कालिका पुराण अध्याय ५१
कालिका पुराण
अध्याय ५१ में वेताल और भैरव की उदासीनता, कपोतमुनि द्वारा उनको शिवाराधन की प्रेरणा का वर्णन मिलता
है । यहाँ वशिष्ठ की गुरु रूप प्रस्तुत हुई है ।
कालिका पुराण अध्याय ५१
Kalika puran chapter 51
कालिकापुराणम्
एकपञ्चाशोऽध्यायः वेताल- भैरवचरितकथनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५१
।।और्व्व उवाच।।
अथ
कालक्रमेणैव प्रवृद्धास्ते महाबलाः।
शस्त्रास्त्रज्ञानकुशलाः
शास्त्रार्थपरिनिष्ठिताः।। १ ।।
और्व बोले-
कालक्रम से धीरे-धीरे वे पाँचो बड़े हुए। वे सभी महान् बलशाली,
शस्त्र-अस्त्र के ज्ञान में कुशल तथा शास्त्रार्थ में
पारंगत थे ॥१ ॥
सम्प्राप्तयौवना
दीप्ता दुर्धर्षाः परिपन्थिभिः।
धमार्थज्ञानकुशला
ब्रह्मण्याः सत्यवादिनः।। २ ।।
वे युवाअवस्था
को प्राप्त होकर चमक रहे थे और शत्रुओं के लिए कठिनाई से जीते जाने वाले थे । वे
धर्म और अर्थ के ज्ञान में कुशल, ब्राह्मणों के भक्त तथा सत्यवादी थे।।२।।
सदा सहचरौ
तत्र प्रीत्या वेतालभैरवौ।
अलर्कौ
दमनश्चैव तथोपरिचरस्त्रयः।
सदा सहचरा
नित्यं भ्रातरश्चान्द्रशेखराः।। ३ ।।
वहाँ वेताल और
भैरव जैसे साथियों के साथ अलर्क, दमन और उपरिचर नामक तीनों पुत्र सदैव प्रेमपूर्वक रहते थे।
इस प्रकार चन्द्रशेखर के पुत्र, पाँचों भाई नित्य, सदैव साथ-साथ रहा करते थे ॥३॥
त्रिष्वात्मजेषु
नृपतेः सदोपरिचरादिषु।
ममत्वमधिकं
नित्यं प्रीतिस्नेहौ तथाधिकौ।। ४ ।।
राजा
चन्द्रशेखर का उपरिचर आदि अपने तीनों पुत्रों में नित्य,
सदैव अधिक प्रेम, स्नेह और ममत्व रहता था॥४॥
वेताले भैरवे
चापि चन्द्रसेखरभूभृतः।
नास्त्येव
तादृशी प्रीतिर्यादृशी तेषु जायते।। ५१.५ ।।
राजा चन्द्रशेखर
की वेताल और भैरव में वैसी प्रीति नहीं थी जैसी उन तीनों में थी ॥ ५ ॥
न तौ दृष्ट्वा
स नृपतिः कदाचिच्चन्द्रशेखरः।
अत्याह्लादयतेऽजस्रं
पुत्रबुद्ध्येष्यतेऽथवा ।। ५१.६ ।।
राजा
चन्द्रशेखर उन दोनों को देखकर न तो कभी प्रसन्न होते थे और न तो कभी उन दोनों के
प्रति पुत्र भावना ही रखते थे ॥६॥
तौ वीरौ
धर्मकुशलौ महाबलपराक्रमौ।
त्रैलोक्यविजये
दक्षौ शस्त्रास्त्रग्रामपारगौ।। ५१.७ ।।
वे दोनों वीर,
धर्म में कुशल, महान्, बलवान और पराक्रमी, तीनों लोको को जीतने में दक्ष,
शस्त्रास्त्र के समूहों में पारंगत थे ॥७॥
ताभ्यां
बिभेति च नृपः कदा किंवा करिष्यतः।
वेतालभैरवावेतौ
मां सुतान् राज्यमेव वा।। ५१.८ ।।
राजा उन दोनों
से डरते थे कि ये वेताल और भैरव न जाने कब, मेरे पुत्रों तथा मेरे राज्य के प्रति क्या कर दें॥८॥
इति चिन्तापरो
राजा नित्यमेव निरीक्षते।
प्रणतावपि
तत्पुत्रौ सम्यग् वेतालभैरवौ।। ५१.९ ।।
इस प्रकार की
चिन्ता से ग्रस्त हो राजा, उन दोनों वेताल और भैरव नामक विनम्रपुत्रों को,
नित्य ही भली-भाँति देखा करते थे । ९ ॥
अथोपरिचरं
राजा यौवराज्येऽभ्यषेचयत्।
ज्यायांसमौरसं
पुत्रं सर्वराजगुणैर्युतम्।। ५१.१० ।।
तब राजा ने
सभी राजसी गुणों से युक्त, अपने औरस (सगे) पुत्रों में बड़े उपरिचर नामक पुत्र को
युवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया ।। १० ।।
यः पश्चात्
सर्वभूपालान् योजयिष्यति नीतिभिः।
राजोपरिचरो
नाम सर्वशास्त्रार्थपारगः।। ५१.११ ।।
जो बाद में
सभी राजाओं को नीतियों में लगायेंगे ऐसे राजा उपरिचर,
सभी शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगत थे ॥ ११ ॥
दमनाय ददौ
दायं तथालर्काय भूमिभृत्।
प्रभूतधनरत्नानि
तथासनरथान् बहून्।। ५१.१२ ।।
तावन्ति न ददौ
ताभ्यां दायवित्तानि भागशः।
वेतालभैरवाभ्यां
तु ततस्तौ मन्युराविशत्।। ५१.१३ ।।
उस राजा
चन्द्रशेखर ने बहुत से धन एवं रत्न, आसन और रथ, हिस्से के रूप में दमन तथा अलर्क को भी दिया किन्तु उन
दोनों (वेताल व भैरव) को उन्होंने कोई भी धन का हिस्सा नहीं दिया,
जिससे वे दोनों ही क्रोध से भर गये । । १२-१३।।
मन्युनाभिपरीतौ
तौ विचरन्तावितस्ततः।
न भोगमीप्सतां
वीरौ तपसे च कृतोद्यमौ।
अनूढभार्यौ
सततं निर्जने वसतः सदा।। ५१.१४ ।।
क्रोध से भरकर
वे दोनों इधर-उधर घूमते थे, इच्छित भोग पाने में असमर्थ,बिना पत्नी के, सदा निर्जन में रहते हुए, वे दोनों तपस्या में ही उद्यम करने लगे ॥१४॥
तथाभूतौ तदा
पुत्रौ देवौ वेतालभैरवौ।
बुबुधे चिन्तयाक्रान्ता
देवी तारावती तदा।। ५१.१५ ।।
तब वेताल और
भैरव नामक अपने दोनों देवपुत्रों को उस दशा में जानकर देवी तारावती चिन्तित हो
उठीं ।। १५ ।।
राजोपरिचराद्
भीता पत्युश्च चन्द्रशेखरात्।
नोवाच किञ्चित
सुदतीच्छन्नं तौ बोधयत्यपि।। ५१.१६ ।।
वे सुन्दर
दाँतो वाली, राजा उपरिचर और अपने पति चन्द्रशेखर के भय से कुछ भी नहीं बोलीं किन्तु
गुप्तरूप से वेताल और भैरव को ही समझाती रहीं ॥ १६ ॥
एतस्मिन्नन्तरे
विद्वान् कपोतो मुनिसत्तमः।
चित्राङ्गदासङ्गभोगी
सन्तुष्टः सुरतोत्सवैः।। ५१.१७ ।।
चित्राङ्गदां
परित्यज्य सपुत्रां सहचारिणीम्।
इयेष गन्तुं स
प्रोचे तदा चित्राङ्गदां वचः।। ५१.१८ ।।
इसी बीच
चित्राङ्गदा के संग, भोग करने वाले कपोतमुनि ने सुरतोत्सव से संतुष्ट होकर अपनी
सह चारिणी, चित्राङ्गदा को पुत्रों के सहित छोड़कर, वन में जाने की इच्छा की और तब चित्राङ्गदा से उन्होंने यह
वचन कहा ।। १७-१८ ।।
।। कपोतोवाच
।।
चित्राङ्गदे
तपस्तप्तुं गमिष्यामि तपोवनम्।
किं ते प्रियं
करोमीह तं मे वद मनोहरे।। ५१.१९ ।।
कपोत बोले- हे
मन को हरने वाली चित्राङ्गदे ! मैं तपस्या करने के लिए तपोवन में जाऊँगा। मैं इस
समय तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ, यह बताओ ॥ १९ ॥
।।चित्राङ्गदोवाच।।
तम्बुरुश्च
सुवर्चाश्च तनयौ तव सुव्रत।
एतयोस्त्वं
मुनिश्रेष्ठ प्रियं कुरु यथोचितम्।। ५१.२० ।।
चित्रङ्गदा
बोली- हे सुन्दरव्रतवाले ! तुम्बरु और सुवर्चा नामक आपके जो दोनों पुत्र हैं।
यथोचित रूप से आप इन दोनों का प्रिय कीजिए ॥ २० ॥
मां चापि
भगिनीगेहे संस्थाप्य द्विजसत्तम्।
तदा तपोवनं
गच्छ यदि ते रोचतेऽनघ।। ५१.२१ ।।
हे निष्पाप !
