श्राद्ध

श्राद्ध

श्राद्ध shraddha-

श्राद्ध
देवकार्यादपि सदा पितृकार्य विशिष्यते ।

देवताभ्यो हि पूर्वं पितॄणामाप्यायनं वरम् ॥

(हेमाद्रिमें वायु तथा ब्रह्मवैवर्तका वचन)

देवकार्यकी अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है। अतः देवकार्य से पूर्व पितरों को तृप्त करना चाहिये।

श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम्।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद् विचक्षणः ॥

(हेमाद्रिमें सुमन्तुका वचन)

श्राद्ध से बढ़कर कल्याणकारी और कोई कर्म नहीं होता। अतः प्रयत्नपूर्वक श्राद्ध करते रहना चाहिये।

एवं विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् ।

आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानवः ॥

(ब्रह्मपुराण)

(श्राद्ध से केवल अपनी तथा अपने पितरों की ही संतृप्ति नहीं होती, अपितु जो व्यक्ति) इस प्रकार विधिपूर्वक अपने धन के अनुरूप श्राद्ध करता है, वह ब्रह्मा से लेकर घास तक समस्त प्राणियों को संतृप्त कर देता है।

योऽनेन विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानसः ।

व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुनः ॥

(हेमाद्रि में कूर्मपुराण का वचन)

जो शान्त मन होकर विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर जन्म-मृत्यु के बन्धन से छूट जाता है।

श्राद्ध की परिभाषा

पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं-

'श्रद्धया पितृन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम् ।'

श्रद्धा से ही श्राद्ध शब्द की निष्पत्ति होती है

श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम्', 'श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम्', 'श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्' तथा श्रद्धया इदं श्राद्धम् 

अर्थात् अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जानेवाले कर्मविशेष को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है। इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं, जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों, पुराणों तथा वीरमित्रोदय, श्राद्धकल्पलता, श्राद्धतत्त्व, पितृदयिता आदि अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है।

महर्षि पराशर के अनुसार

देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत् ।

तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्याच्छ्रद्धया युतम् ॥

'देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाय, वही श्राद्ध है '

महर्षि बृहस्पति तथा श्राद्धतत्त्व में वर्णित महर्षि पुलस्त्य के वचन के अनुसार

संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं च पयोमधुघृतान्वितम् ।

श्रद्धया दीयते यस्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते ॥

'जिस कर्मविशेष में दुग्ध, घृत और मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाये हुए) उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाय, उसे श्राद्ध कहते हैं ।'

इसी प्रकार ब्रह्मपुराण में भी श्राद्ध का लक्षण लिखा है-

देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत् ।

पितॄनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् ॥

'देश, काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाय, उसे श्राद्ध कहते हैं ।'

श्राद्धकर्ता का भी कल्याण

योऽनेन विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानसः ।

व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुनः ॥ (कूर्मपुराण)

जो प्राणी विधिपूर्वक शान्त मन होकर श्राद्ध करता है, वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार-चक्र में नहीं आता। अतः प्राणी को पितृगण की सन्तुष्टि तथा अपने कल्याण के लिये भी श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। इस संसार में श्राद्ध करनेवाले के लिये श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारक उपाय नहीं है। इस तथ्य की पुष्टि महर्षि सुमन्तु द्वारा भी की गयी है-

श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम् ।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन श्राद्धं कुर्याद्विचक्षणः ॥

अर्थात् इस जगत्में श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नहीं है, अतः बुद्धिमान् मनुष्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये।

इतना ही नहीं,

आयुः पुत्रान् यशः स्वर्गं कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम् ।

पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ॥ (यमस्मृति, गरुडपुराण, श्राद्धप्रकाश)

श्राद्ध अपने अनुष्ठाता की आयु को बढ़ा देता है, पुत्र प्रदानकर कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखता है, धन-धान्य का अम्बार लगा देता है, शरीर में बल-पौरुष का संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार के सुख प्रदान करता है ।

श्राद्ध से मुक्ति

इस प्रकार श्राद्ध सांसारिक जीवन को तो सुखमय बनाता ही है, परलोक को भी सुधारता है और अन्त में मुक्ति भी प्रदान करता है-

आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानि च ।

प्रयच्छन्ति तथा राज्यं पितरः श्राद्धतर्पिताः ॥(मार्कण्डेयपुराण)

अर्थात् श्राद्ध से सन्तुष्ट होकर पितृगण श्राद्धकर्ता को दीर्घ आयु, संतति, धन, विद्या, राज्य, सुख, स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते हैं।

अत्रिसंहिता का कहना है

पुत्रो वा भ्रातरो वापि दौहित्रः पौत्रकस्तथा ।

पितृकार्ये प्रसक्ता ये ते यान्ति परमां गतिम् ॥

जो पुत्र, भ्राता, पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकार्य (श्राद्धानुष्ठान) - में संलग्न रहते हैं, वे निश्चय ही परमगति को प्राप्त होते हैं।

