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प्रातःस्मरण
प्रातःस्मरण
करदर्शनम्
वागीशाद्या: सुमनस:
सर्वार्थानामुपक्रमे ।
यं नत्वा कृतकृत्या: स्युस्तं नमामि
गजाननम् ॥१॥
अथोच्यते द्विजातीनां नित्यकर्म
गथाविधि ।
यत्कृत्वा पुण्यमाप्नोति
तस्मान्नित्यं समाचरेत् ॥२॥
कर-दर्शन
प्रत्येक मनुष्य प्रात:काल ब्राह्ममुहूर्त
में उठकर सर्वप्रथम अपने दोनों हाथों का दर्शन करते हुए नीचे लिखे
हुए मन्त्र को बोलें---
कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये
सरस्वती ।
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते
करदर्शनम् ॥ (आचारप्रदीप)
‘मनुष्य के दोनों हाथों के
अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती और मूल में ब्रह्मा
रहते हैं । अत: प्रात:काल सर्वप्रथम अपने हाथों का दर्शन करना चाहिये ।’
पृथिवी-प्रार्थना
पश्चात् पृथिवी माता को हाथ से
स्पर्श कर प्रणाम करें और पादस्पर्श के लिये क्षमा माँगते हुए पृथ्वी पर पैर
रक्खें।
समुद्रवसने देवि ! पर्वतस्तनमण्डले
।
जगन्मातर्नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं
क्षमस्व मे ॥ (मदनपारिजात)
‘हे जगन्मात ! हे समुद्ररूपी
वस्त्रों को धारण करनेवाली ! और पर्वतरूप स्तनों से युक्त पृथिवी देवि ! तुम को
नमस्कार है। तुम मेरे पादस्पर्श को क्षमा करो ।’
पश्चात् हाथ,
मुख धोकर अपने गुरु, माता, पिता आदि गुरुजनों को प्रणाम करें । अनन्तर गणेश आदि अपने इष्टदेवताओं का
प्रातःस्मरण करें
प्रातःस्मरणम्
गणेशजी
प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं
सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम् ।
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्ड
माखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम् ॥१॥
जो इन्द्र आदि देवेश्वरों के समूह से
वन्दनीय हैं, अनाथों के बन्धु हैं, जिनके युगल कपोल सिन्दूरराशि से अनुरञ्जित हैं, जो उद्दण्ड
(प्रबल) विघ्नों का खण्डन करने के लिये प्रचण्ड दण्डस्वरूप हैं; उन श्रीगणेशजी को मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ॥१॥
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान
मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानम् ।
तंतुन्दिलं द्विरसनाधिपयज्ञसूत्रं
पुत्रं विलासचतुरं शिवयोः शिवाय ॥ २
॥
जो ब्रह्मा से वन्दनीय हैं,
अपने सेवक को उसकी इच्छा के अनुकूल पूर्ण वरदान देनेवाले हैं,
तुन्दिल हैं, सर्प ही जिनका यज्ञोपवीत है,
उन क्रीडाकुशल शिव-पार्वती के पुत्र (श्रीगणेशजी) को मैं
कल्याण-प्राप्ति के लिये प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ॥२॥
प्रातर्भजाम्यभयदं खल भक्तशोक
दावानलं गणविभुं वरकुञ्जरास्यम् ।
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह
मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्य ॥३॥
जो अपने जन को अभय प्रदान करनेवाले
हैं,
