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कर्मकाण्ड

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भीष्म स्तवराज

भीष्म स्तवराज

महाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में ४७ अध्याय में वर्णित इस गङ्गापुत्र भीष्मजी द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति- भीष्म स्तवराज का जो मनुष्य पठन या श्रवण करते हैं, उनके सारे पापों का नाश हो जाता है और अन्त में उन्हें भगवान् श्रीकृष्ण के अमृतमय दिव्य धाम को प्राप्त होता है ।

भीष्मकृत श्रीकृष्ण स्तुति- भीष्मस्तवराज

Bhishma stavaraj

जब दक्षिणायन समाप्त हुआ और सूर्य उत्तरायण में आ गये, तब चारों ओर अपनी किरणें बिखेरनेवाले सूर्य के समान सैकड़ों बाणों से छिदे हुए भीष्मजी को अनेकानेक श्रेष्ठ ब्राह्मण, महात्मा मुनि घेरे हुए खड़े थे। इन ऋषियों के बीच भीष्मजी ग्रहों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान शोभा पा रहे थे । पुरुषसिंह भीष्म शरशय्या पर ही पड़े-पड़े हाथ जोड़ पवित्र भाव से मन, वाणी और क्रिया द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगे। ध्यान करते-करते वे हृष्ट-पुष्ट(गंभीर) स्वर से भगवान् मधुसूदन की स्तुति करने लगे । वाग्वेत्ताओं में श्रेष्ठ, शक्तिशाली, परम धर्मात्मा भीष्म ने हाथ जोड़कर योगेश्वर, पद्मनाभ, सर्वव्यापी, विजयशील जगदीश्वर वासुदेव की इस प्रकार स्तुति आरम्भ की।

भीष्म स्तवराज

भीष्मस्तवराजः

भीष्म उवाच

आरिराधयिषुः कृष्णं वाचं जिगदिषामि याम् ।

तया व्याससमासिन्या प्रीयतां पुरुषोत्तमः ॥ १ ॥

भीष्मजी बोले- मैं श्रीकृष्ण के आराधन की इच्छा मन में लेकर जिस वाणी का प्रयोग करना चाहता हूँ, वह विस्तृत हो या संक्षिप्त, उसके द्वारा वे पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों ॥

शुचि शुचिपदं हंसं तत्पदं परमेष्ठिनम् ।

युक्त्वा सर्वात्मनाऽऽत्मानं तं प्रपद्ये प्रजापतिम् ॥ २ ॥

जो स्वयं शुद्ध हैं, जिनकी प्राप्ति का मार्ग भी शुद्ध है, जो हंसस्वरूप, तत् पद के लक्ष्यार्थ परमात्मा और प्रजापालक परमेष्ठी हैं, मैं सब ओर से सम्बन्ध तोड़ केवल उन्ही से नाता जोड़कर सब प्रकार से उन्हीं सर्वात्मा श्रीकृष्ण की शरण लेता हूँ ॥

अनाद्यन्तं परं ब्रह्म न देवा नर्षयो विदुः ।

एको यं वेद भगवान् धाता नारायणो हरिः ॥ ३ ॥   

उनका न आदि है न अन्त। वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं। उनको न देवता जानते हैं न ऋषि । एकमात्र सबका धारण-पोषण करनेवाले ये भगवान् श्रीनारायण हरि ही उन्हें जानते हैं ॥

नारायणादपिगणास्तथा सिद्धमहोरगाः ।

देवा देवर्षयश्चैव यं विदुः परमव्ययम् ॥ ४ ॥

नारायण से ही ऋषिगण, सिद्ध, बड़े-बड़े नाग, देवता तथा देवर्षि भी उन्हें अविनाशी परमात्मा के रूप में जानने लगे हैं॥

देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ।

यं न जानन्ति को ह्येष कुतो वा भगवानिति ॥ ५ ॥  

देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी जिनके विषय में यह नहीं जानते हैं कि ये भगवान् कौन हैं ? तथा कहाँ से आये हैं ?'

यस्मिन् विश्वानि भूतानि तिष्ठन्ति च विशन्ति च ।

गुणभूतानि भूतेशे सूत्रे मणिगणा इव ॥ ६ ॥

उन्हीं में सम्पूर्ण प्राणी स्थित हैं और उन्हीं में उनका लय होता है। जैसे डोरे में मन के पिरोये होते हैं, उसी प्रकार उन भूतेश्वर परमात्मा में समस्त त्रिगुणात्मक भूत पिरोये हुए हैं ॥

यस्मिन् नित्ये तते तन्तौ दृढे स्रगिव तिष्ठति ।

सदसद्ग्रथितं विश्वं विश्वाङ्गे विश्वकर्मणि ॥ ७ ॥

भगवान् सदा नित्य विद्यमान ( कभी नष्ट न होनेवाले) और तने हुए एक सुदृढ सूत के समान हैं। उनमें यह कार्य- कारणरूप जगत् उसी प्रकार गुंथा हुआ है, जैसे सूत में फूल की माला । यह सम्पूर्ण विश्व उनके ही श्रीअङ्ग में स्थित है; उन्होंने ही इस विश्व की सृष्टि की है ॥

हरिं सहस्रशिरसं सहस्रचरणेक्षणम् ॥ 

सहस्रबाहुमुकुट सहस्रवदनोज्ज्वलम् ॥ ८ ॥

उन श्रीहरि के सहस्रों सिर, सहस्रों चरण और सहसों नेत्र हैं, वे सहस्रों भुजाओं, सहस्रों मुकुटों तथा सहस्रों मुखों से देदीप्यमान रहते हैं ॥

प्राहुर्नारायणं देवं यं विश्वस्य परायणम् ॥ 

अणीय सामणीयांसं स्थविष्ठं च स्थवीयसाम् ।

गरीयसां गरिष्ठं च श्रेष्ठं च श्रेयसामपि ॥ ९ ॥

वे ही इस विश्व के परम आधार हैं। इन्हीं को नारायणदेव कहते हैं। वे सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और स्थूल से भी स्थूल हैं। वे भारी से भारी और उत्तम से भी उत्तम हैं । 

यं वाकेष्वनुवाकेषु निषत्सूपनिषत्सु च ।

गृणन्ति सत्यकर्माणं सत्यं सत्येषु सामसु ॥ १० ॥

वाकों(सामान्यतः कर्ममात्र को प्रकाशित करनेवाले मन्त्रों को 'वाक' कहते हैं।) और अनुवाकों(मन्त्रों के अर्थ को खोलकर बतानेवाले ब्राह्मणग्रन्थों के जो वाक्य हैं, उनका नाम 'अनुवाक' है।) में, निषदों(कर्म के अङ्ग आदि से सम्बन्ध रखनेवाले देवता आदि का ज्ञान करानेवाले वचन 'निषद्' कहलाते हैं।) और उपनिषदों(विशुद्ध आत्मा एवं परमात्मा का ज्ञान करानेवाले वचनों- की 'उपनिषद्' संज्ञा है।) में तथा सच्ची बात बतानेवाले साममन्त्रों में उन्हीं को सत्य और सत्यकर्मा कहते हैं ॥

