्रीहरि शालग्रामशिला हो गये। उस शिला के वक्षःस्थल पर उस अवस्था में भी सुन्दरी तुलसी निरन्तर स्थित रहने लगीं। तुलसी की तपस्या का एक यह भी स्थान है; इसलिये इसे मनीषी पुरुष वृन्दावनकहते हैं। (तुलसी और वृन्दा समानार्थक शब्द हैं) अथवा मैं तुमसे दूसरा उत्कृष्ट हेतु बता रहा हूँ, जिससे भारतवर्ष का यह पुण्यक्षेत्र वृन्दावन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राधा के सोलह नामों में एक वृन्दा नाम भी है, जो श्रुति में सुना गया है। उन वृन्दा नामधारिणी राधा का यह रमणीय क्रीड़ा-वन है; इसलिये इसे वृन्दावनकहा गया है। पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा की प्रीति के लिये गोलोक में वृन्दावन का निर्माण किया था। फिर भूतल पर उनकी क्रीड़ा के लिये प्रकट हुआ वह वन उस प्राचीन नाम से ही वृन्दावनकहलाने लगा।

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]