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कालिका पुराण अध्याय ५५
कालिका पुराण
अध्याय ५५ में महामाया कल्प में बलि विधान का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ५५
Kalika puran chapter 55
कालिकापुराणम् पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः महामायाकल्पे बलि-विधानम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५५
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
बलिदानं ततः
पश्चात् कुर्याद् देव्याःप्रमोदकम् ।
मोदकैर्गजवक्त्रं
च हविषा तोषयेद्रविम् ।। १ ।।
श्रीभगवान्
बोले- पूर्व वर्णित विधि से पूजन के पश्चात् देवी को आनन्द देनेवाला, बलिदान - कर्म करना चाहिये। तब मोदक से
गजानन गणेश को तथा हविष्य से सूर्यभगवान् को सन्तुष्ट करना चाहिये ॥ ॥ १ ॥
तौर्यत्रिकैश्च
नियमैः शङ्करं तोषयद्धरिम् ।
चण्डिकां
बलिदानेन तोषयेत् साधकः सदा ।।२।।
साधक को सदैव
संगीत, नृत्य तथा वाद्ययन्त्रों से शिव को एवं
आचारगत नियमों से विष्णु और बलिदान से चण्डिका को प्रसन्न करना चाहिये ॥ २॥
पक्षिणः
कच्छपाः ग्राहाश्छागलाश्च वराहकाः ।
महिषो
गोधिकाशोषा तथा नवविधा मृगाः ।।३।।
चामरः
कृष्णसारश्च शश: पञ्चाननस्तथा ।
मत्स्याः
स्वगात्ररुधिरैश्चाष्टधा बलयो महाः ।।४।।
पक्षी, कछुये, ग्राह,
बकरे, सूअर, भैंसे,
गोह, शोष (संभवत: सूँईस), चामर, कृष्णसारमृग, खरगोश,
सिंह आदि नौ प्रकार के पशु, मछलियाँ एवं साधक
द्वारा अपने ही शरीर से निकाला गया रक्त, ये आठ प्रकार की
महा बलियाँ बताई गई हैं ।। ३-४ ।।
अभावे च
तथैवैषां कदाचिद्धयहस्तिनौ ।
छागलाः
शरभाश्चैव नरश्चैव यथाक्रमात् ।
बलिर्महाबलिरिति
बलयः परिकीर्तिताः ॥५॥
इनके अभाव में
कभी (विशेष अवसरों) घोड़ा पर, हाथी, बकरे, शरभ तथा मनुष्य की
बलि को भी क्रमशः बलि या महाबलि के नाम से पुकारा जाता है। उपर्युक्त समस्त
प्राणियों का बलिदान, बलि, कहा जाता है
॥ ५ ॥
स्नापयित्वा
बलिं तन्न पुष्पचन्दनधूपकैः ।
पूजयेत् साधको
देवीं बलिमन्त्रैर्मुहुर्मुहुः ॥६॥
उपस्थित
बलिपशु को स्नान कराकर, साधक देवी का पुष्प, चन्दन, धूप
तथा बलिमन्त्रों से बार-बार पूजन करे ॥६॥
उत्तराभिमुखो
भूत्वा बलिं पूर्वमुखं तथा ।
निरीक्ष्य
साधकः पश्चादिमं मन्त्रमुदीरयेत् ।।७।।
तब स्वयं
उत्तर की ओर मुँहकर तथा बलिपशु का मुँह पूर्व की ओर करके साधक, बलिपशु को देखते हुए इस मन्त्र को बोले-
॥७॥
कालिका पुराण अध्याय ५५-बलिमन्त्र
पशुस्त्वं
बलिरूपेण मम भाग्यादुपस्थितः ।
प्रणमामि ततः सर्वरूपिणं
बलिरूपिणम् ॥८॥
चण्डिका
प्रीतिदानेन दातुरापद्विनाशनः ।
वैष्णवीबलिरूपाय
बले तुभ्यं नमो नमः ।।९।।
यज्ञार्थे
पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा ।
अतस्त्वां
घातयाम्यद्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः ।। १० ।।
हे पशु ! आप
मेरे भाग्य से आज बलिरूप में उपस्थित हुए हो अतः मैं आपको प्रणाम करता हूँ। आप सब रूपों
वाले, बलिरूप में उपस्थित का, चण्डिका को भेंट करना, दाता की आपत्ति का विनाश करने
वाला है। ऐसे वैष्णवी महामाया के बलिस्वरूप, बलिपशु ! आपको
बारम्बार प्रणाम है। स्वयं ब्रह्मा ने यज्ञ हेतु पशुओं की सृष्टि की है इसी लिए
मैं आज तुम्हारा वध कर रहा हूँ । इसलिए यज्ञ में किया हुआ वध भी वध नहीं होता
॥८-१० ।।
ॐ ऐं ह्रीं
श्रीं इतिमन्त्रेण तं बलिं कामरूपिणम् ।
चिन्तयित्वा
न्यसेत् पुष्पं मूर्ध्नि तस्य च भैरव ।। ११ ।।
हे भैरव ! उस
कामरूपधारी बलिपशु का चिन्तन करते हुए उसके मस्तक पर ॐ ऐं ह्रीं श्रीं इस
मन्त्र से पुष्प चढ़ाये॥११॥
ततो देवीं
समुद्दिश्य काममुद्दिश्य चात्मनः ।
अभिषिच्य बलिं
पश्चात् करवालं प्रपूजयेत् ।। १२ ।।
तब देवी को
लक्ष्य कर तथा अपनी कामना का ध्यान कर, बलिपशु का अभिषेक कर, करवाल (खड्ग) का
पूजन करे ।। १२ ।।
कालिका पुराण अध्याय ५५-करवालपूजनमन्त्र
रसना त्वं
चण्डिकायाः सुरलोकप्रसाधक ।
ऐं ह्रीं
श्रीमिति मन्त्रेण ध्यात्वा खड्गं प्रपूजयेत् ।। १३ ।।
रसना - श्रीमिति मन्तार्थ –हे खड्ग ! तुम चण्डिका की जिह्वा हो, तुम देवलोक उपलब्ध कराने वाले हो। ऐसा ध्यान कर, ऐं ह्रीं श्रीं मन्त्र से खड्ग का पूजन करे ॥ १३ ॥
कृष्णं
पिनाकपाणिं च कालरात्रिस्वरूपिणम् ।
उग्रं
रक्तास्यनयनं रक्तमाल्यानुलेपनम् ।। १४ ।।
रक्ताम्बरधरं
चैकं पाशहस्तं कुटुम्बिनम् ।
पीयमानं च
रुधिरं भुञ्जानं क्रव्यसंहतिम् ।। १५ ।।
असिर्विशसनः खड्गस्तीक्ष्णधारो
दुरासदः ।
श्रीगर्वो
विजयश्चैव धर्मपाल नमोऽस्तु ते ।। १६ ।।
कृष्णं... .