चतुर्भिश्चतुरात्मानं सत्त्वस्थं सात्वतां पतिम् ।

यं दिव्यैर्देवमर्चन्ति गुह्यैः परमनामभिः ॥ ११ ॥

वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इन चार दिव्य गोपनीय और उत्तम नाम द्वारा ब्रह्म, जीव, मन और अहङ्कार- इन चार स्वरूपों में प्रकट हुए उन्हीं भक्तप्रतिपालक भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की जाती है, जो सबके अन्तःकरण में विद्यमान हैं ॥

यस्मिन् नित्यं तपस्तप्तं यदङ्गेष्वनुतिष्ठति ।

सर्वात्मा सर्ववित् सर्वः सर्वशः सर्वभावनः ॥ १२ ॥

भगवान् वासुदेव की प्रसन्नता के लिये ही नित्य तप का अनुष्ठान किया जाता है; क्योंकि वे सबके हृदयों में विराजमान हैं। वे सबके आत्मा, सबको जाननेवाले, सर्वस्वरूप, सर्वज्ञ और सबको उत्पन्न करनेवाले हैं ॥

यं देवं देवकी देवी वसुदेवादजीजनत् ।

भौमस्य ब्रह्मणो गुप्त्यै दीप्तमग्निमिवारणिः ॥ १३ ॥

जैसे अरणि प्रज्वलित अग्नि को प्रकट करती है, उसी प्रकार देवकीदेवी ने इस भूतल पर रहनेवाले ब्राह्मणों, वेदों और यश की रक्षा के लिये उन भगवान्को वसुदेवजी के तेज से प्रकट किया था ॥

यमनन्यो व्यपेताशीरात्मानं वीतकल्मषम् ।

दयानन्त्याय गोविन्दं पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १४ ॥

अतिवारिचन्द्रकर्माणमतिसूर्यातितेजसम् ।

अतिबुद्धीन्द्रियात्मानं तं प्रपद्ये प्रजापतिम् ॥ १५ ॥

सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके अनन्यभाव से स्थित रहनेवाला साधक मोक्ष के उद्देश्य से अपने विशुद्ध अन्तः- करण में जिन पापरहित शुद्ध बुद्ध परमात्मा गोविन्द का ज्ञानदृष्टि से साक्षात्कार करता है, जिनका पराक्रम वायु और इन्द्र से बहुत बढ़कर है, जो अपने तेज से सूर्य को भी तिरस्कृत कर देते हैं तथा जिनके स्वरूप तक इन्द्रिय, मन और बुद्धि की भी पहुँच नहीं हो पाती, उन प्रजापालक परमेश्वर की मैं शरण लेता हूँ ।।

पुराणे पुरुषं प्रोक्तं ब्रह्म प्रोक्तं युगादिषु ।

क्षये संकर्षणं प्रोक्तं तमुपास्यमुपास्महे ॥ १६ ॥

पुराणों में जिनका 'पुरुष' नाम से वर्णन किया गया है, जो युगों के आरम्भ में 'ब्रह्म' और युगान्त में 'सङ्कर्षण' कहे गये हैं, उन उपास्य परमेश्वर की हम उपासना करते हैं ॥

यमेकं बहुधाऽऽत्मानं प्रादुर्भूतमधोक्षजम् ।

नान्यभक्ताः क्रियावन्तो यजन्ते सर्वकामदम् ॥ १७ ॥

यमाहुर्जगतः कोशं यस्मिन् संनिहिताः प्रजाः ।

यस्मिँल्लोकाः स्फुरन्तीमे जले शकुनयो यथा ॥ १८ ॥

ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म यत् तत् सदसतोः परम् ।

अनादिमध्यपर्यन्तं देवा नर्पयो विदुः ॥ १९ ॥

यं सुरासुरगन्धर्वाः सिद्धा ऋषिमहोरगाः ।

प्रयता नित्यमर्चन्ति परमं दुःखभेषजम् ॥ २० ॥

अनादिनिधनं देवमात्मयोनिं सनातनम् ।

अप्रेक्ष्यमनभिज्ञेयं हरिं नारायणं प्रभुम् ॥ २१ ॥

जो एक होकर भी अनेक रूपों में प्रकट हुए हैं, जो इन्द्रियों और उनके विषयों से ऊपर उठे होने के कारण 'अधोक्षज' कहलाते हैं, उपासकों के समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं, यज्ञादि कर्म और पूजन में लगे हुए अनन्य भक्त जिनका यजन करते हैं, जिन्हें जगत्‌ का कोषागार कहा जाता है, जिनमें सम्पूर्ण प्रजाएँ स्थित हैं, पानी के ऊपर तैरनेवाले जलपक्षियों की तरह जिनके ही ऊपर इस सम्पूर्ण जगत् की चेष्टाएँ हो रही है, जो परमार्थ सत्यस्वरूप और एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव) हैं, सत् और असत् से विलक्षण हैं, जिनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है, जिन्हें न देवता ठीक-ठीक जानते हैं और न ऋषि, अपने मन और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए सम्पूर्ण देवता, असुर, गन्धर्व, सिद्ध, ऋषि, बड़े- बड़े नागगण जिनकी सदा पूजा किया करते हैं, जो दुःख- रूपी रोग की सबसे बड़ी ओषधि हैं, जन्म-मरण से रहित, स्वयम्भू एवं सनातन देवता हैं, जिन्हें इन चर्मचक्षुओं से देखना और बुद्धि के द्वारा सम्पूर्णरूप से जानना असम्भव है, उन भगवान् श्रीहरि नारायण देव की मैं शरण लेता हूँ ॥

यं वै विश्वस्य कर्तारं जगतस्तस्थुषां पतिम् ।

वदन्ति जगतोऽध्यक्षमक्षरं परमं पदम् ॥ २२ ॥

जो इस विश्व के विधाता और चराचर जगत्के स्वामी हैं, जिन्हें संसार का साक्षी और अविनाशी परमपद कहते हैं, उन परमात्मा की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥

हिरण्यवर्ण यं गर्भमदिते दैत्यनाशनम् ।

एक द्वादशधा जशे तस्मै सूर्यात्मने नमः ॥ २३ ॥

जो सुवर्ण के समान कान्तिमान्, अदिति के गर्भ से उत्पन्न, दैत्यों के नाशक तथा एक होकर भी बारह रूपों में प्रकट हुए हैं, उन सूर्यस्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

शुक्ले देवान् पितृन् कृष्णे तर्पयत्यमृतेन यः ।

यच राजा द्विजातीनां तस्मै सोमात्मने नमः ॥ २४ ॥

जो अपनी अमृतमयी कलाओं से शुक्लपक्ष में देवताओं को और कृष्णपक्ष में पितरों को तृप्त करते हैं तथा जो सम्पूर्ण द्विजों के राजा हैं, उन सोमस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है।