यहाँ तक लिखा है कि जो श्राद्ध करता है, जो उसके विधि-विधान को जानता है, जो श्राद्ध करने की सलाह देता है और जो श्राद्ध का अनुमोदन करता है-इन सबको श्राद्ध का पुण्यफल मिल जाता है—-

उपदेष्टानुमन्ता च लोके तुल्यफलौ स्मृतौ ॥ (बृहस्पति)

श्राद्ध न करने से हानि

अपने शास्त्र ने श्राद्ध न करने से होनेवाली जो हानि बतायी है, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अतः श्राद्ध-तत्त्व से परिचित होना तथा उसके अनुष्ठान के लिये तत्पर रहना अत्यन्त आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि मृत व्यक्ति इस महायात्रा में अपना स्थूल शरीर भी नहीं ले जा सकता है तब पाथेय (अन्न-जल) कैसे ले जा सकता है? उस समय उसके सगे-सम्बन्धी श्राद्धविधि से उसे जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है। शास्त्र ने मरणोपरान्त पिण्डदान की व्यवस्था की है। सर्वप्रथम शवयात्रा के अन्तर्गत छः पिण्ड दिये जाते हैं, जिनसे भूमि के अधिष्ठातृ देवताओं की प्रसन्नता तथा भूत-पिशाचों द्वारा होनेवाली बाधाओं का निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं। इसके साथ ही दशगात्र में दिये जानेवाले दस पिण्डों के द्वारा जीव को आतिवाहिक सूक्ष्म शरीर की प्राप्ति होती है। यह मृत व्यक्ति की महायात्रा के प्रारम्भ की बात हुई। अब आगे उसे पाथेय (रास्ते के भोजन- अन्न-जल आदि)- की आवश्यकता पड़ती है, जो उत्तमषोडशी में दिये जानेवाले पिण्डदान से उसे प्राप्त होता है।

लोकान्तरेषु ये तोयं लभन्ते नान्नमेव च ।

दत्तं न वंशजैर्येषां ते व्यथां यान्ति दारुणाम् ॥ (सुमन्तु)

यदि सगे-सम्बन्धी, पुत्र-पौत्रादि न दें तो भूख-प्यास से उसे वहाँ बहुत दारुण दुःख होता है।

श्राद्ध न करनेवाले को कष्ट

यह तो हुई श्राद्ध न करने से मृत प्राणी के कष्टों की कथा । श्राद्ध न करनेवाले को भी पग-पग पर कष्ट का सामना करना पड़ता है। मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करनेवाले अपने सगे-सम्बन्धियों का रक्त चूसने लगता है— 

श्राद्धं न कुरुते मोहात् तस्य रक्तं पिबन्ति ते । (ब्रह्मपुराण)

साथ-ही-साथ वे शाप भी देते हैं-

पितरस्तस्य शापं दत्त्वा प्रयान्ति च। ( नागरखण्ड)

न तत्र वीरा जायन्ते नारोग्यं न शतायुषः ।

न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्॥ ( हारीतस्मृति)

'श्राद्धमेतन्न कुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते ॥' (विष्णुस्मृति)

फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवनभर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है। उस परिवार में पुत्र नहीं उत्पन्न होता, कोई नीरोग नहीं रहता, लम्बी आयु नहीं होती, किसी तरह कल्याण नहीं प्राप्त होता और मरने के बाद नरक भी जाना पड़ता है।

उपनिषद् में भी कहा गया है कि

'देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्' ( तै०उप० १ । ११ । १) ।

अर्थात् देवता तथा पितरों के कार्यों में मनुष्य को कदापि प्रमाद नहीं करना चाहिये । प्रमाद से प्रत्यवाय होता है।

पितरों को श्राद्ध की प्राप्ति कैसे होती है ?

यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियाँ पितरों को कैसे मिलती हैं; क्योंकि विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न-भिन्न गति प्राप्त होती है। कोई देवता बन जाता है, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई चिनार का वृक्ष और कोई तृण । श्राद्ध में दिये गये छोटे-से पिण्ड से हाथी का पेट कैसे भर सकता है? इसी प्रकार चींटी इतने बड़े पिण्ड को कैसे खा सकती है ? देवता अमृत से तृप्त होते हैं, पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ? इन प्रश्नों का शास्त्र ने सुस्पष्ट उत्तर दिया है कि

नाममन्त्रास्तथा देशा भवान्तरगतानपि ।

प्राणिनः प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमागतान् ॥

देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः ।

तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्यनुगच्छति ॥

मर्त्यत्वे ह्यन्नरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत् ।

श्राद्धान्नं वायुरूपेण नागत्वेऽप्युपतिष्ठति ॥

पानं भवति यक्षत्वे नानाभोगकरं तथा ।

 (मार्कण्डेयपुराण, वायुपुराण, श्राद्धकल्पलता)