नमोस्तुते कहकर खड्ग की
स्तुति करे ।
मन्त्रार्थ - हे श्यामवर्ण ! हाथ में पिनाक धारण करने वाले, कालरात्रीस्वरूप वाले, उग्र, जिसके मुख और नेत्र दोनों ही लाल हैं, जो लाल रंग की माला और चन्दन तथा वस्त्रधारण किये हुए, हाथ में पाश लिए हुए, अपने परिजनों के मध्य, मांसादि का भोजन और रुधिर (रक्त) का पान कर रहे हैं, ऐसे हे असि, हे कटार, हे खड्ग,
हे तीक्ष्णधार वाले, हे दुष्टों का भक्षण करने
वाले, हे ऐश्वर्य, प्रतिष्ठा और विजय
के प्रतीक, हे धर्म का पालन करने वाले खड्ग ! तुम्हें
नमस्कार है । । १४- १६ ।।
पूजयित्वा ततः
खड्गं ॐ आं ह्रीं फडितिमन्त्रकैः ।
गृहीत्वा
विमलं खड्गं छेदयेद् बलिमुत्तमम् ।।१७।।
तब
उपर्युक्तरीति से खड्ग का पूजन कर, ॐ आँ ह्रीं फट् मन्त्र से निर्मल
खड्ग को ग्रहण कर, बलिपशु का छेदन करे ।। १७ ।।
ततो बलीनां
रुधिरं तोयसैन्धवसत्फलैः ।
मधुभिर्गन्धपुष्पैश्च
अधिवास्य प्रयत्नतः ।। १८ ।।
ॐ ऐं ह्रीं
श्रीं कौशिकीति रुधिरं दापयामि ते ।
स्थाने
नियोजयेद्रक्तं शिरश्च सप्रदीपकम् ।।१९।।
तब बलिपशु के
रक्त को जल, नमक,
सुन्दरफल, मधु, गंध-पुष्प
आदि से प्रयत्नपूर्वक युक्त कर, दापयामिते ॐ ऐं ह्रीं
श्रीं कौशिकी मैं तुम्हें यह रक्त प्रदान करता हूँ, ऐसा
कह कर, साधक रक्त को उचित पात्र में तथा सिर को दीपक के सहित
उपयुक्त स्थान पर रखे ।। १८-१९ ।।
एवं दत्त्वा
बलिं पूर्णं फलं प्राप्नोति साधकः ।
हीनं
स्याद्धीनतामूलं निष्फलं स्याद् विपर्ययात् ।। २० ।।
इस प्रकार
उपर्युक्त रीति से बलि देकर, साधक, पूर्णफल को प्राप्त करता है, इसमें न्यूनता करने पर न्यूनफल तथा उलटा करने पर, उसकी
पूजा निष्फल होती है ॥२०॥
बलिदाने तु
दुर्गाया अन्यत्रापि विधिः सदा ।
अयमेव
प्रयोक्तव्यः सद्धिर्वेताल भैरवौ ।। २१ ।।
हे वेताल और
भैरव ! दुर्गा के लिए बलिदान की यह विधि बतायी गयी है किन्तु सज्जनों को (उत्तम
साधकों को) अन्यत्र भी सदैव, इसी विधि का प्रयोग करना चाहिए ॥ २१ ॥
जपं समारभेत्
पश्चात् पूर्ववद्ध्यानमास्थितः ।
हस्तेन स्त्रजमादाय
चिन्तयेन्मनसा शिवाम् ।। २२ ।।
चिन्तयित्वा
गुरुं मूर्ध्नि यथा वर्णादिकं भवेत् ।
मन्त्रं च
कण्ठतो ध्यात्वा सितवर्णं हिरण्मयम् ।। २३ ।।
महामायां च
हृदये आत्मानं गुरुपादयोः ।। २४।।
उपर्युक्त
रीति से बलिदान करके पहले की भाँति ध्यान करते हुए साधक हाथ में माला लेकर मन से
शिवा (देवी) का चिन्तन करता हुआ तथा गुरु का मस्तक में एवं वर्णों के अनुसार, श्वेत और सुनहले रंग के मन्त्रों का गले
में ध्यान करते हुए, महामाया को हृदय में और अपने को गुरुदेव
के चरणों में लगाकर जप आरम्भ करे ।।२२-२४।।
आचक्षेत् ततः
पश्चाद् गुरोर्मन्त्रस्य चात्मनः ।
देव्याश्चाप्येकतां
ध्यात्वा सुषुम्नावर्त्मना ततः ।। २५ ।
तत्त्वस्वरूपमेकं
तु षट्चक्रं प्रति लम्बयेत् ।
षट्चक्रेऽपि
महामायां क्षणं ध्यात्वा प्रयत्नतः ।। २६ ।।
लम्बन्मूलमन्त्रेण
आदिषोडशचक्रकम् ।
आदिषोडशचक्रस्थां
साधकानन्दकारिणीम् ।
चिन्तयन्
साधको देवीं जपकर्म समारभेत् ।। २७ ।।
जप आरम्भ करते
समय, गुरु की, मन्त्र की,