हुताशन मुखैर्देवैर्धार्यते सकलं जगत् ।

हविः प्रथमभोक्ता यस्तस्मै होत्रात्मने नमः ॥ २५ ॥

अग्नि जिनके मुख हैं, वे देवता सम्पूर्ण जगत्को धारण करते हैं, जो हविष्य के सबसे पहले भोक्ता हैं, उन अग्निहोत्र- स्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

महतस्तमसः पारे पुरुषं ह्यतितेजसम् ।

यं ज्ञात्वा मृत्युमत्येति तस्मै ज्ञेयात्मने नमः ॥ २६ ॥

जो अज्ञानमय महान् अन्धकार से परे और ज्ञानालोक से अत्यन्त प्रकाशित होनेवाले आत्मा हैं, जिन्हें जान लेने पर मनुष्य मृत्यु से सदा के लिये छूट जाता है, उन ज्ञेयरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

यं बृहन्तं बृहत्युक्थे यमग्नौ यं महाध्वरे ।

यं विप्रसंघा गायन्ति तस्मै वेदात्मने नमः ॥ २७ ॥

उक्थनामक बृहत् यश के समय, अग्न्याधानकाल में तथा महायाग में ब्राह्मणवृन्द जिनका ब्रह्म के रूप में स्तवन करते हैं, उन वेदस्वरूप भगवान्‌ को नमस्कार है ॥

ऋग्यजुःसामधामानं दशार्धहविरात्मकम् ।

यं सप्ततन्तुं तन्वन्ति तस्मै यशात्मने नमः ॥ २८ ॥

ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद जिसके आश्रय हैं, पाँच प्रकार का हविष्य जिसका स्वरूप है, गायत्री आदि सात छन्द ही जिसके सात तन्तु हैं, उस यश के रूप में प्रकट हुए परमात्मा को प्रणाम है ॥

चतुर्भिश्च चतुर्भिश्च द्वाभ्यां पञ्चभिरेव च ।

हयते च पुनर्द्वाभ्यां तस्मै होमात्मने नमः ॥ २९ ॥

चार, चार, दो, पाँच और दो - इन सत्रह अक्षरोंवाले मन्त्रों से जिन्हें हविष्य अर्पण किया जाता है, उन होमस्वरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

यः सुपर्णा यजुर्नाम च्छन्दोगात्रस्त्रिवृच्चिराः ।

रथन्तरं बृहत् साम तस्मै स्तोत्रात्मने नमः ॥ ३० ॥

जो 'यजुः' नाम धारण करनेवाले वेदरूपी पुरुष हैं, गायत्री आदि छन्द जिनके हाथ-पैर आदि अवयव हैं, यश ही जिनका मस्तक है तथा रथन्तर' और 'बृहत्' नामक साम ही जिनकी सान्त्वनाभरी वाणी है,उन स्तोत्ररूपी भगवान्‌ को प्रणाम है॥

यः सहस्रसमे सत्रे जशे विश्वसृजामृषिः ।

हिरण्यपक्षः शकुनिस्तस्मै हंसात्मने नमः ॥ ३१ ॥

जो ऋषि हजार वर्षों में पूर्ण होनेवाले प्रजापतियों के यश में सोने की पाँखवाले पक्षी के रूप में प्रकट हुए थे, उन हंसरूपधारी परमेश्वर को प्रणाम है ॥

पादाङ्गं संधिपर्वाणं 'स्वरव्यञ्जनभूषणम् ।

यमाहुरक्षरं दिव्यं तस्मै वागात्मने नमः ॥ ३२ ॥

पदों के समूह जिनके अङ्ग हैं, सन्धि जिनके शरीर की जोड़ है, स्वर और व्यञ्जन जिनके लिये आभूषण का काम देते हैं तथा जिन्हें दिव्य अक्षर कहते हैं, उन परमेश्वर को वाणी के रूप में नमस्कार है ॥

यज्ञाङ्गो यो वराहो वै भूत्वा गामुज्जहार ह ।

लोकत्रयहितार्थाय तस्मै वीर्यात्मने नमः ॥ ३३ ॥

जिन्होंने तीनों लोकों का हित करने के लिये यज्ञमय वराह का स्वरूप धारण करके इस पृथ्वी को रसातल से ऊपर उठाया था, उन वीर्यस्वरूप भगवान्को प्रणाम है ॥

यः शेते योगमास्थाय पर्यङ्के नागभूषिते ।

फणासहस्ररचिते तस्मै निद्रात्मने नमः ॥ ३४ ॥

जो अपनी योगमाया का आश्रय लेकर शेषनाग के हजार फन से बने हुए पलंग पर शयन करते हैं, उन निद्रास्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥

विश्वे च मरुतश्चैव रुद्रादित्याश्विनावपि ।

वसवः सिद्धसाध्याश्च तस्मै देवात्मने नमः ॥ ३५ ॥

विश्वेदेव, मरुद्गण, रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार, वसु,सिद्ध और साध्य-ये सब जिनकी विभूतियाँ हैं, उन देवस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥

अव्यक्त बुद्ध यहंकार मनोबुद्धीन्द्रियाणि च ।

तन्मात्राणि विशेषाश्च तस्मै तत्त्वात्मने नमः ॥ ३६ ॥

अव्यक्त प्रकृति, बुद्धि (महत्तत्त्व ), अहंकार, मनः ज्ञानेन्द्रियाँ, तन्मात्राएँ और उनका कार्य-वे सब जिनके ही स्वरूप हैं, उन तत्त्वमय परमात्मा को नमस्कार है॥

भूतं भव्यं भविष्यच्च भूतादिप्रभवाप्ययः ।

योऽग्रजः सर्वभूतानां तस्मै भूतात्मने नमः ॥ ३७ ॥

जो भूत, वर्तमान और भविष्य-कालरूप हैं, जो भूत आदि की उत्पत्ति और प्रलय के कारण हैं, जिन्हें सम्पूर्ण प्राणियों का अग्रज बताया गया है, उन भूतात्मा परमेश्वर को नमस्कार है ।

यं हि सूक्ष्मं विचिन्वन्ति परं सूक्ष्मविदो जनाः ।

सूक्ष्मात् सूक्ष्मं च यद् ब्रह्म तस्मै सूक्ष्मात्मने नमः ॥ ३८ ॥

सूक्ष्म तत्त्व को जाननेवाले ज्ञानी पुरुष जिस परम सूक्ष्म तत्त्व का अनुसंधान करते रहते हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है; वह ब्रह्म जिनका स्वरूप है, उन सूक्ष्मात्मा को नमस्कार है ।

मत्स्यो भूत्वा विरिञ्चाय येन वेदाः समाहृताः ।

रसातलगतः शीघ्रं तस्मै मत्स्यात्मने नमः ॥ ३९ ॥

जिन्होंने मत्स्य शरीर धारण करके रसातल में जाकर नष्ट हुए सम्पूर्ण वेदों को ब्रह्माजी के लिये शीघ्र ला दिया था, उन मत्स्यरूपधारी भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है ॥