हे द्विजों में श्रेष्ठ ! मुझे भी बहन के घर में स्थापित कर दीजिए तब यदि आपको
अच्छा लगे तो आप तपोवन को जाइये ॥ २१ ॥ .
।।और्व्व
उवाच।।
इति श्रुत्वा
वचस्तस्याः कपोतो मुनिसत्तमः।
हिरण्यार्थं
समालोच्य कुबेरसदनं ययौ।। ५१.२२ ।।
और्व्व बोले-मुनियों
में श्रेष्ठ कपोत मुनि, उसके इस प्रकार के वचनों को सुन और उस पर विचार कर,
धन के लिए कुबेर के निवास, अलका पुरी गये ॥२२॥
प्रार्थयित्वा
कुबेरं तु सुवर्णानां शतानि षट्।
निष्काणां तु
सहस्राणि स लेभे मुनिसत्तमः।। ५१.२३ ।।
कुबेर से
प्रार्थना करके उन मुनिश्रेष्ठ ने छः सौ सुवर्ण तथा एक हजार निष्क प्राप्त किये ॥
२३ ॥
शतं भारांश्च
रत्नानामानीय व सवीवधैः।
पुत्राभ्यां
प्रददौ विप्रो भार्यायै च विशेषतः।। ५१.२४ ।।
तथा सौ भार
(एक भार= दो हजार पल) तौल के रत्न, भारवाहकों सहित प्राप्त किया तथा उन्हें लाकर उस ब्राह्मण देवता
ने अपने पुत्रों को, विशेष कर अपनी पत्नी को दे दिया ।। २४ ।।
ततस्तां
सहपुत्राभ्यां तैर्धनैरपि भूरिभिः।
चित्राङ्गदामतेनाथ
पुत्रयोरपि सम्मते।। ५१.२५ ।।
सुवर्चसं
तुम्बुरुं च तथा चित्राङ्गदामपि।
आमन्त्र्य
मुनिशार्दूलः करवीरपुरं ययौ।। ५१.२६ ।।
तब पुत्रों के
सहित उस चित्राङ्गदा तथा पर्याप्त धन के साथ चित्राङ्गदा और अपने पुत्रों की सहमति
से,
सुवर्चस, तुम्बरू और चित्राङ्गदा को साथ लेकर मुनियों में सिंह के
समान,
कपोत मुनि करवीर पुर गये ॥२५-२६ ॥
तत्र गत्वा स
कपोतो राजानं चन्द्रशेखरम्।
राजोपरिचरं
चैव वाक्यमेतदुवाच ह।। ५१.२७ ।।
वहाँ जाकर
कपोत मुनि ने राजा चन्द्रशेखर और राजा उपरिचर से यह वाक्य कहा ॥२७॥
।। कपोतोवाच
।।
इयं
ककुत्स्थजा भूप तवैव विदिता पुरा।
सद्योजातौ
तथैवास्यामेतौ मे तनयौ शुची।। ५१.२८ ।।
कपोत मुनि
बोले- हे राजा । यह ककुत्स्थ की पुत्री हैं जिसे आप पहले से ही जानते हो तथा ये
दोनों उसी से तत्काल उत्पन्न हुए मेरे पवित्रपुत्र हैं ।। २८ ॥
एभिर्वित्तैः
समं पुत्रौ मम त्वं प्रतिपालय।
राजोपरिचरश्चापि
पालयत्विह मे सुतौ।। ५१.२९ ।।
मेरे इन दोनों
पुत्रों का भी तुम इन धनों के साथ पालन करो। मेरे इन दोनों पुत्रों का राजा उपरिचर
भी इस समय पालन करें ॥ २९ ॥
अपुत्रस्य
नृपः पुत्रो निर्धनस्य धनं नृपः।
अमातुर्जननी
राजा ह्यतातस्य पिता नृपः।। ५१.३० ।।
अनाथस्य नृपो
नाथो ह्यभर्तुः पार्थिवः पतिः।
अभृत्यस्य
नृपो भृत्यो नृप एव नृणां सखा।
सर्वदेवमयो
राजा तस्मात् त्वामर्थये नृपः।। ५१.३१ ।।
राजा अपुत्र
का पुत्र तथा निर्धन का धन होता है। वह मातृहीन की माता तथा पिता रहित का पिता भी
होता है। हे राजा ! राजा ही अनाथ का नाथ तथा पति- विहीन का पति होता है। वह बिना
सेवक वालों का सेवक तथा मनुष्य मात्र का मित्र होता है। इस प्रकार से राजा सभी
देवों का स्वरूप होता है। इसलिए मैं अपनी इस पत्नी और इन पुत्रों के प्रति स्वामी
और पिता जैसे व्यवहार के लिए आपसे प्रार्थना करता हूँ।।३०-३१॥
।। और्व
उवाच।।
ततः स राजा तं
प्राह मुनिमेवं द्विजोत्तमम्।
करिष्ये
त्वद्वचश्चाहं राजोपरिचरश्च सः।। ५१.३२ ।।
और्व बोले- तब
उन राजा चन्द्रशेखर और राजा उपरिचर ने मुनियों में श्रेष्ठ,
उन उत्तम मुनि से कहा कि हम आपके कथनानुसार ही करेंगे ॥३२॥
अथ
चित्राङ्गदा राजा जग्राह मुनिसम्मते।
सुतौ च तस्य
सधनौ ज्यायसे सूनवे ददौ।। ५१.३३ ।।
तब मुनि के
परामर्श के अनुसार राजा ने चित्राङ्गदा को ग्रहण कर लिया तथा उसके दोनों पुत्रों
को और धन को अपने बड़े पुत्र उपरिचर को दे दिया ॥३३॥
स चोपरिचरः
प्रादाद्राज्यमर्धं सुवर्चसे।
तथैव
सचिवाध्यक्षमकरोत्तुम्बुरुं तदा।। ५१.३४ ।।
तब उस राजा
उपरिचर ने भी अपना आधा राज्य सुवर्चस को दे दिया तथा तुम्बुरु को अपने सचिवों का
अध्यक्ष बना दिया ॥३४॥
कपोत श्चापि
सुप्रीतः पुत्रार्ध समवेक्ष्य च।
जगामामन्त्र्य
नृपतिं तपसे च तपोवनम्।। ५१.३५ ।।
अपने पुत्रों
के प्रति किये गये व्यवहार को देखकर कपोत मुनि भी बड़े प्रसन्न हुए और राजा से
परामर्श करके तपस्या करने, तपोवन में चले गये॥ ३५ ॥
पथि गच्छन् स
कपोतः शम्भुपुत्रौ मनोहरौ।
एकाकिनौ
चरन्तौ तु सूर्याचन्द्रमसाविब।। ५१.३६ ।।
तयोर्ददृदर्श
च तदा वदने वानराकृती।
स्मृत्वा
पूर्वकथां दृष्ट्वा तावपृच्छत् तपोधनः।। ५१.३७ ।।
रास्ते में
जाते हुए उन तपस्वी कपोत नामक मुनि ने सूर्य और चन्द्रमा के समान सुन्दर,
