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डी पी कर्मकांड भाग-९ -
नान्दीश्राद्ध ॥Nandishraddh॥
डी पी कर्मकांड भाग-९ -
नान्दीश्राद्ध ॥ Nandishraddh ॥- नान्दीश्राद्ध
को आभ्युदयिकश्राद्ध तथा वृद्धिश्राद्ध भी कहते हैं। आभ्युदयिक (उत्थान हेतु)प्रयोग
है। नान्दीश्राद्ध विशेष देवपूजा (शुभकार्य) का प्रधान अंग है।
डी पी कर्मकांड भाग ९ - नांदीश्राद्ध
नान्दीश्राद्ध हर समाज में अवश्य ही
किया जाना चाहिए। जैसे हर शुभ कार्य से पहले हम देवी-देवताओं का पूजन करते हैं,उसी प्रकार हर शुभ कार्य के साथ हमें पूर्वजों का आशीर्वाद भी अवश्य
प्राप्त करना चाहिए, ऐसा हमारे धर्म ग्रंथों का कथन है और
इसी कारण प्रायः प्रत्येक पूजन विधि के साथ नान्दीश्राद्ध भी लिखा जाता है। डी पी
कर्मकांड-९ के इस भाग मे आप क्रमशः पढ़ेंगे कि- मानव जीवन में कुलदेवी-देवताओं का
पूजन व पितरों का श्राद्ध का बड़ा ही महत्व है। हम आधुनिकता की दौड़ में किसी भाँति
अपने स्वार्थ-वश मंदिरों में माथा टेक तो आते हैं,परंतु
कुलदेवों का पूजन व पितरों का श्राद्ध करने के लिए हमारा अहं आड़े आ जाता है और जब
कोई बड़ा बुजुर्ग हमें इनको करने की सलाह देता है तो उन्हें हम अंधविश्वासी कह चुप
करा देते हैं। अब जैसे भी हो हमे सफलता मिल जाती है तो वह भी हमें बीच रास्ते छोड़
चली जाती है। उस वक्त हम किस्मत को दोष देने लगते हैं और जब समझ पाते हैं तब तक
बहुत देर हो जाती है। अतः प्रत्येक शुभ कर्मों में कुलदेव पूजन व पितरों के
प्रसन्नार्थ नान्दीश्राद्ध को अवश्य ही स्थान दें। कहा भी गया है कि-
आयु: कीर्ति बलं तेजो,धनं पुत्रं, पशुं स्त्रिय: ।
ददन्ति पितरस्य तस्य,
आरोग्यं नात्र संशय:॥
अर्थात्- नान्दीश्राद्ध करने से
पितर प्रसन्न होकर अपनी संतानों को आयु, कीर्ति,
बल, तेज,धन-धान्य,
पुत्र, स्त्री व आरोग्य प्रदान कराते हैं। अतः
नान्दीश्राद्ध अवश्य ही करें।
डी पी कर्मकांड भाग ९ - नान्दीमुख
श्राद्ध क्या है?
नांदी शब्द नंद धातु में घय प्रत्यय
लगकर बनता है। जिसका अर्थ होता है प्रसन्न होना अथवा संतुष्ट होना।
नांदीमुख का अर्थ 'नांदी का मुख' है।
किसी भी शुभ कर्म में अपने पितरों
को प्रसन्न एवं अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए शुभ कर्म से पूर्व नांदी
श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। इसे करने से पितर प्रसन्न होते हैं और विश्वदेव भी
प्रसन्न होते हैं। विष्णु पुराण कहा गया है कि ”नंदन्ति देवा: यत्र सा नांदी” । नान्दी श्राद्ध
पितृगणों की तृप्ति एवं वंशवृद्धि हेतू किया जाने वाला एक प्रकार का वाचिक श्राद्ध
है, इसमें पिण्डदान नहीं होता।
डी पी कर्मकांड भाग ९ - नान्दीश्राद्ध करने के नियम
नान्दीश्राद्ध करते समय पूर्वाभिमुख
क्रिया करें ।
नान्दीश्राद्ध करते समय स्वधा के
स्थान पर स्वाहा शब्द का उच्चारण करें ।
कुश की जगह दूर्वा का प्रयोग करें ।
छिन्नमूल कुशा प्रयोग किया जा सकता है।
इस श्राद्ध में केवल सफ़ेद फूलों का
ही प्रयोग करें ।
इस श्राद्ध में अपसव्य नहीं करें
अर्थात् सव्य (दक्षिण यज्ञोपवीत या दक्षिण की ओर गमछा रखें) रहकर सभी कर्म करें ।
कर्म के चलते तक पत्नी को (यजमान
की) दूर बैठावे ।
इस श्राद्ध में समस्त सामाग्री व
ब्राह्मण युग्म में ही ग्रहण करें ।
तिल व पितृतीर्थ से जल न देवें या
