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श्रीकृष्ण स्तुति
श्रीकृष्ण स्तुति श्रीराधाकृत- एक समय परमेश्वरी श्रीराधा ने सुशीला गोपी को गोलोक
से निकाल दिया, जिससे रुष्ट होकर श्रीकृष्ण वहाँ से अन्तर्धान हो गये। तब देव
देवेश्वरी भगवती श्रीराधा रासमण्डल के मध्य रासेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को जोर-जोर
से पुकारने लगीं; परंतु भगवान ने
उन्हें दर्शन नहीं दिये। तब तो श्रीराधा अत्यन्त विरहकातर हो उठीं। उन साध्वी देवी
को विरह का एक-एक क्षण करोड़ों युगों के समान प्रतीत होने लगा। उन्होंने करुण
प्रार्थना की-
श्रीकृष्ण स्तुति श्रीराधाकृत
हे कृष्ण हे प्राणनाथागच्छ
प्राणाधिकप्रिय ।
प्राणाधिष्ठातृदेवेह प्राणा यान्ति
त्वया विना ।।
‘श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! आप मेरे
प्राणनाथ हैं। मैं आपके प्रति प्राणों से भी बढ़कर प्रेम करती हूँ। आप शीघ्र यहाँ
पधारने की कृपा कीजिये। भगवन! आप मेरे प्राणों के अधिष्ठाता देव हैं। आपके बिना अब
ये प्राण नहीं रह सकते।
स्त्रीगर्वः पतिसौभाग्याद्वर्द्धते
च दिने दिने ।
सुस्त्री चेद्विभवो यस्मात्ते
भजेद्धर्मतः सदा ।।
स्त्री पति के सौभाग्य पर गर्व करती
है। पति के साथ प्रतिदिन उसका सुख बढ़ता रहता है। अतएव उसे धर्मपूर्वक पति की सेवा
में ही सदा तत्पर रहना चाहिये।
पतिर्बन्धुः कुलस्त्रीणामधिदेवः सदा
गतिः ।
परं सम्पत्स्वरूपश्च सुखरूपश्च
मूर्त्तिमान्।। ।।
पति ही कुलीन स्त्रियों के लिये
बन्धु,
अधिदेवता, नित्य-आश्रय, परम
सम्पत्तिस्वरूप तथा सदा स्नेहदान करने के लिए प्रस्तुत मूर्तिमान सुख है।
धर्मदः सुखदः शश्वत्प्रीतिदः
शान्तिदः सदा ।
सम्मानदो मानदश्च मान्यो वै
मानखण्डनः ।।
पति ही धर्म,
सुख, निरन्तर प्रीति, सदा
शान्ति, सम्मान एवं मान देने वाला है। वही उसके लिये माननीय
है, वही उसके मान (प्रणयकोप) को शान्त करने वाला है।
सारात्सारतमः स्वामी बन्धूनां
बन्धुवर्द्धनः ।
न च भर्त्तुः समो बन्धुः
सर्वबन्धुषु दृश्यते ।।
स्वामी ही स्त्री के लिये सार से भी
सारतम वस्तु है। वही बन्धुओं में बन्धुभाव को बढ़ाने वाला है। सम्पूर्ण बान्धवजनों
में पति के समान दूसरा कोई बन्धु नहीं दिखायी देता।
भरणादेव भर्ताऽयं पालनात्पतिरुच्यते
।
शरीरेशाच्च स स्वामी कामदः कान्त एव
च ।।
वह स्त्री का भरण करने से ‘भर्ता’, पालन करने से ‘पति’,
शरीर का मालिक होने से ‘स्वामी’ तथा कामना की पूर्ति करने से ‘कान्त’ कहलाता है।
बन्धुश्च सुखबन्धाच्च
प्रीतिदानात्प्रियः परः ।
ऐश्वर्य्यदानादीशश्च
प्राणेशात्प्राणनायकः।।
रतिदानाच्च रमणः प्रियो नास्ति
प्रियात्परः ।
