कालिका पुराण अध्याय ५६
कालिका पुराण
अध्याय ५६ में महामाया कल्प शिवप्रोक्ता अष्ट
कवच का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ५६
Kalika puran chapter 56
कालिकापुराणम्
षट्पञ्चाशोऽध्यायः महामायाकल्पे कवचवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५६
श्रीभगवानुवाच
अस्य
मन्त्रस्य कवचं शृणु वेतालभैरव ।
वैष्णवीतन्त्रसंज्ञस्य
वैष्णव्याश्च विशेषतः ॥ १॥
श्रीभगवान्
बोले- हे वेताल और भैरव ! तुम दोनों इस मन्त्र के वैष्णवी सम्बन्धी, वैष्णवीतन्त्र नामक कवच को विशेषरूप से
सुनो ॥ १ ॥
तत्र
मन्त्राद्यक्षरं तु वासुदेवस्वरूपधृक् ।
वर्णो
द्वितीयो ब्रह्मैव तृतीयश्चन्द्रशेखरः ॥ २॥
चतुर्थो
गजवक्त्रश्च पञ्चमस्तु दिवाकरः ।
शक्तिः स्वयं
पकारश्च महामाया जगन्मयी ।
यकारस्तु
महालक्ष्मीः शेषवर्णः सरस्वती ॥ ३॥
इसमें मन्त्र
का पहला अक्षर (अ) विष्णुस्वरूपधारी, द्वितीयवर्ण (क) ब्रह्मा तथा तृतीयवर्ण (च)
चन्द्रशेखरशिवस्वरूप बताया गया है। चतुर्थ (ट) गणेशस्वरूप, पंचम
(त) सूर्यरूप है। इसमें पकार स्वयं जगन्मयी, महामाया, शक्ति का रूप, यकार महालक्ष्मीस्वरूप तथा शेष वर्ण
(स) सरस्वती का स्वरूप है ।। २-३॥
योगिनीपूर्ववर्णस्य
शैलपुत्री प्रकीर्तिता ॥ ४॥
द्वितीयस्य तु
वर्णस्य चण्डिका योगिनी मता ।
चन्द्रघण्टा
तृतीयस्य कुष्माण्डी तत् परस्य च ॥ ५॥
स्कन्दमाता
तकारस्य यस्य कात्यायनी स्वयम् ।
कालरात्रिः
सप्तमस्य महादेवीति संस्थिता ॥ ६॥
यहाँ
प्रथमवर्ण की शैलपुत्री, द्वितीयवर्ण की चण्डिका, तृतीयवर्ण की चन्द्रघण्टा,
उसके पश्चात् चतुर्थवर्ण की कूष्माण्डा, तकार
की स्कन्दमाता, पवर्ण की स्वयम् कात्यायनी, सप्तम यकार की कालरात्री तथा अन्तिम सकार की महादेवी क्रमशः योगिनियाँ
बताई गई हैं ॥४-६॥
प्रथमं
वर्णकवचं योगिनीकवचं तथा ।
देवौघकवचं
पश्चाद्देवीदिक्कवचं तथा ॥ ७॥
ततस्तु
पार्श्वकवचं द्वितीयान्ताव्ययस्य च ।
कवचं तु ततः
पश्चात् षड्वर्णं कवचं तथा ॥ ८॥
अभेद्यकवचं
चेति सर्वत्राणपरायणम् ।
वैष्णवीतन्त्र
में पहला वर्णकवच तत्पश्चात् योगिनीकवच तब देवौघकवच, देवीदिक्कवच तदनन्तर द्वितीयान्त अव्यय कवच, पार्श्वकवच, षडवर्णकवच और अन्तिम सभी जगह रक्षा करने
में निरत अभेद्यकवच, इस प्रकार से आठ कवच बताये गये हैं ।।
७-८ ।।
इमानि
कवचान्यष्टौ यो जानाति नरोत्तमः ।
सोऽहमेव महादेवी देवीरूपश्च शक्तिमान् ॥ ९॥
जो उत्तमपुरुष
उपर्युक्त आठ कवचों को जानता है, वह महादेवी (महामाया देवी) की शक्ति से युक्त, स्वयं
मैं ही हूँ अर्थात् वह मेरा ही स्वरूप हो जाता है ॥९॥
कालिका पुराण अध्याय ५६- वर्ण कवच अथवा वैष्णवी तन्त्रकवच
।। वर्णकवच ॥
अस्य श्रीवैष्णवीतन्त्रकवचस्य नारद-ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः ।
कात्यायनी
देवता । सर्वकामार्थसाधने विनियोगः ॥ १०॥
इस वर्णकवच का
नारदऋषि, अनुष्टुप्छन्द, कात्यायनीदेवता,
सभी अर्थों की साधना में विनियोग बताया गया है॥१०॥
अः पातु
पूर्वकाष्ठायामाग्नेय्यां पातु कः सदा ।
पातु चो
यमकाष्ठायां टो नैर्ऋत्यां च सर्वदा ॥ ११॥
मां पातु
तोऽसौ पाश्चात्ये शक्तिर्वायव्यदिग्गता ।
यः पातु मां
चोत्तरस्यामैशान्यां सस्तथावतु ॥ १२॥
अकार