भक्तों के शोकरूप वन के लिये दावानल (वनाग्नि) हैं, गणों के नायक हैं, जिनका मुख हाथी के समान और सुन्दर
है और जो अज्ञानरूप वन को नष्ट करने (जलाने) के लिये अग्नि हैं; उन उत्साह बढ़ानेवाले शिवसुत (श्रीगणेशजी)को मैं प्रातःकाल भजता हूँ ।। ३
॥
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं सदा
साम्राज्यदायकम् ।
प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत्प्रयतः
पुमान् ॥४॥
जो पुरुष प्रातःसमय उठकर संयतचित्त से
इन तीनों पवित्र श्लोकों का नित्य पाठ करता है, उसको
यह स्तोत्र सर्वदा साम्राज्य के समान सुख देता है ।।४।।
परब्रह्मणः
प्रातः स्मरामि हृदि
संस्फुरदात्मतत्त्वं
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम् ।
यत्स्वप्नजागरसुषुप्तिमवैति नित्यं
तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसङ्कः
॥१॥
मैं प्रातःकाल,
हृदय में स्फुरित होते हुए आत्मतत्त्व का स्मरण करता हूँ, जो सत्, चित् और आनन्दरूप है, परमहंसों
का प्राप्य स्थान है और जाग्रदादि तीनों अवस्थाओं से विलक्षण है, जो स्वप्न, सुषुप्ति और जाग्रत अवस्था को नित्य
जानता है, वह स्फुरणारहित ब्रह्म ही मैं हूँ, पञ्चभूतों का संघात (शरीर) मैं नहीं हूँ ॥१॥
प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं
वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण ।
यन्नेतिनेतिवचनैर्निगमा अवोचं
स्तं देवदेवमजमच्युतमाहुरग्रयम् ॥२॥
जो मन और वाणी से अगम्य है,
जिसकी कृपा से समस्त वाणी भास रही हैं, जिसका
शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर निरूपण करते
हैं, जिस अजन्मा देवदेवेश्वर अच्युत को अग्रय (आदि) पुरुष
कहते हैं, मैं उसका प्रातःकाल भजन करता हूँ॥२॥
प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्ण
पूर्ण सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम् ।
यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्ती
रज्ज्वां भुजङ्गम इव प्रतिभासितं वै
॥३॥
जिस सर्वस्वरूप परमेश्वर में यह
समस्त संसार रज्जु में सर्प के समान प्रतिभासित हो रहा है,
उस अज्ञानातीत, दिव्यतेजोमय, पूर्ण सनातन पुरुषोत्तम को मैं प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ॥३॥
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं
लोकत्रयविभूषणम् ।
प्रातःकाले पठेद्यस्तु स
गच्छेत्परमं पदम् ॥४॥
ये तीनों श्लोक तीनों लोकों के भूषण
हैं,
इन्हें जो कोई प्रातःकाल के समय पढ़ता है, उसे
परमपद की प्राप्ति होती है॥४॥
इति श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ
परब्रह्मणः प्रातःस्मरणस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
प्रातःस्मरण
नारायण
प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिशान्त्यै
नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम् ।
ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं
चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ॥१॥
गरुडवाहन,
कमलनाभ, ग्राह से ग्रसित गजेन्द्र की मुक्ति के
कारण, सुदर्शनचक्रधारी नवविकसित कमलपत्र-से नेत्रवाले नारायण
का भव-भयरूपी महान् दुःख की शान्ति के लिये, मैं प्रातः
स्मरण करता हूँ॥१॥
प्रातर्नमामि मनसा वचसा च मूर्धा
पादारविन्दयुगलं परमस्य पुंसः ।
नारायणस्य नरकार्णवतारणस्य
पारायणप्रवणविप्रपरायणस्य ॥२॥
वेदों का स्वाध्याय करनेवाले
विप्रों के परम आश्रय, नरकरूप संसारसमुद्र
से तारनेवाले, उस परमपुरुष के चरणारविन्दयुगल में सिर झुकाकर
मैं मन-वचन से प्रातःकाल नमस्कार करता हूँ॥२॥
प्रातर्भजामि भजतामभयङ्करं तं
प्राक्सर्वजन्मकृतपापभयापहत्यै ।
यो ग्राहवकत्रपतिताघ्रिगजेन्द्रघोर
शोकप्रणाशनकरो धृतशङ्खचक्रः ॥ ३॥
जिसने शङ्ख-चक्र धारण करके ग्राह के
मुख में पड़े हुए चरणवाले गजेन्द्र के घोर संकट का नाश किया,
भक्त को अभय करनेवाले उन भगवान्को मैं अपने पूर्वजन्मों के सब पापों
का नाश करने के लिये प्रातःकाल भजता हूँ॥३॥
॥ इति श्रीविष्णोः प्रातःस्मरणम्॥
प्रातःस्मरण
श्रीरामजी
प्रातः स्मरामि रघुनाथमुखारविन्दं
मन्दस्मितं मधुरभाषि विशालभालम् ।
कर्णावलम्बिचलकुण्डलशोभिगण्डं
कर्णान्तदीर्घनयनं नयनाभिरामम् ॥१॥
जो मधुर मुसकानयुक्त,
मधुरभाषी और विशाल भाल से सुशोभित हैं; कानों में
लटके हुए चञ्चल कुण्डलों से जिनके दोनों कपोल शोभित हो रहे हैं तथा जो कर्णपर्यन्त
विस्तृत बड़े-बड़े नेत्रों से शोभायमान और नेत्रों को आनन्द देनेवाले हैं, श्रीरघुनाथजी के ऐसे मुखारविन्द का मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ॥१॥
प्रातर्भजामि रघुनाथकरारविन्दं
रक्षोगणाय भयदं वरदं निजेभ्यः ।
यद्राजसंसदि विभज्य महेशचापं
सीताकरग्रहणमङ्गलमाप सद्यः ॥२॥
मैं प्रातःकाल श्रीरघुनाथजी के
करकमलों का स्मरण करता हूँ, जो राक्षसों को भय
देनेवाले और भक्तों के वरदायक हैं तथा जिन्होंने राजसभा में शङ्कर का धनुष तोड़कर
शीघ्र ही सीता का मङ्गलमय पाणिग्रहण किया था ।। २ ॥
प्रातर्नमामि रघुनाथपदारविन्दं
वज्राङ्कुशादिशुभरेखि सुखावहं मे ।
योगीन्द्रमानसमधुव्रतसेव्यमानं
शापापहं सपदि गौतमधर्मपत्न्याः ॥ ३
॥
मैं प्रातःकाल श्रीरघुनाथजी के
चरणकमलों को नमस्कार करता हूँ, जो वज्र,
अङ्कुश आदि शुभ रेखाओं से युक्त, मेरे लिये
सुखदायी, योगियों के मन-मधुप द्वारा सेवित और गौतमपत्नी
अहल्या के शाप को दूर करनेवाले हैं॥३॥
प्रातर्वदामि वचसा रघुनाथनाम
वाग्दोषहारि सकलं शमलं निहन्ति ।
यत्पार्वती स्वपतिना सह भोक्तुकामा
प्रीत्या सहस्रहरिनामसमं जजाप ॥४॥
मैं प्रातःकाल अपनी वाणी से
श्रीरघुनाथजी के नाम का जप करता हूँ, जो
वाणी के दोषों को नाश करनेवाला और सर्व पापों को हरनेवाला है तथा जिसे पार्वतीजी ने
अपने पति (शङ्कर) के साथ भोजन करने की इच्छा से, भगवान्के
सहस्रनाम के सदृश प्रीति सहित जपा था ॥ ४॥
प्रातः श्रये श्रुतिनुतां
रघुनाथमूर्ति
नीलाम्बुजोत्पलसितेतररत्ननीलाम् ।
आमुक्तमौक्तिकविशेषविभूषणाढ्यां
