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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
योनि स्तोत्र
प्रस्तुत योनि स्तोत्र “निगमकल्पद्रुम तन्त्र” से उद्धृत है । इसमें स्पष्ट किया
गया है कि योनि-प्रदेश में सभी शक्तियों का निवास है । ब्रह्मा, विष्णु, महेश
की यह प्राण स्वरूपा है । यह समस्त देवों द्वारा स्तुत्य, पूजित
एवं सम्पूर्ण जगत् की उत्पन्नकर्त्री है तथा समस्त पापों का नाश करने वाली
सम्पूर्ण तीर्थस्थान स्वरूपा है। कोई भी तीर्थाटन, तर्पण, पुरश्चरण आदि किये बिना ही, केवल योनिपूजन मात्र से
ही साधक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है।
योनि स्तोत्रम्
Yoni stotram
महादेव उवाच-
शृणु देवि सुर-श्रेष्ठे सुरासुर –
नमस्कृते ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि स्तोत्रं हि
सर्वदुर्लभम् ।
यस्याव वोधनाद्देहे देही ब्रहामयो
भवेत् ॥१॥
महादेव बोले-
हे देवि! सुर-असुरों द्वारा नमस्कृत इस दुर्लभ स्तोत्र का तुम श्रवण करो । इसकी
अवधारणा करने से जीव ब्रह्ममय हो जाता है।
श्रीपार्वत्युवाच-
शृणु देवी सुरश्रेष्ठ सर्व - बीजस्य
सम्मतम् ।
न वक्तव्यं कदाचित्तु पाखण्डे
नास्तिके नरे ॥२॥
ममैव प्राण - सर्वस्वं लतास्तोत्रं
दिगम्बर ।
अस्य प्रपठनाद्देव जीवन्मुक्तोऽपि
जायते ॥३॥
तब पार्वती जी बोली- हे देव!
यह सभी बीजों का सार है। पाखण्डियाँ और नास्तिकों से इसे कभी नहीं कहना चाहिए । यह
मेरे प्राणों का सर्वस्व है। इसका पाठ करने से जीव आवागमन से छूट जाता है।
योनिस्तोत्रम्
ॐ भग-रूपा जगन्माता सृष्टि-स्थिति-लयान्विता
।
दशविद्या - स्वरूपात्मा योनिर्मां
पातु सर्वदा ॥४॥
इस सृष्टि की उत्पत्ति,
पालन एवं संहार करने वाली जगन्माता भग स्वरूपिणी है । यह योनि ही
दशविद्या-स्वरूपा है । अतः यह योनि सदैव मेरी रक्षा रक्षा करे।
कोण-त्रय-युता देवि स्तुति-निन्दा-विवर्जिता
।
जगदानन्द - सम्भूता योनिर्मा पातु
सर्वदा ॥५॥
हे देवि! यह त्रिकोणात्मिका योनि
स्तुति और निंदा से रहित है। जगत के समस्त सुखों का मूलभूत कारण इस योनि से सदैव
ही मेरा रक्षण होता रहे ।
रक्त-रूपा जगन्माता योनिमध्ये सदा
स्थिता ।
ब्रह्म-विष्णु-शिव-प्राणा योनिर्मां
पातु सर्वदा ॥६॥
योनि के मध्य में जगज्जननी रक्त के
रूप में सदा ही स्थित रहती है। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की प्राण-स्वरूपा योनि से
सदैव ही मेरी रक्षा हो।
कार्त्रिंकी - कुन्तलं रूपं
योन्युपरि सूशोभितम् ।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदा योनिः योनिमा
पातु सर्वदा ॥७॥
जिस योनि के ऊपर कुन्तल रूप (बालों
के रूप में) में कार्तिकी विराजित हैं, जो
योनि भुक्ति-मुक्ति प्रदान करने वाली हैं, वह सदैव ही मेरी
रक्षा करें।
वीर्यरूपा शैलपुत्री मध्यस्थाने
विराजिता ।
ब्रह्म-विष्णु-शिव श्रेष्ठा
योनिर्मां पातु सर्वदा ॥८॥
योनि के मध्य भाग में वीर्य रूपिणी शैलपुत्री देवी (नवदुर्गा का प्रथम स्वरूप) विराजित हैं । जो ब्रह्मा,
विष्णु तथा शिव के प्राणों का आधार
है, वह योनि सदा ही मेरी रक्षा करे।
योनिमध्ये महाकाली छिद्धरूपा
सुशोभना ।
सुखदा मदनागारा योनिर्मा पातु
सर्वदा ॥९॥
योनि के मध्य स्थान में छिद्ररूपिणी
महाकाली का निवास है जो मदनगृह की सुखदायिनी है । ऐसी योनि के द्वारा मेरी
सदैव रक्षा होती रहे।
काल्यादि-योगिनी देवी योनिकोणेषु
संस्थिता ।
मनोहरा दुःख लभ्या योनिर्मा पातु
सर्वदा ॥१०॥