पूर्वदिशा में, ककार
आग्नेय (अग्निकोण) में सदैव रक्षा करे, चकार यमदिशा (दक्षिण)
में, टकार सर्वदा नैर्ऋत्य दिशा में मेरी रक्षा करे । तकार
पश्चिम में, शक्ति (प) वर्ण वायव्यदिशा में, यकार उत्तर तथा सकार ईशानकोण में मेरी रक्षा करे। । ११-१२ ।।
मूर्ध्नि
रक्षतु मां सोऽसौ बाहौ मां दक्षिणे तु कः ।
मां वामबाहौ
चः पातु हृदि टो मां सदावतु ॥ १३॥
तः पातु कण्ठदेशे मां कट्योः शक्तिस्तथावतु ।
यः पातु दक्षिणे पादे षो मां वामपादे तथा ॥
१४॥
अवर्ण मेरी
मूर्धा की, क मेरी
दाहिनीभुजा, च बाईं भुजा तथा ट सदैव मेरे हृदय की रक्षा करे।
त कण्ठदेश में, शक्ति (प) कटि में, य
दक्षिणपैर में तथा ष बाएँ पैर में मेरी रक्षा करे ।। १३-१४ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ५६- योगिनी कवच
॥योगिनीकवच॥
शैलपुत्री तु पूर्वस्यामाग्नेय्यां पातु
चण्डिका ।
चन्द्रघण्टा
पातु याम्यां यमभीतिविवर्धिनी ॥ १५॥
नैर्ऋत्ये
त्वथ कूष्माण्डा पातु मां जगतां प्रसूः ।
स्कन्दमाता
पश्चिमायां मां रक्षतु सदैव हि ॥ १६॥
शैलपुत्री
पूर्वदिशा में, चण्डिका
अग्निकोण में, यम के भी भय को बढ़ानेवाली चन्द्रघण्टा दक्षिण
में, संसार को उत्पन्न करने वाली कूष्माण्डा देवी नैर्ऋत्य
तथा स्कन्दमाता सदैव पश्चिम दिशा में मेरी रक्षा करें ।। १५-१६ ॥
कात्यायनी मां
वायव्ये पातु लोकेश्वरी सदा ॥ १७॥
कालरात्री तु
कौबेर्यां सदा रक्षतु मां स्वयम् ।
महागौरी
तथैशान्यां सततं पातु पावनी ॥ १८॥
लोकों की
स्वामिनी कात्यायनी वायव्यकोण में, कालरात्री स्वयं कुबेर की उत्तरदिशा में, सदैव मेरी रक्षा करें तथा पवित्रमहागौरी निरन्तर ईशानकोण में मेरी रक्षा
करें ।। १७-१८।
कालिका पुराण
अध्याय ५६- देवौघ कवच
॥ देवौध कवच ॥
नेत्रयोर्वासुदेवो
मां पातु नित्यं सनातनः ।
ब्रह्मा मां
पातु वदने पद्मयोनिरयोनिजः ॥ १९॥
नासाभागे
रक्षतु मां सर्वदा चन्द्रशेखरः ।
गजवक्त्रः
स्तनयुग्मे पातु नित्यं हरात्मजः ।
वामदक्षिणपाण्योर्मां
नित्यं पातु दिवाकरः ॥ २०॥
महामाया स्वयं
नाभौ मां पातु परमेश्वरी ।
महालक्ष्मीः पातु गुह्ये जानुनोश्च सरस्वती
॥ २१॥
सनातन वासुदेव
(विष्णु) मेरे दोनों नेत्रों की नित्य रक्षा करें। बिना मातृयोनि के, कमल से ही उत्पन्न, ब्रह्मा
मेरे मुख की तथा चन्द्रशेखर (शिव) सदैव मेरी नासिका की रक्षा करें। शिव के पुत्र,
गणेश नित्य मेरे दोनों स्तनों की एवं दिवाकर (सूर्य), मेरे बाएँ और दाहिने हाथों की रक्षा करें । परमेश्वरी महामाया स्वयं मेरे
नाभि की, महालक्ष्मी गुह्यभाग की तथा सरस्वती मेरे घुटनों की
रक्षा करें ।। १९-२१॥
कालिका पुराण
अध्याय ५६- देवीदिक्कवच
।।
देवीदिक्कवच ॥
महामाया पूर्वभागे नित्यं रक्षतु मां शुभा
।
अग्निज्वाला
तथाग्नेय्यां पायान्नित्यं वरासिनी ॥ २२॥
शुभस्वरूपा, महामाया, पूर्वभाग
में, श्रेष्ठ आसनवाली, अग्निज्वाला,
अग्निकोण में नित्य मेरी रक्षा करें ॥ २२ ॥
रुद्राणी पातु
मां याम्यां नैर्ऋत्यां चण्डनायिका ।
उग्रचण्डा
पश्चिमायां पातु नित्यं महेश्वरी ॥ २३॥
प्रचण्डा पातु
वायव्ये कौबेर्यां घोररूपिणी ।
ईश्वरी च
तथैशान्यां पातु नित्यं सनातनी ॥ २४॥
रूद्राणी
दक्षिणदिशा में, चण्डनायिका