नाम- गोत्र के सहारे विश्वेदेव एवं अग्निष्वात्त आदि दिव्य पितर हव्य-कव्य को पितरों को प्राप्त करा देते हैं । यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गया हो तो दिया गया अन्न उसे वहाँ अमृत होकर प्राप्त हो जाता है। मनुष्ययोनि में अन्नरूप में तथा पशुयोनि में तृण के रूप में उसे उसकी प्राप्ति होती है। नागादि योनियों में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से तथा अन्य योनियों में भी उसे श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्तिकर पदार्थों के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है ।

यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विन्देत मातरम् ।

तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ।

नाम गोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नयन्ति तम् ।

अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति । (वायुपु० उपोद्घात पा० ८३।११९-२० )

नामगोत्रं पितॄणां तु प्रापकं हव्यकव्ययोः ।

श्राद्धस्य मन्त्रतस्तत्त्वमुपलभ्येत भक्तितः ।

अग्निष्वात्तादयस्तेषामाधिपत्ये व्यवस्थिताः ।

नामगोत्रास्तथा देशा भवन्त्युद्भवतामपि ॥

प्राणिनः प्रीणयन्त्येतदर्हणं समुपागतम् । (पद्मपुराण, सृष्टिखं० १०।३८-३९)

जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी-न-किसी प्रकार ढूँढ़ ही लेता है, उसी प्रकार मन्त्र तत्तद् वस्तुजात को प्राणी के पास किसी-न-किसी प्रकार पहुँचा ही देता है। नाम, गोत्र, हृदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्पपूर्वक दिये हुए पदार्थों को भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास पहुँचा देता है। जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुँच ही जाती है । 

ब्राह्मण-भोजन से भी श्राद्ध की पूर्ति

सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रक्रिया है - १ - पिण्डदान और २ - ब्राह्मण - भोजन । मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुँचते हैं वे मन्त्रों के द्वारा बुलाये जाने पर उन-उन लोकों से तत्क्षण श्राद्धदेश में आ जाते हैं और निमन्त्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं। सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्म कण के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है, वे तृप्त हो जाते हैं। वेद ने बताया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है-

इममोदनं नि दधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणं लोकजितं स्वर्गम् । (अथर्ववेद ४ । ३४ । ८)

(इमम् ओदनम्) इस ओदनोपलक्षित भोजन को (ब्राह्मणेषु नि दधे) ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूँ।

यह भोजन विस्तार से युक्त है और स्वर्गलोक को जीतनेवाला है।

इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए मनुजी ने लिखा है

यस्यास्येन सदाश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः ।

कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः ॥ (मनुस्मृति १।९५)

तस्य ते पितरः श्रुत्वा श्राद्धकालमुपस्थितम् ।

अन्योन्यं मनसा ध्यात्वा सम्पतन्ति मनोजवाः ॥

ब्राह्मणैस्ते सहाश्नन्ति पितरो ह्यन्तरिक्षगाः ।

वायुभूतास्तु तिष्ठन्ति भुक्त्वा यान्ति परां गतिम् ॥ (कूर्मपुराण उ०वि० २२ । ३-४)

अर्थात् ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को और पितर कव्य को खाते हैं। पितरों के लिये लिखा है कि ये अपने कर्मवश अन्तरिक्ष में वायवीय शरीर धारणकर रहते हैं । अन्तरिक्ष में रहनेवाले इन पितरों को श्राद्धकाल आ गया है' – यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है। ये 'मनोजव' होते हैं अर्थात् इन पितरों की गति मन की गति की तरह होती है। ये स्मरण से ही श्राद्धदेश में आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं। इनको सब लोग इसलिये नहीं देख पाते हैं कि इनका शरीर वायवीय होता है।

इस विषय में मनुस्मृति में भी कहा गया है –

निमन्त्रितान् हि पितर उपतिष्ठन्ति तान् द्विजान् ।

वायुवच्चानुगच्छन्ति तथासीनानुपासते ॥ (मनुस्मृति ३ । १८९)

श्राद्ध के निमन्त्रित ब्राह्मणों में पितर गुप्तरूप से निवास करते हैं । प्राणवायु की भाँति उनके चलते समय चलते हैं और बैठते समय बैठते हैं। श्राद्धकाल में निमन्त्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप में या वायुरूप में पितर आते हैं और उन ब्राह्मणों के साथ ही बैठकर भोजन करते हैं। मृत्यु के पश्चात् पितर सूक्ष्म शरीरधारी होते हैं, इसलिये उनको कोई देख नहीं पाता। शतपथ ब्राह्मण में भी कहा गया है कि

