रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham
dvitiya sarg
महाकवि कालिदास जी की महाकाव्य
रघुवंशम् प्रथम सर्ग में आपने पढ़ा कि-महाराज दिलीप व उनकी पत्नी सुदक्षिणा गुरु
वशिष्ठ के आश्रम में रात बिताया। अब इससे आगे की कथा रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham
dvitiya sarg में पढ़ेंगे-
रघुवंशम्
द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg
रघुवंशम् महाकाव्यम् । द्वितीयः सर्गः।
॥ अथ रघुवंशम् सर्ग २
कालिदासकृतम् ॥
अथ प्रजानामधिपः प्रभाते जायाप्रतिग्राहितगन्धमाल्याम् ।
वनाय पीतप्रतिबद्धवत्सां यशोधनो धेनुमृषेर्मुमोच ॥२-१॥
रात के बीत जाने पर प्रातःकाल
प्रजाओं के पालन करने वाले, यश को ही धन समझने
वाले राजा दिलीप ने रानी सुदक्षिणा के द्वारा पूजन में प्राप्त चन्दन और पुष्पों की
माला को धारण की हुई, दूध पी चुकने के बाद जिसका बछड़ा बांध
दिया गया है, ऐसी ऋषि वशिष्ठ की नई व्याही हुई नन्दिनी नाम
गौ को जङ्गल में चरने के लिये खोल दिया ॥१॥
तस्याः खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्तनीया।
मार्गं मनुष्येश्वरधर्मपत्नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्॥२॥
पतिव्रताओं में अग्रिणी राजा दिलीप
की पत्नी सुदक्षिणा ने नन्दिनी के खुरों के रखने से पवित्र धूलि वाले मार्ग का उसी
भांति अनुसरण किया जैसे मन्वादि स्मृतियाँ वेद के वाक्यों के अर्थों का अनुसरण
करती हैं ॥२॥
निवर्त्य राजा दयितां दयालुस्तां
सौरभेयीं सुरभिर्यशोभिः ।
पयोधरीभूतचतुःसमुद्रां जुगोप
गोरूपधरामिवोर्वीम् ॥ २-३॥
दया से युक्त कीर्तियों से सुशाभित
राजा दिलाप प्यारी पटरानी सुदक्षिणा को लौटा कर जिस के दूध से चारों समुद्र
तिरस्कृत हैं ऐसी उस नन्दिनी की, चार समुद्रों
को चार स्तनों के रूप में धारण की हुई गौ के रूप में उपस्थित पृथ्वी की भांति
रक्षा करने लगे ॥३॥
व्रताय तेनानुचरेण धेनोर्न्यषेधि
शेषोऽप्यनुयायिवर्गः ।
न चान्यतस्तस्य शरीररक्षा
स्ववीर्यगुप्ता हि मनोः प्रसूतिः ॥ २-४॥
गोसेवा व्रत पालन करने के लिये सेवक
का भांति पीछे २ चलने वाले उन 'राजा दिलीप'
ने 'सुदक्षिणा' के
लौटाने के बाद बचे हुये अनुचर वर्ग को भी पीछे पीछे आने से रोका और उनको शरीर की
रक्षा करने के लिये भी दूसरे पुरुष की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि 'वैवस्वत मनु के वंश में उत्पन्न राजा लोग अपने ही पराक्रम से आत्मरक्षा कर
लेते थे ॥ ४॥
आस्वादवद्भिः कवलैस्तृणानां
कन्डूयनैर्दंशनिवारणैःश्च ।
अव्याहतैः स्वैरगतैश्च तस्याः
सम्राट् समाराधनतत्परोऽभूत् ॥ २-५॥
चक्रवर्ती राजा दिलीप स्वादयुक्त
कोमल २ तृणों के ग्रासों से शरीर के खुजलाने से, वन के मच्छड़ों के बैठने पर उसे' उड़ाने से और बिना
रुकावट के स्वच्छन्द फिरने देने से उस 'नन्दिनी' को प्रसन्न करने में तत्पर हुये ॥५॥
स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां
निषेदुषीमासनबन्धधीरः ।
जलाभिलाषी जलमाददानां छायेव तां
भूपतिरन्वगच्छत् ॥ २-६॥
पृथ्वीपति राजा दिलीप'
ने उस नन्दिनी के ठहरने पर ठहरते थे, चलने पर
चलते थे, बैठने पर बैठते थे, जल पीने
पर जल पीते थे, इस प्रकार छाया की भांति अनुसरण किया ॥ ६॥
स न्यस्तचिह्नामपि राजलक्ष्मीं
तेजोविशेषानुमितां दधान ।
आसीदनाविष्कृतदानराजिरन्तर्मदावस्थ
इव द्विपेन्द्रः ॥ २-७॥
यद्यपि छत्र-चामरादि चिन्हों से
भूषित नहीं है तथापि अपने तेज की अधिकता से ही जानी जाती हुई राजलक्ष्मी को धारण
करते हुये, प्रकट रूप से नहीं दिखाई पड़
रही है मदरेखा जिसकी, अत एव भीतर में स्थित है मद की अवस्था
जिसकी, ऐसे गजराज की भांति मालूम पड़ते थे ॥ ७॥
लताप्रतानोद्ग्रथितैः स
केशैरधिज्यधन्वा विचचार दावम् ।
रक्षापदेशान्मुनिहोमधेनोर्वन्यान्विनेष्यन्निव
दुष्टसत्त्वान् ॥ २-८॥
लताओं के टेढ़े २ सूत के समान
शाखादिकों से उलझे हुये शिर के बालों से सुशोभित वे राजा दिलीप प्रत्यञ्चा चढ़े
हुये धनुष को धारण किये हुये वशिष्ठ महर्षि के होम की सामग्री घृतादि देने वाली
नन्दिनी की रक्षा करने के ब्याज से वनैले दुष्ट 'व्याघ्रादि' जीवों का शासन करने के लिये मानो जङ्गल
में घूम रहे थे ॥ ८॥
विसृष्टपार्श्वानुचरस्य तस्य
पार्श्वद्रुमाः पाशभृता समस्य ।
उदीरयामासुरिवोन्मदानामालोकशब्दं
वयसां विरावैः ॥ २-९॥
पार्श्ववर्ती अनुचरवृन्द के छोड़
देने पर भी वरुण के समान 'प्रभावशाली उन राजा
दिलीप के आसपास के वृक्षों ने उन्मत्त पक्षियों के शब्दों द्वारा जयशब्द उच्चारण
किया ऐसा मालूम पड़ता था ॥९॥
मरुत्प्रयुक्ताश्च मरुत्सखाभं
तमर्च्यमारादभिवर्तमानम् ।
अवाकिरन्बाललताः
प्रसूनैराचारलाजैरिव पौरकन्याः ॥ २-१०॥
वायु से प्रेषित ( हिलाई गई) कोमल २
लताओं ने अग्नितुल्य ( तेजस्वी ) समीप में स्थित, पूज्य उन (राजा दिलीप ) के ऊपर फूलों की वर्षा की, जैसे