अकेले घूमते हुए, वानर के समान मुख वाले, वेताल और भैरव नामक उन दोनों शिवपुत्रों को देखा। तब
उन्होंने पहले की कथा का स्मरण कर उन दोनों से पूछा- ॥ ३६-३७।।
।। कपोतोवाच ।।
कौ युवां
देवगर्भाभौ चरन्तौ विजने पथि।
एकाकिनौ
नरश्रेष्ठौ तन्मे वदतमीरितम्।। ५१.३८ ।।
कपोत बोले-
तुम दोनों देवताओं के अंश दिखाई दे रहे हो, फिर भी इस एकांत रास्ते में अकेले घूमने वाले कौन हो,
हे नरश्रेष्ठों ! मेरे द्वारा पूछे जाने पर,
तुम दोनों यह बताओ ॥३८॥
।। और्व उवाच
।
अथ तौ
प्रणिपत्यैनं सम्भाष्य च समञ्जसम्।
कपोताख्यं
मुनिश्रेष्ठमूचतुः शङ्करात्मजौ।। ५१.३९ ।।
और्व बोले- तब
मुनियों में श्रेष्ठ, कपोत नामक मुनि द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर उनको प्रणाम
करके उन दोनों शिवपुत्रों ने कहा ।। ३९ ।।
।। वेताल भैरवौ
ऊचतुः ।।
चन्द्रशेखरपुत्रौ
नौ तारावत्यां समुद्गतौ।
विद्धि त्वं
मुनिशार्दूल प्रणमावः पदं तव।। ५१.४० ।।
वेताल और भैरव
बोले- हे मुनियों में सिंह के समान श्रेष्ठ मुनि ! हम दोनों को आप तारावती से
उत्पन्न चन्द्रशेखर का पुत्र जानें, हम दोनों आपके चरणों में प्रणाम कर रहे हैं । ४० ॥
अवज्ञां
वीक्ष्य नृपतेरावयोः सततं मुने।
एकाकिनौ
निर्जनेषु भ्रभावो मन्युना सदा।। ५१.४१ ।।
हे मुनि ! हम
दोनों राजा के द्वारा निरंतर अपना अपमान देखकर, क्रोधवश, र्निजन में सदैव अकेले ही घूमते हैं ॥ ४१ ॥
किमर्थमात्मजौ
पुत्रौ प्रणतौ सततं नृपः।
अवज्ञाय
महाभाग दायमात्रं न दित्सति ।। ५१.४२ ।।
महाराज निरंतर,
हम दोनों विनम्र पुत्रों की अवहेलना कर राजा हम दोनों का दायभाग
भी क्यों नही देना चाहते ? ॥४२ ॥
तस्मादावां
तपस्तप्तुमिच्छावो द्विजसत्तम।
उपदेशप्रदानेन
चानुगृह्णाति चेद्भवान्।। ५१.४३ ।।
हे द्विजों
में श्रेष्ठ ! यदि आप उपदेश प्रदान करने की कृपा करें तो हम दोनों अब तपस्या करने
की इच्छा रखते हैं ॥ ४३ ॥
।। और्व उवाच
।।
ततस्तयोर्वचः
श्रुत्वा प्रहस्य मुनिसत्तमः।
भूतभव्यभवज्ज्ञानस्ताविदं
मुनिरब्रवीत्।। ५१.४४ ।।
और्व बोले- तब
मुनियों में श्रेष्ठ, भूत, भविष्य व वर्तमान जानने वाले, कपोत मुनि ने उन दोनों की बातों को सुनकर हँसकर यह कहा -
॥४४॥
।।मुनिरुवाच।।
न युवां तनयौ
तस्य चन्द्रशेखरभूपतेः।
तारावत्यां
समुत्पन्नौ भवन्तौ शङ्करात्मजौ।। ५१.४५ ।।
कपोत मुनि
बोले- तुम दोनों तारावती से उत्पन्न उस चन्द्रशेखर के पुत्र नहीं हो। तुम दोनों
तारावती से उत्पन्न शिव के पुत्र हो ।। ४५ ।।
सद्यौ जातौ
महावीर्यौ वेतालत्वे च सम्मतौ ।
भृङ्गिमहाकालसंज्ञौ
शापाद् धरणिमागतौ ।। ५१.४६ ।।
तुम दोनों
तत्काल उत्पन्न हुए महान बलशाली, वैतालत्व से युक्त, भृंगी और महाकाल नामक दो शिवगण हो,
जो शापवश इस पृथ्वी पर आये हो ॥ ४६ ॥
युवयोरत्र
तेनैव न दायं दित्सति प्रियम्।
गच्छतं शरणं
तातं शङ्करं वृषभध्वजम्।। ५१.४७ ।।
इसीलिए राजा
तुम दोनों को दायभाग नहीं देना चाहते। इसलिए तुम दोनों अपने पिता शिव की शरण में
जाओ ॥४७॥
स एव युवयोः
सर्वं कारिष्यति महेश्वरः।
किं
वात्युग्रेण तपसा चिरकालफलेन वै।। ५१.४८ ।।
वही शिव,
तुम दोनों का सब कुछ करेंगे। दीर्घकाल तक अत्यन्त उग्र तपस्या
करने से क्या होगा ? ।।४८ ।।
।। और्व उवाच
॥
इत्युक्त्वा
मुनिशार्दूलः कपोतः परमात्मधृक्।
भूतभव्यभवजज्ञानन्ताभ्यां
सर्वमथोचिवान्।। ५१.४९ ।।
और्व बोले- हे
राजन् ! ऐसा कहकर मुनियों में सिंह के समान श्रेष्ठ, परमात्मतत्त्व को धारण करने वाले,
भूत, भविष्य और वर्तमान को जानने वाले,
मुनि ने शिव के उन दोनों पुत्रों से सब कुछ कह दिया ॥४९ ।।
यथा
भृङ्गिमहाकालौ शप्ताववनिमागतौ।
यथा हरश्च
गौरी च पृथिवीमागतौ नृपः।। ५१.५० ।।
तारावती यथा
शप्ता तेनैव मुनिना पुरा।
यता तौ च
समुत्पन्नौ तारावत्युदरे पुरा।। ५१.५१ ।।
यथा वा
नारदेनैव संशयच्छेदनं नृपे।
तत्सर्वं
कथयामास पुत्राभ्यां गिरिशस्य तु।। ५१.५२ ।।
जिस प्रकार
भृंगी और महाकाल शाप पाकर पृथ्वी पर आये, जिस प्रकार शिव- पार्वती भी पृथ्वी पर आये । तारावती को जिस
प्रकार कपोत मुनि ने शाप दिया। वे दोनों तारावती के गर्भ से जिस प्रकार उत्पन्न
हुए,
जैसे नारद जी ने राजा का संदेह दूर किया,
वह सब कह सुनाया ।। ५०-५२।।
तच्छ्रुत्वा
तौ महात्मानौ तदा वेतालभैरवौ।
मुदा परमया
युक्तौ बभूवतुरनिन्दितौ ।। ५१.५३ ।।