अपनी तथा देवी की एकता का ध्यान करता हुआ साधक, तत्त्वस्वरूप सुषुम्नामार्ग को षट्चक्रों की ओर प्रेरित करे । षट्चक्र में
भी महामाया का प्रयत्नपूर्वक, क्षणभर ध्यान करके मूलमंत्र के
सहारे उसे आदि षोडशचक्र की ओर ले जाये। तब आदि षोडशचक्र में स्थित, साधक की कामनापूर्तिरूपी, आनन्द देने वाली देवी का
चिन्तन करते हुए, साधक अपने जप कार्य को प्रारम्भ करे ।।
२५-२७।।
भ्रुवोरुपरि
नाडीनां त्रयाणां प्रान्त उच्यते ।। २८ ।।
तत्प्रान्तं
त्रिपथस्थानं षट्कोणं चतुरङ्गुलम् ।
रक्तवर्णं तु
योगज्ञैराज्ञाचक्रमितीर्यते ।। २९ ।।
मनुष्य शरीर
की ईडा-पिंगला- सुषम्ना नामक तीनों नाड़ियो का अन्तिम छोर भौहों के उपर बताया गया
है। वह स्थान चार अंगुल विस्तार का बना हुआ षट्कोण आकृति का एक तिराहा है, जो लालरंग का है तथा जिसे योग को जानने
वाले आज्ञाचक्र कहते हैं ।। २८-२९।।
कण्ठे
त्रयाणां नाडीनां वेष्टनं विद्यते नृणाम् ।
सुषुनेडापिङ्गलानां
षट्कोणं तच्च्षडङ्गुलम् ।
तत्
षट्चक्रमिति प्रोक्तं शुक्लं कण्ठस्य मध्यगम् ।। ३० ।।
मनुष्य के
कण्ठ में सुषम्ना, ईडा और पिंगला नामक तीनों नाड़ियों की कुण्डली सी बनती है जो षट्कोण आकृति
और छः अंगुल विस्तार की होती है । कण्ठ के मध्य में स्थित इस षट्कोण को षट्चक्र
कहा गया है तथा इसका रंग श्वेत होता है ॥ ३० ॥
त्रयाणामथ
नाडीनां हृदये चैकता भवेत् ।। ३१।।
तत्स्थानं
षोडशारं स्यात् सप्ताङ्गुलप्रमाणतः ।
तत्प्रयुक्तं तु
योगज्ञैरादिषोडशचक्रकम् ।। ३२ ।।
इन तीनों
नाड़ियों की एकता, हृदय में होती है जहाँ पर सोलह दलों का,सात अंगुल प्रमाण
का एक चक्र है, जिसे योग के जानने वाले आदिषोडशचक्र के रूप
में व्यवहार करते हैं ।। ३१-३२ ।।
ध्यानानामथ
मन्त्राणां चिन्तनस्य जपस्य च ।
यस्मादाद्यं
तु हृदयं तस्मादादीति गद्यते ।। ३३ ।।
ध्यान का, मन्त्र के चिन्तन का तथा जप का आदि स्थान
हृदय हैं। इसी लिए उसे आदि स्थान तथा वहाँ स्थित, षोडशचक्र
को आदिषोडशचक्र कहते हैं ।। ३३ ॥
पादौ
पूजयेन्मालां तोयैरभ्युक्ष्य यत्नतः ।
निधाय
मण्डलस्यान्तः सव्यहस्तगतां च वा ।। ३४ ।।
ॐ माले माले
महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणि ।
चतुर्वर्गस्त्वयि
न्यस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ।। ३५ ।।
जप के आरम्भ
में साधक, प्रयत्नपूर्वक, जपमाला
को मण्डल के भीतर स्थापित कर या अपने दाहिने हाथ में ग्रहणकर, जल से उसका अभिषेचन कर, पूजन करे । उस समय वह,
ऊँ माले - भव । मन्त्र का प्रयोग करे ।
मन्त्रार्थ - 'हे माले ! तुम स्वयं महामाया हो, तुम सभी शक्तियों
की रूप हो, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारो पुरुषार्थ, तुम्हारे में ही न्यस्त हैं। इसलिए तुम मुझ (साधक) को सिद्धि प्रदान करो
।। ३४-३५ ।।
पूजयित्वा ततो
मालां गृह्णीयाद् दक्षिणे करे ।
मध्यमायाः
मध्यभागे वर्जयित्वाथ तर्जनीम् ।। ३६ ।।
अनामिकाकनिष्ठाभ्यां
युतायानम्रभागतः ।
स्थापयित्वा तत्र
मालामङ्गुष्ठाग्रेण तद्गतम् ।। ३७।।
प्रत्येकं बीजमादाय
जप्यादर्धेन भैरव ।
प्रतिवारं
पठेन्मन्त्रं शनैरोष्ठं च चालयेत् ।। ३८ ।।
हे भैरव !