कि नगरवासियों की कन्यायें मङ्गलार्थक धान के लावों की वर्षा करती हैं ॥१०॥
धनुर्भृतोऽप्यस्य
दयार्द्रभावमाख्यातमन्तःकरणैर्विशङ्कैः ।
विलोकयन्त्यो वपुरापुरक्ष्णां प्रकामविस्तारफलं
हरिण्यः ॥ २-११॥
धनुष को धारण किये हुये भी राजा
दिलीप का शङ्का से शून्य अपने अन्तःकरणों के दारा दया से आर्द्र अभिप्राय मालूम
पड़ने से उनके शरीर को विशेष रूप से देखती हुई हरिणियों ने अपने अपने आँखों का
अत्यन्त बड़े होने का फल प्राप्त किया ॥ ११ ॥
स कीचकैर्मारुतपूर्णरन्ध्रैः
कूजद्भिरापादितवंशकृत्यम् ।
शुश्राव कुञ्जेषु यशः
स्वमुच्चैरुद्गीयमानं वनदेवताभिः ॥ २-१२॥
उन राजा दिलीप ने वायु से भरे हुये
छिद्रों के होने से शब्द करते हुये कीचक संज्ञक बांसों के द्वारा वंशी का कार्य
सम्पादन जिसमें हो रहा है, ऐसे लतागृहों में
वन को अधिष्ठात्री देवियों से ऊँचे स्वरों में गाये जाते हुए अपने यश को सुना ॥ १२
॥
पृक्तस्तुषारैर्गिरिनिर्झराणमनोकहाकम्पितपुष्पगन्धी
।
तमातपक्लान्तमनातपत्रमाचारपूतं पवनो
निषेवे ॥ २-१३॥
पहाड़ी झरनों के जलबिन्दुओं से
युक्त,
अत एव शीतल तथा वृक्षों के कुछ २ हिले हुये फूलों के गन्ध को लेता
हुआ 'मन्द २ सुगन्धित' वायु, व्रत करने से छत्र से रहित अत एव घाम से मुरझाये हुये, सदाचार से पवित्र उन राजा दिलीप की सेवा करने लगा ॥१३॥
शशाम वृष्ट्यापि विना
दवाग्निरासीद्विशेषा फलपुष्पवृद्धिः ।
ऊनं न सत्त्वेष्वधिको बबाधे
तस्मिन्वनं गोप्तरि गाहमाने ॥ २-१४॥
जगत् के रक्षा करने वाले उन राजा
दिलीप के वन में प्रवेश करने पर वृष्टि के बिना ही वन की अग्नि शान्त हुई,
फल और पुष्पों की वृद्धि अधिक हुई तथा वनैले जीवों के बीच में कोई
बलवान् 'व्याघ्रादि' अपने से निर्बल
किसी 'मृगादि' को नहीं सताने लगा ॥१४॥
संचारपूतानि दिगन्तराणि कृत्वा
दिनान्ते निलयाय गन्तुम् ।
प्रचक्रमे पल्लवरागताम्रा प्रभा
पतंगस्य मुनेश्च धेनुः ॥ २-१५॥
पल्लव के वर्ण के तरह लाल वर्ण वाली
सूर्य की प्रभा और मुनि वसिष्ठ की घेनू ये दोनों, दिशाओं के मध्यभाग को अपने २ सञ्चार से पवित्र कर दिन के अन्त ( सध्याकाल
) में अस्त होने के लिये तथा अपने आश्रम से पहुँचने के लिये उपक्रम करने लगीं ॥
१५॥
तां
देवतापित्रतिथिक्रियार्थामन्वग्ययौ मध्यमलोकपालः ।
बभौ च सा तेन सतां मतेन श्रद्धेव
साक्षाद्विधिनोपपन्ना ॥ २-१६॥
भूलोक के पालन करने वाले राजा दिलीप
देवता,
पितर और अतिथि लोगों के कार्यों ( यज्ञ-श्राद्ध-भोजनादि ) को साधने
वाली, उस धेनु के पीछे पीछे चले और सज्जनों के द्वारा पूजित
उनसे युक्त, वह (नन्दिनी) भी सज्जनों से किये गये अनुष्ठान
से युक्त श्रद्धा जैसी सुशोभित होती है वैसी सुशोभित होने लगी ॥ १६ ॥
स
पल्वलोत्तीर्णवराहयूथान्यावासवृक्षोन्मुखबर्हिणानि ।
ययौ मृगाध्यासितशाद्वलानि
श्यामायमानानि वनानि पश्यन् ॥ २-१७॥
वे राजा दिलीप,
छोटे २ तालाबों से निकले हुए वनैले सूअरों के झुण्डवाले, अपने २ आवासयोग्य वृक्षों के तरफ 'जाने के लिये'
उन्मुख मयूरों वाले तथा हरिण जिन पर बैठे हुए हैं ऐसे घासों से हरे
प्रदेश, 'अत एव सर्वत्र' श्याम ही
श्याम वनों को देखते हुए जाने लगे ॥१७॥
आपीनभारोद्वहनप्रयत्नाद्गृष्टिर्गुरुत्वाद्वपुषो
नरेन्द्रः ।
उभावलंचक्रतुरञ्चिताभ्यां
तपोवनावृत्तिपथं गताभ्याम् ॥ २-१८।
पहिला बार की ब्याही हुई नन्दिनी और
राजा दिलीप इन दोनों ने क्रम से (नन्दिनी) स्तनों के भार के धारण करने में प्रयास
करने के कारण से तथा (राजा दिलीप) शरीर की स्थूलता के कारण से अपने २ सुन्दर गमन
से तपोवन से लौटने के मार्ग को सुशोभित किया ॥ १८ ॥
वसिष्ठधेनोरनुयायिनं तमावर्तमानं
वनिता वनान्तात् ।
पपौ
निमेषालसपक्ष्मपङ्क्तिरुपोषिताभ्यामिव लोचनाभ्याम् ॥ २-१९॥
वसिष्ठ महर्षि की नई व्याही हुई
नन्दिनी नाम की धेनु के पीछे २ चलनेवाले तपोवन के प्रान्त भाग से लौटते हुए उन
राजा दिलीप को स्नेह करने वाली रानी सुदक्षिणा ने नेत्र के बन्द करने में आलसी
बरौनी वाली होती हुई (अर्थात् एक टक से) प्यासे की भाँति आँखों से पिया अर्थात
देखा ॥१९॥
पुरस्कृता वर्त्मनि पार्थिवेन
प्रत्युद्गता पार्थिवधर्मपत्न्या ।
तदन्तरे सा विरराज
धेनुर्दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या ॥ २-२०॥
मार्ग में राजा दिलीप द्वारा आगे को
गई और उनकी पटरानी सुदक्षिणा से आगे जाकर ली हुई (अगवानी की गई ) वह नन्दिनी
सुदक्षिणा और दिलीप के बीच में दिन और रात के मध्य में स्थित सन्ध्याकाल की भांति
शोभित हुई॥२०॥
प्रदक्षिणीकृत्य पयस्विनीं तां
सुदक्षिणा साक्षतपात्रहस्ता ।
प्रणम्य
चानर्च विशालमस्याः शृङ्गान्तरं द्वारमिवार्थसिद्धेः ॥ २-२१॥
अक्षतों से युक्त पात्र को हाथ में
लिये रानी सुदक्षिणा ने उत्तम दूध वाली उस नन्दिनी की प्रदक्षिणा तथा वन्दना कर