तब वे
निन्दारहित दोनों महात्मा, वेताल और भैरव उसे सुनकर, परम प्रसन्नता से युक्त हुए ॥५३ ॥
मोदपूर्णौ तदा
भूत्वा सिक्त्वाविव सुधारसैः।
पुनः पप्रच्छ
कपोतं वेतालो भैरवोऽपि च।। ५१.५४ ।।
तब प्रसन्नता
से भरे हुए, अमृत से सिञ्चित की भाँति, उन दोनों ने पुनः कपोत मुनि से पूछा- ।।५४।।
।। वेताल
भैरवावूचतुः ।।
पितावयोर्महादेवस्त्वया
सत्यमितीरितम्।
सोऽर्चनीयो
यथावाभ्यां सिद्धये मुनिसत्तम।। ५१.५५ ।।
वेताल और भैरव
बोले- हे मुनियों में श्रेष्ठ ! यह आपने सत्य ही कहा है कि महादेव हम दोनों के
पिता हैं। अतः सफलता के लिए हम दोनों के द्वारा उनकी पूजा की जानी चाहिए ॥ ५५ ॥
आवाभ्यां च
यथाराध्यो यत्र वाराधितो हरः।
प्रसादमेष्यत्यचिरात्
तन्नो वद महामते।। ५१.५६ ।।
हे महान्
बुद्धिमान् मुनि ! वे शिव, हम दोनों द्वारा जिस प्रकार जहाँ पर पूजे जायें और शीघ्र ही
प्रसन्न हों, वह सब आप हमें बताइए ॥ ५६ ॥
धन्यावनुगृहीतौ
नौ यत् त्वया मुनिसत्तम।
विज्ञापितमिदं
सर्वं हृच्छल्यं चोद्धृतं च नौ।। ५१.५७ ।।
हे मुनिसत्तम
! आपके द्वारा जो सब वृत्तान्त बताया गया और हमारे हृदय का कष्ट दूर किया गया,
उससे हम दोनों धन्य व अनुगृहीत हुए हैं ।। ५७॥
पुनरावां
दयस्व त्वं कृपामय मुनीश्वर।
प्राप्स्यावो
न चिराद् भर्गं यथा वद तथैव नौ।। ५१.५८ ।।
हे कृपा करने
वाले मुनीश्वर ! आप पुनः हम पर दया करें और जिस प्रकार भर्ग (शिव),
शीघ्र ही हमें प्राप्त हो सकें,
वह ही हम दोनों को बताइये ।। ५८ ।।
।।मनिरुवाच।।
शृणु त्वं
कथयाम्यद्य यत्र चाराधितो हरः।
नचिरादेव
भवतोरायास्यति समक्षताम्।। ५१.५९ ।।
कपोत बोले-
जहाँ आराधना किये जाने से शिव शीघ्र ही तुम दोनों के सामने आ जायेंगे,
वह आज मैं बता रहा हूँ, उसे तुम दोनों सुनो ।। ५९ ।।
नित्यं यत्र
महादेवो वसन् भवति तुष्टये।
युवां तत्
सम्प्रवंक्ष्यामि स्थानं गुह्यं प्रकाशितम्।। ५१.६० ।।
जहाँ पर शिव,
नित्य निवास करते हैं और शीघ्र ही संतुष्ट हो जाते हैं। मैं
उस गुप्त किन्तु प्रसिद्ध स्थान के विषय में तुम दोनों से कहूँगा ।। ६० ।।
कालिका पुराण अध्याय ५१ वाराणसी माहात्म्यवर्णन
वाराणसी नाम
पुरी गङ्गातीरे मनोहरे।
वरणायास्तथा
चासेर्मध्ये चापाकृतिः सदा।। ५१.६१ ।।
वह स्थान
वाराणसी नामक नगरी हैं। जो सदैव वरुणा और अस्सी के बीच में,
गंगा के तट पर, धनुषाकार स्थित है ॥ ६१ ॥
स्वयं
वृषध्वजस्तत्र नित्यं वसति योगिनाम्।
सदा प्रीतिकरो
योगी स्वयं चाप्यात्मचिन्तकः।। ५१.६२ ।।
भगवान शंकर जो
स्वयं योगी हैं तथा आत्मतत्व के चिन्तन में लगे रहते हैं। योगियों का भला करने के
लिए वहाँ स्वयं नित्य निवास करते हैं ।। ६२ ।।
वियत्स्था सा
पुरी नित्यं भर्गयोगबलाद् धृता।
दिव्यज्ञानं
ददात्येषा तत्र यो म्रियते नरः।। ५१.६३ ।।
स्वर्ग में स्थित,
शिव के योगबल से नित्य धारण की जाती हुई,
वह पुरी उसमें मरने वाले मनुष्यों को दिव्यज्ञान प्रदान
करती है ॥ ६३ ॥
तस्मै स्वयं
महादेवः संसारग्रन्थिमुक्तये।
स भूत्वा परमो
योगी मृतस्तत्र भवान्तरे।। ५१.६४ ।।
सुलभेनैव
निर्वाणमाप्नोति हरसम्मतः।
योगयुक्तो
महादेवः पार्वत्या सहितः सदा।। ५१.६५ ।।
उसमें मरने
वालों को स्वयं महादेव, संसार के बंधन से मुक्ति प्रदान करते हैं। जिससे अगले जन्म
में वहाँ मरने वाला परम योगी होता है और शिव द्वारा समर्थित हो निर्वाण को सुगमता
से प्राप्त कर लेता है। वह नगरी पार्वती के सहित योगयुक्त महादेव से सदा युक्त है
।।६४-६५ ।।
देवगन्धर्वयक्षाणां
मानुषाणां च नित्यशः।
ज्ञेयो हरः
प्रकाशश्च क्षेत्रं तच्च प्रकाशितम्।। ५१.६६ ।।
देव,
गंधर्व, यक्ष और मनुष्यों द्वारा नित्य जाने-जाने वाले,
प्रकाशस्वरूप शिव से वह क्षेत्र प्रकाशित है ॥६६॥
न तत्र कामदो
देवो नचिराच्च प्रसीदिति।
आराधितश्चिरं
प्रीत्या निर्वाणाय प्रसीदति।। ५१.६७ ।।
किन्तु कामना
पूरा करने वाले महादेव वहाँ उपासना किये जाने से शीघ्र नहीं प्रसन्न होते,
अपितु चिरकाल, बहुत समय तक प्रेमपूर्वक आराधना किये जाने पर वे
मोक्षप्रदान करने के लिए ही प्रसन्न होते हैं ॥ ६७॥
गौर्या
विवजिता सा तु पुरी तत्र न गच्छति।
योगस्थानं
महाक्षेत्रं कदाचिदपि शाङ्करी।। ५१.६८ ।।
पार्वती के
द्वारा वह पुरी वर्जित है । इसलिए वे शाङ्करी देवी उस योग के स्थान,
महान् क्षेत्र में कभी भी नहीं जाती हैं ॥ ६८ ॥