उपर्युक्तरीति से माला का पूजन करने के पश्चात् माले को दाहिने हाथ की मध्यमा अंगुली
के मध्यभाग में ग्रहण करे । उस समय तर्जनी अलग हो, अनामिका एवं कनिष्ठा मिली हुई हो। किन्तु कनिष्ठा कुछ झुकी हो,
ऐसी मुद्रा में माला को धारण कर, प्रत्येक
दाने के आगे के भाग का अगूठे के अगले भाग से स्पर्श कर, प्रत्येक
बार ओठ में धीरे-धीरे मन्त्र पढ़ता हुआ, आगे की ओर चलाये
(बढ़ाये) ।।३६-३८।।
मालाबीजं तु
जप्तव्यं स्पृशेन्नहि परस्परम् ।
पूर्वजापप्रयुक्तेन
नैवाङ्गुष्ठेन भैरव ।। ३९ ।।
हे भैरव ! जप
करते समय, स्पर्श किये जाने वाले आगे-पीछे के दानों (मनकों)
से स्पर्श नहीं होना चाहिये। पूजा और जप में प्रयुक्त अंगूठे से अन्य दाने का
स्पर्श नहीं करना चाहिये ।। ३९ ।।
पूर्वबीजं
जपन् यस्तु परबीजं च संस्पृशेत् ।
अङ्गुष्ठेन
भवेत् तस्य निष्फलस्तस्य तज्जप: ।। ४० ।।
जो साधक पहले
मनके पर जप करता हुआ अंगूठे से अगले मनके का स्पर्श करता है, उसका सम्पूर्ण जप, निष्फल
हो जाता है ॥ ४० ॥
मालां स्वहृदयासन्ने
धृत्वा दक्षिणपाणिना ।
देवीं
विचिन्तयन् जप्यं कुर्याद् वामेन न स्पृशेत् ।। ४१ ।।
जप के समय
माला को दाहिने हाथ से अपने हृदय के पास धारण करना चाहिये तथा देवी का चिन्तन करते
हुए जप करना चाहिये। उस समय माले का, बाएँ हाथ से स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥४१ ॥
स्फटिकेन्द्राक्षरुद्राक्षैः
पुत्रञ्जीवसमुद्भवैः ।
सुवर्णमणिभिः सम्यक्
प्रवालैरथवाब्जजैः ।। ४२ ।।
माला, स्फटिक, इन्द्राक्ष,
रुद्राक्ष, पुत्रजीवा के बीज, सोने की मनियों, मूँगे या कमल के बीजों से भली-भाँति
बनाई जानी चाहिये ॥ ४२ ॥
अक्षमाला तु कर्तव्या
देवीप्रीतिकरी परा ।
जपेदुपांशु सततं
कुशग्रन्थ्याथ पाणिना ।। ४३ ।
देवी को
प्रसन्नता प्रदान करने वाली माला, अक्षमाला या कुश की ग्रंथियों से बनाई गई माला होती है। जिसे हाथ में लेकर
निरन्तर उपांशु (मौन) जप करना चाहिये ॥४३॥
मालाबीजेषु
सर्वेषु रुद्राक्षो मत्प्रियाप्रियः ।
रुद्रप्रीतिकरी
यस्मात् तेन रुद्राक्ष रोचनी ।। ४४ । ।
सभी मनकों की
मालाओं में रुद्राक्ष की माला मेरी प्रिया (देवी) को विशेष प्रिय है । रुद्र को
विशेष प्रीतिकारक होने के कारण ही उसे सुन्दर, रुद्राक्ष नाम दिया गया है ।। ४४ ।।
प्रवालैरथवा
कुर्यादष्टाविंशतिबीजकैः ।
पञ्चपञ्चाशता वापि
न न्यूनैरधिकैश्च वा ।। ४५ ।।
रुद्राक्ष या
मूँगे के २८ मनकों या ५५ मनकों की माला बनानी चाहिये । इससे कम या अधिक मनकों की
माला नहीं बनानी चाहिये ॥ ४५ ॥
रुद्राक्षैर्यदि
जप्येत इन्द्राक्षैः स्फटिकैस्तथा ।
नान्यं मध्ये
प्रयोक्तव्यं पुत्रञ्जीवादिकं च यत् ।। ४६ ।।
जब साधक
रुद्राक्ष, इन्द्राक्ष
या स्फटिक की माला से जप करे तो उस माला के मनकों में पुत्रजीवादि अन्य मनकों का
प्रयोग न करे॥४६॥
यद्यन्यत् तु
प्रयुज्येत मालायां जपकर्मणि ।
तस्य कामं च
मोक्षं च ददाति न प्रियंकरी ॥४७ ।।
क्योंकि जो
साधक, जपकर्म की माला के एक प्रकार के मनकों में
दूसरे मनकों का प्रयोग करता है, भक्तों का प्रिय करने वाली
देवी, उसको काम (कामनाओं की पूर्ति) और मोक्ष नहीं प्रदान
करती हैं ॥ ४७ ॥
मिश्रीभावं
ततो याति चाण्डालैः पापकर्मभिः ।
जन्मान्तरे जायते
स वेदवेदाङ्गपारगः ।।४८।।
वेद और वेदाङ्गों
का ज्ञाता होकर भी वह साधक, अगले जन्म में चाण्डाल के मिश्रभाव (मिले जुले भाव) को अपने पापकर्मों के
कारण प्राप्त करता है ॥४८॥
एको
मेरुस्तत्र देयः सर्वेभ्यः स्थूलसम्भवः ।
आद्यं स्थूलं
ततस्तस्माद् न्यूनं न्यूनतरं तथा ।
विन्यसेत्
क्रमतस्तस्मात् सर्पाकारा हि सा मतः ।। ४९ ।।
उस माला में
सभी मनकों से बड़ा एक मेरु बनाना चाहिये। पहला मनका बड़ा तथा उसके बाद वाले मनके
क्रमशः छोटे रखने चाहिये । इस प्रकार बनी हुई माला सर्पाकारमाला होती है ॥ ४९ ॥
ब्रह्मग्रन्थियुतं
कुर्यात् प्रतिबीजं यथास्थितम् ।
अथवा ग्रन्थिरहितं
दृढरज्जुसमन्वितम् ।।५०।।
इस माला के
प्रत्येक मनके को उपर्युक्त रीति से स्थित होने पर ब्रह्मग्रन्थि से उसे युक्त