प्रयोग में न लावे ।
क्षौर(मुण्डन) नहीं कराना है।
मातृपिण्ड से प्रारम्भ किया जाता
है।
मातृपक्ष का आसन सपत्निक होता है।
डी पी कर्मकांड भाग ९ - नान्दीश्राद्ध
अथ नान्दीश्राद्ध विधि-
सर्वप्रथम यजमान पूर्वाभिमुख होकर और अपने दाहिने जाँघ को दबाकर बैठे। सामने चार पत्तल रख उन सभी में दो-दो सुपाड़ियाँ व सादा चाँवल की कुड़ी रखें। प्रथम पत्तल में रखें युग्म सुपाड़ी को विश्वदेव तथा शेष पत्तल में रखें युग्म सुपाड़ी को पितृ माने ।
अब श्राद्ध प्रारम्भ करें-
संकल्प –
यजमान हाँथ में जवाँ(यव),जल लेकर संकल्प करते
हुए धरती पर छोड़ते जावे(ऐसा चार बार करें) -
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः ………………………………………शुभतिथौ देवब्राह्मणानां च सन्निधौ अद्य अमुक पूजनांगत्वेन
सांकल्पिकविधिना ब्राह्मणयुग्मभोजनपर्याप्तमन्ननिष्क्रयी भूतं यथाशक्तिहिरण्येन
नान्दीश्राद्धं करिष्ये'।
या इस संकल्प मंत्र को इस प्रकार
बोले-
ॐ सत्यवसु संज्ञकानां विश्वेषां
देवानां नान्दीमुखान् अद्य कर्तव्य प्रधान संकल्पोक्त कर्मणि सांकल्पिक
नान्दीश्राद्धे भवद्भ्यां क्षण: क्रियताम्॥१॥
अमुकगोत्रा मातृपितामही
प्रपितामह्यो नान्दीमुखान् अद्य कर्तव्य प्रधान संकल्पोक्त कर्मणि सांकल्पिक
नान्दीश्राद्धे भवद्भ्यां क्षण: क्रियताम्॥२॥
अमुकगोत्रा: पितृपितामहप्रपितामहाः
नान्दीमुखान् अद्य कर्तव्य प्रधान संकल्पोक्त कर्मणि सांकल्पिक नान्दीश्राद्धे
भवद्भ्यां क्षण: क्रियताम्॥३॥
(द्वितीयगोत्राः)
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखान् अद्य कर्तव्य प्रधान
संकल्पोक्त कर्मणि सांकल्पिक नान्दीश्राद्धे भवद्भ्यां क्षण: क्रियताम्॥४॥
पादप्रक्षालन - यजमान हाँथ में दुध
व शहद मिश्रित जल लेकर चारों स्थानों पर छोड़े-
ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः
नान्दीमुखाः भूर्भुवःस्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं स्वाहा
संपद्यतां वृद्धिः॥१॥
ॐ अमुकगोत्रा मातृपितामही
प्रपितामह्यो नान्दीमुखा: भूर्भुवःस्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं
स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥२॥
ॐ अमुकगोत्रा:
पितृपितामहप्रपितामहाः नान्दीमुखा: भूर्भुवःस्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं
पादप्रक्षालनं स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥३॥
(द्वितीयगोत्राः) ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखाः भूर्भुवःस्वः इदंवः पाद्यं
पादावनेजनं पादप्रक्षालनं स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥४॥
आसन – अब यजमान हाँथ में पुष्प लेकर चारों स्थानों पर पत्तल के नीचे आसान दें -
ॐ सत्यवसुसंज्ञकानां विश्वेषां
देवानांनान्दीमुखानां भूर्भुवःस्वः इदमासनं सुखासनं स्वाहा वो नमः॥१॥
ॐ अमुकगोत्राणां मातृपितामहि
प्रपितामह्यो नान्दीमुखीनां भूर्भुवःस्वः इदमासनं सुखासनं स्वाहा वो नमः॥२॥
ॐ अमुक गोत्राणां
पितृपितामहप्रपितामहानां नान्दीमुखानां भूर्भुवःस्वः इदमासनं सुखासनं स्वाहा वो
नमः॥३॥
(द्वितीयगोत्राणां) ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्ध प्रमातामहनां सपत्नीकानां नान्दीमुखानां भूर्भुवःस्वः
इदमासनं सुखासनं स्वाहा वो नमः॥४॥
गन्धादि - अब यजमान वस्त्र,