आसन्नं युवयोः
क्षेत्रमिदं वाराणसी तु यत्।
कथितं
नातिदूरे च वर्तते नरसत्तमौ।। ५१.६९ ।।
यद्यपि यह
वाराणसी नामक क्षेत्र तुम लोगों के समीप है। हे मनुष्यों में श्रेष्ठ ! इसीलिए
मैंने सर्वप्रथम इसका वर्णन किया है ॥ ६९ ॥
अपरं तु
प्रवक्ष्यामि गुह्यं पीठं सदार्चितम्।
हरगौरीसमायुक्तं
परं धर्मार्थकामदम्।। ५१.७० ।।
अब मैं
वाराणसी के अतिरिक्त दूसरे, सदैव पूजेजानेवाले, शिव-पार्वती युक्त, धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थों को देने वाले,
गुप्त, अन्य स्थान के विषय में कहूँगा ॥ ७० ॥
कालिका पुराण अध्याय ५१ कामरूप माहात्म्यवर्णन
तपसा चाति
तीव्रोण चिराद् भवति मोक्षदम्।
नचिरात् कामदं
पुण्यं क्षेत्रं पीठं निगद्यते।। ५१.७१ ।।
जो अत्यन्त
तीव्र तपस्या के कारण देर से मोक्ष प्रदान करनेवाला है किन्तु शीघ्र ही कामना पूरी
करने वाला क्षेत्र, पीठ कहा जाता है ॥ ७१ ॥
चिरात् तु
कामदो देवो न चिराद् यत्र ज्ञानदः।
तत्क्षेत्रमिति
लोकेषु गद्यते पूर्ववन्दिभिः ।। ५१.७२ ।।
कामरूपं
महापीठं गुह्याद् गुह्यतमं परम्।
सदा
सन्निहितस्तत्र पार्वत्या सह शङ्करः।। ५१.७३ ।।
देर से
कामनाओं की पूर्ति करने वाले महादेव, जहाँ शीघ्र ज्ञानप्रदान करते हैं,
वह क्षेत्र पहले से ही वन्दना करने वाले ऋषियों द्वारा लोक
में गोपनीय से भी गोपनीय, परमश्रेष्ठ, कामरूप, महापीठ कहा जाता है। वहाँ पार्वती के सहित भगवान शिव सदैव
निहित रहते हैं।।७२-७३॥
न चिरात्
पूजितो देवस्तस्मिन् पीठे प्रसीदति।
पार्वती
चानुगृह्णाति भर्गभक्तं तु तत्र वै।। ५१.७४ ।।
पूजा किये
जाने पर वह देव उस स्थान पर शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। वहाँ पार्वती भी शिव के
भक्तों पर कृपा करती हैं ।। ७४ ॥
ददाति नचिरात्
कामं भक्ताय परमेश्वरः।
तत् तु पीठं
प्रवक्ष्यामि शृणुत साम्प्रतं युवाम्।। ५१.७५ ।।
जहाँ परमेश्वर
शिव,
शीघ्र ही भक्तों की कामना पूरी करते हैं। मैं उस कामरूप नामक
पीठ के विषय में तुम दोनों से अब कहूँगा। तुम दोनों ध्यान से सुनो।। ७५ ।।
करतोया
नदीपूर्वं यावद् दिक्करवासिनीम्।
त्रिंशद्योजनविस्तीर्णं
योजनैकशतायतम्।। ५१.७६ ।।
त्रिकोणं
कृष्णवर्णं च प्रभूताचलपूरितम्।
नदीशतसमायुक्तं
कामरूपं प्रकीर्तितम्।। ५१.७७ ।।
करतोयानदी के
पूर्व में, दिक्करवासिनी नदी तक फैला हुआ, तीस योजन चौड़ा और सौ योजन लम्बा,
त्रिकोण के आकार में, काले रंग के बहुत से पर्वतों और सैकड़ों नदियों से युक्त
क्षेत्र,
कामरूप कहा गया है ।।७६-७७।।
शम्भुनेत्राग्निनिर्दग्धः
कामः शम्भोरनुग्रहात्।
तत्र रूपं यतः
प्राप कामरूपं ततोऽभवत् ।। ५१.७८ ।।
पहले शिव के
नेत्र से निकली हुई अग्नि से जले हुए कामदेव ने शिव की कृपा से ही वहाँ अपने रूप
को प्राप्त किया था। उसी से वह क्षेत्र कामरूप हो गया ।। ७८ ।।
तस्य पीठस्य
वायव्यां नैर्ऋत्यां मध्यभागतः।
ऐशान्यां च तथाग्नेय्यां
मध्ये पार्श्वे च शङ्करः।। ५१.७९ ।।
स्वमाश्रमपदं
कृत्वा षट्सु स्थानेषु शोभनम्।
नित्यं वसति
तत्रापि पार्वत्या सह नर्मभिः।। ५१.८० ।।
वहाँ उस पीठ
के मध्यभाग से वायव्यकोण, नैर्ऋत्यकोण, ईशानकोण, अग्निकोण तथा उनके मध्यवर्ती और पार्श्व के छः स्थानों में
अपना सुन्दर आश्रम बना करके, भगवान् शंकर, पार्वती के साथ प्रमोदपूर्वक, नित्य निवास करते हैं। । ७९-८०॥
मध्ये
देवीगृहं तत्र तदधीनं तु शङ्करः।
नीलाख्ये
पर्वतश्रेष्ठे पार्वती तत्र तिष्ठति।। ५१.८१ ।।
उसके मध्य में
वहाँ उस नीलनामक श्रेष्ठ पर्वत पर देवी का एक मन्दिर है,
जहाँ पार्वती निवास करती हैं, भगवान् शंकर वहाँ, उन्हीं के अधीन रहते हैं ॥ ८१ ॥
ऐशान्यां
नाटके शैले शङ्करस्य महाश्रमः।
नित्यं वसति
तत्रेशस्तदधीना च पार्वती।। ५१.८२ ।।
वहाँ ईशान कोण
में नाटक नामक पर्वत पर भगवान शंकर का महान् आश्रम है। जहाँ भगवान् शिव और उनके
अधीन,
पार्वती नित्य निवास करती हैं ॥ ८२ ॥
अपरे चाश्रमाः
सन्ति हरगौर्योः सदातनाः ।
नैतयो सदृशः
कोऽपि विद्यते शङ्कराश्रमः।। ५१.८३ ।।
वहाँ पर
शिव-पार्वती के अन्य भी स्थायी आश्रम हैं । किन्तु इसके समान भगवान् शंकर का अन्य
कोई निवास नहीं है ॥ ८३ ॥
यत्राराध्यो
महादेवो भवद्भयां नरसत्तमौ।
तत्स्थानं
मनसादाय प्रसादय वृषध्वजम्।। ५१.८४ ।।
हे मनुष्यों
में श्रेष्ठ ! वहाँ तुम दोनों द्वारा महादेव की आराधना करनी चाहिए। उस स्थान को मन