ध्येयां
समस्तमुनिभिर्जनमुक्तिहेतुम् ॥५॥
मैं प्रातःकाल श्रीरघुनाथजी की
वेदवन्दित मूर्ति का आश्रय लेता हूँ, जो
नीलकमल और नीलमणि के समान नीलवर्ण, लटकते हए मोतियों की माला
से विभूषित, समस्त मुनियों की ध्येय तथा भक्तों को मोक्ष
प्रदान करनेवाली है॥ ५॥
यः श्लोकपञ्चकमिदं प्रयतः पठेद्धि
नित्यं प्रभातसमये पुरुषः
प्रबुद्धः।
श्रीरामकिङ्करजनेषु स एव मुख्यो
भूत्वा प्रयाति हरिलोकमनन्यलभ्यम्
॥६॥
जो पुरुष प्रातःकाल नींद से जगकर
जितेन्द्रियभाव से इन पाँचों श्लोकों का नित्य पाठ करता है,
वह श्रीरामजी के सेवकों में मुख्य होकर श्रीहरि के लोक को, जो दूसरों के लिये दुर्लभ है, प्राप्त होता है।६॥
॥ इति श्रीरामस्य प्रातःस्मरणम्॥
प्रातःस्मरण
श्रीशिवजी
प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं
गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम् ।
खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशं
संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥१॥
जो सांसारिक भय को हरनेवाले और
देवताओं के स्वामी हैं, जो गङ्गाजी को धारण
करते हैं, जिनका वृषभ वाहन है, जो
अम्बिका के ईश हैं तथा जिनके हाथ में खट्वाङ्ग, त्रिशूल और
वरद तथा अभयमुद्रा है, उन संसार-रोग को हरने के निमित्त
अद्वितीय औषधरूप 'ईश' (महादेवजी) को
मैं प्रातःसमय में स्मरण करता हूँ॥१॥
प्रातर्नमामि गिरिशं गिरजार्द्धदेहं
सर्गस्थितिप्रलयकारणमादिदेवम् ।
विश्वेश्वरं विजितविश्वमनोऽभिरामं
ससाररागहरमौषधमद्वितीयम् ॥२ ॥
भगवती पार्वती जिनका आधा अङ्ग हैं,
जो संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारण
हैं, आदिदेव हैं, विश्वनाथ हैं,
विश्व-विजयी और मनोहर हैं, सांसारिक रोग को
नष्ट करने के लिये अद्वितीय औषधरूप उन गिरीश (शिव)को मैं प्रातःकाल नमस्कार करता
हूँ॥२॥
प्रातर्भजामि शिवमेकमनन्तमाद्यं
वेदान्तवेद्यमनघं पुरुषं महान्तम् ।
नामादिभेदरहितं षड्भावशून्यं
संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् ॥३॥
जो अन्त से रहित आदिदेव हैं,
वेदान्त से जाननेयोग्य, पापरहित एवं महान्
पुरुष हैं तथा जो नाम आदि भेदों से रहित, छ: भाव-विकारों
(जन्म, वृद्धि, स्थिरता, परिणमन, अपक्षय और विनाश) से शून्य, संसाररोग को हरने के निमित्त अद्वितीय औषध हैं, उन
एक शिवजी को मैं प्रातःकाल भजता हूँ॥३॥
प्रातः समुत्थाय शिवं विचिन्त्य
श्लोकत्रयं येऽनुदिनं पठन्ति ।
ते दुःखजातं बहुजन्मसञ्चितं
हित्वा पदं यान्ति तदेव शम्भोः ॥४॥
जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर शिव का
ध्यान कर प्रतिदिन इन तीनों श्लोकों का पाठ करते हैं,
वे लोग अनेक जन्मों के सञ्चित दुःखसमूह से मुक्त होकर शिवजी के उसी
कल्याणमय पद को पाते हैं ॥४॥
॥ इति श्रीशिवस्य प्रातःस्मरणम्॥
प्रातःस्मरण
भगवती(श्रीदेव्याः)
प्रातः स्मरामि शरदिन्दुकरोज्ज्वलाभां
सद्रत्नवन्मकरकुण्डलहारभूषाम् ।
दिव्यायुधोर्जितसुनीलसहस्त्रहस्तां