मन्दराद्रिर्धृतो येन प्राप्ते ह्यमृतमन्थने ।

अतिकर्कशदेहाय तस्मै कूर्मात्मने नमः ॥ ४० ॥

जिन्होंने अमृत के लिये समुद्रमन्थन के समय अपनी पीठ पर मन्दराचल पर्वत को धारण किया था, उन अत्यन्त कठोर देह- धारी कच्छपरूप भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार है ॥

वाराहं रूपमास्थाय महीं सवनपर्वताम् ।

उद्धरत्येकदंष्ट्रेण तस्मै क्रोडात्मने नमः ॥ ४१ ॥

जिन्होंने वाराहरूप धारण करके अपने एक दाँत से वन और पर्वतोंसहित समूची पृथ्वी का उद्धार किया था, उन वाराहरूपधारी भगवान्‌ को नमस्कार है ॥

नारसिंहवपुः कृत्वा सर्वलोकभयंकरम् ।

हिरण्यकशिपुं अध्ने तस्मै सिंहात्मने नमः ॥ ४२ ॥

जिन्होंने नृसिंहरूप धारण करके सम्पूर्ण जगत् के लिये भयंकर हिरण्यकशिपु नामक राक्षस का वध किया था, उन नृसिंहस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है ॥

वामनं रूपमास्थाय बलिं संयम्य मायया ।

त्रैलोक्यं क्रान्तवान् यस्तु तस्मै क्रान्तात्मने नमः॥ ४३ ॥

जिन्होंने वामनरूप धारण करके माया द्वारा बलि को बाँधकर सारी त्रिलोकी को अपने पैरों से नाप लिया था, उन क्रान्तिकारी वामनरूपधारी भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम है॥

जमदग्निसुतो भूत्वा रामः शस्त्रभृतां वरः ।

महीं निःक्षत्रियां चक्रे तस्मै रामात्मने नमः ॥ ४४ ॥

जिन्होंने शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ जमदग्निकुमार परशुराम का रूप धारण करके इस पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन कर दिया, उन परशुराम-स्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है ॥

त्रिः सप्तकृत्वो यश्चैको धर्मे व्युत्क्रान्तगौरवान् ।

जघान क्षत्रियान् संख्ये तस्मै क्रोधात्मने नमः ॥ ४५ ॥

जिन्होंने अकेले ही धर्म के प्रति गौरव का उल्लङ्घन करनेवाले क्षत्रियों का युद्ध में इक्कीस बार संहार किया, उन क्रोधात्मा परशुराम को नमस्कार है ॥

रामो दाशरथिर्भूत्वा पुलस्त्य कुलनन्दनम् ।

जघान रावणं संख्ये तस्मै क्षत्रात्मने नमः ॥ ४६ ॥

जिन्होंने दशरथनन्दन श्रीराम का रूप धारण करके युद्ध में पुलस्त्यकुलनन्दन रावण का वध किया था, उन क्षत्रियात्मा श्रीरामस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है ।

यो हली मुसली श्रीमान् नीलाम्बरधरः स्थितः ।

रामाय रौहिणेयाय तस्मै भोगात्मने नमः ॥ ४७ ॥

जो सदा हल, मूसल धारण किये अद्भुत शोभा से सम्पन्न हो रहे हैं, जिनके श्रीअङ्गों पर नील वस्त्र शोभा पाता है, उन शेषावतार रोहिणीनन्दन राम को नमस्कार है ॥

शङ्खिने चक्रिणे नित्यं शार्ङ्गिणे पीतवाससे ।

वनमालाधरायैव तस्मै कृष्णात्मने नमः ॥ ४८ ॥

जो शङ्ख, चक्र, शार्ङ्ग धनुष, पीताम्बर और वनमाला धारण करते हैं, उन श्रीकृष्णस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है ॥

वसुदेवसुतः श्रीमान् क्रीडितो नन्दगोकुले ।

कंसस्य निधनार्थाय तस्मै क्रीडात्मने नमः ॥ ४९ ॥

जो कंसवध के लिये वसुदेव के शोभाशाली पुत्र के रूप में प्रकट हुए और नन्द के गोकुल में भाँति-भाँति की लीलाएँ करते रहे, उन लीलामय श्रीकृष्ण को नमस्कार है ॥

वासुदेवत्वमागम्य यदोर्वंशसमुद्भवः ।

भूभारहरणं चक्रे तस्मै कृष्णात्मने नमः ॥ ५० ॥

जिन्होंने यदुवंश में प्रकट हो वासुदेव के रूप में आकर पृथ्वी का भार उतारा है, उन श्रीकृष्णात्मा श्रीहरि को नमस्कार है।

सारथ्यमर्जुनस्याजी कुर्वन् गीतामृतं ददौ ।

लोकत्रयोपकाराय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः ॥ ५१॥

जिन्होंने अर्जुन का सारथित्व करते समय तीनों लोकों के उपकार के लिये गीता-ज्ञानमय अमृत प्रदान किया था, उन ब्रह्मात्मा श्रीकृष्ण को नमस्कार है ॥

दानवांस्तु वशे कृत्वा पुनर्बुद्धत्वमागतः ।

सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै बुद्धात्मने नमः ॥ ५२ ॥

जो सृष्टि की रक्षा के लिये दानवों को अपने अधीन करके पुनः बुद्धभाव को प्राप्त हो गये, उन बुद्धस्वरूप श्रीहरि को नमस्कार है ॥

हनिष्यति कलौ प्राप्ते म्लेच्छांस्तुरगवाहनः ।

धर्मसंस्थापको यस्तु तस्मै कल्फ्यात्मने नमः ॥ ५३ ॥

जो कलियुग आने पर घोड़े पर सवार हो धर्म की स्थापना के लिये म्लेच्छों का वध करेंगे, उन कल्किरूप श्रीहरि को नमस्कार है ॥

तारामये कालनेमि हत्वा दानवपुङ्गवम् ।

ददौ राज्यं महेन्द्राय तस्मै मुख्यात्मने नमः ॥ ५४ ॥

जिन्होंने तारामय संग्राम में दानवराज कालनेमि का वध करके देवराज इन्द्र को सारा राज्य दे दिया था, उन मुख्यात्मा श्रीहरि को नमस्कार है ॥

यः सर्वप्राणिनां देहे साक्षिभूतो ह्यवस्थितः ।

अक्षरः क्षरमाणानां तस्मै साक्ष्यात्मने नमः ॥ ५५ ॥

जो समस्त प्राणियों के शरीर में साक्षीरूप से स्थित हैं तथा सम्पूर्ण क्षर ( नाशवान्) भूतों में अक्षर (अविनाशी ) स्वरूप से विराजमान हैं, उन साक्षी परमात्मा को नमस्कार है ।

नमोऽस्तु ते महादेव नमस्ते भक्तवत्सल ।

सुब्रह्मण्य नमस्तेऽस्तु प्रसीद परमेश्वर ॥ ५६ ॥

अव्यक्तव्यक्तरूपेण व्याप्तं सर्वं त्वया विभो ।

महादेव ! आपको नमस्कार है। भक्तवत्सल ! आपको नमस्कार है। सुब्रह्मण्य (विष्णु) ! आपको नमस्कार है । परमेश्वर ! आप मुझ पर प्रसन्न हो । प्रभो ! आपने अव्यक्त और व्यक्तरूप से सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त कर रक्खा है ॥