उसके चौड़े दोनों सीगों के मध्यभाग का, पुत्राप्तिरूप
प्रयोजन सिद्ध होने के द्वार की भांति जानकर पूजन किया ॥ २१॥
वत्सोत्सुकापि स्तिमिता सपर्यां
प्रत्यग्रहीत्सेति ननदुतुस्तौ ।
भक्त्योपपन्नेषु हि तद्विधानानां
प्रसादचिह्नानि पुरःफलानि ॥ २-२२॥
उस नन्दिनी ने अपने बछड़े को देखने के
लिये उत्कण्ठा युक्त होने पर भी स्थिर होती हुई 'सुदक्षिणा द्वारा किए गये पूजन को स्वीकार किया वे दोनों सुदक्षिणा और
दिलीप प्रसन्न हुए । क्योंकि अपने में अनुराग रखने वाले जनों के विषय में नन्दिनी
के समान बड़े लोगों की प्रसन्नता का चिन्ह, शीघ्र अभीष्ट
सिद्धि करनेवाले निश्चय करके होते हैं ॥२२॥
गुरोः सदारस्य निपीड्य पादौ समाप्य
सांध्यं च विधिं दिलीपः ।
दोहावसाने पुनरेव दोग्ध्रीं भेजे
भुजोच्छिन्नरिपुर्निषण्णाम् ॥ २-२३॥
बाहुओं से शत्रुओं को नष्ट करने
वाले राजा दिलीप ने पत्नी के सहित गुरु का चरण दबा कर और सायंकालिक कृत्य को
समाप्त कर दुह चुकने के बाद सुखपूर्वक बैठी हुई नन्दिनी की फिर से सेवा शुरू की ॥
२३ ॥
तामन्तिकन्यस्तबलिप्रदीपामन्वास्य
गोप्ता गृहिणीसहायः ।
क्रमेण सुप्तामनु संविवेश
सुप्तोत्थितां प्रातरनूदतिष्ठत् ॥ २-२४॥
रक्षा करने वाले सुदक्षिणा के सहित
राजा दिलीप जिनके समीप में उपहारसम्बन्धी दीप रक्खे गये हैं,
ऐसी उस बैठी हुई नन्दिनी के पीछे बैठकर क्रम से उस ( नन्दिनी) के
सोने के पीछे सोये और प्रातःकाल उसके सोकर उठ जाने के पीछे उठे ॥ २४ ॥
इत्थं व्रतं धारयतः प्रजार्थं समं
महिष्या महनीयकीर्तेः ।
सप्त व्यतीयुस्त्रिगुणानि तस्य
दिनानि दीनोद्धरणोचितस्य ॥ २-२५॥
इस प्रकार पुत्र के लिये महारानी सुदक्षिणा
के साथ नियम को धारण करते हुए प्रशंसनीय कीर्तिवाले दीनों के उद्धार करने में लगे
हुए महाराज दिलीप के तिगुने सात (इक्कीस) दिन बीत गये ।। २५ ॥
अन्येद्युरात्मानुचरस्य भावं
जिज्ञासमाना मुनिहोमधेनुः ।
गङ्गाप्रपातान्तविरूढशष्पं गौरीगुरोर्गह्वरमाविवेश
॥ २-२६॥
दूसरे ( बाइसवें ) दिन वसिष्ठ की
होमसम्बन्धी धेनु (नन्दिनी) अपने सेवक राजा दिलीप का 'मेरे में दृढभक्ति है या नहीं' इस भाव को जानने की
इच्छा रखती हुई, गङ्गा के वारिप्रवाह के समीप उगी हुई है
छोटी २ घासें जिसमें ऐसे पार्वती के पिता (हिमालय पर्वत) की गुफा में घुसी ॥ २६ ॥
सा दुष्प्रधर्षा मनसापि
हिंस्रैरित्यद्रिशोभाप्रहितेक्षणेन ।
अलक्षिताभ्युत्पतनो नृपेण प्रसह्य
सिंहः किल तां चकर्ष ॥ २-२७॥
'यह नन्दिनी हिंसक व्याघ्रादि
दुष्ट जीवों द्वारा मन से भी बड़ी कठिनाई से तकलीफ पहुँचाने के योग्य है। इस कारण
से निश्चिन्त हो हिमालय की शोभा देखने में दृष्टि को लगाये हुए राजा दिलीप के
द्वारा जिसका आक्रमण करना नहीं देखा गया ऐसा मायाकृत सिंह जबरदस्ती उस नन्दिनी को
बनावटी ढङ्ग से फाड़ने लगा ॥ २७ ॥
तदीयमाक्रन्दितमार्तसाधोर्गुहानिबद्धप्रतिशब्ददीर्घम्
।
रश्मिष्विवादाय नगेन्द्रसक्तां निवर्तयामास
नृपस्य दृष्टिम् ॥ २-२८॥
गुफा में टकराई हुई प्रतिध्वनि से
बचे हुए उस (नन्दिनी) के आर्तनाद ने दुःखियों के विषय में सज्जन ( रक्षक) राजा
दिलीप की हिमालय पर्वत (की शोभा देखने) में लगी दृष्टि को लगाम पकड़ कर जैसे कोई
घोड़े आदि को फेरता है वैसे ही अपनी ओर फेर लिया।
स पाटलायां गवि तस्थिवांसं धनुर्धरः
केसरिणं ददर्श ।
अधित्यकायामिव धातुमय्यां
लोध्रद्रुमं सानुमतः प्रफुल्लम् ॥ २-२९॥
धनुष को धारण करने वाले उन राजा
दिलीप ने श्वेतयुक्त लाल वर्णवाली नन्दिनी के ऊपर बैठे हुए सिंह को पर्वत की गैरिक
धातुमयी ऊँची भूमि में लगे हुये लोध्र वृक्ष की भाँति देखा ॥२९॥
ततो मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रगामी
वधाय वध्यस्य शरं शरण्यः ।
जाताभिषङ्गो
नृपतिर्निषङ्गादुद्धर्तुमैच्छत्प्रसभोद्धृतारिः ॥ २-३०॥
सिंह के दर्शन के बाद मृगेन्द्र की
तरह चलने वाले रक्षा करने में निपुण, दुश्मनों
को बलपूर्वक उखाड़ने वाले अपमान पाये हुए राजा दिलीप ने सिंह को मारने के लिये
तरकश में बाण निकालने के लिये इच्छा की ॥ ३०॥
वामेतरस्तस्य करः
प्रहर्तुर्नखप्रभाभूषितकङ्कपत्रे ।
सक्ताङ्गुलिः सायकपुङ्ख एव
चित्रार्पितारम्भ इवावतस्थे ॥ २-३१॥
प्रहार करने वाले राजा दिलीप का दाहिना
हाथ,
अपने नख की कान्ति से भूषित कङ्क ( पक्षी पंख) जिसमें लगे हुये हैं
ऐसे बाण के मूलप्रदेश में ही लगी हुई है अङ्गुलियाँ जिसकी, ऐसा
होता हुआ, चित्र में लिखे हुये वाण निकालने के उद्योग में
लगे हुए की भाँति हो गया ॥३१॥
बाहुप्रतिष्टम्भविवृद्धमन्युरभ्यर्णमागस्कृतमस्पृशद्भिः
।
राजा स्वतेजोभिरदह्यतान्तर्भोगीव
मन्त्रौषधिरुद्धवीर्यः ॥ २-३२॥
हाथ के रुक जाने से बढ़े हुए
क्रोधवाले, राजा दिलीप, मन्त्र और औषधि से बाँध दिया गया है पराक्रम जिसका ऐसे साँप की भाँति समीप
में (स्थित ) अपराधी को नहीं स्पर्श करते हुए अपने तेज से भीतर जलने लगे ॥ ३२ ॥