रक्तोत्पलाभचरणां भवतीं परेशाम् ॥ १
॥
जिनकी अंगकान्ति शारदीय चन्द्रमा की
किरण के समान उज्ज्वल है, जो उत्तम रत्न द्वारा
निर्मित मकराकृति कुण्डल और हार से विभूषित हैं, जिनके गहरे
नीले हजारों हाथ दिव्यायुधों से सम्पन्न हैं तथा जिनके चरण लाल कमल की कान्ति-
सदृश अरुण हैं, ऐसी आप परमेश्वरी का मैं प्रातः काल स्मरण
करता हूँ ॥ १ ॥
प्रातर्नमामि महिषासुरचण्डमुण्ड-
शुम्भासुरप्रमुखदैत्यविनाशदक्षाम् ।
ब्रह्मेन्द्ररुद्रमुनिमोहनशीललीलां
चण्डीं समस्तसुरमूर्तिमनेकरूपाम् ॥
२ ॥
जो महिषासुर,
चण्ड, मुण्ड, शुम्भासुर
आदि प्रमुख दैत्यों का विनाश करने में निपुण हैं, लीलापूर्वक
ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र और मुनियों को
मोहित करनेवाली हैं, समस्त देवताओं की मूर्तिस्वरूपा हैं तथा
अनेक रूपोंवाली हैं, उन चण्डी को मैं प्रातःकाल नमस्कार करता
हूँ ॥ २ ॥
प्रातर्भजामि भजतामभिलाषदात्रीं
धात्रीं समस्तजगतां
दुरितापहन्त्रीम् ।
संसारबन्धनविमोचनहेतुभूतां
मायां परां समधिगम्य परस्य विष्णोः
॥ ३ ॥
जो भजन करनेवाले भक्तों की अभिलाषा को
पूर्ण करनेवाली, समस्त जगत्का धारण-पोषण
करनेवाली, पापों को नष्ट करनेवाली, संसार-
बन्धन के विमोचन की हेतुभूता तथा परमात्मा विष्णु की परा माया हैं, उनका ध्यान करके मैं प्रातःकाल भजन करता हूँ ॥ ३ ॥
चाञ्चल्यारुणलोचनाञ्चितकृपां
चन्द्रार्कचूडामणिं
चारुस्मेरमुखां चराचरजगत्संरक्षणी
सत्पदाम् ।
चञ्चच्चम्पकनासिकाग्रविलसन्मुक्तामणीरञ्जितां
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवतीं
श्रीमातरं भावये ॥४॥
जिनके चञ्चल और अरुण नेत्रों से
करुणा प्रकट हो रही है, चन्द्रमा और सूर्य
जिनके मस्तक के आभूषण हैं, जिनका मुख सुन्दर मुसकान से
सुशोभित है, जो चराचर जगत्की रक्षिका हैं, सत्पुरुष जिनके विश्रामस्थान है, शोभायमान चम्पा के
समान सुन्दर नासिका के अग्रभाग में मोती की बुलाक जिनकी शोभा बढ़ा रही है, उन श्रीशैल पर निवास करनेवाली भगवती श्रीमाता का मैं स्मरण करता हूँ॥४॥
कस्तूरीतिलकाञ्चितेन्दुविलसत्प्रोद्भासिभालस्थलीं
कर्पूरद्रवमिश्रचूर्णखदिरामोदोल्लसद्वीटिकाम्
।
लोलापाङ्गतरङ्गितैरधिकृपासारैर्नतानन्दिनीं
श्रीशैलस्थलवासिनीं भगवती श्रीमातरं
भावये ॥५॥
जिनका ललाट कस्तूरी की बेंदी से
विभूषित और चन्द्रमा के समान प्रकाशमान है, जिनके
मुख में कपूर के रस से युक्त चूना और खैर की सुगन्ध से पूर्ण पान का बीडा शोभा दे
रहा है, जो अपन चञ्चल कटाक्षों से तरंगायमान करुणा की
धारावाहिनी वृष्टि से प्रणत भक्तों का आनन्द देनेवाली है, श्रीशैल
पर निवास करनेवाली उन भगवती श्रीमाता का मैं स्मरण करता हूँ॥५॥
॥ इति श्रीदेव्याः प्रातःस्मरणम्।।
प्रातःस्मरण
श्रीसूर्यदेव
प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं
रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि ।
सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं
ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम्
॥१ ॥
मैं सूर्यभगवान्के उस श्रेष्ठरूप को
प्रातःसमय स्मरण करता हूँ; जिसका मण्डल ऋग्वेद
है, तनु यजुर्वेद है और किरणें सामवेद हैं और जो ब्रह्मा का
दिन है, जगत्की उत्पत्ति, रक्षा और नाश
का कारण है तथा लक्ष्य और अचिन्त्यस्वरूप है ॥१॥
प्रातर्नमामि तरणिं तनुवाङ्मनोभि
ब्रह्मेन्द्रपूर्वकसुरैर्नुतमर्चितं
च ।
वृष्टिप्रमोचनविनिग्रहहेतुभूतं
त्रैलोक्यपालनपरं त्रिगुणात्मकं च ॥
२॥
मैं प्रातःसमय शरीर,
वाणी और मन के द्वारा ब्रह्मा, इन्द्र आदि
देवताओं से स्तुत और पूजित, वृष्टि के कारण एवं अवृष्टि के
हेतु, तीनों लोकों के पालन में तत्पर और सत्त्व आदि त्रिगुणरूप
धारण करनेवाले तरणि (सूर्यभगवान्) को नमस्कार करता हूँ॥२॥
प्रातर्भजामि सवितारमनन्तशक्तिं
पापौघशत्रुभयरोगहरं परं च ।
तं सर्वलोककलनात्मककालमूर्ति
गोकण्ठबन्धनविमोचनमादिदेवम् ॥३॥
जो पापों के समूह तथा शत्रुजनित भय
एवं रोगों का नाश करनेवाले हैं, सबसे उत्कृष्ट
हैं, सम्पूर्ण लोकों के समय की गणना के निमित्त भूत
कालस्वरूप हैं और गौओं के कण्ठबन्धन छुड़ानेवाले हैं, उन
अनन्तशक्तिसम्पन्न आदिदेव सविता (सूर्य भगवान्) को मैं प्रातःकाल भजता हूँ॥३॥
श्लोकत्रयमिदं भानोः प्रातःकाले
पठेत्तु यः।
स सर्वव्याधिनिर्मुक्तः परं
सुखमवाप्नुयात् ॥ ४ ॥
जो मनुष्य प्रातःकाल सूर्य के
स्मरणरूप इन तीनों श्लोकों का पाठ करता है; वह
सब रोगों से मुक्त होकर परम सुख प्राप्त कर सकता है।॥ ४॥
॥ इति श्रीसूर्यप्रातःस्मरणम्॥
प्रातःस्मरण
श्रीभगवद्भक्तानाम्
प्रह्लादनारदपराशरपुण्डरीक
व्यासाम्बरीषशुकशौनकभीष्मदाल्भ्यान्
।
रुक्माङ्गदार्जुनवसिष्ठविभीषणादीन्
पुण्यानिमान् परमभागवतान् स्मरामि
॥१॥(पाण्डवगीतायाः)
प्रह्लाद,
नारद, पराशर, पुण्डरीक,
व्यास, अम्बरीष, शुक,
शौनक, भीष्म, दाल्भ्य,
रुक्माङ्गद, अर्जुन, वसिष्ठ
और विभीषण आदि इन परम पवित्र वैष्णवों का मैं (प्रातःकाल) स्मरण करता हूँ॥१॥
वाल्मीकिः सनकः सनन्दनतरुासो
वसिष्ठो भृगु
र्जाबालिर्जमदग्निकच्छजनको
गर्गोऽङ्गिरा गौतमः ।
मान्धाता ऋतुपर्णवैन्यसगरा धन्यो
दिलीपो नलः
पुण्यो धर्मसुतो ययातिनहुषौ
कुर्वन्तु नो मङ्गलम ॥२॥(मङ्गलाष्टकात्)
वाल्मीकि,
सनक, सनन्दन, तरु,
व्यास, वसिष्ठ, भृगु,
जाबालि, जमदग्नि, कच्छ,
जनक, गर्ग, अङ्गिरा,
गौतम, मान्धाता, ऋतुपर्ण,
पृथु, सगर, धन्यवाद
देनेयोग्य दिलीप और नल, पुण्यात्मा युधिष्ठिर, ययाति और नहुष-ये सब हमारा मङ्गल करें ॥ २॥
प्रातःस्मरणीय अन्य स्तुति
पुण्यश्लोकजनों की स्तुति
पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको
युधिष्ठिर: ।
पुण्यश्लोका च वैदेही पुण्यश्लोको
जनार्दन: ॥१॥
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च
विभीषण: ।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन:
॥२॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं
मार्कण्डेयमथाष्टमम् ।
जीवेद्वर्षशतं सोऽदी
सर्वव्याधिविवजित:॥३॥