नैर्ऋत्यकोण में, महेश्वरी उग्रचण्डा पश्चिम दिशा में नित्य
मेरी रक्षा करें। प्रचण्डा वायव्यकोण में तथा घोररूपिणी उत्तर दिशा में तथा
ईशानकोण में सनातनी ईश्वरी देवी नित्य मेरी रक्षा करें। महामाया मेरे ऊपरी भाग में,
परमेश्वरी निचले भाग में, उग्रा अगले भाग में
एवं वैष्णवी पृष्ठभाग में मेरी रक्षा करें ॥ २३-२४।।
कालिका पुराण
अध्याय ५६- पार्श्व कवच
॥पार्श्वकवचं॥
ऊर्ध्वं पातु
महामाया पात्वधः परमेश्वरी ।
अग्रतः पातु
मामुग्रा पृष्ठतो वैष्णवी तथा ॥ २५॥
ब्रह्माणी
दक्षिणे पार्श्वे नित्यं रक्षतु शोभना ।
माहेश्वरी वामपार्श्वे नित्यं
पायाद्वृषध्वजा ॥ २६॥
सुन्दरी
ब्रह्माणी मेरे दाहिनेभाग और वृषध्वजधारिणी माहेश्वरी देवी मेरे वामभाग में नित्य
रक्षा करें ॥२५-२६॥
कालिका पुराण
अध्याय ५६- अव्यय कवच
॥अव्ययकवचं॥
कौमारी पर्वते पातु वाराही सलिले च माम् ॥
२७॥
नारसिंही
दंष्ट्रिभये पातु मां विपिनेषु च ।
ऐन्द्री मां
पातु चाकाशे तथा सर्वजले स्थले ॥ २८॥
कौमारी देवी
पर्वत पर, वाराही जल में मेरी रक्षा करें। नारसिंही,
भयानक-दांतवाले जन्तुओं से जंगलों में तथा ऐन्द्री, आकाश एवं जल-थल में सर्वत्र मेरी रक्षा करें ।। २७-२८ ॥
सेतुः
सर्वाङ्गुलीः पातु देवादिः पातु कर्णयोः ।
देवान्तश्चिबुके
पातु पार्श्वयोः शक्तिपञ्चमः ॥ २९॥
सेतु (ॐ) मेरी
सभी अंगुलियों की तथा देव्यै मेरे कानों की तथा उसके पश्चात् आनेवाला पद नमः मेरे
चिबुक (ठुट्ठी) की तथा शक्ति (पकार) से पाँचवां वर्ण म मेरे पार्श्वभाग की रक्षा
करें ।। २९।।
कालिका पुराण
अध्याय ५६- षड्वर्ण कवच
॥षड्वर्णकवचं॥
हा पातु मां
तथैवोर्वोर्माया रक्षतु जङ्घयोः ।
सर्वेन्द्रियाणि
यः पातु रोमकूपेषु सर्वदा ॥ ३०॥
हा वर्ण मेरे
उरु की और माया मेरी जांघों की रक्षा करें । यै वर्ण मेरी सभी इन्द्रियों तथा
रोमकूपों की सर्वदा रक्षा करें ।। ३०।।
त्वचि मां वै
सदा पातु मां शम्भुः पातु सर्वदा ।
नखदन्तकरोष्ठादौ
रां मां पातु सदैव हि ॥ ३१॥
वै सदा मेरे
त्वचा की तथा शम्भु (ष) सदैव मेरे नख, दाँत, हाथ और ओठों की रक्षा करे। रॉ (ण)
वर्ण सदैव मेरी रक्षा करे ॥३१॥
देवादिः पातु
मां वस्तौ देवान्तः स्तनकक्षयोः ।
एतदादौ तु यः
सेतुर्बाह्ये मां पातु देहतः ॥ ३२॥
देव शब्द
जिसके आदि में लगता है वह व्यै मेरे वसतीक्षेत्र की तथा देवान्त (नमः) शब्द मेरे
स्तन और कोखों की तथा इन सबके आरम्भ में आने वाला सेतु (ॐकार) बाहर से मेरे
सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करे ।। ३२ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ५६- अभेद्य कवच
।। अभेद्यकवचं।।
आज्ञाचक्रे
सुषुम्नायां षट्चक्रे हृदि सन्धिषु ।
आदिषोडशचक्रे
च ललाटाकाश एव च ।
वैष्णवीतन्त्रमन्त्रो
मां नित्यं रक्षंश्च तिष्ठतु ॥ ३३॥
वैष्णवीतन्त्रमन्त्र
नित्य मेरे आज्ञाचक्र, सुषुम्ना, षट्चक्र, हृदय,
सन्धि, आदिषोडशचक्र, ललाट
तथा आकाश (ब्रह्मरन्ध्र) में, मेरी रक्षा करते हुए स्थित
रहें ।। ३३॥
अर्णनाडीषु
सर्वासु पार्श्वकक्षशिखासु च ।
रुधिरस्नायुमज्जासु
मस्तिष्केषु च पर्वसु ॥ ३४॥
द्वितीयाष्टाक्षरो
मन्त्रः कवचं पातु सर्वतः ॥ ३५॥
इसी प्रकार