तमार्यगृह्यं
निगृहीतधेनुर्मनुष्यवाचा मनुवंशकेतुम् ।
विस्माययन्विस्मितमात्मवृत्तौ
सिंहोरुसत्त्वं निजगाद सिंहः ॥ २-३३॥
नन्दिनी को पीडित किया हुआ सिंह
सज्जनों के पक्ष में रहने वाले मनुवंश के द्योतक सिंह के समान महान् बलवान् अपने बाहुस्तम्भरूप
व्यापार के विषय में चकित हुए उन राजा दिलीप को मनुष्यवाणी से पुनः चकित करता हुआ
बोला ।। ३३ ॥
अलं महीपाल तव श्रमेण
प्रयुक्तमप्यस्त्रमितो वृथा स्यात् ।
स पादपोन्मूलनशक्ति रंहः शिलोच्चये
मूर्च्छति मारुतस्य ॥ २-३४॥
हे पृथ्वी के पालन करने वाले महाराज
दिलीप ! आपका श्रम करना वृथा है, अतः । रहने
दीजिये, क्योंकि मेरे ऊपर चलाया हुआ अस्त्र भी वैसा ही
व्यर्थ होगा, जैसा कि पेड़ों को उखाड़ने वाली शक्ति रखने
वाले वायु का वेग पर्वत के विषय में व्यर्थ होता है ॥३४॥
कैलासगौरं वृषमारुरक्षोः
पादार्पणानुग्रहपूतपृष्ठम् ।
अवेहि मां किंकरमष्टमूर्तेः
कुम्भोदरं नाम निकुम्भमित्रम् ॥ २-३५॥
हे राजन् ! कैलास पर्वत के तुल्य
श्वेत बैल पर चढ़ने की इच्छा करने काले आठ ( पृथ्वी-जल-तेज-वायु-आकाश
सूर्य-चन्द्र-सोमयाजी) हैं मूर्तियां जिनकी ऐसे शिवजी के चरण रखने रूप अनुग्रह से
पवित्र पीठवाला, निकुम्भ (शिवजी का प्रसिद्ध गण)
का मित्र 'कुम्भोदर' नाम से प्रसिद्ध 'शिवजी का नौकर मुझे तुम जानो ॥ ३५॥
अमुं पुरः पश्यसि देवदारुं
पुत्रीकृतोऽसौ वृषभध्वजेन ।
यो हेमकुम्भस्तननिःसृतानां
स्कन्दस्य मातुः पयसां रसज्ञः ॥ २-३६॥
राजन् ! तुम जो आगे स्थित इस देवदारु
के वृक्ष को देख रहो इसे शंकरजी ने पुत्रभाव से माना है,
जो कि कार्तिकेय की मां पार्वतीजी के सोने के घटरूपी स्तनों से
निकले हुए दुधरूपी जल के स्वाद का जानने वाला है स्कन्दपक्ष में सोने के घड़े के
समान स्तनों से निकले हुए दूध के स्वाद का जानने वाला है।। ३६ ॥
कण्डूयमानेन कटं
कदाचिद्वन्यद्विपेनोन्मथिता त्वगस्य ।
अथैनमद्रेस्तनया शुशोच
सेनान्यमालीढमिवासुरास्त्रैः ॥ २-३७॥
किसी समय में गण्डस्थल को रगड़ते
हुये किसी जंगली हाथी ने इस देवदारु वृक्ष की छाल उचेड़ डाली,
इसके बाद पार्वतीजी ने दैत्यों के अस्त्रों से चोट खाये हुये अपने
पुत्र स्कन्द के समान इसके सम्बन्ध में भी शोक किया ॥ ३७॥
तदाप्रभृत्येव वनद्विपानां
त्रासार्थमस्मिन्नहमद्रिकुक्षौ ।
व्यापरितः शूलभृता विधाय
सिंहत्वमङ्कागतसत्त्ववृत्ति ॥ २-३८॥
उसी समय से जङ्गली हाथियों के हराने
के लिये,
शूल के धारण करने वाले श्रीशिवजी ने समीप में आये हुए प्राणियों पर
निर्वाह करने वाली सिंहवृत्ति देकर मुझे इस पहाड़ की गुफा में नियुक्त किया है ॥
३८॥
तस्यालमेषा क्षुधितस्य तृप्त्यै
प्रदिष्टकाला परमेश्वरेण ।
उपस्थिता शोणितपारणा मे
सुरद्विषश्चान्द्रमसी सुधेव ॥ २-३९॥
शिवजी के बताये हुये भोजन के समय पर
उपस्थित यह गोरूप रुधिरसम्बन्धी व्रत के समाप्ति के समय का भोजन दैत्य राहु के
लिये चन्द्रसम्बन्धी अमृत की भांति, भूखे
हुये उसकी अर्थात् समीप में आये हुये प्राणियों को खाकर जीवन निर्वाह करने वाले
मुझ सिंह की तृप्ति के लिये पर्याप्त(पूरा) होगा ॥ ३९ ॥
स त्वं निवर्तस्व विहाय लज्जां
गुरोर्भवान्दर्शितशिष्यभक्तिः ।
शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्षं न
तद्यशः शस्त्रभृतां क्षिणोति ॥ २-४०॥
उपाय से शून्य पूर्वोक्त तुम लज्जा
को छोड़ कर लौट जाओ और तुमने गुरु के सम्बन्ध में शिष्यों के योग्य भक्ति दिखला दी
और जो रक्षा करने योग्य वस्तु शस्त्र से रक्षा करने के योग्य नहीं होती वह नष्ट
होती हुई भी शस्त्रधारी के कीर्ति को नष्ट नहीं कर सकती है।॥ ४०॥
इति प्रगल्भं पुरुषाधिराजो
मृगाधिराजस्य वचो निशम्य ।
प्रत्याहतास्त्रो
गिरिशप्रभावादात्मन्यवज्ञां शिथिलीचकार ॥ २-४१॥
नराधिप दिलीप ने इस प्रकार से ढीठ
सिंह के वचन को सुनकर शङ्कर के प्रभाव से अपने अस्त्र की रुकी हुई गति जानकर अपने
विषय में अपमान के भाव को शिथिल कर दिया, अर्थात्
अपना अपमान नहीं समझा ।। ४१॥
प्रत्यब्रवीच्चैनमिषुप्रयोगे
तत्पूर्वभङ्गे वितथप्रयत्नः ।
जडीकृतस्त्र्यम्बकवीक्षणेन वज्रं
मुमुक्षन्निव वज्रपाणिः ॥ २-४२॥
पहले पहल यही है रुकावट जिसका ऐसे
बाण के चलाने में निष्फल प्रयत्न वाले अत एव शङ्कर भगवान् के देखने से ही
निश्चेष्ट किये हुये वज्र का प्रहार करने की इच्छा करने वाले,
वज्र है हाथ में जिसके ऐसे इन्द्र के समान स्थित राजा दिलीप इस सिंह
के प्रत्युत्तर में बोले ॥ ४२ ॥
संरुद्धचेष्टस्य मृगेद्र कामं
हास्यं वचस्तद्यदहं विवक्षुः ।
अन्तर्गतं प्राणभृतां हि वेद सर्वं
भवान्भावमतोऽभिधास्ये ॥ २-४३॥
हे सिंह! यद्यपि रुकी हुई है चेष्टा
जिसकी,
ऐसे मुझ दिलीप का वह वचन अत्यन्त परिहास करने के योग्य है, जिसे कि मैं कहने की इच्छा करने वाला हो रहा हूँ, तथापि