अहल्या द्रौपदी सीता तारा मन्दोदरी
तथा ।
पञ्चकन्याः स्मरेन्नित्यं
महापातकनाशनम् ॥४॥
उमा उषा च वैदेही रमा गङगेति
पञ्चकम् ।
प्रातरेव पठेन्नित्यं सौभाग्यं
वर्धते सदा ॥५॥
सोमनाथो वैजनाथो धन्वन्तरिरथाश्विनौ
।
पञ्चैतान्य: स्मरेन्नित्यं
व्याधिस्तस्य न जायते ॥६॥
हरं हरिं हरिश्चन्द्रं हनूमन्तं
हलायुधम् ।
पञ्चकं वै स्मरेन्नित्यं
घोरसङकटनाशनम् ॥७॥
रामं स्कन्दं हनूमन्तं वैनतेयं
वृकोदरम् ।
पञ्चैतान् संस्मरेन्नित्यं भवबाधा
विनश्यति ॥८॥
रामलक्ष्मणौ सीता च सुग्रीवो
हनुमान् कपि: ।
पञ्चैतान् स्मरतो नित्यं महाबाधा
प्रमुच्यते ॥९॥ (पद्मपुराण)
नवग्रहों की स्तुति
ब्रह्मा मुरारिस्रिपुरान्तकारी
भानु: शशी भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्र: शनिराहुकेतव:
कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥
(वामनपुराण)
वेदोक्त प्रातःस्मरण-सूक्त
ॐ प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रर्ठ०
हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्चिना ।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पति
प्रात: सोममुत रुद्रर्ठ० हुवेम ॥१॥
प्रातर्ज्जितं भगमुग्रर्ठ० हुवेम
व्वयं पुत्रमदितेर्यो व्विधर्त्ता ।
आध्रश्चिद्यं
मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ॥२॥
भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां
धियमुदवा ददन्न: ।
भग प्र नो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र
नृभिर्नृवन्त: स्याम ॥३॥
उतेदानीं भगवन्त: स्यामोत प्रपित्व
ऽउत मध्येऽअह्नाम् ।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य व्वयं
देवाना सुमतौ स्याम ॥४॥
भग ऽएव भगवाँ२ ऽअस्तु देवास्तेन
व्वयं भगवन्त: स्याम ।
तं त्वा भग सर्व्व ऽइज्जोहवीति स नो
भग पुरऽएता भवेह ॥५॥
समध्वरायोषसोऽनमन्त दधिक्रावेव
शुचये पदाय ।
अर्व्वाचीनं व्वसुविदं भगं नो
रथमिवाश्वा व्वाजिनऽआवहन्तु ॥६॥
अश्वावतीर्गोमतीर्न ऽउषासो
व्वीरवती: सदमुच्छन्तु भद्रा: ।
घृतं दुहाना व्विश्वत: प्रपीता यूयं
पात स्वस्तिभि: सदा न: ॥७॥
॥ श्रीहनूमत्स्मरणम् ॥
प्रातः स्मरामि
हनुमन्तमनन्तवीर्यंश्रीरामचन्द्रचरणाम्बुजचञ्चरीकम् ।
लङ्कापुरीदहननन्दितदेववृन्दं
सर्वार्थसिद्धिसदनं प्रथितप्रभावम् ॥ १॥
माध्यं नमामि वृजिनार्णवतारणैक -
धीरं शरण्यमुदितानुपमप्रभावम् ।
सीताऽऽधिसिन्धुपरिशोषणकर्मदक्षं
वन्दारुकल्पतरुमव्ययमाञ्जनेयम् ॥ २॥
सायं भजामि शरणोपसृताखिलार्ति -
पुञ्जप्रणाशनविधौ प्रथितप्रतापम् ।
अक्षान्तकं सकलराक्षसवंशधूम - केतुं
प्रमोदितविदेहसुतं दयालुम् ॥ ३॥
भगवत्स्तुतिः
त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव
बन्धुश्च सखा त्वमेव ।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ १॥
पिता माता गुरुर्भ्राता सखा
बन्धुस्त्वमेव मे ।
विद्या सत्कर्म वित्तं च
पुरस्पृष्ठे च पार्श्वयोः ॥ २॥
जन्मभूमिदर्शनफलम्
कपिलागोसहस्रं च यो ददाति दिनेदिने
।
तत्फलं समवाप्नोति जन्मूभूमेः