में धारण कर, भगवान शिव को प्रसन्न करो ॥ ८४ ॥
।।
वेतालभैरवावूचतुः ।।
कामरूपं गमिष्यावौ
रहस्यं नाटकाचलम्।
गौरीहरौ
स्थितौ यत्र नित्यं सन्निहितौ मुने।। ५१.८५ ।।
वेताल और भैरव
बोले- हे मुनि ! हम दोनों कामरूप के नाटक- पर्वत पर जाएँगे जो रहस्य पूर्ण है और
जहाँ शिव-पार्वती एक साथ नित्य स्थित रहते हैं ॥ ८५ ॥
आराधनीयो
भूतेशो ह्यवश्यमिह चावयोः।
यथैवाराधयिष्यावस्तथाचक्ष्व
द्विजोत्तम।। ५१.८६ ।।
द्विजों में
श्रेष्ठ ! हम दोनों द्वारा भूतों के स्वामी, शिव की आराधना इस स्थान पर अवश्य की जानी चाहिए। अतः जिस
प्रकार हम दोनों उनकी आराधना करेंगे, वह विधि बताइये ॥ ८६ ॥
येन मन्त्रेण
वा देवो नचिरात् तु प्रसीदति।
तत् त्वं वद
महाभागानुग्रहोऽस्त्यावयोर्यदि।। ५१.८७ ।।
यदि हम दोनों
पर आपकी कृपा हो तो, हे महानुभाव ! जिस मन्त्र से महादेव शीघ्र ही प्रसन्न हो
जाते हैं,
उसे कहिये ॥८७॥
।।ऋषिरुवाच।।
नाटकं
पर्वतश्रेष्ठं गच्छतं नरसत्तमौ।
तत्र नित्यं
महादेवी रमतेऽपर्णया सह।। ५१.८८ ।।
कपोतऋषि बोले-
हे मनुष्यों में श्रेष्ठ ! तुम दोनों नाटक नाम के श्रेष्ठ पर्वत पर जाओ। वहाँ
महादेव जी पार्वती के साथ नित्य भ्रमण करते रहते हैं ॥ ८८ ॥
सन्ध्याचले
तत्र मुनिराराधयति शङ्करम्।
वशिष्ठो
ब्रह्मणः पुत्रस्तं युवामनुगच्छतम्।। ५१.८९ ।।
वहीं
सन्ध्याचल नामक पर्वत पर ब्रह्मा जी के पुत्र, वशिष्ठमुनि भगवान् शंकर की आराधना कर रहे हैं । तुम दोनों
उन्हीं का अनुगमन करो ॥ ८९ ॥
स च मन्त्रं
सतन्त्रं च हराराधनकर्मणि।
ज्ञापयिष्यति
वां पृष्टः किल वेतालभैरवौ।। ५१.९० ।।
हे वेताल और
भैरव ! मन्त्र तंत्र के सहित भगवान् शंकर की आराधना सम्बन्धी तुम दोनों द्वारा
पूछी गई विधियाँ वे ही तुम दोनों को बताएँगे ॥ ९० ॥
तपसे
गन्तुमिच्छामि नेदानीं कालयापना।
युज्यते मम
तस्मान्मां त्यजतं वीरसत्तमौ।। ५१.९१ ।।
मैं इस समय
तपस्या हेतु जाना चाहता हूँ, इसलिए मेरा इस समय, समय व्यतीत करना उचित नहीं होगा। इसलिए हे वीरों में
श्रेष्ठ ! तुम दोनों इस समय मुझे छोड़ दो ॥ ९१ ॥
।। और्व उवाच
॥
एवमुक्त्वा
मुनिश्रेष्ठः कपोतः प्रययौ वनम्।
तौ तं मुनिं
नमस्कृत्य जग्मतुर्भवनं निजम्।। ५१.९२ ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर मुनियों में श्रेष्ठ मुनि, कपोत मुनि, वन में चले गए। तब वे दोनों भी उन मुनि को प्रणाम करके अपने
घर चले गए ।। ९२ ।।
अथ तौ समयं
कृत्वा दीक्षितौ तपसे तदा।
पितरावप्यनुज्ञाप्य
भ्रातृनन्यांश्च बान्धवान्।
प्रस्थानं
कामरूपाय चक्रतुस्तौ महामती।। ५१.९३ ।।
तब तपस्या के
लिए दीक्षित होने का निश्चय करके, माता-पिता और अपने अन्य भाइयों तथा बन्धुओं से आज्ञा लेकर
उन दोनों महान् बुद्धिमान् पुरुषों ने काम-रूप के लिए प्रस्थान किया । । ९३ ॥
तौ गच्छन्तौ
परिज्ञाय शङ्करोऽपि सहोमया।
देवान्
सर्वानुवाचेदं सान्त्वयन्निव सेन्द्रकान्।। ५१.९४ ।।
उन दोनों को
जाता हुआ जानकर, पार्वती के सहित भगवान् शंकर ने इन्द्र के सहित सभी देवताओं को सान्त्वना देते
हुए यह कहा - ।। ९४ ।।
।।ईश्वर
उवाच।।
पुत्रौ मे
तपसे यातः साम्प्रतं सुरसत्तमाः।
ममाराधनचित्तौ
तु तौ दयध्वं सुरेश्वराः।। ५१.९५ ।।
भगवान् शंकर
बोले- हे श्रेष्ठ देवताओं ! मेरे दोनों पुत्र इस समय तपस्या के लिए जा रहे हैं ।
हे देवताओं के स्वामीगण ! मेरी आराधना में चित्त लगाये हुए उन दोनों पर आप सब दया
करो ।। ९५ ।।
संस्कृत्य
तपसा चैतौ पुत्रौ वेतालभैरवौ।
गाणपत्ये
नियोक्ष्यामि तौ संस्कुर्वन्तु निर्जराः।।
अनेनैव शरीरेण
तौ गणेशत्वमाप्स्यतः।। ५१.९६ ।।
इन दोनों
वेताल और भैरव नामक पुत्रों को तपस्या द्वारा संस्कारित करके,
मैं इन्हें गणों के स्वामी के पद पर नियुक्त करूंगा। हे
देवगण! आप सब इन्हें ऐसा संस्कारित कीजिए, जिससे वे दोनों इसी शरीर से गणों के स्वामीपद को प्राप्त
करें ।। ९६ ।।
तपसा तु तयोः
कायौ भावं त्यत्क्वा तु मानुषम् ।
यथाप्नुतः
सौरभावं विधास्यामि ह्यहं तथा ।। ९७ ।।
तपस्या के
कारण उन दोनों का शरीर मनुष्यभाव को छोड़ दे और उनमें जैसे देवभाव प्राप्त हो,
मैं वैसा ही करूंगा ॥९७॥
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्त्वा
वामदेवोऽपि पार्वत्या सह पुत्रकौ।
गच्छन्तौ
वियता स्नेहात् पश्चादनुययौ शिवः।। ५१.९८ ।।