नारायणं सहस्राक्षं सर्वलोकमहेश्वरम् ॥ ५७ ॥

हिरण्यनाभं यज्ञाङ्गममृतं विश्वतोमुखम् ।

प्रपद्ये पुण्डरीकाक्षं प्रपद्ये पुरुषोत्तमम् ॥ ५८ ॥

मैं सहस्रों नेत्र धारण करनेवाले, सर्वलोक महेश्वर, हिरण्यनाभ, यज्ञाङ्गस्वरूप, अमृतमय, सब ओर मुखवाले और कमलनयन पुरुषोत्तम श्रीनारायणदेव की शरण लेता हूँ ॥

सर्वदा सर्वकार्येषु नास्ति तेषाममङ्गलम् ।

येषां हृदिस्थो देवेशो मङ्गलायतनं हरिः ॥ ५९ ॥

जिनके हृदय में मङ्गल भवन देवेश्वर श्रीहरि विराजमान हैं, उनका सभी कार्यों में सदा मङ्गल ही होता है-कभी किसी भी कार्य में अमङ्गल नहीं होता ॥

मङ्गलं भगवान् विष्णुर्मङ्गलं मधुसूदनः ।

मङ्गलं पुण्डरीकाक्षो मङ्गलं गरुडध्वजः ॥ ६०॥

भगवान् विष्णु मङ्गलमय हैं, मधुसूदन मङ्गलमय हैं, कमलनयन मङ्गलमय हैं और गरुडध्वज मङ्गलमय हैं ॥

यस्तनोति सतां सेतुमृतेनामृतयोनिना ।

धर्मार्थव्यवहारास्तस्मै सत्यात्मने नमः ॥ ६१ ॥

जिनका सारा व्यवहार केवल धर्म के ही लिये है, उन वश में की हुई इन्द्रियों के द्वारा जो मोक्ष के साधनभूत वैदिक उपायों से काम लेकर संतों की धर्म मर्यादा का प्रसार करते हैं,उन सत्यस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥ 

यं पृथग्धर्मचरणाः पृथग्धर्मफलैषिणः ।

पृथग्धर्मैः समर्चन्ति तस्मै धर्मात्मने नमः ॥ ६२ ॥

जो भिन्न-भिन्न धर्मों का आचरण करके अलग-अलग उनके फलों की इच्छा रखते हैं, ऐसे पुरुष पृथक् धर्मों के द्वारा जिनकी पूजा करते हैं, उन धर्मस्वरूप भगवान्‌ को प्रणाम है ॥

यतः सर्वे प्रसूयन्ते ह्यनङ्गात्माङ्गदेहिनः ।

उन्मादः सर्वभूतानां तस्मै कामात्मने नमः ॥ ६३ ॥

जिस अनङ्ग की प्रेरणा से सम्पूर्ण अङ्गधारी प्राणियों का जन्म होता है, जिससे समस्त जीव उन्मत्त हो उठते हैं, उस काम के रूप में प्रकट हुए परमेश्वर को नमस्कार है ॥

यं च व्यक्तस्थमव्यक्तं विचिन्वन्ति महर्षयः ।

क्षेत्रे क्षेत्रज्ञमासोनं तस्मै क्षेत्रात्मने नमः ॥ ६४ ॥

जो स्थूल जगत् में अव्यक्त रूप से विराजमान है, बड़े-बड़े महर्षि जिसके तत्त्व का अनुसंधान करते रहते हैं, जो सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ के रूप में बैठा हुआ है, उस क्षेत्ररूपी परमात्मा को प्रणाम है ॥

यं त्रिधाऽऽत्मानमात्मस्थं वृतं षोडशभिर्गुणैः ।

प्राहुः सप्तदशं सांख्यास्तस्मं सांख्यात्मने नमः ॥ ६५ ॥

जो सत्, रज और तम इन तीन गुणों के भेद से त्रिविध प्रतीत होते हैं, गुणों के कार्यभूत सोलह विकारों से आवृत होने पर भी अपने स्वरूप में ही स्थित हैं, सांख्यमत के अनुयायी जिन्हें सत्रहवाँ तत्त्व (पुरुष) मानते हैं, उन सांख्यरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥

यं विनिद्रा जितश्वासाः सत्त्वस्थाः संयतेन्द्रियाः ।

ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानास्तस्मै योगात्मने नमः॥ ६६ ॥

जो नींद को जीतकर प्राणों पर विजय पा चुके हैं और इन्द्रियों को अपने वश में करके शुद्ध सत्त्व में स्थित हो गये हैं, वे निरन्तर योगाभ्यास में लगे हुए योगिजन जिनके ज्योतिर्मय स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं, उन योगरूप परमात्मा को प्रणाम है।

अपुण्यपुण्योपरमे यं पुनर्भवनिर्भयाः ।

शान्ताः संन्यासिनो यान्ति तस्मै मोक्षात्मने नमः ॥ ६७ ॥

पाप और पुण्य का क्षय हो जाने पर पुनर्जन्म के भय से मुक्त हुए शान्तचित्त संन्यासी जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन मोक्षरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

योऽसौ युगसहस्रान्ते प्रदीप्तार्चिविभावसुः ।

सम्भक्षयति भूतानि तस्मै घोरात्मने नमः ॥ ६८ ॥

सृष्टि के एक हजार युग बीतने पर प्रचण्ड ज्वालाओं से युक्त प्रलयकालीन अग्नि का रूप धारण कर जो सम्पूर्ण प्राणियों का संहार करते हैं, उन घोररूपधारी परमात्मा को प्रणाम है ॥

सम्भक्ष्य सर्वभूतानि कृत्वा चैकार्णवं जगत् ।

बालः स्वपिति यश्चैकस्तस्मै मायात्मने नमः ॥ ६९ ॥

इस प्रकार सम्पूर्ण भूत का भक्षण करके जो इस जगत्को जलमय कर देते हैं और स्वयं बालक का रूप धारण कर अक्षयवट के पत्ते पर शयन करते हैं, उन मायामय बालमुकुन्द को नमस्कार है ॥

तद् यस्य नाभ्यां सम्भूतं यस्मिन् विश्वं प्रतिष्ठितम् ।

पुष्करे पुष्कराक्षस्य तस्मै पद्मात्मने नमः ॥ ७० ॥

जिस पर यह विश्व टिका हुआ है, वह ब्रह्माण्ड-कमल जिन पुण्डरीकाक्ष भगवान्‌ की नाभि से प्रकट हुआ है, उन कमलरूपधारी परमेश्वर को प्रणाम है ॥

सहस्रशिरसे चैव पुरुषायामितात्मने ।

चतुःसमुद्रपर्याययोगनिद्रात्मने नमः ॥ ७१ ॥

जिनके हजारों मस्तक हैं, जो अन्तर्यामीरूप से सबके भीतर विराजमान हैं, जिनका स्वरूप किसी सीमा में आबद्ध नहीं है, जो चारों समुद्रों के मिलने से एकार्णव हो जाने पर योगनिद्रा का आश्रय लेकर शयन करते हैं, उन योगनिद्रारूप भगवान को नमस्कार है ॥