यज्ञोपवीत, चन्दन, अक्षत,
पुष्प, धूप, दीप,
नैवेद्य, पूगीफल, ताम्बूल
और दक्षिणा लेकर चारों स्थानों पर चढ़ावें -
ॐ सत्यवसुसंज्ञकेभ्यो विश्वेभ्यो
देवेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः इदंगन्धाद्यर्चनं स्वाहा
संपद्यतांवृद्धिः॥१॥
ॐ अमुकगोत्राभ्यो
मातृपितामहीप्रपितामहीभ्यो नान्दी नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः इदंगन्धाद्यर्चनं
स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥२॥
ॐ अमुकगोत्रेभ्यो पितृपितामहप्रपितामहेभ्यो
नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः इदं गन्धाद्यर्चनं स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥३॥
(द्वितीयगोत्रेभ्यो) ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहेभ्यो सपत्नीकेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः
इदंगन्धाद्यर्चनं स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥४॥
भोजननिष्क्रयद्रव्य दान - अब यजमान
दो ब्राह्मणो को भोजन के लिए कहे या भोजन निमित्त द्रव्य चढ़ाएँ-
ॐ सत्यवसुसंज्ञकेभ्यो विश्वेभ्यो
देवेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः इदं युग्मब्राह्मण भोजन पर्याप्तमन्नं
तन्निष्क्रयीभूतं किंचिद्धिरण्यं दत्तममृतरूपेण स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥१॥
ॐ अमुकगोत्राभ्यो
मातृपितामहीप्रपितामहीभ्यो नान्दी मुखीभ्यः भूर्भुवःस्वः इदं
युग्मब्राह्मणभोजनपर्याप्तमन्नं तन्निष्क्रयीभूतं किंचिद्धिरण्यं दत्तममृतरूपेण
स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥२॥
ॐ अमुकगोत्रेभ्यो
पितृपितामहप्रपितामहेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः इदं
ब्राह्मणयुग्मभोजनपर्याप्तमन्नं तन्निष्क्रयीभूतं किंचिद्धिरण्यं दत्तममृतरूपेण
स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः॥३॥
(द्वितीयगोत्रेभ्यो) ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहेभ्यो सपत्नीकेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः इदं
ब्राह्मणयुग्मभोजन पर्याप्तमन्नं तन्निष्क्रयीभूतं किंचिद्धिरण्यं दत्तममृतरूपेण
स्वाहा संपद्यतां वृद्धिः ॥४॥
पंचामृत- अब यजमान दुध,जल व पंचामृत या क्षीर लेकर चारों स्थानों पर चढ़ावें -
ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः
नान्दीमुखामुखाः भूर्भुवःस्वः इदं वः सक्षीरोदकं प्रीयन्ताम् ॥१॥
ॐ अमुकगोत्रा मातृपितामही
प्रपितामह्यः नांदीमुख्यः भूर्भुवःस्वः इदं वः सक्षीरोदकं प्रीयन्ताम्॥२॥
ॐ अमुकगोत्राः पितृपितामह
प्रपितामहाः नान्दीमुखा भूर्भुवःस्वः इदं वः सक्षीरोदकं प्रीयन्ताम्॥३॥
(द्वितीयगोत्राः) ॐ मातामह
प्रमातामहवृद्धप्रमातामहाः सपत्नीक नान्दीमुखाः भूर्भुवःस्वः इदं वः सक्षीरोदकं
प्रीयन्ताम्॥४॥
अब यजमान (अँगूठे से ब्रह्मा तीर्थ
मुद्रा में)जल,पुष्प व जवाँ लेकर चारों स्थानों
पर चढ़ावें –
जल-
ॐ अघोरा: पितर: सन्तु ।
सन्तु अघोरा: पितर: ।
पुष्प-
ॐ सौमनस्यमस्तु ।
जवाँ-
ॐ अक्षतं चारिष्टं चाऽस्तु ।
आशीर्वाद -
यजमान हाँथ जोड़कर पितरों से आशीर्वाद ग्रहण करें
-
यजमान कहे - गोत्रं नो वर्धताम्
।
ब्राह्मण कहे - वर्धताम् वो गोत्रम् ।
यजमान कहे-
दातारोनोऽभिवर्द्धन्ताम् ।
ब्राह्मण कहे- अभिवर्द्धन्ताम्
वो दातारः।