योनि के कोण में काली,
योगिनी आदि देवियों का निवास है;
ऐसी दुख हरने वाली योनि से सदा ही मेरी रक्षा हो ।
सदाशिवो मेरु - रूपो योनिमध्ये
वसेत् सदा ।
कैवल्यदा काममुक्ता योनिर्मा पातु
सर्वदा ॥११॥
योनि के मध्य में सदाशिव सदैव
ही मेरु के रूप में अवस्थित रहते हैं। ऐसी काममुक्ता कैवल्य पद प्रदान करने वाली
योनि के द्वारा सदैव ही मेरी रक्षा होती रहे।
सर्व - देव स्तुता योनिः
सर्व-देव-प्रपूजिता ।
सर्व - प्रसवकर्त्री त्वं योनिर्मा
पातु सर्वदा ॥१२॥
जो योनि सभी देवों द्वारा स्तुत्य,
आराधित तथा इस सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति करने वाली है, उससे मेरा रक्षण होता रहे।
सर्व-तीर्थ-मयी योनिः
सर्व-पाप-प्रणाशिनी ।
सर्वगेहे स्थिता योनिः योनिर्मा
पातु सर्वदा ॥१३॥
ऐसी योनि जो समस्त तीर्थ-स्थानों के
समान है,
समस्त पापों का नाश करने वाली है और जो समस्त प्राणियों में अवस्थित
है, उसके द्वारा सदैव ही मेरी रक्षा होती रहे।
मुक्तिदा धनदा देवी सुखदा कीर्तिदा
तथा ।
आरोगयदा वीर - रता पञ्च-तत्त्व-युता
सदा ॥१४॥
वह देवी (योनि) मुक्तिप्रदाता,
धनप्रदाता, सुख देने वाली, कीर्ति प्रदान करने वाली तथा आरोग्य प्रदान करने वाली के रूप में सदैव ही
पंचतत्वों से युक्त रहती है ।
योनि-स्तोत्रम् महात्म्य
योनिस्तोत्रमिदं प्रोक्तं यः पठेत्
योनि-सन्निधौ ।
शक्तिरूपा महादेवी तस्य गेहे सदा
स्थिता ॥१५॥
जो साधक योनिपीठ के सम्मुख होकर इस
स्तोत्र का पाठ करता है, उसके घर में सदा ही
शक्तिरूपा महादेवी का निवास रहता है।
तीर्थ पर्यटनं नास्ति नास्ति
पूजादि-तर्पणम् ।
पुरश्चरणं नास्त्येव तस्य
मुक्तिरखण्डिता ॥१६॥
केवलं मैथुनेनैव शिव- न संशयः।
सत्यं सत्यं पुनः सत्यं मम वाक्यं
वृथ नहि ॥१७॥
तीर्थ का भ्रमण,
तर्पण, पुरश्चरण आदि किये बिना ही एक योनिपूजक मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। केवल संभोग
मात्र से ही वह शिव के समान हो जाता है। यह बात एकदम सत्य है। मेरा कहा हुआ
यह वचन कभी व्यर्थ नहीं हो सकता ।
यदि मिथ्या मया प्रोक्ता तव
हत्या-सुपातकी ।
कृताञ्जलि-पुटो भूत्वा पठेत् स्तोत्रं
दिगम्बर! ॥१८॥
यदि मेरा कथन मिथ्या हो जाये तो वह
तुम्हारी हत्या के समान है। कृतांजलि देकर नग्नावस्था में इस स्तोत्र का पाठ करना
उचित है।
सर्वतीर्थेषु यत् पुण्यं लभते च स
साधकः।
काल्यादि-दश विद्याश्च
गंगादि-तीर्थ-कोटयः।
योनि-दर्शन-मात्रेण सर्वाः
साक्षान्न संशय ॥१९॥
सभी तीर्था का दर्शन,
गंगा-स्नान तथा समस्त दशों विद्याओं का
पूजन आदि करके साधक को जो फल प्राप्त होता है, वह वही फल
केवल योनि दर्शन से ही प्राप्त कर लेता है। इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं करना
चाहिए ।
कुल-सम्भव-पूजायामादौ चान्ते पठेदिदम्
।
अन्यथा पूजनाद्देव रमणं मरणं भवेत्
॥२०॥
सबसे पहले कुलाचार के अनुसार पूजन
करके साधक को स्तोत्र-पाठ करना चाहिए अन्यथा मैथुन करने से निश्चय ही मृत्यु होती
है।
एकसन्ध्यां त्रिसन्ध्यां वा पठेत्
स्तोत्रमनन्यधीः।
निशायां सम्मुखे-शक्त्याः स शिवो
नात्र संशयः॥२१॥
जो योग्य साधक दिन में एक बार अथवा
तीनों संध्याओं में पाठ करके अपनी सामर्थ्य के अनुसार रात्रि में भी पाठ करता है
वह शिव-सदृश हो जाता है। इसमें किसी भी प्रकार का संशय नहीं करना चाहिए।
इति निगमकल्पद्रमे योनिस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
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