करना चाहिये । अथवा वह ग्रन्थि से रहित सुदृढ़धागे से युक्त होनी चाहिये॥५०॥
द्विरावृत्याथ
मध्येन चार्धवृत्यान्तदेशतः ।
ग्रन्थिः प्रदक्षिणावर्तः
स ब्रह्मग्रन्थिसंज्ञकः ।। ५१ । ।
आत्मना योजयेन्मालां
नामन्त्रो योजयेन्नरः ।। ५२ ।।
धागे को मध्य
से तीन आवृत्ति और अन्तिम छोर से आधी आवृत्ति देकर, प्रदक्षिणाक्रम से माले में जो गाँठ लगाई जाती है, उसे ब्रह्मग्रन्थि कहते हैं। साधक को अपनी माला में इसे स्वयं लगानी
चाहिये। अमन्त्र (दीक्षारहित) मनुष्य को इस कार्य में नहीं लगाना चाहिये ।। ५१-५२॥
दृढं सूत्रं
नियुञ्जीत जपे त्रुट्यति नो यथा ।
तथा हस्तान्न
च्यवेत जपतः स्रक् तमाचरेत् ।
हस्तच्युतायां
विघ्नं स्याच्छिन्नायां मरणं भवेत् ।। ५३ ।।
माला में
दृढ़धागे का प्रयोग करना चाहिए। जिससे जप करते समय वह टूटे नहीं । माला का इस
भाँति उपयोग करनी चाहिए कि वह जप करते समय हाथ से छूट कर न गिरे, क्योंकि जप करते समय माला हाथ से छूटने से
कार्य में विघ्न तथा टूट जाने से मरण होता है ।। ५३ ॥
एवं यः कुरुते
मालां जपं च जपकोविदः ।
स
प्राप्नोतीप्सितं कामं हीने स्यात् तु विपर्ययः ।। ५४ ।।
इस प्रकार
उपर्युक्तरीति से जो जप का जानने वाला, माला का प्रयोग करते हुए, जप करता है।
वह साधक अपनी इच्छित कामनाओं को प्राप्त कर लेता है । इसमें हीनता होने पर,
विपरीत फल प्राप्त होता है ।। ५४ ।।
अन्यत्रापि
जपेन्मालां जप्यं देवमनोहरम् ।
तादृशः साधकः
कुर्यान्नान्यथा तु कदाचन ।। ५५ ।।
साधक को
अन्यत्र भी उसी प्रकार की माला से इष्टदेव को प्रसन्न करने वाला जप करना चाहिए।
इससे विपरीत कभी भी नहीं करना चाहिए ॥ ५५ ॥
यथाशक्ति जपं
कुर्यात् सङ्ख्ययैव प्रयत्नतः ।
असङ्ख्यातं च
यज्जप्तं तस्य तन्निष्फलं भवेत् ।। ५६ ।।
साधक को
प्रयत्न-पूर्वक, मन्त्रों
की गणना करते हुए सामर्थ्य के अनुसार जप करना चाहिए। क्योंकि विना गणना किये जो जप
किया जाता है, वह निष्फल हो जाता है ॥५६॥
जप्त्वा मालां
शिरोदेशे प्रांशुस्थानेऽथ वा न्यसेत् ।
स्तुतिपाठं
ततः कुर्यादिष्टं कामं निवेद्य च ।। ५७ ।।
जप करके, माला को सिर पर या किसी ऊँचे स्थान पर साधक
द्वारा रखा जाना चाहिए तत्पश्चात् स्तुतियों का पाठ करके अपनी अभीष्ट कामना को
इष्ट के प्रति निवेदित करना चाहिए ॥ ५७॥
स्तुतिश्चापि
महामन्त्रं साधनं सर्वकर्मणाम् ।
वक्ष्ये युवां
महाभागौ सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।। ५८ ।।
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये
शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये
त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ।। ५९ ।।
हे महानुभावों
! स्तुति भी सभी कामों को सफल करने वाला महामन्त्र है । अब मैं "सर्व मंगल
नमोऽस्तुते" मन्त्र वाली स्तुति, जो सब प्रकार की सिद्धि देने वाली है, तुम
दोनों से कहता हूँ ।
स्तुत्यर्थ -
हे सब प्रकार का मंगल करनेवाली, हे कल्याण करने वाली, हे सब प्रकार के कार्यों को
सिद्ध करने वाली, तीननेत्रों वाली, हे
शरण में आये हुए भक्तों की रक्षा करने वाली, हे गौरी ! हे नारायणी!
आपको नमस्कार है ।। ५८-५९।
सप्तधावर्तनं
कृत्वा स्तुतिमेनां च साधकः ।
पञ्चप्रणामान्
कृत्वाथ ऐं ह्रीं श्रीमितिमन्त्रकैः ।।६०।।
अन्येषां पुरतश्चैव
अधिकं वा यथेच्छया ।
योनिमुद्रां
ततः पश्चाद् दर्शयित्वा विसर्जयेत् ।। ६१ ।।
इस प्रकार से
ऊपर कही गयी स्तुति का सात बार आवृति करके साधक, ऐं ह्रीं श्रीं इन मन्त्रों से
पांच बार प्रणाम करे। साधक चाहे तो अन्य देवताओं के सामने भी इससे अधिक बार प्रणाम
कर सकता है, प्रणाम के पश्चात् साधक योनिमुद्रा का प्रदर्शन
करते हुए देवी का विसर्जन करे ।। ६०-६१।।
कालिका पुराण अध्याय ५५-।।
योनिमुद्रावर्णन ।।
द्वौ पाणी
प्रसृतीकृत्य कृत्वा चोत्तानमञ्जलिम् ।। ६२ ।।
अङ्गुष्ठाग्रद्वयं
न्यस्य कनिष्ठाग्रद्वयोस्ततः ।
अनामिकायां
वामस्य तत्कनिष्ठां पुरो न्यसेत् ।। ६३ ।।
दक्षिणस्यानामिकायां