यजमान कहे- वेदाश्च
नोऽभिवर्द्धन्ताम् ।
ब्राह्मण कहे- अभिवर्द्धन्ताम्
वो वेदाः।
यजमान कहे -
सन्ततिनोऽभिवर्द्धन्ताम् ।
ब्राह्मण कहे- अभिवर्द्धन्ताम्
वः सन्ततिः।
यजमान कहे - श्रद्धा च नो मा
व्यगमत् ।
ब्राह्मण कहे- माव्यगमद्व: श्रद्धा ।
यजमान कहे - बहु देयं च नोऽस्तु
।
ब्राह्मण कहे- अस्तु वो देयम् ।
यजमान कहे - अन्नं च नो बहु
भवेत् ।
ब्राह्मण कहे- भवति वो बह्वन्नम्
।
यजमान कहे- अतिथींश्च लभेमहि
।
ब्राह्मण कहे- लभन्ताम्
वोऽअतिथयः।
यजमान कहे - याचितारश्च नः सन्तु
।
ब्राह्मण कहे- सन्तु वो
याचितारः।
यजमान कहे - एता आशिषः सत्याः
सन्तु ।
ब्राह्मण कहे- सन्त्वेताः सत्या
आशिषः।
दक्षिणा – अब
यजमान दो ब्राह्मणो को द्रव्य दक्षिणा, जवाँ, पुष्प, दाख के साथ देवें-
ॐ सत्यवसुसंज्ञकेभ्यो विश्वेभ्यो
देवेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः कृतस्य नान्दीश्राद्धस्य
फलप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थ द्राक्षामलकयवमूलादिभिर्निष्क्रयीभूतां दक्षिणां
दातुमहमुत्सृजे संपद्यतां वृद्धिः॥१॥
ॐ अमुकगोत्राभ्यो मातृ
पितामहीप्रपितामहीभ्यो नान्दीमुखीभ्यः भूर्भुवःस्वः कृतस्य नान्दीश्राद्धस्य
फलप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं द्राक्षामलकयव मूलादिभिर्निष्क्रयीभूतां दक्षिणां
दातुमहमुत्सृजे संपद्यतां वृद्धिः॥२॥
ॐ अमुकगोत्रेभ्यो
पितृपितामहप्रपितामहेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः कृतस्य नान्दीश्राद्धस्य
फलप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं द्राक्षामलकयवमूलादिभिर्निष्क्रयीभूतां दक्षिणां
दातुमहमुत्सृजे संपद्यतां वृद्धिः॥३॥
(द्वितीयगोत्रेभ्यो) ॐ
मातामहप्रमातामहवृद्धप्रमातामहेभ्यो सपत्नीकेभ्यो नान्दीमुखेभ्यः भूर्भुवःस्वः
कृतस्य नान्दीश्राद्धस्य फलप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं द्राक्षामलकयवमूलादिभिर्निष्क्रयीभूतां
दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे संपद्यतां वृद्धिः॥४॥
अर्ध्य-
अब यजमान चारों स्थानों पर अर्ध्य देवें –
ॐ उपास्मैगायतानर: पवमानायेन्दवे ।
अभिदेवांऽइयक्षते ॥
ॐ इडामग्नेपुरुद ঌ स ঌसनिंगो शश्वत्तम ঌहवामानायसाध ।
स्थान्न: सूनुस्तनयो विजावाग्ने
साते सुमतिर्भूत्वमस्ये॥
यजमान कहे- नान्दीश्राद्धं
संपन्नम् ।
ब्राह्मण कहे- सुसंपन्नमस्तु ।
देव विसर्जन-
यजमान जल छिड़के व आचार्य घंटा बजाते हुए
विश्वेदेव का विसर्जन करें -
ॐ वाजे वाजेवत वाजिनो नो धनेषु
विप्राऽऽमृता ऋतज्ञाः।
अस्य मद्धव: पिवतमादयध्वं तृप्तायात पथिभिर्देवयानैः॥
पितृ विसर्जन-
पुनः यजमान जल छिड़के व आचार्य घंटा बजाते हुए पितरों का विसर्जन करें –
ॐ आमा वाजस्य प्रसवो जगम्यादेमे
द्यावापृथिवी विश्वरूपे ।
आमागन्तां पितरा मातरा चामा
सोमोऽमृतत्वेन गम्यात् ॥
यजमान कहे -
अस्मिन्नान्दीश्राद्धे न्यूनातिरिक्तो यो विधिः स उपविष्ट ब्राह्मणानां वचनात्
नान्दीमुखप्रसादाच्च सर्वः परिपूर्णोऽअस्तु ।
ब्राह्मण तीन बार कहे –
अस्तु परिपूर्णः।
टीप-
विवाह, प्रतिष्ठा,यज्ञादि, विशेष अनुष्ठानों में नान्दीश्राद्ध अवश्य
ही करावे।
॥इति: डी पी कर्मकांड भाग-९
नान्दीश्राद्ध कर्मण: ॥
शेष जारी .......पढ़े डी पी कर्मकांड भाग-१०
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