'तिर इव वै पितरो मनुष्येभ्यः' (२।३।४।२१)

अर्थात् सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण पितर मनुष्यों से छिपे हुए-से होते हैं। अतएव सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ये जल, अग्नि तथा वायुप्रधान होते हैं, इसीलिये लोक-लोकान्तरों में आने-जाने में उन्हें कोई रुकावट नहीं होती ।

धनाभाव में भी श्राद्ध की सम्पन्नता

धन की परिस्थिति सबकी एक सी नहीं रहती। कभी-कभी धन का अभाव हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में जबकि श्राद्ध का अनुष्ठान अनिवार्य है, इस दृष्टि से शास्त्र ने धन के अनुपात से कुछ व्यवस्थाएँ की हैं-

(१) यदि अन्न-वस्त्र के खरीदने में पैसों का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक से श्राद्ध कर देना चाहिये-

तस्माच्छ्राद्धं नरो भक्त्या शाकैरपि यथाविधि ।

(२) तृणकाष्ठार्जनं कृत्वा प्रार्थयित्वा वराटकम् ।

करोति पितृकार्याणि ततो लक्षगुणं भवेत् ॥ पद्मपुराण, सृष्टि० ५२ । ३१०)

यदि शाक खरीदने के लिये भी पैसे न हों तो तृण-काष्ठ आदि को बेचकर पैसे इकट्ठा करे और उन पैसों से शाक खरीदकर श्राद्ध करे ।

अधिक श्रम से यह श्राद्ध किया गया है, अतः फल लाख गुना होता है।

(३) देशविशेष और कालविशेष के कारण लकड़ियाँ भी नहीं मिलतीं। ऐसी परिस्थिति में शास्त्र ने बताया कि घास से श्राद्ध हो सकता है। घास काटकर गाय को खिला दे । यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है। इसके साथ ही इसने इस सम्बन्ध की एक छोटी-सी घटना प्रस्तुत की है-

एक व्यक्ति धन के अभाव से अत्यन्त ग्रस्त था । उसके पास इतना पैसा न था कि शाक खरीदा जा सके। इस तरह शाक से भी श्राद्ध करने की स्थिति में वह न था । आज ही श्राद्ध की तिथि थी । 'कुतप काल' भी आ पहुँचा था। इस काल के बीतने पर श्राद्ध नहीं हो सकता था। बेचारा घबरा गया - रो पड़ा - श्राद्ध करे तो कैसे करे? एक विद्वान्ने उसे सुझाया - अभी कुतप काल है, शीघ्र ही घास काटकर पितरों के नाम पर गाय को खिला दो। वह दौड़ गया और घास काटकर गाय को खिला दी। इस श्राद्ध के फलस्वरूप उसे देवलोक की प्राप्ति हुई

एतत् पुण्यप्रसादेन गतोऽसौ सुरमन्दिरम् । (पद्मपुराण, सृष्टि० ५२ । ३१९ )

(४) ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि घास का भी मिलना सम्भव नहीं होता । तब श्राद्ध कैसे करे?

शास्त्र ने इसका समाधान यह किया है कि श्राद्धकर्ता को देशकालवश जब घास का भी मिलना सम्भव न हो, तब श्राद्ध का अनुकल्प यह है कि श्राद्धकर्ता एकान्त स्थान में चला जाय। दोनों भुजाओं को उठाकर निम्नलिखित श्लोक से पितरों की प्रार्थना करे-

न मेऽस्ति वित्तं न धनं च नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं स्वपितॄन्नतोऽस्मि ।

तृप्यन्तु भक्त्या पितरो मयैतौ कृतौ भुजौ वर्त्मनि मारुतस्य ॥ (विष्णुपु० ३ । १४ । ३० )

अर्थात् हे मेरे पितृगण! मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य आदि । हाँ, मेरे पास आपके लिये श्रद्धा और भक्ति है। मैं इन्हीं के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ। आप तृप्त हो जायँ। मैंने (शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप) दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है।

श्राद्धकार्य में साधनसम्पन्न व्यक्ति को वित्तशाठ्य (कंजूसी) नहीं करनी चाहिये 'वित्तशाठ्यं न समाचरेत्' अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धापूर्वक श्राद्ध अवश्य करना चाहिये।

उपर्युक्त अनुकल्पों से स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि किसी-न-किसी तरह श्राद्ध को अवश्य करे। शास्त्र ने तो स्पष्ट शब्दों में श्राद्ध का विधान दिया है और न करने का निषेध भी किया है।

श्राद्ध करे ही-

अतो मूलैः फलैर्वापि तथाप्युदकतर्पणैः । पितृतृप्तिं प्रकुर्वीत ।।

श्राद्ध छोड़े नहींनैवं श्राद्धं विवर्जयेत्। (धर्मसिन्धु )

शेष आगे के अंक में पढ़ें..........

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