आप सभी जीवों के हृदय के भाव जानते हैं, इससे कहूँगा ॥४३॥
मान्यः स मे स्थावरजंगमानां
सर्गस्थितिप्रत्यवहारहेतुः ।
गुरोरपीदं
धनमाहितग्नेर्नश्यत्पुरस्तादनुपेक्षणीयम् ॥ २-४४॥
स्थावर ( वृक्ष-पर्वत-आदि ) और
जङ्गमों ( मनुष्यादिकों ) के उत्पत्ति, पालन
और संहार करने में कारण वे श्रीशिवजी मेरे पूज्य है, (अर्थात्
उनकी आशा माननीय है) और आगे नष्ट होता हुआ यह अग्निहोत्र करने वाले गुरुजी वसिष्ठ
महाराज का गोरूप धन भी उपेक्षा करने के योग्य नहीं है, (अर्थात्
इसकी रक्षा करनी चाहिये)॥ ४४ ॥
स त्वं मदीयेन शरीरवृत्तिं देहेन
निर्वर्तयितुं प्रसीद ।
दिनावसानोत्सुकबालवत्सा विसृज्य तां
धेनुरियं महर्षेः ॥ २-४५॥
समीप में आये हुए प्राणियों से अपना
जीवन निर्वाह करने वाले ( वह ) तुम मेरे शरीर से अपने शरीर का जीवन रखने के लिये
अनुग्रह करो और दिन के समाप्त होने पर 'हमारी
मां आती होगी' इससे उत्कण्ठित छोटे बछड़े वाली महर्षि वसिष्ठ
की इस धेनु 'नन्दिनी' को छोड़ो। ४५॥
अथान्धकारं गिरिगह्वराणां
दंष्ट्रामयूखैः शकलानि कुर्वन् ।
भूयः स भूतेश्वरपार्श्ववर्ती
किंचिद्विहस्यार्थपतिं बभाषे ॥ २-४६॥
दिलीप के कह चुकने के बाद भगवान्
शक्कर के पास का रहने वाला यह सिंह हिमालय पर्वत की गुफाओं के अन्धकार को दांतों
की कान्ति से टुकड़े २ करता हुआ कुछ हँसकर दिलीप से फिर बोला ।। ४६ ॥
एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वं नवं वयः
कान्तमिदं वपुश्च ।
अल्पस्य हेतोर्बहु
हातुमिच्छन्विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम् ॥ २-४७॥
एकच्छत्र संसार की प्रभुता,
नवीन युवावस्था और यह सुन्दर शरीर इन सब बहुतों को थोड़े से नन्दिनीरूप
फल के लाभ के कारण से छोड़ने की इच्छा करते हुये तुम क्या करना चाहिये, क्या नहीं करना चाहिये' इसके विचार करने में मुझे
मूर्ख मालूम पड़ते हो।
भूतानुकम्पा तव चेदियं गौरेका
भवेत्स्वस्तिमती त्वदन्ते ।
जीवन्पुनः शश्वदुपप्लवेभ्यः प्रजाः
प्रजानाथ पितेव पासि ॥ २-४८॥
हे राजन् ! तुम्हारी प्राणियों के
ऊपर दया यदि है, तो तुम्हारे मर जाने पर केवल
यही एक गौ कल्याण से युक्त हो सकती है। हे प्रजाओं के स्वामी महाराज दिलीप ! जीते
हुए निश्चय कर आप पिता के समान प्रजाओं की विघ्नों से निरन्तर रक्षा कर सकते हैं
॥४८॥
अथैकधेनोरपराधचण्डाद्गुरोः
कृशानुप्रतिमाद्बिभेषि ।
शक्योऽस्य मन्युर्भवता विनेतुं गाः
कोटिशः स्पर्शयता घटोध्नीः ॥ २-४९॥
अथवा हे राजन् ! एक ही है धेनु
जिसके अत एव गौ के रक्षा न करने रूप अपराध होने से अत्यन्त क्रुद्ध हुये,
अग्नि के तुल्य अपने गुरु वसिष्ठजी से यदि तुम डरते होते, उनके क्रोध को घड़े के समान बड़े २ स्तनों वाली करोड़ों गायों को देते
हुये दूर करने में समर्थ हो ॥ ४९ ॥
तद्रक्ष कल्याणपरम्पराणां
भोक्तारमूर्जस्वलमात्मदेहम् ।
महीतलस्पर्शनमात्रभिन्नमृद्धं हि
राज्यं पदमैन्द्रमाहुः ॥ २-५०॥
इस कारण से हे राजन् ! तुम
उत्तरोत्तर सुखों का भोग करने वाले अत्यन्त बल से युक्त अपने शरीर की रक्षा करो,
क्योंकि विद्वान् लोग समृद्धिशाली राज्य को केवल पृथ्वीतल के
सम्बन्ध होने से अलग हुआ इन्द्रसम्बन्धी स्थान (स्वर्ग) कहते हैं ॥५०॥
एतावदुक्त्वा विरते मृगेन्द्रे
प्रतिस्वनेनास्य गुहागतेन ।
शिलोच्चयोऽपि क्षितिपालमुच्चैः
प्रीत्या तमेवार्थमभाषतेव ॥ २-५१॥
सिंह के इतना कहकर चुप हो जाने पर
गुफा में पहुँची हुई इसकी प्रतिध्वनि द्वारा पर्वत भी प्रेम से मानो उसी बात को
राजा दिलीप से जोर से कहने लगा ॥५१॥
निशम्य देवानुचरस्य वाचं मनुष्यदेवः
पुनरप्युवाच ।
धेन्वा तदध्यासितकातराक्ष्या
निरीक्ष्यमाणः सुतरां दयालुः ॥ २-५२॥
शङ्कर भगवान् के नौकर (सिंह) की वाणी
को सुनकर मनुष्यों के राजा (दिलीप) फिर भी (उससे) बोले,
जो कि उस सिंह के द्वारा आक्रान्त होने से आकुल नेत्रों वाली
नन्दिनी से देखे जाते हुये अत एव अत्यन्त दयालु हो रहे थे ।। ५२ ॥
क्षतात्किल त्रायत इत्युदग्रः
क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः ।
राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः
प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा ॥ २-५३॥
उन्नत जो क्षत्रिय वर्ण शब्द का
वाचक क्षत्र शब्द है सो 'क्षत अर्थात् नाश से
जो बचावे वह क्षत्रिय कहलाता है। इस व्युत्पत्ति से संसार में 'पङ्कज' के तरह योगरूढि से प्रसिद्ध है, अतः उस क्षत्र शब्द से विपरीत व्यापार करने वाले अर्थात नाश से नहीं रक्षा
करने वाले पुरुष के राज्य और अपकीर्ति से मलिन हुए प्राण ये दोनों व्यर्थ है ।। ५३
।।
कथं नु शक्योऽनुनयो
महर्षेर्विश्राणनाच्चान्यपयस्विनाम् ।
इमामनूनां सुरभेरवेहि रुद्रौजसा तु
प्रहृतं त्वयास्याम् ॥ २-५४॥
महर्षि वसिष्ठजी के क्रोध की शान्ति
दूसरी दूध देने वाली गायों के देने से किस प्रकार हो सकती है?