दूसरा अष्टाक्षर मन्त्र (ऊँ महामायायै नमः) का जो कवच है वह सभी कर्णनाड़ियों, पार्श्वकक्ष, शिखाओं,
रक्त, स्नायु, मज्जा,
मस्तिष्क और शरीर के पर्वों में सब ओर से मेरी रक्षा करे ।। ३४-३५।।
रेतो वायौ
नाभिरन्ध्रे पृष्ठसन्धिषु सर्वतः ।
षडक्षरस्तृतीयोऽयं
मन्त्रो मां पातु सर्वदा ॥ ३६॥
मेरे वीर्य, वायु, नाभिरन्ध्र,
तथा पीठ की जोड़ों में सदा और सब ओर से षडक्षर (ॐ वैष्णव्यै नमः)
मन्त्र रक्षा करें॥३६॥
नासारन्ध्रे
महामाया कण्ठरन्ध्रे तु वैष्णवी ।
सर्वसन्धिषु
मां पातु दुर्गा दुर्गार्तिहारिणी ॥ ३७॥
नाक के
छिद्रों में महामाया, कण्ठ के छिद्रों में वैष्णवी तथा सभी जोड़ो में दुःखों का दूर करने वाली,
दुर्गा मेरी रक्षा करें ॥। ३७।।
श्रोत्रयोर्हुं
फडित्येवं नित्यं रक्षतु कालिका ।
नेत्रबीजत्रयं
नेत्रे सदा तिष्ठतु रक्षितुम् ॥ ३८॥
हूँ फट्
कालिका नित्य मेरे कानों में रक्षा करें तथा नेत्रबीजत्रय रक्षा हेतु सदैव मेरे
नेत्रों में स्थित हो ॥ ३८ ॥
ॐ ऐं ह्रीं
ह्रौं नासिकायां रक्षन्ती चास्तु चण्डिका ।
ॐ ह्रीं ह्रूं
मां सदा तारा जिह्वामूले तु तिष्ठतु ॥ ३९॥
ॐ ऐं ह्रीं
ह्रौं चण्डिका मेरी नाक में स्थित हो रक्षा करती रहें तथा ॐ ह्रीं हूँ तारा सदैव
मेरे जिह्वामूल में स्थित रहें ॥३९॥
हृदि तिष्ठतु
मे सेतुर्ज्ञानं रक्षितुमुत्तमम् ।
ॐ क्षौं फट् च
महामाया पातु मां सर्वतः सदा ॥ ४०॥
सेतु (ॐ)
उत्तम ज्ञान की रक्षा हेतु मेरे हृदय में स्थित रहे । ॐ क्षौं फट् महामाया सदैव सब
ओर से मेरी रक्षा करें ॥४०॥
ॐ युं सः
प्राणान् कौशिकी मां प्राणान् रक्षतु रक्षिका ।
ॐ ह्रीं ह्रूं
सौं भर्गदयिता देहशून्येषु पातु माम् ॥ ४१॥
प्राणों की
रक्षा करने वाली ॐ तथा शरीर से रहित स्थितियों में ॐ यूँ सः कौशिकी मेरे प्राणों
की रक्षा करें ह्रीं हूँ सौं भर्गदयिता मेरी रक्षा करें ॥ ४१ ॥
ॐ नमः सदा
शैलपुत्री सर्वान् रोगान् प्रमृज्यताम् ।
ॐ ह्रीं सः
स्फें क्षः फडस्त्राय सिंहव्याघ्रभयाद्रणात् ॥ ४२॥
शिवदूती पातु
नित्यं ह्रीं सर्वास्त्रेषु तिष्ठतु ।
ॐ ह्रां ह्रीं
सश्चण्डघण्टा कर्णच्छिद्रेषु पातु माम् ॥ ४३॥
ॐ नमः
शैलपुत्री सदैव सभी रोगों से मुझे स्वच्छ करें। तथा ॐ ह्रीं सः स्फें क्षः
अस्त्राय फट् शिवदूती मेरे सभी अस्त्रों में स्थित हो सिंह- व्याघ्र के भय और
युद्ध से मेरी रक्षा करें। ॐ ह्रां ह्रीं सः चण्डघण्टा कान के छिद्रों में मेरी
रक्षा करें ।।४२-४३॥
ॐ क्रीं सः
कामेश्वरी कामानभितिष्ठतु रक्षतु ।
ॐ आं ह्रूं
फडुग्रचण्डा रिपून् विघ्नान् विमर्दताम् ॥ ४४॥
ॐ क्रीं सः
कामेश्वरी देवी मेरी कामनाओं में सब ओर स्थित हो रक्षा करें। ॐ आं हूँ फट्
उग्रचण्डा शत्रुओं एवं विघ्नों को नष्ट करें ॥ ४४ ॥
ॐ अं शूलात्
पातु नित्यं वैष्णवी जगदीश्वरी ।
ॐ कं
ब्रह्माणी पातु चक्रात् ॐ चं रुद्राणी तु शक्तितः ॥ ४५ ॥
ॐ अं वैष्णवी
जगदीश्वरी शूल से, ॐ कं ब्रह्माणी चक्र से, ॐ चं रुद्राणी शक्ति से
नित्य मेरी रक्षा करें ॥४५॥
ॐ टं कौमारी
पातु वज्रात् ॐ तं वाराही तु काण्डतः ।
ॐ पं पातु
नारसिंही मां क्रव्यादेभ्यस्तथास्त्रतः ॥ ४६॥
ॐ टं कौमारी
वज्र से, ॐ तं वाराही काण्ड (बाण) से ॐ पं नारसिंही
राक्षसों तथा अस्त्रों (के भय) से रक्षा करें ॥ ४६ ॥