कनिष्ठां दक्षिणस्य च ।
अनामिकायाः
पृष्ठे तु मध्यमे द्वे निवेशयेत् ।। ६४ ।।
द्वे तर्जन्यौ
कनिष्ठाग्रे तदग्रेणैव योजयेत् ।
योनिमुद्रा
समाख्याता देव्याः प्रीतिकरी मता ।। ६५ ।।
दोनों हाथों
को फैलाकर, अंजली को
ऊपर की ओर करके, दोनों अंगूठे की अगली अंगुलियों (तर्जनी) को
एक दूसरे पर रखकर, तत्पश्चात् कनिष्ठा के बाद की अंगुलियों
(अनामिका) को रखे। बायीं अनामिका के पहले बायीं कनिष्ठिका तथा दक्षिण अनामिका के
पहले दाहिनी कनिष्ठका स्थापित करे । तदनन्तर अनामिकाओं के ऊपर दोनों मध्यमाओं को
रखे । कनिष्ठिका तर्जनियों के नीचे रहे और अंगूठे सबसे आगे । इस प्रकार से बनी
मुद्रा, योनिमुद्रा कही जाती है जो देवी को अत्यन्त
प्रसन्नता देने वाली बतायी गई हैं ।। ६२-६५ ।।
त्रिवारं
दर्शयेत् तां तु मूलमन्त्रेण साधकः ।
तां मुद्रां
शिरसि न्यस्य मण्डलं विन्यसेत् ततः ।। ६६ ।।
ऐशान्यामग्रहस्तेन
द्वारपद्मविवर्जितम् ।
तत्र नत्वा
रक्तचण्डां ह्रीं श्रीं मन्त्रेण साधकः ।। ६७ ।।
रक्तचण्डायै
नम इति निर्माल्यं तत्र निक्षिपेत् ।
उदके तरुमूले
वा निर्माल्यं तत्र संत्यजेत् ।। ६८ ।।
साधक उस
योनिमुद्रा को मूलमन्त्र के साथ तीन बार देवी को प्रदर्शित करे। तब उस मुद्रा को
अपने सिर पर रख कर मण्डल का निर्माण करे । ईशान कोण में अपनी अंगुली द्वारा द्वार
और पद्म से रहित मण्डल का निर्माण करना चाहिए। वहाँ साधक ह्रीं श्रीं
मन्त्र से रक्तचण्डा को प्रणाम करके रक्तचण्डायै नमः इस मन्त्र से
निर्माल्य चढ़ाये हुए पुष्पादि को उस मण्डल में रखें या जल में अन्यथा वृक्ष के
जड़ में डाल दे ।। ६६-६८।।
एवं यः
पूजयेद् देवीं विधानेन शिवां नरः ।
सोऽचिरेण
लभेत्कामान् सर्वानेव मनोगतान् ।। ६९ ।।
इस प्रकार से
जो मनुष्य विधिपूर्वक देवी का पूजन करता है, सो शीघ्र ही अपनी मनोभिलषित सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता
है ।। ६९ ।।
अर्धलक्षजपं
जप्त्वा प्रथमं चैव साधकः ।
पुरश्चरेद्
विशेषेण नानानैवेद्यवेदनैः ।।७०॥
साधक पहले
पचास हजार मन्त्रों का जप करे तदनन्तर अनेक प्रकार के नैवेद्यों को निवेदन कर, पुरश्चरण सम्पन्न करे ॥७०॥
कुण्डं
मण्डलवत् कृत्वा चाष्टम्यां समुपोषितः ।
नवम्यां
शुक्लपक्षस्य रजोभिः पञ्चभिर्नरः ।
पूर्ववन्मण्डलं
कृत्वा गुरुपित्रोश्च सन्निधौ ॥७१।।
साधक, शुक्लपक्ष की अष्टमी को उपवास करे और मण्डल
की भाँति ही एक कुण्ड बनाये और तत्पश्चात् पांच प्रकार के रंग द्वारा मण्डल बनाये।
यह कार्य साधक को अपने पिता और गुरु की सन्निधि में करना चाहिये॥७१॥
अनेनैव
विधानेन पूजयित्वा तु चण्डिकाम् ।। ७२ ।।
सहितैर्बिल्वपत्रैश्च
अष्टोत्तरशतत्रयम् ।
तिलैहमं चरेत्
तस्यां सहस्रत्रितयं जपेत् ।। ७३ ।।
इसी विधि से
चण्डिका का पूजन करके, ३००० मन्त्रों का जप करे और अन्त में ३०८ आहुति, बेलपत्र,
तिल, घी आदि से दे ।। ७२-७३ ।।
नैवेद्यं
गन्धपुष्पे च वस्त्रं दद्याच्च यत्प्रियम् ।
पूर्वोक्तं
चान्यदप्यस्यै प्रदद्यात् पायसं तथा ।।७४।
साधक को चाहिए
कि वह नैवेद्य, गंध-
पुष्प और वस्त्र जो भी देवी को प्रिय हो अर्पित करे और पहले बताई गयी वस्तुएँ तथा
खीर भी देवी को निवेदित करे ॥७४॥
पूजावसाने
देयं स्यात् तज्जातीयं बलित्रयम् ।
सिन्दूरं
स्वर्णरत्नानि स्त्रीणां विभूषणम् ।। ७५ ।।
निवेदयेद्
यथाशक्त्या पुष्पमाल्यं च भूरिशः।
महाशक्तुं
सशाल्यन्नं गव्यव्यञ्जनसंयुतम् ।। ७६ ।।
देव्यै
नवम्यां सम्पूर्णं बलिं दद्याद् घृतादिभिः।
दक्षिणां
गुरवे दद्यात् सुवर्णं गां तथा तिलम् ।।७७ ।।
पूजा के अन्त
में पूजा से सम्बंधित, तीन बलिदान भी देने चाहिये। नवमी के दिन सिन्दूर, स्वर्ण
और रत्न तथा स्त्रियों के सभी प्रकार के आभूषण, सामर्थ्य के
अनुसार देवी को दिया जाना चाहिए। पर्याप्त पुष्पमाला, महासत्तू
(चावल, घी आदि से युक्त चूर्ण) की बलि प्रदान करे और अन्त
में सोना, गौ, तिल की दक्षिणा गुरु को
अर्पित करे ।। ७५-७७।।
अभिशप्तमपुत्रं
च सावद्यं कितवं तथा ।
क्रियाहीनमकल्पज्ञं वामनं गुरुनिन्दकम् ।