अर्थात् कमी नहीं हो सकती है। क्योंकि-'इसे
कामधेनु से कम नहीं समझना चाहिये' और इस के ऊपर तुम्हारा
आक्रमण हुआ है, उसे भी शङ्कर भगवान् के सामर्थ्य से ही समझना
चाहिये न कि अपनी सामर्थ्य से ॥ ५४॥
सेयं स्वदेहार्पणनिष्क्रयेण
न्याय्या मया मोइचयितुं भवत्तः ।
न पारणा स्याद्विहता तवैवं
भवेदलुप्तश्च मुनेः क्रियार्थः ॥ २-५५॥
कामधेनु के तुल्य उसी इस नन्दिनी का
मुझे अपने शरीर का त्याग कर देना ही रूप निष्क्रय के द्वारा आप से छुड़ाना
न्यायसङ्गत है, ऐसा करने पर आपका व्रत के अन्त
का भोजन (पारणा) भी नष्ट नहीं होगा, वसिष्ठ महर्षि का
होमादिरूप प्रयोजन भी नष्ट नहीं होगा ॥ ५५॥
भवानपीदं परवानवैति महान्हि
यत्नस्तव देवदारौ ।
स्थातुं नियोक्तुर्न हि शक्यमग्रे
विनाश्य रक्ष्यं स्वयमक्षतेन ॥ २–५६॥
पराधीन होते हुए आप भी इस (आगे कही
जाने वाली) बात को जानते हैं, क्योंकि आपका
देवदारु के विषय में 'रक्षा करने के लिए बहुत भारी प्रयत्न
है। अत एव' रक्षा करने के योग्य वस्तु का नाश कर के स्वयं बिना
नष्ट हुए ही नौकर स्वामी के आगे उपस्थित होने के लिए समर्थ नहीं हो सकता ।। ५६ ॥
किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं
यशःशरीरे भव मे दयालुः ।
एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानं
पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु ॥ २-५७॥
और मै यदि तुम्हारी समझ में अवध्य
हूँ तो मेरे यशरूप शरीर के विषय में तुम दयायुक्त हो,
क्योंकि हमारे ऐसे लोगों के अवश्य नष्ट होने वाले
पृथ्वी-जल-तेज-वायु आकाश इन पाँच महाभूतों से बने हुए शरीर में अपेक्षा नहीं रहती
है ॥ ५७ ॥
संबन्धमाभाषणपूर्वमाहुर्वृत्तः स नौ
संगतयोर्वनान्ते ।
तद्भूतनाथानुग नार्हसि त्वं
संबन्धिनो मे प्रणयं विहन्तुम् ॥ २-५८॥
सम्बन्ध ( मैत्री ) को जो बातचीत से
उत्पन्न हुआ लोग कहते हैं, वह वन के बीच में
मिले हुये हम दोनों का हो चुका है, इस कारण से हे शिवजी के
अनुचर सिंह ! तुम सम्बन्धी होकर मुझ दिलीप की प्रार्थना को विफल करने के लिये
योग्य नहीं हो ।। ५८ ।
तथेइति गामुक्तवते दिलीपः
सद्यःप्रतिष्टम्भविमुक्तबाहुः ।
सन्न्यस्तशस्त्रो हरये
स्वदेहमुपानयत्पिण्डमिवामिषस्य ॥ २-५९॥
'वैसा ही हो' इस वचन को कहते हुए सिंह के लिए, उसी क्षण में बन्धन
से खुली बाहु वाले उन राजा दिलीप ने शस्त्र के त्यागने वाले होते हुए अपने शरीर को
मांस के पिण्ड (ग्रास) के समान समर्पण कर दिया ॥ ५९॥
तस्मिन्क्षणे पालयितुः
प्रजानामुत्पश्यतः सिंहनिपातमुग्रम् ।
अवाङ्मुखस्योपरि पुष्पवृष्टिः पपात
विद्याधरहस्तमुक्ता ॥ २-६०॥
उस क्षण में उत्कट सिंह के आक्रमण
के विषय में विचार करते हुये नीचे को मुख किए प्रजाओं के पालन करने वाले राजा
दिलीप के ऊपर विद्याधर नामक देवयोनि विशेषों के हाथों से छोड़ी गई फूलों की वर्षा
हुई ॥६॥
उत्तिष्ठ वत्सेत्यमृतायमानं वचो
निशम्योत्थितमुत्थितः सन्।
ददर्श राजा जननीमिव स्वां गामग्रतः
प्रस्रविणीं न सिंहम् ॥ २-६१॥
राजा दिलीप ने अमृत के समान
(नन्दिनी के मुख से) निकले हुये 'हे पुत्र ! उठो'
इस वचन को सुनकर उठते हुये आगे 'स्थित'
जिसके स्तनों से दूध बह रहा है ऐसी गौ (नन्दिनी) को अपनी मां के
समान देखा 'किन्तु' सिंह को नहीं देखा
॥ ६१॥
तं विस्मितं धेनुरुवाच साधो मायां
मयोद्भाव्य परीक्षितोऽसि ।
ऋषिप्रभावान्मयि नान्तकोऽपि प्रभुः
प्रहर्तुं किमुतान्यहिंस्राः ॥ २-६२॥
आश्चर्य से युक्त उन राजा दिलीप से
धेनु बोली कि-हे सज्जन महाराज दिलीप ! मैंने माया को उत्पन्न कर तुम्हारी परीक्षा
ली थी,
महर्षि वशिष्ठ जी के प्रभाव से यमराज भी मुझ पर प्रहार करने के लिये
समर्थ नहीं दूसरे हिस्र व्याघ्रादि तो अत्यन्त समर्थ नहीं हैं॥६२
भक्त्या गुरौ मय्यनुकम्पया च
प्रीतास्मि ते पुत्र वरं वृणीष्व ।
न केवलानां पयसां प्रसूतिमवेहि मां
कामदुघां प्रसन्नाम् ॥ २-६३॥
हे पुत्र ! वसिष्ठ महर्षि के विषय
में भक्ति रहने से और मेरे विषय में दया रखने से मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ। इसलिए तू
वर मांग और मुझे केवल दूध देने वाली गाय मत समझ, प्रसन्न होने पर अमिलाषो को पूरी करने वाली जान ।। ६३ ॥
ततः समानीय स मानितार्थी हस्तौ
स्वहस्तार्जितवीरशब्दः ।
वंशस्य कर्तारमनन्तकीर्तिं
सुदक्षिणायां तनयं ययाचे ॥ २-६४॥