शस्त्रास्त्रेभ्यः समस्तेभ्यो
यन्त्रेभ्योऽनिष्टमन्त्रतः ।
चण्डिका मां
सदा पातु यं सं देव्यै नमो नमः ।
विश्वासघातकेभ्यो मामैन्द्री रक्षतु मन्मनः
॥ ४७ ॥
यं सं चण्डिका
देव्यै नमो नमः सभी प्रकार के शस्त्रास्त्रों, यन्त्रों और अनिष्टकारी मन्त्रों से सर्वदा मेरी रक्षा करे।
एवं विश्वासघात करने वालों से ऐन्द्री मेरे मन की रक्षा करें ॥४७॥
ॐ नमो
महामायायै ॐ वैष्णव्यै नमो नमः ।
रक्ष मां
सर्वभूतेभ्यः सर्वत्र परमेश्वरि ॥ ४९॥
हे परमेश्वरी
ॐ नमो महामायायै एवं ॐ वैष्णव्यै नमोनमः सर्वत्र सभी प्राणियों से मेरी रक्षा करें
॥४८॥
आधारे
वायुमार्गे हृदि कमलदले चन्द्रवत् स्मेरसूर्ये
वस्तौ वह्नौ समिद्धे विशतु वरदया
मन्त्रमष्टाक्षरन्तत् ।
यद्ब्रह्मा
मूर्ध्नि धत्ते हरिरवति गले चन्द्रचूडो हृदिस्थं
तं मां पातु प्रधानं निखिलमतिशयं
पद्मगर्भाभबीजम् ॥ ५०॥
श्रीवैष्णवी
का जो वरदायक अष्टाक्षरमन्त्र है, वह वायुमार्ग से मेरे आधारचक्र में तथा चन्द्रमा के समान सुखद कमलदल से
युक्त हृदय में, सूर्य के समान सहस्रार में प्रवेश करे । वह
अग्नि से युक्त हमारे वसतीक्षेत्र में भी प्रवेश करे । वह पद्मगर्भ आभा के समान,
प्रधान, पूर्ण और श्रेष्ठ जो बीजमन्त्र है,
जिसे ब्रह्मा मस्तक पर धारण करते हैं, विष्णु
जिसकी गले में रक्षा करते हैं तथा जो चन्द्रचूड शिव के हृदय में स्थित है, वह मेरी रक्षा करे ।। ४९ ।।
आद्याः शेषाः
स्वरौघैर्नमयवलवरैरस्वरेणापि युक्तैः
सानुस्वाराविसर्गैर्हरिहरविदितं यत्सहस्रं
च साष्टम् ।
अन्त्राणां
सेतुबन्धं निवसति सततं वैष्णवीतन्त्रमन्त्रे
तन्मां पायात्पवित्रं परमपरमजं
भूतलव्योमभागे ॥ ५१॥
वैष्णवीतन्त्र-मन्त्र
में सभी वर्णों के वर्गों के पहले और अन्तिम व्यञ्जन न म य व ल र से युक्त स्वर
सहित या बिना स्वर के अनुस्वार एवं विसर्गों के सहित निरन्तर निवास करने वाले एक
हजार आठ मन्त्रों का जो सेतुबन्ध ॐ कार है । जिसे विष्णु एवं शिव भी पूर्णतः नहीं
जान पाते, वह परम और अपरम, अज,
पवित्रतत्त्व, पृथ्वी तथा आकाश में मेरी रक्षा
करे ॥ ५० ॥
अङ्गान्यष्टौ
तथाष्टौ वसव इह तथैवाष्टमूर्तिर्दलानि
प्रोक्तान्यष्टौ तथाष्टौ मधुमतिरचिताः
सिद्धयोऽष्टौ तथैव ।
अष्टावष्टाष्टसङ्ख्या
जगति रतिकलाः क्षिप्रकाष्टाङ्गयोगा
मय्यष्टावक्षराणि क्षरतु न हि गणो यद्धृतोयस्त्वभूषाम्
॥ ५२॥
आपके
अष्टाक्षर मन्त्र के आठों अक्षर, योग के आठ अङ्ग ( यम, नियम, आसन,
प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान,
धारणा, समाधि) किंवा आयुर्वेद के आठ अङ्ग
(द्रव्याभिधान, गदनिश्चय, काय, सौच्य, शल्यकर्म, भूतनिग्रह,
बालवैद्य, रसायन) का ज्ञान, आठ वसु (धर, ध्रुव, सोम,
विष्णु, अनिल, अनल,
प्रत्यूष, प्रभास, अथवा
द्रोण, प्राण ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु, विभावसु), शिव की आठ मूर्तियों (क्षिति, जल, तेज, वायु, आकाश, यजमान, अर्क, चन्द्र, अथवा सर्व, भव,
रूद्र, उम्र, भीम,
पशुपति, ईशान, महादेव)
से युक्त, अष्टदल, आठ मधुमती विद्यायें,
आठ सिद्धियाँ (अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा प्राप्ति, प्राकाम्य,
ईशित्व, वशित्व,) जगत्प्रसिद्ध
