recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

भगवती स्वधा की कथा व स्तोत्र

भगवती स्वधा की कथा व स्तोत्र

भगवती स्वधा की कथा व स्वधा स्तोत्र- स्वधा स्तोत्र मानवों के लिए सम्पूर्ण अभिलाषा प्रदान करने वाला है। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इसका पाठ किया था।

भगवती स्वधा की कथा व स्तोत्र

भगवती स्वधा की कथा व स्तोत्र

भगवती स्वधा का उत्तम उपाख्यान

यह पितरों के लिये तृप्तिप्रद एवं श्राद्धों के फल को बढ़ाने वाला है। जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने सृष्टि के आरम्भ में सात पितरों का सृजन किया; उनमें चार तो मूर्तिमान थे और तीन तेजःस्वरूपा थे। उन सातों सिद्धिस्वरूप मनोहर पितरों को देखकर उनके भोजन के लिये श्राद्ध-तर्पणपूर्वक दिया हुआ पदार्थ निश्चित किया। तर्पणान्त स्नान, श्राद्धपर्यन्त देवता पूजन तथा त्रिकालसंध्यान्त आह्निक कर्मयह ब्राह्मणों का परम कर्तव्य है।

यह बात श्रुति में प्रसिद्ध है। जो ब्राह्मण नित्य त्रिकाल संध्या, श्राद्ध, तर्पण, बलिवैश्वदेव और वेदध्वनि नहीं करता, उसे विषहीन सर्प के समान शक्तिहीन समझना चाहिये। श्रीहरि की सेवा से वंचित तथा भगवान को भोग लगाये बिना खाने वाला मनुष्य जीवनपर्यन्त अपवित्र रहता है। उसे कोई भी शुभ कार्य करने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार ब्रह्मा जी तो पितरों के आहारार्थ श्राद्ध आदि का विधान करके चले गये; परंतु ब्राह्मण आदि उनके लिये जो कुछ देते थे, उसे पितर पाते नहीं थे। अतः वे सभी क्षुधा शान्त न होने के कारण दुःखी होकर ब्रह्मा जी की सभा में गये। उन्होंने वहाँ जाकर ब्रह्मा जी को सारी बातें बतायीं। तब उन महाभाग विधाता ने एक परम सुन्दर मानसी कन्या प्रकट की।

सैकड़ों चन्द्रमा की प्रभा के समान मुखवाली वह देवी रूप और यौवन से सम्पन्न थी। उस साध्वी देवी में विद्या, गुण, बुद्धि और रूप सम्यक प्रकार से विद्यमान थे। श्वेत चम्पा के समान उसका उज्ज्वल वर्ण था। वह रत्नमय भूषणों से विभूषित थी। मूलप्रकृति भगवती जगदम्बा की अंशभूता वह शुद्धस्वरूपा देवी मन्द-मन्द मुस्करा रही थी। वर देने वाली एवं कल्याणस्वरूपिणी उस सुन्दरी का नाम स्वधारखा गया। भगवती लक्ष्मी के सभी शुभ लक्षण उसमें विराजमान थे। उसके दाँत बड़े सुन्दर थे। वह अपने चरणकमलों को शतदल कमल पर रखे हुए थी। उसके मुख और नेत्र विकसित कमल के सदृश सुन्दर थे। उसे पितरों की पत्नी बनाया गया। ब्रह्मा जी ने पितरों को संतुष्ट करने के लिये यह तुष्टिस्वरूपिणी पत्नी उन्हें सौंप दी। साथ ही अन्त में स्वधालगाकर मन्त्रों का उच्चारण करके पितरों के उद्देश्य से पदार्थ अर्पण करना चाहियेयह गोपनीय बात भी ब्राह्मणों को बतला दी। तबसे ब्राह्मण उसी क्रम से पितरों को कव्य प्रदान करने लगे। यों देवताओं के लिये वस्तु दान में स्वाहाऔर पितरों के लिये स्वधाशब्द का उच्चारण श्रेष्ठ माना जाने लगा। सभी कर्मों (यज्ञों) में दक्षिणा उत्तम मानी गयी है। दक्षिणाहीन यज्ञ नष्टप्राय कहा गया है। उस समय देवता, पितर, ब्राह्मण, मुनि और मानवइन सबने बड़े आदर के साथ उन शान्तस्वरूपिणी भगवती स्वधा की पूजा एवं स्तुति की। देवी के वर-प्रसाद से वे सब-के-सब परम संतुष्ट हो गये। उनकी सारी मनःकामनाएँ पूर्ण हो गयीं।