यस्य केशेषु जीमूता नद्यः सर्वाङ्गसंधिषु ।

कुक्षौ समुद्राश्चत्वारस्तस्मै तोयात्मने नमः ॥ ७२ ॥

जिनके मस्तक बालों की जगह मेघ हैं, शरीर की सन्धियों में नदियाँ हैं और उदर में चारों समुद्र हैं, उन जलरूपी परमात्मा को प्रणाम है ॥

यस्मात् सर्वाः प्रसूयन्ते सर्गप्रलयविक्रियाः ।

यस्मिंश्चैव प्रलीयन्ते तस्मै हेत्वात्मने नमः ॥ ७३ ॥

सृष्टि और प्रलयरूप समस्त विकार जिनसे उत्पन्न होते हैं और जिनमें ही सबका लय होता है, उन कारणरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

यो निषण्णो भवेद् रात्रौ दिवां भवति विष्ठितः ।

इष्टानिष्टस्य च द्रष्टा तस्मै द्रष्ट्रात्मने नमः ॥ ७४ ॥

जो रात में भी जागते रहते हैं और दिन के समय साक्षीरूप में स्थित रहते हैं तथा जो सदा ही सबके भले-बुरे को देखते रहते हैं, उन द्रष्टारूपी परमात्मा को प्रणाम है ॥

अकुण्ठं सर्वकार्येषु धर्मकार्यार्थमुद्यतम् ।

वैकुण्ठस्य च तद्रूपं तस्मै कार्यात्मने नमः ॥ ७५ ॥

जिन्हें कोई भी काम करने में रुकावट नहीं होती, जो धर्म का काम करने को सर्वदा उद्यत रहते हैं तथा जो वैकुण्ठ- धाम के स्वरूप हैं, उन कार्यरूप भगवान्को नमस्कार है ॥

त्रिः सप्तकृत्वो यः क्षत्रं धर्मव्युत्क्रान्तगौरवम् ।

क्रुद्धो निजध्ने समरे तस्मै कौर्यात्मने नमः ॥ ७६ ॥

जिन्होंने धर्मात्मा होकर भी क्रोध में भरकर धर्म के गौरव-का उल्लङ्घन करनेवाले क्षत्रिय-समाज का युद्ध में इक्कीस बार संहार किया, कठोरता का अभिनय करनेवाले उन भगवान् परशुराम को प्रणाम है ॥

विभज्य पञ्चधाऽऽत्मानं वायुर्भूत्वा शरीरगः ।

यश्चेष्टयति भूतानि तस्मै वाय्वात्मने नमः ॥ ७७ ॥

जो प्रत्येक शरीर के भीतर वायुरूप में स्थित हो अपने को प्राण अपान आदि पाँच स्वरूपों में विभक्त करके सम्पूर्ण प्राणियों को क्रियाशील बनाते हैं, उन वायुरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

युगेष्वावर्तते योगैर्मासयनहायनैः ।

सर्गप्रलययोः कर्ता तस्मै कालात्मने नमः ॥ ७८ ॥

जो प्रत्येक युग में योगमाया के बल से अवतार धारण करते हैं और मास, ऋतु, अयन तथा वर्षों के द्वारा सृष्टि और प्रलय करते रहते हैं, उन कालरूप परमात्मा को प्रणाम है ॥

ब्रह्म वक्त्रं भुजौ क्षत्रं कृत्स्नमूरूदरं विशः ।

पादौ यस्याश्रिताः शूद्रास्तस्मै वर्णात्मने नमः ॥ ७९ ॥

ब्राह्मण जिनके मुख है, सम्पूर्ण क्षत्रिय जाति भुजा है, वैश्य जङ्घा एवं उदर हैं और शूद्र जिनके चरणों के आश्रित हैं, उन चातुर्वर्ण्यरूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

यस्याग्निरास्यं द्यौर्मूर्धा खं नाभिश्चरणौ क्षितिः ।

सूर्यश्चक्षुर्दिशः श्रोत्रे तस्मै लोकात्मने नमः ॥ ८० ॥

अग्नि जिनका मुख है, स्वर्ग मस्तक है, आकाश नाभि है, पृथ्वी पैर है, सूर्य नेत्र हैं और दिशाएँ कान हैं, उन लोकरूप परमात्मा को प्रणाम है ॥

परः कालात् परो यशात् परात् परतरश्च यः ।

अनादिरादिर्विश्वस्य तस्मै विश्वात्मने नमः ॥ ८१ ॥

जो काल से परे हैं, यश से भी परे हैं और परे से भी अत्यन्त परे हैं, जो सम्पूर्ण विश्व के आदि हैं; किंतु जिनका आदि कोई भी नहीं है, उन विश्वात्मा परमेश्वर को नमस्कार है ।

वैद्युतो जाठरश्चैव पावकः शुचिरेव च ।

दहनः सर्वभक्षाणां तस्मै वह्न्यात्मने नमः ॥ ८२ ॥

जो मेघ में विद्युत् और उदर में जठरानल के रूप में स्थित हैं, जो सबको पवित्र करने के कारण पावक तथा स्वरूपतः शुद्ध होने से 'शुचि' कहलाते हैं, समस्त भक्ष्य पदार्थों को दग्ध करनेवाले वे अग्निदेव जिनके ही स्वरूप हैं, उन अग्निमय परमात्मा को नमस्कार है ॥

विषये वर्तमानानां यं ते वैशेषिकैर्गुणैः ।

प्राहुर्विषयगोप्तारं तस्मै गोप्त्रात्मने नमः ॥ ८३ ॥

वैशेषिक दर्शन में बताये हुए रूप, रस आदि गुण के द्वारा आकृष्ट हो जो लोग विषयों के सेवन में प्रवृत्त हो रहे हैं, उनकी उन विषयों की आसक्ति से जो रक्षा करनेवाले हैं, उन रक्षकरूप परमात्मा को प्रणाम है ॥  

अन्नपानेन्धनमयो रसप्राणविवर्धनः ।

यो धारयति भूतानि तस्मै प्राणात्मने नमः ॥ ८४ ॥

जो अन्न-जलरूपी ईंधन को पाकर शरीर के भीतर रस और प्राणशक्ति को बढ़ाते तथा सम्पूर्ण प्राणियों को धारण करते हैं, उन प्राणात्मा परमेश्वर को नमस्कार है ॥

प्राणानां धारणार्थाय योऽन्नं भुङ्क्ते चतुर्विधम् ।

अन्तर्भूतः पचत्यग्निस्तस्मै पाकात्मने नमः ॥ ८५ ॥

प्राणों की रक्षा के लिये जो भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य- चार प्रकार के अन्नों का भोग लगाते हैं और स्वयं ही पेट के भीतर अग्निरूप में स्थित भोजन को पचाते हैं, उन पाकरूप परमेश्वर को प्रणाम है ॥