उसके बाद याचकों को सन्तुष्ट करने
वाले अपने हाथों से 'वीर' इस शब्द को प्राप्त करने वाले उन राजा दिलीप ने दोनों हाथों को जोड़ कर
वंश को चलाने वाले स्थिर कीर्तिशाली पुत्र 'अपनी रानी'
सुदक्षिणा में होने की प्रार्थना की ।। ६४ ।।
संतानकामाय तथेति कामं राज्ञे
प्रतिश्रुत्य पयस्विनी सा ।
दुग्ध्वा पयः पत्रपुटे मदीयं
पुत्रोपभुङ्क्ष्वेति तमदिदेश ॥ २-६५
उस उत्तम दूध वाली नन्दिनी ने पुत्र
चाहने वाले राजा दिलीप से वैसा ही हो' इसी
वरदान की प्रतिज्ञा कर हे पुत्र ! मेरे दूध को पत्ते के दोने में दुह कर पीलो'
ऐसी उन्हें आज्ञा दी ॥६५॥
वत्सस्य होमार्थविधेश्च शेषं
गुरोरनुज्ञामधिगम्य मातः ।
ऊधस्यमिच्छामि तवोपभोक्तुं
षष्ठांशमुर्व्या इव रक्षितायाः ॥ २-६६॥
हे माँ ! मैं बछड़े के पीने से तथा
होमरूप प्रयोजन के अनुष्ठान (अग्निहोत्रादि) से बचे हुवे तुम्हारे स्तनों से निकले
हुवे दूध को पालन की गई पृथ्वी के षष्ठांशषष्ठशि (छठा भाग रूप ) करके तरह ऋषि
वसिष्ठ की आज्ञा प्राप्त करके पीना चाहता हूँ ॥६६॥
इत्थं क्षितीशेन
वसिष्ठधेनुर्विज्ञापिता प्रीततरा बभूव ।
तदन्विता हैमवताच्च कुक्षेः
प्रत्याययावाश्रममश्रमेण ॥ २-६७॥
इस प्रकार से राजा दिलीप की
प्रार्थना करने से वसिष्ठ महर्षि की धेनु नन्दिनी अत्यन्त प्रसन्न हुई और दिलीप से
युक्त होती हुई हिमालय की गुफा से बिना परिश्रम के आश्रम की तरफ लौटी ॥६७॥
तस्याः प्रसन्नेन्दुमुखप्रसादं
गुरुर्नृपाणां गुरवे निवेद्य ।
प्रहर्षचिह्नानुमितं प्रियायै शशंस
वाचा पुनरुक्तमेव ॥ २-६८॥
निर्मल चन्द्रमा की भाँति स्वच्छ
मुखवाले राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप ने अधिक प्रसन्नता के द्योतक मुख की लालिमा आदि
चिन्हों से जिसका अनुमान हो रहा था, ऐसे
उस नन्दिनी के वरप्रदानरूपी अनुग्रह को हर्ष के जानने वाले चिन्हों से कहने से
पहिले ही मालूम हो जाने से दुबारा कही जाती हुई की भाँति वाणी के द्वारा गुरु जी
से निवेदन किया पश्चात् प्यारी पटरानी सुदक्षिणा से भी कहा ॥ ६८॥
स नन्दिनीस्तन्यमनिन्दितात्मा
सद्वत्सलो वत्सहुतावशेषम् ।
पपौ वसिष्ठेन कृताभ्यनुज्ञः शुभ्रं
यशोमूर्तमिवातितृष्णः ॥ २-६९॥
प्रशंसनीय स्वभाव वाले,
सज्जनों से प्रेम रखने वाले, वसिष्ठ महर्षि की
आज्ञा को प्राप्त किये हुए, उन राजा दिलीप ने बछड़े के पीने
से तथा अग्निहोत्र से बचे हुए नन्दिनी के दूध को सफेद मूर्ति को धारण किये हुए यश
की भांति अधिक तृष्णा से युक्त होते हुए पिया ॥६९॥
प्रातर्यथोक्तव्रतपारणान्ते प्रास्थानिकं
स्वस्त्ययनं प्रयुज्य ।
तौ दंपती स्वां प्रति राजधानीं
प्रस्थापयामास वशी वसिष्ठः ॥ २-७०॥
इन्द्रियों के ऊपर अपनी प्रभुता
रखने वाले (जितेन्द्रिय ) वशिष्ठ महर्षि ने प्रातःकाल में पूर्वोक्त गोसेवारूप
व्रत की पारणा कर चुकने के बाद प्रस्थान-कालोचित स्वस्त्ययन करके उन दोनों
स्त्री-पुरुष सुदक्षिणा और दिलीप को उनकी राजधानी अयोध्या की तरफ भेजा ॥ ७०॥
प्रदक्षिणीकृत्य हुतं हुताशमनन्तरं भर्तुररुन्धतीं च ।
धेनुं सवत्सां च नृपः प्रतस्थे सन्मङ्गलोदग्रतरप्रभावः॥२-७१॥
राजा दिलीप ने आहुति दिए हुए अग्नि
की तथा रक्षा करने वाले वसिष्ठ जी की प्रदक्षिणा कर चुकने के बाद उनकी पत्नी
अरुन्धती तथा बछड़े के सहित नन्दिनी की भी प्रदक्षिणा कर के अच्छे मङ्गलमय
प्रदक्षिणा आदि करने से बढ़े हुये तेज वाले होते हुए प्रस्थान किया ॥ ७१ ॥
श्रोत्राभिरामध्वनिना रथेन स
धर्मपत्नीसहितः सहिष्णुः ।
ययावनुद्घातसुखेन मार्गं स्वेनेव
पूर्णेन मनोरथेन ॥ २-७२॥
धर्मपत्नी सुदक्षिणा के सहित
व्रतादि सम्बन्धी दुःखों के सहन करने वाले उन राजा दिलीप ने कानों को सुख देनेवाली
है ध्वनि जिसकी, तथा नीचे ऊँचे पत्थरों के ठोकर
लगने से जिसमें से नहीं गिर सकता, अत एव सुखप्रद रथ से जो
सुनने से कानों को सुख देने वाला है तथा प्रतिबन्ध के दूर हो जाने से आनन्दप्रद है
ऐसे अपने सफल हुए मनोरथ के समान रास्ता को तय करने लगे ॥ ७२॥
तमाहितौत्सुक्यमदर्शनेन प्रजाः
प्रजार्थव्रतकर्शिताङ्गम् ।
नेत्रैः
पपुस्तृप्तिमनाप्नुवद्भिर्नवोदयं नाथमिवौषधीनाम् ॥ २-७३॥
प्रवास करने के कारण से नहीं देख
पड़ने से 'चन्द्रपक्ष में कला के क्षय हो
जाने से नहीं दीख पड़ने से लोगों से देखने की उत्कण्ठा जिसने उत्पन्न करा दी है