और्व मुनि
बोले- ऐसा कहकर पार्वती के सहित वामदेव शिव भी प्रेमवश,
आकाशमार्ग से एकान्त को जाते हुए उन दोनों पुत्रों के पीछे
गए ॥९८॥
शक्राद्यास्त्रिदशाः
सर्वे दिक्पालाश्च तथापरे।
सर्वे हरं
चानुजग्मुरनुगच्छन्तमात्मजौ।। ५१.९९ ।।
इन्द्र आदि
सभी देवता तथा दूसरे दिग्पालों ने भी उस समय अपने पुत्रों के पीछे जाते हुए भगवान्
शंकर का अनुगमन किया ।। ९९ ।।
अथ तौ तु नदीं
प्राप्य गङ्गातुल्यां दृषद्वतीम् ।। १०० ।।
आदाय तापसं
भावं कृष्णाजिनधरौ तदा ।
तपस्विनौ तु
देवेन त्र्यम्बकेणाथ पालितौ ।। १०१ ।।
इसके बाद
भगवान् शिव के द्वारा पाले गए, वे दोनों तपस्वी, तपस्वी भाव को ग्रहण किए हुए, कृष्णमृगचर्म धारण किये हुए, गंगा के समान श्रेष्ठ, दृषद्वती नाम की नदी के तट पर पहुँचे ।। १००-१०१।
देवैः सह
तदायातौ कामरूपाह्वयाश्रमम्।
आसाद्य
कामरूपं तु करतोयानदीजले।। ५१.१०२ ।।
तब वे दोनों
देवताओं के सहित कामरूप नामक आश्रम में पहुँचे। वे कामरूप की करतोया नदी के तट पर
पहुँच गए ॥ १०२ ॥
उपस्पृश्य
ततस्तौ तु नन्दिकुण्डं नृपोत्तम।
तत्र स्नात्वाप्युपस्पृश्य
नदीं गत्वा जटोद्भवाम्।। ५१.१०३ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! वहाँ वे दोनों जल का स्पर्श कर, नन्दीकुण्ड को गए और वहाँ भी स्नान और आचमन करके,
जटा से उत्पन्न नदी पर पहुँचे ॥१०३॥
उपस्पृश्य च
तौ नन्दिनं तपसा धृतम्।
प्रणम्य
जल्पिशं देवं जग्मतुर्न्नाटकाचलम्।। ५१.१०४ ।।
वहाँ भी उन
दोनों ने आचमन किया और तपस्या में लगे हुए नन्दी और जल्पिश नामक देवताओं को प्रणाम
किया और नाटकाचल नामक पर्वत पर पहुँच गए ॥१०४॥
नाटकाचलमासाद्य
प्रणम्य वृषभध्वजम्।
आराधनोपदेशाय
कपोतकवचःस्मरौ।। ५१.१०५ ।।
कपोतऋषि के वचनों
का स्मरण करते हुए, भगवान् शिव की आराधना के उपदेश के लिए उन दोनों ने नाटकाचल
पर्वत पर पहुँच कर, भगवान् शिव को प्रणाम किया ।। १०५ ॥
जग्मतुर्दक्षिणां
काष्ठां यत्र सन्ध्याचलः स्थितः।
कान्ता नाम
नदी तत्र वशिष्ठेनावतारिता ।।
तस्यास्तीरे
महाशैलः स्निग्धच्छायलतातरुः।। १०६ ।।
उसके बाद
दक्षिण दिशा में जहाँ पर सन्ध्याचल स्थित है, वहाँ वे दोनों गए, जहाँ वशिष्ठ जी ने कान्ता नाम की नदी को प्रकट किया था,
उसके किनारे कोमल लता एवं वृक्षों की छाया से सुशोभित एक
महान् पर्वत था।१०६।
सन्ध्यां
वशिष्ठः कृतवांस्तत्र यस्माद् विधेः सुतः।
अतः
सन्ध्याचलं नाम तस्य गायन्ति देवताः।। १०७ ।।
वहाँ ब्रह्मा
जी के पुत्र वशिष्ठ जी ने अपना सन्ध्याकर्म सम्पन्न किया था । इसीलिए देवता लोग उस
पर्वत को सन्ध्याचल नाम से पुकारते हैं ॥ १०७॥
तत्रासाद्य
वशिष्ठं तु साक्षादिव हुताशनम् ।
आराधयन्तं
गिरिशं ध्यानसंयुक्तमानसम् ।। ५१.१०८ ।।
तपःश्रिया
दीप्यमानं द्वितीयमिव भास्करम् ।
प्रणम्य
पुरतस्तस्य तदा वेतालभैरवौ ।। ५१.१०९ ।।
प्राञ्जली
तस्थतुर्भूप विनयानतकन्धरौ ।
इदं
चाप्यूचतुस्तौ तु प्रणमन्तौ विधेः सुतम् ।। ५१.११० ।।
हे राजन्!
वहाँ ध्यान में मन लगाकर गिरीश (शिव) की आराधना करते हुए,
साक्षात् अग्नि के समान देदीप्यमान,
अपनी तपस्या की शोभा से दूसरे सूर्य के समान प्रकाशित,
वशिष्ठ मुनि को प्राप्त कर, उस समय वेताल और भैरव उनके सामने हाथ जोड़े हुए,
नम्रतापूर्वक अपने कंधे झुकाए हुए,
उन्हें प्रणाम करते हुए उन ब्रह्मा के पुत्र से यह बोले-।।१०८- ११०।।
।। वेताल
भैरवावूचतुः ।।
तारावत्यां
समुत्पन्नौ चन्द्रशेखरभूभृतः ।
क्षेत्रे
भर्गस्य तनयावावां जानीहि मानुषौ ।। १११ ।।
आराधयितुमिच्छावो
हरं कार्यस्य सिद्धये ।
वाञ्छितस्य
यदि त्वं नावनुगृह्णासि सुव्रत ।। ११२ ।।
वेताल और भैरव
बोले- हम दोनों को राजा चन्द्रशेखर की पत्नी तारावती से उत्पन्न,
मनुष्यरूप में शिव का पुत्र जानिये । हे सुन्दरव्रत वाले !
यदि आप हम दोनों पर कृपा करें तो हम दोनों अपने इच्छित कार्य की सिद्धि के लिए शिव
की आराधना करने की इच्छा करते हैं ।। १११-११२ ।।
।। और्व उवाच
।।
तयोस्तद् वचनं
श्रुत्वा वशिष्ठो मुनिसत्तमः ।। ५१.११३ ।।।
उवाचेति युवां
ज्ञातौ मया सत्यं हरात्मजौ ।
हरस्याराधनं
कार्यं युवयोर्नरसत्तमौ ।। ५१.११४ ।।
और्व बोले- उन
दोनों के उपर्युक्त वचनों को सुनकर मुनियों में श्रेष्ठ वशिष्ठ ने यह कहा- मैंने
यह जान लिया है कि तुम दोनों सच ही भगवान शिव के पुत्र हो। हे नरों में श्रेष्ठ !
