परशुरामकृत कालीस्तवन
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस
परशुरामकृत कालीस्तवन स्तोत्र का पाठ करता है, वह
अनायास ही महान भय से छूट जाता है। वह त्रिलोकी में पूजित, त्रैलोक्यविजयी,
ज्ञानियों में श्रेष्ठ और शत्रुपक्ष का विमर्दन करने वाला हो जाता
है।
परशुरामकृत कालीस्तवन स्तोत्र
युद्ध में मत्स्यराज के गिर जाने पर
महाराज कार्तवीर्य के भेजे हुए बृहद्बल, सोमदत्त,
विदर्भ, मिथिलेश्वर, निषधराज,
मगधाधिपति एवं कान्यकुब्ज, सौराष्ट्र, राढीय, वारेन्द्र, सौम्य बंगीय,
महाराष्ट्र, गुर्जरजातीय और कलिंग आदि के
सैकड़ों-सैकड़ों राजा बारह अक्षौहिणी सेना के साथ आये; परंतु
परशुराम जी ने सबको रणभूमि में सुला डाला। यह देखकर एक लाख नरपतियों के साथ बारह
अक्षौहिणी सेना लेकर राजा सुचन्द्र रणस्थल में आये। सुचन्द्र के साथ भयानक युद्ध
हुआ, पर वे परास्त न हो सके। तब परशुराम ने देखा कि
मुण्डमाला धारण किये हुए विकटानना भयंकारी जगज्जननी भद्रकाली उनकी रक्षा कर रही
हैं। यह देखकर परशुराम ने शस्त्रास्त्र का त्याग करके महामाया की स्तुति आरम्भ की।
अथ कालीस्तवन
परशुराम उवाच–
नमः शंकरकान्तायै सारायै ते नमो
नमः।
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः।।
नमो नमो जगद्धात्र्यै
जगत्कर्त्र्यै नमो नमः।
नमोऽस्तु ते जगन्मात्रे कारणायै नमो
नमः।।
प्रसीद जगतां मातः
सृष्टिसंहारकारिणि ।
त्वत्पादे शरणं यामि प्रतिज्ञां
सार्थिकां कुरु ।।
त्वयि मे विमुखायां च को मां
रक्षितुमीश्वरः।
त्वं प्रसन्ना भव शुभे मां भक्तं
भक्तवत्सले।।
परशुरामकृत कालीस्तवन भावार्थ सहित
परशुराम उवाच–
नमः शंकरकान्तायै सारायै ते नमो
नमः।
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो
नमः।।
परशुराम बोले–
आप शंकर जी की प्रियतमा पत्नी हैं, आपको
नमस्कार है। सारस्वरूपा आपको बारंबार प्रणाम है। दुर्गतिनाशिनी को मेरा अभिवादन
है। मायारूपा आपको मैं बारंबार सिर झुकाता हूँ।
नमो नमो जगद्धात्र्यै
जगत्कर्त्र्यै नमो नमः।
नमोऽस्तु ते जगन्मात्रे कारणायै नमो
नमः।।
जगद्धात्री को नमस्कार-नमस्कार।
जगत्कर्त्री को पुनः-पुनः प्रणाम। जगज्जननी को मेरा नमस्कार प्राप्त हो। कारणरूपा
आपको बारंबार अभिवादन है।
प्रसीद जगतां मातः
सृष्टिसंहारकारिणि ।
त्वत्पादे शरणं यामि प्रतिज्ञां
सार्थिकां कुरु ।।
सृष्टि का संहार करने वाली
जगन्माता! प्रसन्न होइये। मैं आपके चरणों की शरण ग्रहण करता हूँ,
मेरी प्रतिज्ञा सफल कीजिये।
त्वयि मे विमुखायां च को मां
रक्षितुमीश्वरः।
त्वं प्रसन्ना भव शुभे मां भक्तं
भक्तवत्सले ।।
मेरे प्रति आपके विमुख हो जाने पर
कौन मेरी रक्षा कर सकता है? भक्तवत्सले! शुभे!
आप मुझ भक्त पर कृपा कीजिये।
युष्माभिः शिवलोके च मह्यं दत्तो
वरः पुरा ।
तं वरं सफलं कर्तुं त्वमर्हसि
वरानने।।
सुमुखि! पहले शिवलोक में आप लोगों
ने मुझे जो वरदान दिया था, उस वर को आपको सफल
करना चाहिये।
जामदग्न्यस्तवं श्रुत्वा
प्रसन्नाभवदम्बिका ।
मा भैरित्येवमुक्त्वा तु
तत्रैवान्तरधीयत।।
परशुराम द्वारा किये गये इस स्तवन
को सुनकर अम्बिका का मन प्रसन्न हो गया और ‘भय
मत करो’ यों कहकर वे वहीं अन्तर्धान हो गयीं।
एतद् भृगुकृतं स्तोत्रं
भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ।
महाभयात् समुत्तीर्णः स भवेदवलीलया ।।
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस
परशुरामकृत स्तोत्र का पाठ करता है, वह
अनायास ही महान भय से छूट जाता है।
स पूजितश्च त्रैलोक्ये
त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
ज्ञानिश्रेष्ठो भवेच्चैव
वैरिपक्षविमर्दकः।।
वह त्रिलोकी में पूजित,
त्रैलोक्यविजयी, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और
शत्रुपक्ष का विमर्दन करने वाला हो जाता है।
इस प्रकार ब्रह्म वैवर्त पुराण गणपतिखण्ड 36। 29-36) पूर्ण हुआ ।।
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