पिङ्गेक्षणसटं यस्य रूपं दंष्ट्रानखायुधम् ।

दानवेन्द्रान्तकरणं तस्मै दृप्तात्मने नमः ॥ ८६ ॥

जिनका नरसिंहरूप दानवराज हिरण्यकशिपु का अन्त करनेवाला था, उस समय जिनके नेत्र और कंधे के बाल पीले दिखायी पड़ते थे, बड़ी-बड़ी दाढ़े और नख ही जिनके आयुध थे, उन दर्परूपधारी भगवान् नरसिंह को प्रणाम है ॥

यं न देवा न गन्धर्वा न दैत्या न च दानवाः ।

तत्त्वतो हि विजानन्ति तस्मै सूक्ष्मात्मने नमः ॥ ८७ ॥

जिन्हें न देवता, न गन्धर्व, न दैत्य और न दानव ही ठीक-ठीक जान पाते हैं, उन सूक्ष्मस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है ॥

रसातलगतः श्रीमाननन्तो भगवान् विभुः ।

जगद् धारयते कृत्स्नं तस्मै वीर्यात्मने नमः ॥ ८८ ॥

जो सर्वव्यापक भगवान् श्रीमान् अनन्त नामक शेषनाग के रूप में रसातल में रहकर सम्पूर्ण जगत्को अपने मस्तक पर धारण करते हैं, उन वीर्यरूप परमेश्वर को प्रणाम है ॥

यो मोहयति भूतानि स्नेहपाशानुबन्धनैः ।

सर्गस्य रक्षणार्थाय तस्मै मोहात्मने नमः ॥ ८९ ॥

जो इस सृष्टि-परम्परा की रक्षा के लिये सम्पूर्ण प्राणियों को स्नेहपाश में बाँधकर मोह में डाले रखते हैं, उन मोहरूप भगवान्को नमस्कार है ॥

आत्मज्ञानमिदं ज्ञानं शात्वा पञ्चस्ववस्थितम् ।

यं ज्ञानेनाभिगच्छन्ति तस्मै ज्ञानात्मने नमः ॥ ९० ॥

अन्नमयादि पाँच कोषों में स्थित आन्तरतम आत्मा का शान होने के पश्चात् विशुद्ध बोध के द्वारा विद्वान् पुरुष जिन्हें प्राप्त करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप परब्रह्म को प्रणाम है ॥

अप्रमेयशरीराय सर्वतो बुद्धिचक्षुषे ।

अनन्तपरिमेयाय तस्मै दिव्यात्मने नमः ॥ ९१ ॥

जिनका स्वरूप किसी प्रमाण का विषय नहीं है, जिनके बुद्धिरूपी नेत्र सब ओर व्याप्त हो रहे हैं तथा जिनके भीतर अनन्त विषयों का समावेश है, उन दिव्यात्मा परमेश्वर को नमस्कार है ॥

जटिने दण्डिने नित्यं लम्बोदरशरीरिणे ।

कमण्डलुनिपङ्गाय तस्मै ब्रह्मात्मने नमः ॥ ९२ ॥

जो जटा और दण्ड धारण करते हैं, लम्बोदर शरीरवाले हैं तथा जिनका कमण्डलु ही तूणीर का काम देता है, उन ब्रह्माजी के रूप में भगवान्‌ को प्रणाम है ॥

शूलिने त्रिदशेशाय यम्बकाय महात्मने ।

भस्मदिग्धाङ्गलिङ्गाय तस्मै रुद्रात्मने नमः ॥ ९३ ॥

जो त्रिशूल धारण करनेवाले और देवताओं के स्वामी हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो महात्मा हैं तथा जिन्होंने अपने शरीर पर विभूति रमा रक्खी है, उन रुद्ररूप परमेश्वर को नमस्कार है ॥

चन्द्रार्धकृतशीर्षाय व्यालयशोपवीतिने ।

पिनाकशूलहस्ताय तस्मा उग्रात्मने नमः ॥ ९४ ॥

जिनके मस्तक पर अर्धचन्द्र का मुकुट और शरीर पर सर्प-का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा है, जो अपने हाथ में पिनाक और त्रिशूल धारण करते हैं, उन उग्ररूपधारी भगवान् शङ्कर को प्रणाम है ॥

सर्वभूतात्मभूताय भूतादिनिधनाय च ।

अक्रोधद्रोहमोहाय तस्मै शान्तात्मने नमः ॥ ९५ ॥

जो सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा और उनकी जन्म-मृत्यु के कारण हैं, जिनमें क्रोध, द्रोह और मोह का सर्वथा अभाव है, उन शान्तात्मा परमेश्वर को नमस्कार है ॥

यस्मिन् सर्वं यतः सर्वे यः सर्वे सर्वतश्च यः ।

यश्च सर्वमयो नित्यं तस्मै सर्वात्मने नमः ॥ ९६ ॥

जिनके भीतर सब कुछ रहता है, जिनसे सब उत्पन्न होता है, जो स्वयं ही सर्वस्वरूप हैं, सदा ही सब ओर व्यापक हो रहे हैं और सर्वमय हैं, उन सर्वात्मा को प्रणाम है ॥

विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन् विश्वसम्भव ।

अपवर्गोऽसि भूतानां पञ्चानां परतः स्थितः ॥ ९७ ॥

इस विश्व की रचना करनेवाले परमेश्वर ! आपको प्रणाम है । विश्व के आत्मा और विश्व की उत्पत्ति के स्थानभूत जगदीश्वर ! आपको नमस्कार है। आप पाँचों भूतों से परे हैं और सम्पूर्ण प्राणियों के मोक्षस्वरूप ब्रह्म हैं ॥

नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतस्त्रिषु ।

नमस्ते दिक्षु सर्वासु त्वं हि सर्वमयो निधिः ॥ ९८ ॥

तीनों लोकों में व्याप्त हुए आपको नमस्कार है, त्रिभुवन से परे रहनेवाले आपको प्रणाम है, सम्पूर्ण दिशाओं में व्यापक आप प्रभु को नमस्कार है; क्योंकि आप सब पदार्थों से पूर्ण भण्डार हैं ।

नमस्ते भगवन् विष्णो लोकानां प्रभवाप्यय ।

त्वं हि कर्ता हृषीकेश संहर्ता चापराजितः ॥ ९९ ॥

संसार की उत्पत्ति करनेवाले अविनाशी भगवान् विष्णु ! आपको नमस्कार है । हृषीकेश ! आप सबके जन्मदाता और संहारकर्ता हैं। आप किसी से पराजित नहीं होते ॥

न हि पश्यामि ते भावं दिव्यं हि त्रिषु वर्त्मसु ।

त्वां तु पश्यामि तत्वेन यत् ते रूपं सनातनम् ॥ १०० ॥

मैं तीनों लोकों में आपके दिव्य जन्म-कर्म का रहस्य नहीं जान पाता; मैं तो तत्त्वदृष्टि से आपका जो सनातन रूप है, उसी की ओर लक्ष्य रखता हूँ ॥