तथा पुत्र के लिए गोसेवारूप व्रत करने से जिनका शरीर कृश हो गया है 'चन्द्रपक्ष में लोक के हित के लिये देवताओं को अमृतरूपी कलाओं के दानरूपी
नियम से जिनका शरीर कृश हो गया है, तथा जिनकी नवीन उन्नति
हुई है 'चन्द्रपक्ष में जिनका नवीन आविर्भाव हुआ है, ऐसे औषधियों के स्वामी चन्द्रमा की भांति उन राजा दिलीप को प्रजाओं ने
अतृप्त नेत्रों से देखा ॥ ७३॥
पुरंदरश्रीः पुरमुत्पताकं प्रविश्य पौरैरभिनन्द्यमानः ।
भुजे भुजंगेन्द्रसमानसारे भूयः स भूमेर्धुरमाससञ्ज॥२-७४॥
इन्द्र के समान कान्ति वाले उन राजा
दिलीप ने पुरवासियों से अभिनन्दन किये जाते हुए, जिसमें पताकायें फहरा रही थीं, ऐसे 'अयोध्या' नामक नगर में प्रवेश करके सर्पराज वासुकि
के समान बल रखने वाले बाहु पर फिर पृथ्वी के पालनरूप भार को धारण किया ॥ ७४ ॥
अथ नयनसमुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः
सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठ्यूतमैशम् ।
नरपतिकुलभूत्यै गर्भमाधत्त राज्ञी
गुरुभिरभिनिविष्टं लोकपालानुभावैः ॥ २-७५॥
इसके बाद आकाश ने जैसे अत्रि मुनि
के नेत्रों से उत्पन्न ज्योतिःस्वरूप चन्द्रमा को और देवनदी गंगाजी ने जैसे अग्नि
से फेके हुये शंकरसम्बन्धी ( स्कन्दको पैदा करने वाले) वीर्य को धारण किया उसी
भांति रानी सुदक्षिणा ने भी राजा दिलीप के कुल की 'सन्तानरूप' सम्पत्ति के लिए श्रेष्ठ लोकपालों के तेज
से गर्भ को धारण किया ।। ७५ ॥
॥इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये
कविश्रीकालिदासकृतौ संजीवनीव्याख्यायां नन्दिनीवरप्रदानो नाम द्वितीयः सर्गः॥॥
इति रघुवंशम् महाकाव्ये द्वितीयः सर्गःसमाप्त ।
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham
dvitiya sarg संक्षिप्त
भावार्थ-
रानी ने प्रातः काल नंदनी की पुजा
की और राजा ने बछड़े को दुध पीला कर उसे बांधा तथा नंदनी को चराने के लिए वन को ले
गया,कुछ दूर चलने उपरांत रानी और सभी सेवकों को लौटा दिया व अकेले ही गौ सेवा
को चल दिया। राजा नंदनी की छायावत रहने लगा । वह उठती तो राजा उठता और बैठती तो
राजा भी बैठ विश्राम करते तथा सदा ही धनुष-बाण लेकर नंदनी की रक्षा को तैयार रहता
था। शाम को राजा गाय को लेकर आश्रम लौटते तो रानी नंदनी की स्वागत करती और रात को
दोनों राजा रानी गाय का पूजन करते। उनके सोने के उपरांत सोते और जगाने पर जागते थे
इस प्रकार यह व्रत तीन सप्ताह तक लगातार जारी था । एक दिन नंदनी राजा का परीक्षा
लेने के लिए हिमालय की ऊंची चोटी पर चली गई। राजा भी पर्वत की छटा निहारते हुए पर्वत
पर विचरने लगे । इतने में एकाएक एक सिंह ने आकर गाय को धर दबोचा। गाय की आवाज
सुनकर राजा ने देखा और सिंह को मारने के लिए धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाया किन्तु राजा
के हाथ धनुष से ही चिपक गया व बाण भी नहीं छूटा। राजा हैरान हो गया तभी सिंह ने
उनसे कहा कि इस देवदारु कि मै रक्षा के लिए नियुक्त किया गया हूँ और हाथियों से
इसकी रक्षा करता हूँ । जो जीव इस वन में चले आता है मै उसी को खाकर अपनी भूख
मिटाता हूँ। अतः इस गौ को छोड़ कर तुम घर को जाओ आज यही मेरा भोजन है। मै कुंभोदर
नामक शिव अनुचर हूँ अतः तुम्हारे सारे अस्त्र-शस्त्र बेकार जाएंगे। राजा ने सिंह
को समझाने की कोशिश की किन्तु सारे ही बेकार गया। अंत में यह तय हुआ की सिंह गाय
को छोड़ राजा को अपना भोजन बनाएगा। अब राजा ने अपने आप को सिंह को सौंप दिया। तभी
देखा की सामने सिंह नहीं है और आकाश से विद्याधर फूल बरसा रहे हैं। नंदनी सामने
खड़ी होकर राजा से कहने लगी कि-यह सब तुम्हारी परीक्षा थी जिसमे की तुम सफल हुए मै
तुमसे अति प्रसन्न हूँ जो वर मांगना हो कहो। राजा ने पुत्र प्राप्ति का वर मांगा,
नंदनी ने तथास्तु कहा। अब राजा गाय सहित आश्रम को लौटा और सब वृतांत
रानी तथा गुरु से कहा। गुरु की आज्ञा से राजा-रानी नंदनी के दुध का पारणा कर घर को
लौट गए और रानी सुदक्षिणा ने गर्भ धारण किया।
॥इति श्रीरघुवंशे महाकाव्ये
कविश्रीकालिदासकृतौ नन्दिनीवरप्रदानो नाम द्वितीयः सर्गः॥॥
रघुवंशम् द्वितीय सर्ग Raghuvansham dvitiya sarg सम्पूर्ण
1 Comments
इस अनुवाद के लिए धन्यवाद. बहुत सुन्दर
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