सदा
मत्सरसंयुक्तं गुरुं मन्त्रेषु वर्जयेत् ।। ७८ ।।
गुरुर्मन्त्रस्य
मूलं स्यान्मूलशुद्धौ तदुद्गतम् ।
सफलं जायते
यस्मान्मन्त्रं यत्नात्परीक्षयेत् ।। ७९ ।।
गुरु मन्त्र
का मूल होता है यदि गुरु शुद्ध होगा तो उसके द्वारा बताया गया मन्त्र भी सफल होगा
। इसीलिए दीक्षा से पूर्व ही मन्त्र की और मन्त्र देने वाले गुरु की यत्नपूर्वक
परीक्षा लेनी चाहिए इसीलिए उस मूल अर्थात् उस गुरु की शुद्धि के सन्दर्भ में कहा
जाता है- जिसे शाप मिला हो, जो पुत्रहीन हो, दोषी हो, पापयुक्त
हो, जुआड़ी हो, क्रिया रहित हो,
धार्मिक विधानों को न जानने वाला हो, बौना हो,
अपने गुरु की निन्दा करने वाला हो तथा सदैव ईर्ष्यायुक्त रहे ऐसे
गुरु को मन्त्रग्रहण की दृष्टि से त्याग देना चाहिये ।। ७८-७९ ।।
शाठ्यात् क्रोधात्तु मोहाद्वा नासन्मत्या गुरोर्मुखात् ।
कल्पेषु
दृष्ट्वा वा मन्त्रं गृह्णीयाच्छद्मनाऽथ वा ।। ८० ।।
दुष्टता से, क्रोध से, मोह से या
गुरु की बिना सम्मति से धोखे से, गुरु के मुख से या
पद्धतियों को देखकर मन्त्रग्रहण नहीं करना चाहिये ॥ ८० ॥
स मन्त्रस्तेय
पापेन तामिस्रे नरके नरः ।
मन्वन्तरत्रयं
स्थित्वा पापयोनिषु जायते ।। ८१ ।।
वह मन्त्र
चुराया हुआ माना जाता है और इस पाप के कारण वह मनुष्य, तीन मन्वतरों तक नर्क में निवास कर,
पाप योनियों में जन्म लेता है ॥ ८१ ॥
शठे क्रूरे च
मूर्खे च छद्मकारिण्यभक्तिके ।
मन्त्रं न
दूषिते दद्यात् सुबीजं विपिने यथा ।।८२।
जिस प्रकार
उत्तम बीज जगंल में नहीं बोना चाहिये उसी प्रकार मन्त्र भी दुष्ट, क्रूर, भक्तिहीन,
मूर्ख, धोखेबाज और पापी व्यक्ति को नहीं देना
चाहिये ॥ ८२ ॥
लक्षेण
साधयेत् कामं पुरश्चरणपूर्वकम् ।
पापक्षयो
भवेद् यस्मात् पुरश्चरणकर्मणा ।।८३ ।।
एक लाख मन्त्र
के जप द्वारा साधक अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए पुरश्चरण करे। इससे पाप का नाश
होता है।।८३।।
लक्षद्वयेन
मन्त्रस्य जपेन नरसत्तमौ ।
त्रिसन्ध्यासुत
प्रतिदिनं बीजसंघातकेन च ।।८४ ।।
कविर्वाग्मी
पण्डितश्च यशस्वी च प्रजायते ।।८५ ।।
हे नरों में
श्रेष्ठ दोनों प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न एवं सायं काल तीनों सन्ध्याओं समय बीज मन्त्रों के समूह, मन्त्र का दो लाख संख्या में जप करने से मनुष्य, कवि,
वक्ता, पंडित तथा यशस्वी होता है ।। ८५ ।।
साधकः
साधकश्रेष्ठ पूजास्थानं ततः शृणु ।
यत्र यत्र नरः
पूजां निर्जने कुरुते च यः ।
तस्यादत्ते
स्वयं देवी पत्रं पुष्पं फलं जलम् ।। ८६ ।।
हे साधकों में
श्रेष्ठ ! साधक के लिए उत्तम पूजा स्थान अब सुनो- जहाँ-जहाँ निर्जन में साधक, फल, पत्र, पुष्प, जल से जो भी पूजा करता है, देवी स्वयं वह ग्रहण करती हैं। पूजा में शिला या वेदी जो निर्जन स्थान में
बनी हो, उत्तम बताई गयी है ॥ ८६ ॥
शिला प्रशस्ता
पूजायां स्थण्डिलं निर्जनं तथा ।
जपश्चोपांशु
सर्वेषामुत्तमः परिकीर्तितः।। ८७ ।।
अशुचिर्न
महामायां पूजयेत् तु कदाचन ।
अवश्यं तु
स्मरेन्मन्त्रं योऽतिभक्तियुतो नरः।। ८८ ।।
सभी जपों में
उपांशु (मौन) जप उत्तम कहा गया है। अपवित्र अवस्था में कभी भी महामाया का पूजन
नहीं करना चाहिये अत्यधिक भक्ति से युक्त मनुष्य को अवश्य मन्त्र स्मरण करना हो
उसे ।। ८७-८८।।
दन्तरक्ते
समुत्पन्ने स्मरणं च न विद्यते ।
सर्वेषामेव
मन्त्राणां स्मरणन्नरकं व्रजेत् ।।८९ ।।
यदि दाँत से
खून बहता हो तो स्मरण नहीं करना चाहिए, ऐसी दशा में सभी मन्त्रों का जप करने वाला नर्क में जाता है
।। ८९ ।।
जानूर्ध्वे
क्षतजे जाते नित्यं कर्म न चाचरेत् ।
नैमित्तिकं च
तदधः स्रवद्रक्तो न चाचरेत् ।। ९० ।।
सूतके च
समुत्पन्ने क्षुरकर्मणि मैथुने ।
धूमोद्गारे
तता वान्ते नित्यकर्माणि संत्यजेत् ।।९१ ।।
घुटने के उपर
यदि कोई चोट लगी हो तो भी कोई नित्यकर्म नहीं करना चाहिए और जब घुटने के नीचे से
खून बह रहा हो उस समय कोई नैमित्तिक (प्रयोजन) वाला कर्म नहीं करना चाहिए। । ९१ ॥
द्रव्ये
भुक्ते त्वजीर्णे च न वै भुक्त्वा च किञ्चन ।