दिवं ते शिरसा व्याप्तं पद्धयां देवी वसुन्धरा ।

विक्रमेण त्रयो लोकाः पुरुषोऽसि सनातनः ॥ १०१ ॥

स्वर्गलोक आपके मस्तक से, पृथ्वीदेवी आपके पैरों से और तीनों लोक आपके तीन पगों से व्याप्त हैंआप सनातन पुरुष हैं॥

दिशो भुजा रविश्ववयें शुक्रः प्रतिष्ठितः ।

सप्त मार्गा निरुद्धास्ते वायोरमिततेजसः ॥ १०२ ॥

दिशाएँ आपकी भुजाएँ, सूर्य आपके नेत्र और प्रजापति शुक्राचार्य आपके वीर्य हैं। आपने ही अत्यन्त तेजस्वी वायु के रूप में ऊपर के सातों मार्गों को रोक रक्खा है ॥

अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम् ।

ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम् ॥ १०३ ॥

जिनकी कान्ति अलसी के फूल की तरह साँवली है, शरीर- पर पीताम्बर शोभा देता है, जो अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, उन भगवान् गोविन्द को जो लोग नमस्कार करते हैं, उन्हें कभी भय नहीं होता ॥

एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो

दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।

दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म

कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय ॥ १०४ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण को एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यश के अन्त में किये गये स्नान के समान फल देनेवाला होता है। इसके सिवा प्रणाम में एक विशेषता है-- दस अश्वमेध करनेवाले का तो पुनः इस संसार में जन्म होता है, किंतु श्रीकृष्ण को प्रणाम करनेवाला मनुष्य फिर भव-बन्धन में नहीं पड़ता ॥

कृष्णव्रताःकृष्णमनुस्मरन्तो

रात्रौ च कृष्णं पुनरुत्थिता ये ।

ते कृष्णदेहाः प्रविशन्ति कृष्ण-

माज्यं यथा मन्त्रहुतं हुताशे ॥ १०५ ॥

जिन्होंने श्रीकृष्ण भजन का ही व्रत ले रक्खा है, जो श्रीकृष्ण का निरन्तर स्मरण करते हुए ही रात को सोते हैं और उन्हीं का स्मरण करते हुए सबेरे उठते हैं, वे श्रीकृष्णस्वरूप होकर उनमें इस तरह मिल जाते हैं, जैसे मन्त्र पढ़कर हवन किया हुआ घी अग्नि में मिल जाता है ॥

नमो नरकसंत्रासरक्षामण्डलकारिणे ।

संसारनिम्नगावर्त तरिकाष्ठाय विष्णवे ॥ १०६ ॥

जो नरक के भय से बचाने के लिये रक्षामण्डल का निर्माण करनेवाले और संसाररूपी सरिता की भँवर से पार उतारने के लिये काठ की नाव के समान हैं, उन भगवान् विष्णु को नमस्कार है ॥

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ १०७ ॥

जो ब्राह्मणों के प्रेमी तथा गौ और ब्राह्मणों के हितकारी हैं, जिनसे समस्त विश्व का कल्याण होता है, उन सच्चिदानन्द- स्वरूप भगवान् गोविन्द को प्रणाम है ।

प्राणकान्तारपाथेयं संसारोच्छेदभेषजम् ।

दुःखशोकपरित्राणं हरिरित्यक्षरद्वयम् ॥ १०८ ॥

'हरि' ये दो अक्षर दुर्गम पथ में संकट के समय प्राण के लिये राह-खर्च के समान हैं, संसाररूपी रोग से छुटकारा दिलाने के लिये औषध के तुल्य हैं तथा सब प्रकार के दुःख- शोक से उद्धार करनेवाले हैं ॥

यथा विष्णुमयं सत्यं यथा विष्णुमयं जगत् ।

यथा विष्णुमयं सर्वपाप्मा मे नश्यतां तथा ॥ १०९ ॥

जैसे सत्य विष्णुमय है, जैसे सारा संसार विष्णुमय है, जिस प्रकार सब कुछ विष्णुमय है, उस प्रकार इस सत्य के प्रभाव से मेरे सारे पाप नष्ट हो जायँ ॥

त्वां प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीपदे ।

यच्छ्रेयः पुण्डरीकाक्ष तद् ध्यायस्व सुरोत्तम ॥ ११० ॥

देवताओं में श्रेष्ठ कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ! मैं आपका शरणागत भक्त हूँ और अभीष्ट गति को प्राप्त करना चाहता हूँ; जिसमें मेरा कल्याण हो, वह आप ही सोचिये ॥

इति विद्यातपोयोनिरयोनिर्विष्णुरीडितः ।

वाग्यज्ञेनार्चितो देवः प्रीयतां मे जनार्दनः ॥ १११ ॥

जो विद्या और तप के जन्मस्थान हैं, जिनको दूसरा कोई जन्म देनेवाला नहीं है, उन भगवान् विष्णु का मैंने इस प्रकार वाणीरूप यज्ञ से पूजन किया है। इससे वे भगवान् जनार्दन मुझ पर प्रसन्न हो ॥

नारायणः परं ब्रह्म नारायणपरं तपः ।

नारायणः परो देवः सर्व नारायणः सदा ॥११२ ॥

नारायण ही परब्रह्म हैं, नारायण ही परम तप हैं। नारायण ही सबसे बड़े देवता हैं और भगवान् नारायण ही सदा सब कुछ हैं ॥

भीष्म स्तवराज महात्म्य

इति स्मरन् पठति च शार्ङ्गधन्वनः

शृणोति वा यदुकुलनन्दन स्तवम् ।

स चक्रभृत्प्रतिहतसर्वकिल्बिषो

जनार्दनं प्रविशति देहसंक्षये ॥

जो मनुष्य शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले यदुकुलनन्दन श्रीकृष्ण की इस स्तुति को याद करते, पढ़ते अथवा सुनते हैं, वे इस शरीर का अन्त होने पर भगवान् श्रीकृष्ण में प्रवेश कर जाते हैं। चक्रधारी श्रीहरि उनके सारे पाप का नाश कर डालते हैं ॥

स्तवराजः समाप्तोऽयं विष्णोरद्भुतकर्मणः ।

गाङ्गेयेन पुरा गीतो महापातकनाशनः ॥

गङ्गानन्दन भीष्म ने पूर्वकाल में जिसका गान किया था,अद्भुतकर्मा विष्णु का वही यह स्तवराज पूरा हुआ है, यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करनेवाला है ॥

इमं नरः स्तवराजं मुमुक्षुः

पठञ्शुचिः कलुषितकल्मषापहम् ।

अतीत्य लोकानमलान् सनातनान्

पदं स गच्छत्यमृतं महात्मनः ॥  

यह स्तोत्रराज पापियों के समस्त पाप का नाश करनेवाला है, संसार-बन्धन से छूटने की इच्छावाला जो मनुष्य इसका पवित्र भाव से पाठ करता है, वह निर्मल सनातन लोकों को भी लाँघकर परमात्मा श्रीकृष्ण के अमृतमय धाम को चला जाता है ॥

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि भीष्मस्तवराजे सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥ 

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