पुत्रस्तु स्वामिनः शुक्राज्जायते
तेन स प्रियः।।
सुख की वृद्धि करने से ‘बन्धु’, प्रीति प्रदान करने से ‘प्रिय’, ऐश्वर्य का दाता होने से ‘ईश’, प्राण का स्वामी होने से ‘प्राणनाथ’ तथा रति-सुख प्रदान करने से ‘रमण’ कहलाता है। अतः स्त्रियों के लिये पति से बढ़कर
दूसरा कोई प्रिय नहीं है। पति के शुक्र से पुत्र की उत्पत्ति होती है,इससे वह
प्रिय माना जाता है।
शतपुत्रात्परःस्वामी कुलजानां
प्रियः सदा।
असत्कुलप्रसूता या कान्तं
विज्ञातुमक्षमा ।।
पतिव्रताएँ सौ पुत्रों से भी अधिक
पति को प्रेमपात्र समझती है। उनके मन से यह धारणा कभी दूर नहीं होती। जो असत् कुल
में उत्पन्न है, वही स्त्री पति के इस धार्मिक रहस्य को समझने में असमर्थ है।
स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु
दीक्षणम् ।
प्रादक्षिण्यं पृथिव्याश्च सर्वाणि
च तपांसि वै।।
सर्वाण्येव व्रतादीनि महादानानि
यानि च।
उपोषणानि पुण्यानि यान्यन्यानि च
विश्वतः।।
गुरुसेवाविप्रसेवादेवसेवादिकं च
यत्।
स्वामिनः पादसेवायाः कलां नार्हन्ति
षोडशीम्।।
सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, अखिल
यज्ञों में दक्षिणादान, पृथ्वी की प्रदक्षिणा, अनेक प्रकार के तप, सभी व्रत,
अमूल्य वस्तुदान, पवित्र उपासनाएँ तथा गुरु,
देवता एवं ब्राह्मणों की सेवा इन श्रेष्ठ कार्यों की बड़ी प्रसन्नता
सुनी है, किन्तु ये सब के सब स्वामी के चरण सेवन की सोलहवीं कला की भी तुलना नहीं
कर सकते ।
गुरुविप्रेष्टदेवेषु सर्वेभ्यश्च
पतिर्गुरुः।
विद्यादाता यथा पुंसां कुलजानां तथा
प्रियः।।
गुरु, ब्राह्मण और देवता– इन सबकी अपेक्षा स्त्री के लिये
पति ही श्रेष्ठ गुरु है। जिस प्रकार पुरुषों के लिये विद्या प्रदान करने वाले गुरु
आदरणीय माने जाते हैं। वैसे ही कुलीन स्त्रियों के लिये पति ही गुरुतुल्य माननीय
है।
गोपीत्रिलक्षकोटीनां गोपानां च तथैव
च।
ब्रह्माण्डानामसंख्यानां
तत्रस्थानां तथैव च ।।
रमादिगोपकान्तानामीश्वरी
तत्प्रसादतः।
अहं न जाने तं कान्तं स्त्रीस्वभावो
दुरत्ययः ।।
‘भगवान्! मैं जिनके कृपा-प्रसाद
से असंख्य गोपों, गोपियों, ब्रह्माण्डों
तथा वहाँ के निवासी प्राणियों की एवं रमा आदि देवियों से लेकर अखिल ब्रह्माण्ड
गोलोक तक की अधीश्वरी हुई हूँ, उन्हीं प्राणवल्ल्भ के तत्त्व
को नहीं जान सकी; वास्तव में स्त्री स्वभाव को लाँघ पाना
बड़ा कठिन है।’
इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण द्वितीय प्रकृतिखण्डअध्याय-४२ व श्रीमद्देविभागवत पुराण अध्याय-३३ श्रीकृष्ण स्तुति श्रीराधाकृत समाप्त हुआ ।। ४२ ।।
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