भगवती स्वधा की कथा व स्तोत्र

भगवती स्वधा की पूजा का विधान, ध्यान और स्तोत्र

देवी स्वधा का ध्यान-स्तवन वेदों में वर्णित है, अतएव सबके लिये मान्य है। शरत्काल में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में अथवा श्राद्ध के दिन यत्नपूर्वक भगवती स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिये। जो अभिमानी ब्राह्मण स्वधा देवी की पूजा न करके श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध और तर्पण के फल का भागी नहीं होतायह सर्वथा सत्य है।

ब्रह्मणो मानसीं कन्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।

पूज्यां पितॄणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे ।।

भगवती स्वधा ब्रह्मा जी की मानसी कन्या हैं, ये सदा तरुणावस्था से सम्पन्न रहती हैं। पितरों और देवताओं के लिये सदा पूजनीया हैं। ये ही श्राद्धों का फल देने वाली हैं। इनकी मैं उपासना करता हूँ।

इस प्रकार ध्यान करके शालग्राम शिला अथवा मंगलमय कलश पर इनका आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर मूलमन्त्र से पाद्य आदि उपचारों द्वारा इनका पूजन करना चाहिये।

ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा

इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण इनकी पूजा, स्तुति और इन्हें प्रणाम करें।

भगवती स्वधा की कथा व स्तोत्र

स्वधा स्तोत्रम्

ब्रह्मोवाच -

स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः ।

मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत् ॥ १ ॥

ब्रह्मा जी बोले- स्वधाशब्द के उच्चारणमात्र से मानव तीर्थस्नायी समझा जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय-यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है।

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत् ।

श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालतर्पणयोस्तथा ॥ २ ॥

स्वधा, स्वधा, स्वधाइस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाए तो श्राद्ध, बलि और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं।

श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः ।

लभेच्छ्राद्धशतानाञ्च पुण्यमेव न संशयः ॥ ३ ॥

श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का फल पा लेता हैइसमें संशय नहीं है।

स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः ।

प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीं पुत्रं गुणान्वितम् ॥ ४ ॥

जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधाइस पवित्र नाम का त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता और प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है।

पितॄणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी ।

श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा ॥ ५ ॥

देवि! तुम पितरों के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणों के लिये जीवनस्वरूपिणी हो। तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं।

बहिर्मन्मनसो गच्छ पितॄणां तुष्टिहेतवे ।

सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे ॥ ६ ॥

तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ।

नित्यानित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते ।

आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव ॥ ७ ॥

सुव्रते! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है।

ॐ स्वस्ति च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा ।

निरूपिताश्चतुर्वेदे षट्प्रशस्ताश्च कर्मिणाम् ॥ ८ ॥

तुम ऊँ, नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो। चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की बड़ी मान्यता है।

पुरासीत्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी ।

धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता ॥ ९ ॥

हे देवी! आप गोलोक में 'स्वधा' नाम की गोपी हुआ करते थे और तुम राधिका की सखी थी। भगवान कृष्ण ने आपको छाती पर रख हविष्य दिया था। इसी कारण आपका नाम स्वाधा पड़ा।

स्वधा स्तोत्रमिदं पुण्यं यः श्रृणोति समाहितः ।

स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत् ॥ १२ ॥

यही भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है। जो पुरुष समाहित-चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया। उसको वेद पाठ का फल मिलता है।

इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गये। इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गयीं। तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे आनन्द से विह्वल हो गये।

इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त्त महापुराण द्वितीय प्रकृतिखण्ड नारदनारायणसंवाद स्वधोपाख्यान अध्याय-४१ व श्रीमद्देवीभागवत पुराणान्तर्गत नवम स्कन्ध अध्याय-३२ भगवती स्वधा का उपाख्यान, उनके ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तोत्रों का वर्णन समाप्त हुआ॥

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]