चौंसठ रतिकलायें तथा आठ दिशाओं के समूहों को मुझे प्रदान करें जिनके धारण करने से
मेरी शोभा नष्ट न हो ॥ ५१ ॥
कालिका पुराण अध्याय ५६- कवच फलश्रुति
॥फलश्रुतिः॥
इति तत्कवचं
प्रोक्तं धर्मकामार्थसाधनम् ।
इदं रहस्यं
परममिदं सर्वार्थसाधकम् ॥ ५३॥
इस प्रकार का
जो धर्म, अर्थ और काम के श्रेष्ठ साधनरूप में यह कवच
कहा गया । वह कवच अत्यन्त गुप्त, श्रेष्ठ तथा सभी प्रयोजनों
को सिद्ध करने वाला है ॥५२॥
यः
सकृच्छृणुयादेतत् कवचं मयकोदितम् ।
स
सर्वांल्लभते कामान् परत्र शिवरूपताम् ॥ ५४॥
जो मेरे
द्वारा कहे गये, इस कवच को
एक बार सुनता है, वह इस लोक में सभी कामनाओं को तथा परलोक
में शिव की स्वरूपता को प्राप्त कर लेता है ॥५३॥
सकृद्यस्तु
पठेदेतत् कवचं मयकोदितम् ।
स सर्वयज्ञस्य
फलं लभते नात्र संशयः ॥ ५५॥
मेरे द्वारा
कहे इस कवच को, जो एक बार
भी पढ़ता है, वह सभी यज्ञों के करने का फल प्राप्त कर लेता
है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५४ ॥
सङ्ग्रामेषु
जयेच्छत्रुं मातङ्गानिव केशरी ।
दहेत्तृणं
यथावह्निस्तथा शत्रुं दहेत्सदा ॥ ५६॥
सदैव वह, युद्धों में उसी प्रकार शत्रुओं को जीत
लेता है, जिस प्रकार सिंह हाथियों को जीतता है तथा जिस
प्रकार से अग्नि, तृण (घास) को जला देती है, वह शत्रुओं को उसी प्रकार जला (नष्ट) कर देता है ।। ५५ ।।
नास्त्राणि
तस्य शस्त्राणि शरीरे प्रविशन्ति वै ।
न तस्य जायते
व्याधिर्न च दुःखं कदाचन ॥ ५७॥
उसके शरीर में
कोई अस्त्र या शस्त्र प्रवेश नहीं करते तथा कभी भी उसे किसी प्रकार का रोग या दुःख
नहीं होता ।।५६।।
गुटिकाञ्जन-पाताल-
पादलेपरसाञ्जनम् ।
उच्चाटनाद्यास्ताः
सर्वाः प्रसीदन्ति च सिद्धयः ॥ ५८॥
उसे गुटिका, अंजन, पाताल, पादलेप, रसांजन, उच्चाटन आदि
सभी सिद्धियाँ प्रसन्न (प्राप्त) हो जाती है ॥५७॥
वायोरिव
गतिस्तस्य भवेदन्यैरवारिता ।
दीर्घायुः
कामभोगी च धनवानभिजायते ॥ ५९॥
उसकी गति उस
वायु की भाँति हो जाती है जिसे दूसरे रोक नहीं सकते । वह दीर्घायु, काम का भोग करने वाला और धनवान् हो जाता है
॥५८॥
अष्टम्यां
संयतो भूत्वा नवम्यां विधिवच्छिवाम् ।
पूजयित्वा
विधानेन विचिन्त्य मनमा शिवाम् ।
यो न्यसेत्
कवचं देहे तस्य पुण्यफलं शृणु ॥ ६०॥
जो साधक
शुक्लपक्ष की अष्टमी को संयत होकर नवमी को शिवा का विधिवत् पूजन करता है, तथा विधान के अनुसार उनका मानसिक स्मरण
करते हुए इस कवच को अपने देह में धारण करता है, उसका पुण्यफल
सुनो - ॥५९॥
जितव्याधिः
शतायुश्च रूपवान् गुणवान् सदा ।
धनरत्नौघसम्पूर्णो
विद्यावान् स च जायते ॥ ६१॥
वह सदा
व्याधियों को जीत लेता है, वह सौ वर्ष की आयुवाला, रूपवान्, गुणवान्, धन और रत्नों के समूह से पूर्ण और
विद्यावान् होता है ॥६०॥
नाग्निर्दहति
तत्कायं नापः संक्लेदयन्ति च ।
न शोषयति तं
वायुः क्रव्यात् तं न हिनस्ति च ।। ६१ ।।
उसके शरीर को
न अग्नि जला पाती है और न जल भिगो सकता है। उसे न तो वायु सुखा सकती है और न
हिंसकपशु ही मार सकते हैं ॥६१॥
शस्त्राणि
नैनं छिन्दन्ति न तापयति भास्करः ।
न तस्य जायते
विघ्नो नास्ति तस्य च संज्वरः ।। ६२ ।।
उसे न शस्त्र
काटते हैं और न सूर्य ही ताप पहुँचाता है। न तो उसे कोई विघ्न ही होता है और न उसे