प्रदर्शनात् ॥ १॥
जन्मान्तरसहस्रेण यत्पापं
समुपार्जितम् ।
तत्सर्वं नाशमाप्नोति जन्मभूमेः
प्रदर्शनात् ॥ २॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी
लभते धनम् ।
मोक्षार्थी मोक्षमाप्नोति जन्मभूमेः
प्रदर्शनात् ॥ ३॥
तुलसीस्तुतिः
देवैस्त्वं निर्मिता
पूर्वमर्चिताऽसि मुनीश्वरैः ।
नमो नमस्ते तुलसि! पापं हर
हरिप्रिये ॥ १॥
यन्मूले सर्वतीर्थानि यन्मध्ये
सर्वदेवताः ।
यदग्रे सर्ववेदाश्च तुलसि! त्वां
नमाम्यहम् ॥ २॥
दत्तात्रेयस्तुतिः
पीताम्बरालङ्कृतपृष्ठभागं
भस्मावगुण्ठाऽखिलरुक्मदेहम् ।
विद्युत्सदापिङ्गजटाभिरामं
श्रीदत्तयागीशमहंनतोऽस्मि ॥ १॥
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केक्त्यं ज्ञानमूर्तिं
द्वन्द्वातीतं
गगनसदृशंतत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् ।
एक नित्यं विमलमचलं
सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं
नमामि ॥ २॥
पाण्डुरङ्गस्तुतिः
समचरणसरोजं सान्द्रनीलाम्बुदाभं
जघननिहितपाणिं मण्डनं मण्डनानाम् ।
तरुणतुलसिमालाकन्धरं कञ्जनेत्रं
सदयधवलहासं विट्ठलं चिन्तयामि ॥
बुद्धस्तुतिः
ध्यानव्याजमुपेत्य चिन्तयसि
कामुन्मील्य चक्षुः क्षणं
पश्याऽनङ्गशरातुरं जनमिमं त्राताऽपि
नो रक्षसि ।
मिथ्याकारुणिकोऽसि
निर्घृणतरस्त्वत्तः कुतोऽन्यः पुमान् ।
शश्वन्मारवधूभिरित्यभिहितो बुद्धो जिनः पातु वः
॥
जिनस्तुतिः
आबाहूद्गतमण्डलाग्ररुचयः
सन्नद्धवक्षःस्थलाः
सोष्माणो व्रणिनो
विपक्षहृदयप्रोन्माथिनः कर्कशाः ।
उत्सृष्टाम्बरदृष्टिविभ्रमभरा यस्य
स्मराग्रेसरा
योधा वारवधूस्तनाश्च न दधुः क्षोभं
स वोऽव्याज्जिनः ॥
जिनेन्द्रस्तुतिः
सम्पूजकानां प्रतिपालकानां
यतीन्द्रसामान्यतपोधनानाम् ।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः
करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्रः ॥
महावीरस्तुतिः
यदीये चैतन्ये मुकुर इव
भावाश्चिदचितः
समं भ्रान्तिं
ध्रौव्यव्ययजनिलसन्तोऽन्तरहिताः ।
जगत्साक्षी मार्गप्रकटनपरो भानुरिव
यो
महावीरः स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥
सत्यरूपस्तुतिः
सत्यरूपं सत्यसन्धं सत्यनारायर्ण
हरिणे
यत्सत्यत्वेन जगतस्तं सत्यं त्वां
नमाम्यहम् ॥ १॥
त्रैलोक्यचैतन्यमयादिदेव! श्रीनाथ!
विष्णो! भवदाज्ञया वै
प्रातः समुत्थाय तव प्रियार्थं
संसारयात्रामनुवर्तयिष्ये ॥ २॥
दुःस्वप्ननाशनदेवस्मरणम्
अविमुक्तचरणयुगलं दक्षिणमूर्तेश्च
कुक्कुटचतुष्कम् ।
स्मरणं वाराणस्यां निहन्ति
स्वप्नमशकुनं च ॥
प्रातर्वन्दनीयस्तुतिः
प्रातःकाले पिता माता ज्येष्ठभ्राता
तथैव च ।
आचार्याः स्थविराश्चैव वन्दनीया
दिने दिने ॥
प्रातर्दर्शनम्
कपिलां दर्पणं धेनुं भाग्यवन्तं च
भूपतिम् ।
आचार्यं अन्नदातारं प्रातः पश्येद्
बुधो जनः ॥ १॥
श्रोत्रियं सुभगां गां च
अग्निमग्निचितिं तथा ।
प्रातरुत्थाय यः पश्येदापद्भ्यः स
विमुच्यते ॥ २॥
॥ इति प्रातःस्मरणम्॥
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