कर्म
कुर्यान्नरो नित्यं सूतके मृतके तथा ।। ९२ ।।
पत्रं पुष्पं
च ताम्बूलं भेषजत्वेन कल्पितम् ।। ९३ ।।
सूतक (जनन
अशौच में, क्षौरकर्म में, मैथुन
की अवस्था में, डकार आने एवं कै होने पर नित्य कर्मो का
त्याग करना चाहिये। जब खाया हुआ पदार्थ पचा न हो या जन्म या मरण का अशौच हो,
उस समय या कुछ खाते हुए, नित्यकर्म नहीं करना
चाहिये किन्तु पत्ते, फूल, ताम्बूल
औषधि के रूप में बताये गये हैं ।। ९२-९३ ॥
कणादिपिप्पल्यन्तं
च फलं भुक्त्वा न चाचरेत् ।
जलस्यापि
नरश्रेष्ठ भोजनाद् भेषजादृते ।
नित्यक्रिया
निवर्तेत सह नैमित्तिकैः सदा ।।। ९४ ।
हे नरश्रेष्ठ
! पिप्पली आदि दाने और फल जो औषधि के रूप में प्रयुक्त होते हों उनके अतिरिक्त
भोजन के निमित्त अपेक्षित जल भी ग्रहण करके नित्य एवं नैमित्तिक कार्यों को नहीं
करना चाहिए ।। ९४ ।।
जलौकां
गूढ़पादं च कृमिगण्डूपदादिकम् ।
कामाद्धस्तेन
संस्पृश्य नित्यकर्माणि संत्यजेत् ।। ९५ ।।
जोंक, सर्प, कीड़े, केचुवें आदि का कामनावश, हाथ से स्पर्श करके भी नित्यकर्म
नहीं करना चाहिए ॥ ९५ ॥
विशेषतः
शिवापूजां प्रमीतपितृको नरः ।
यावद्
वत्सरपर्यन्तं मनसापि न चाचरेत् ।।९६ ।।
विशेषकर देवी
की पूजा, यदि किसी के माता-पिता मर गये हों तो उसे
मन से भी वर्ष पर्यन्त नहीं करनी चाहिये ॥९६॥
महागुरुनिपाते
तु काम्यं किञ्चिन्न चाचरेत् ।
आर्त्विज्यं
ब्रह्मयज्ञं च श्राद्धं देवयजं च यत् ।। ९७ ।।
महागुरु के
मृत्यु के बाद कोई काम्यकर्म, ऋत्विककर्म, ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ
या श्राद्ध आदि कर्म भी नहीं करना चाहिए॥९७॥
गुरुमाक्षिप्य
विप्रं च प्रहृत्यैव च पाणिना ।
न
कुर्यान्नित्यकर्माणि रेतःपाते च भैरव ।। ९८ ।।
हे भैरव !
अपने गुरु पर लांछन लगाकर या किसी ब्राह्मण पर हाथ कर या वीर्यपात हो जाने के बाद
भी नित्यकर्म नहीं करना चाहिये ॥ ९८ ॥
आसनं
चार्ध्यपात्रं च भग्नमासादयेन्नतु ।
ऊषरे
कृमिसंयुक्ते स्थाने मृष्टेऽपि नार्चयेत् ।। ९९ ।।
आसन या
अर्घ्यपात्र के टूट जाने पर भी नित्यकर्म नहीं करना चाहिए । ऊसर, कीड़ों से युक्त स्थान, यदि साफ (स्वच्छ) भी किया गया हो तो, वहाँ पूजन नहीं
करना चाहिए ।। ९९ ।।
नीचैरासनमासाद्य
शुचिः प्रयतमानसः ।
अर्चयेच्चण्डिकां
देवीं देवमन्यं च भैरव ।।१०० ।।
हे भैरव !
पवित्र होकर विनम्र मन से, नीचे (समतल ) आसन को प्राप्त कर, चण्डिकादेवी और
अन्य देवताओं का पूजन करना चाहिए ।। १०० ॥
दिग्विभागे तु
कौबेरी दिक् छिवा प्रतिदायिनी ।
तस्मात्
तन्मुख आसीनः पूजयेच्चण्डिकां सदा ।। १०१ ।।
सभी दिशाओं
में उत्तर दिशा, शिवा को
प्रसन्नता देने वाली है, इसलिए सदैव उसी मुंह बैठकर पूजन
करना चाहिए ॥१०१ ॥
पुष्पं च
कृमिसंमिश्रं विशीर्णं भग्नमृद्गते ।
सकेश मूषिकोद्धूतं
यत्नेन परिवर्जयेत् ।। १०२ ।।
कीड़े लगे, टूटे, पुराने पड़े,
मिट्टी में मिले, केश लगे, चूहों द्वारा कुतरे, पुष्प, प्रयत्नपूर्वक
पूजा में त्याग देने चाहिये॥१०२॥
याचितं परकीयं
च तथा पर्युषितं च यत् ।
अन्त्यसृष्टं
पदा स्पृष्टं यत्नेन परिवर्जयेत् ।। १०३ ।।
दूसरों से
माँगी गई, परायी, बासी, अन्त्यजों द्वारा धुली एवं रची या पैरों से कुचली वस्तुओं का पूजा में
प्रयत्नपूर्वक परित्याग कर देना चाहिये ।। १०३ ।।
इदं शिवायाः
परमं मनोहरं करोति योऽनेन तदीयपूजनम् ।
स
वाञ्छितार्थं समवाप्य चण्डिकागृहं प्रयाता नचिरेण भैरव ।। १०४ ।।
हे भैरव ! इस
प्रकार से जो शिवा के परम मनोहर, उत्तम, पूजन को करता है, वह
शीघ्र ही अपने वाञ्छितफल को प्राप्त कर चण्डिका के धाम को जाता है ।। १०४ ॥
।। इति
श्रीकालिकापुराणे महामायाकल्पे बलि-विधाननाम पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५५॥
॥
श्रीकालिकापुराण के महामायाकल्प का बलि-विधान नामक पचपनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥
५५ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 56
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