कोई महान् ज्वर ही होता है ॥ ६२ ॥
वेतालाश्च
पिशाचाश्च राक्षसा गणनायकाः ।
सर्वे तस्य
वशं यान्ति भूतग्रामाश्चतुर्विधाः ।। ६३ ।।
सभी वेताल, पिशाच, राक्षस,
गणनायक तथा अण्डज, पिण्डज, स्वेदज, जरायुज नामक चारों प्रकार के प्राणिसमूह,
उसके वश में हो जाते हैं ।। ६३ ।।
नित्यं पठति
यो भक्त्या कवचं हरिनिर्मितम् ।
सोऽहमेव
महादेवो महामाया च मातृका ॥ ६५॥
जो शिव द्वारा
निर्मित इस कवच को भक्तिपूर्वक पढ़ता है वह मुझ, महादेव महामाया और मातृकाओं का स्वरूप हो जाता है ।। ६४ ।।
धर्मार्थकाममोक्षाश्च
तस्य नित्यं करे स्थिताः ।
अन्यस्य वरदः
सोऽर्थैर्नित्यं भवति पण्डितः ॥ ६६॥
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष
नामक चारों पुरुषार्थ, नित्य, उसके
हस्तगत रहते हैं तथा वह दूसरों के लिए नित्य सम्पत्ति एवं ज्ञान की दृष्टि से
वरदायक और पण्डित हो जाता है ॥६५॥
कवित्वं
सत्यवादित्वं सततं तस्य जायते ।
वदेच्छ्लोकसहस्राणि
भवेच्छ्रुतिधरस्तथा ॥ ६७॥
उसको
कवित्वशक्ति तथा सत्य बोलने का सामर्थ्य, निरन्तर उत्पन्न हो जाता है । वह हजारों श्लोक बोलने लगता है
तथा सुनकर ज्ञान को धारण करने में समर्थ हो जाता है ।। ६६ ।।
लिखितं यस्य
गेहे तु कवचं भैरव स्थितम् ।
न तस्य
दुर्गतिः क्वापि जायते तस्य दूषणम् ॥ ६८॥
ग्रहाश्च
सर्वे तुष्यन्ति वशं गच्छन्ति भूमिपाः ।
यद्राज्ये
कवचज्ञोऽस्ति जायन्ते तत्र नेतयः ॥ ६९॥
हे भैरव !
जिसके घर में यह कवच लिखितरूप से स्थित रहता है। न तो उसकी कहीं दुर्गति होती है
और न उसमें कोई दोष ही होता है । सम्पूर्ण- ग्रह उससे सन्तुष्ट हो जाते हैं तथा
राजालोग उसके वशीभूत हो जाते हैं। जिस राज्य में इस कवच का जानने वाला रहता है।
वहाँ किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा नहीं होती ।। ६७-६८ ।।
सेतुर्देवः
शक्तिबीजं पञ्चमोहाय ते नमः ।
वायुर्बलेन
चैतायै द्वितीयाष्टाक्षरं त्विदम् ॥ ७०॥
सेतु (ॐ), देव नमः शक्ति-बीज (प) से पाँचवाँ वर्ण म,
हा और य के साथ नमः के योग से वायु (य) एवं बल से अनुसरण किया जाता
हुआ यह द्वितीय अष्टाक्षर मन्त्र ॐ नमः महामायायै बनता है ॥६९ ॥
सेतुर्देवोऽथ
वैष्णव्यै षडक्षरमिदं स्मृतम् ॥ ७१॥
सेतु (ॐ), देव (नमः) और वैष्णव्यं के योग से ॐ नमः
वैष्णव्यै नमः यह षडाक्षर मन्त्र बनता है ॥७०॥
एतद्द्वयं तु
जिह्वाग्रे सततं यस्य वर्तते ।
तस्य देवी
महामाया काये तिष्ठति वै सदा ॥ ७२॥
उपर्युक्त
दोनों मन्त्र, जिस साधक
के जिह्वा के अग्रभाग में निरन्तर रहते हैं, देवी महामाया
सदैव उसके शरीर में निवास करती हैं ॥ ७१ ॥
मन्त्राणां
प्रणवः सेतुस्तत्सेतुः प्रणवः स्मृतः ।
क्षरत्यनोङ्कृतः
पूर्वं परस्ताच्च विशीर्यते ॥ ७३॥
प्रणव (ॐ)
मन्त्रों का सेतु है। वह उनके लिए पुल एवं बाँध का कार्य करता है । यदि मन्त्र के
पूर्व ॐ न लगाया जाय तो वह बह जाता है और यदि अन्त में न लगाया जाय तो वह नष्ट हो
जाता है ।। ७२ ।।
नमस्कारो
महामन्त्रो देव इत्युच्यते सुरैः ।
द्विजातीनामयं
मन्त्रः शूद्राणां सर्वकर्मणि ॥ ७४॥
देवताओं
द्वारा नमस्कार को, महामन्त्र, देव कहा जाता है । यह सभी कर्मों में
द्विजवर्णों तथा शूद्रों, सभी द्वारा प्रयोग किया जाने वाला
विशेष मन्त्र है ॥७३॥
अकार
चात्युकारं च मकारं च प्रजापतिः ।
वेदत्रयात्समुद्धृत्य
प्रणवं निर्ममे पुरा ॥ ७५॥
प्रजापति
ब्रह्मा ने प्राचीन काल में अकार, उकार और मकार को ऋग्, यजु, साम
तीनों वेदों से लेकर प्रणव, ॐकार का निर्माण किया ॥ ७४ ॥
स उदात्तो
द्विजातीनां राज्ञां स्यादनुदात्तकः ।
प्रचितश्चोरुजातानां
मनसापि तथा स्मरेत् ॥ ७६॥
वह ब्राह्मणों
द्वारा उदात्त, क्षत्रियों
द्वारा अनुदात्त, तथा उरु से उत्पन्न वैश्यों द्वारा प्रचित
(स्वरित) क्रम से उच्चारण किया जाना चाहिये । यदि मानसिकरूप से भी स्मरण करना हो
तो भी उसे इसी रूप में स्मरण करे ॥ ७५ ॥
चतुर्दशस्वरो
योऽसौ शेष औकारसंज्ञकः ।
स
चानुस्वारचन्द्राभ्यां शूद्राणां सेतुरुच्यते ॥ ७७॥
चौदहवाँ स्वर
औ, जो स्वरों में अन्तिम स्वर है, वही अनुस्वार तथा चन्द्राकार के सहित (औं) शूद्रों के लिए सेतु (प्रणव)
कहा जाता है ॥७६॥
निःसेतु च यथा
तोयं क्षणान्निम्नं प्रसर्पति ।
मन्त्रस्तथैव
निःसेतुः क्षणात् क्षरति यज्वनाम् ॥ ७८॥
बिना बाँध का
जल जैसे क्षण भर में नीचे बह जाता है। यज्ञकर्ताओं का बिना सेतु के प्रयुक्तमन्त्र
भी क्षणभर में प्रभावहीन हो जाता है ॥७७॥
तस्मात्
सर्वत्र मन्त्रेषु चतुर्वर्णा द्विजातयः ।
पार्श्वयोः
सेतुमादाय जतकर्मसमारभेत् ॥ ७९॥
अतः चारों
वर्णों वालों, विशेषतः
द्विजातियों को, सभी मन्त्रों में अगल-बगल सेतु का सहयोग ले,
जप-कर्म आरम्भ करना चाहिये ॥७८॥
शूद्राणामादिसेतुर्वा
द्विःसेतुर्वा यथेच्छतः ।
द्विःसेतवः
समाख्याताः सर्वदैव द्विजातयः ॥ ८०॥
द्विजातियों
को सर्वदा ही दो सेतुओं का प्रयोग करने वाला कहा गया है। शूद्र केवल आदि सेतु का प्रयोग
करे या आदि-अन्त दोनों ही सेतुओं का प्रयोग इच्छानुसार करे ॥७१ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ५६
।। और्व उवाच
।।
एतत् ते
सर्वमाख्यातं कवचं त्र्यम्बकोदितम् ।
अभेद्यं कवचं
तत् तु कवचाष्टकमुत्तमम् ॥८०॥
और्व बोले-
त्र्यम्बक शिव द्वारा कहा गया समस्त कवच मैंने तुम से कह दिया, जो आठ कवचों से युक्त एक उत्तम और अभेद्य
कवच है ॥ ८० ॥
महामायामन्त्रकल्पं
कवचं यन्त्रसंयुतम् ।
षडक्षरसमायुक्तं
त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ ८२॥
मन्त्रों से
युक्त यह महामायामन्त्रकल्प सम्बन्धी कवच जो षडक्षर से युक्त है, तीनों लोको में दुर्लभ है ॥ ८२ ॥
एतत् त्वं
नृपशार्दूल नित्यभक्तियुतः पठन् ।
जपन् मन्त्रं
च वैष्णव्याः सर्वसिद्धिमवाप्स्यसि ॥ ८३॥
हे राजाओं में
सिंह के समान श्रेष्ठ ! तुम भक्ति से युक्त हो, इस कवच को नित्य पढ़ते हुए तथा वैष्णवी के मन्त्र को जपते
हुये, सभी सिद्धियों को प्राप्त करोगे ॥८२॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे महामायाकल्पे कवचवर्णननाम षट्पञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५६ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण के महामायाकल्प का कवचवर्णन नामक छप्पनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ
॥५६॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 57
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