शिव की आराधना करना तुम दोनों का कार्य है ।। ११३- ११४।।
तत्रास्ति मम
कृत्यं किं तद्भाषतमनिन्दितौ ।
वृषध्वजाराधनाय
युवयोस्तु प्रयोजनम्।
विद्यते तन्निमित्तं
यत् तत् सिद्धमिति चिन्त्यताम्।। ५१.११५ ।।
हे ! निन्दा न
किये जाने वाले पुरुषों ! उसमें मेरा क्या कर्तव्य है,
यह बताओ । भगवान् शिव की उपासना करना तुम दोनों का उद्देश्य
है,
उस निमित्त जो- जो उपयुक्त हो,
उस पर विचार करो ॥११५॥
।।वेतालभैरवावूचतुः।।
येन मन्त्रेण
नचिरात् सम्यगाराधितो हरः।
प्रसादमेष्यत्यवनौ
तन्नो वद महामुने।। ५१.११६ ।।
वेताल व भैरव
बोले- हे महामुनि ! जिस मन्त्र के द्वारा भली-भाँति आराधना करने पर भगवान् शंकर
शीघ्र ही प्रसन्न होकर धरती पर आ जायें, उस मंत्र को हम दोनों को बताइये ॥ ११६ ॥
यथा
चाराधयिष्यावस्तन्त्रं यद् यादृशः क्रमः।
तत्सर्वं
मुनिशार्दूल वक्तुमर्हसि चोत्तरम्।। ५१.११७ ।।
हे मुनियों
में सिंह के समान श्रेष्ठ! जिस प्रकार हम दोनों आराधना करें,
उस तन्त्र को और जो-जो क्रम होगा,
वह सब कुछ उत्तर रूप में बताइये ॥ ११७ ॥
यथा
त्वदुपदेशेन प्राप्स्यावो नचिराद् हरम्।
यथा वाचां
मुनिश्रेष्ठ ह्यनुशाधि नतौ त्वयि।। ५१.११८ ।।
हे मुनिश्रेष्ठ
! जिस प्रकार हम दोनों आपके उपदेश से शीघ्र ही भगवान् शिव को प्राप्त कर सकें वैसे
ही वाणी से आप द्वारा हम दोनों को अनुशासित किया जाना चाहिए ।। ११८ ॥
।।वसिष्ठ
उवाच।।
प्रसन्न एव
भवतोर्वृषकेतुः सहोमया।
नचिरात्
स्वयमेवात्र प्रसादं च समेष्यति।। ५१.११९ ।।
वशिष्ठ मुनि
बोले- तुम दोनों पर, पार्वती के सहित भगवान् शिव प्रसन्न ही हैं,
शीघ्र ही वे स्वयं कृपा करके यहाँ पधारेंगे ।। ११९ ।।
सर्वैर्देवगणैः
सार्धं सभार्यो वृषभध्वजः।
आकाशमार्गेणायातः
पालयन् स्वसुतौ गृहात्।। ५१.१२० ।।
किन्तु
मानुषदेहौ वामधिवास्य तपोव्रतैः।
स्वयन्नेष्यति
कैलासं गाणपत्ये नियोज्य वाम्।। ५१.१२१ ।।
भगवान् शंकर
अपनी पत्नी तथा सभी देवगणों के सहित आकाशमार्ग से घर से ही अपने पुत्रों,
किन्तु मनुष्य शरीर धारण किये हुए,
तुम दोनों का पालन करते हुए तुम,
दोनों को तपस्या में लगाकर, स्वयं कैलाश ले जायेंगे और गणों का स्वामी बनायेंगे ।।
१२०-१२१ ॥
अहं
चाप्युपदेक्ष्यामि यथा भर्गं युवां द्रुतम्।
प्राप्स्यथः
पार्वतीपुत्रवेकाग्रं शृणुतं तु तत्।। ५१.१२२ ।।
मैं भी तुम
दोनों को वह उपदेश दूंगा, जिससे भगवान् शिव तुम दोनों को शीघ्र ही प्राप्त हों। हे
पार्वती के पुत्रों ! तुम दोनों एकाग्रचित से उसे सुनो ॥ १२२ ॥
चिरात्
प्रसीदति ध्यानान्नचिराद् ध्यानपूजनात्।
तस्माद्
ध्यानं पूजनं च कथयाम्यद्य तत्त्वतः।। ५१.१२३ ।।
वे ध्यान से
देर से प्रसन्न होते हैं और ध्यान तथा पूजन दोनों से शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं ।
इसलिए तुम दोनों से भगवान् शिव के ध्यान और पूजन को आज मैं संक्षेप में कह रहा हूँ
।। १२३ ॥
तेजोमयः सदा
शुद्धो ज्ञानामृतविवर्धितः ।
जगन्मयश्चिदानन्दः
शौरिब्रह्मस्वरूपधृक्।। ५१.१२४ ।।
महादेवो महामूर्तिर्महायोगयुतः
सदा।
जगन्ति तस्य
रूपाणि तानि को गदितु क्षमः।। ५१.१२५ ।।
महादेव शिव
तेजस्वरूप हैं, वे सदैव शुद्धचित्त, ज्ञानरूपी अमृत से पोषित हैं। वे जगत्स्वरूप अभीष्ट हो
चैतन्य तथा आनन्दरूप हैं। वे ब्रह्मा, विष्णु के रूप को धारण करने वाले हैं। वे देवों में महान्
देव,
महान् स्वरूप वाले और सदैव महान् योग में लगे रहने वाले है।
संसार में उनके रूपों का वर्णन करने में कौन समर्थ है ?
अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं है ।। १२४- १२५ ।।
किन्तु यैरिह
रूपैस्तु विहरत्येष शङ्करः।
तेषां यन्मे
ज्ञानगम्यं तत्रेष्टं निगदामि वाम्।। ५१.१२६ ।।
किन्तु जिन
रूपों में वे शंकर, यहाँ घूमा करते हैं, उनमें भी जिनको मैं अपने ज्ञान द्वारा जान चुका हूँ,
उस अभीष्ट रूप के में, तुम दोनों से कह रहा हूँ ।। १२६ ॥
प्रथमं शृणुतं
मन्त्रं ततोऽनुध्यानगोचरम्।
ततः क्रमं तु
पूजायाः क्रमाद् वृत्तं नरर्षभौ।। ५१.१२७ ।।
हे नरों में
श्रेष्ठ ! पहले उनके मन्त्र को, तत्पश्चात् ध्यान को, तब उनके पूजाक्रम को और अन्त में उनके व्यवहार के विषय में
तुम दोनों सुनो ।। १२७ ।।
कालिका पुराण अध्याय ५१ शिवमन्त्र निर्देश
समस्तानां
स्वराणां तु दीर्घाः शेषाः सबिन्दुकाः।
ऋलृशून्याः
सार्धचन्द्रा उपान्तेनाभिसंहिताः।। ५१.१२८ ।।
एभिः
पञ्चाक्षरैर्मन्त्रं पञ्चवक्त्रस्य कीर्तितम्।
क्रमात्
सम्मदसन्दोह नादगौरवसंज्ञकाः।। ५१.१२९ ।।
प्रासादस्तु
भवेच्छेषः पञ्चमन्त्राः प्रकीर्तिताः।
एकैकेन
तथैकेकं वक्त्त्रं देवं प्रपूजयेत्।। ५१.१३० ।।
ॠ और ऌ को
छोड़कर,
शेष स्वरों में, किनारे के स्वरों से रहित, समस्त दीर्घस्वर, बिन्दु और अर्द्धचन्द्र से युक्त होकर आँ,
ईं, ॐ, ऐं, औं इन पाँच अक्षरों से पंचवक्त्रशिव के क्रमशः पाँच मन्त्र
कहे गये हैं, जो क्रमशः सम्मद, सन्दोह, नांद, गौरव और अंतिम प्रासाद नाम के हैं। इन एक-एक मन्त्रों से
भगवान् शिव एक-एक मुख का पूजन होता है ।। १२८-१३० ॥
एकं समुदितं
कृत्वा पञ्चभिर्वा प्रपूजयेत्।
प्रसादेनाथ वा
पञ्चवक्त्रं देवं प्रपूजयेत्।। ५१.१३१ ।।
अच्छी प्रकार
से बोले हुए एक मंत्र से या पाँचों मंत्रो से या केवल प्रासाद मंत्र से
पंचवक्त्रदेवता, शिव के पाँचों मुखों का पूजन करना चाहिए ॥ १३१ ॥
सम्मदादिषु
मन्त्रेषु प्रासादस्तु प्रशस्यते।
शम्भोः
प्रसादनेनैष यस्माद् वृत्तस्तु मन्त्रकः।। ५१.१३२ ।।
तेन
प्रासादसंज्ञोऽयं कथ्यते मुनिसत्तमैः ।
तस्मात्
सर्वेषु मन्त्रेषु प्रासादः प्रीतिदः परः।। ५१.१३३ ।।
सम्मद आदि पाँच
मंत्रों में प्रासाद को ही श्रेष्ठ कहा गया हैं। शिव को प्रसन्न करने में इस मंत्र
का विशेष व्यवहार किया जाता है। इसी कारण से श्रेष्ठ- मुनियों द्वारा इसे प्रासाद
नाम से पुकारा जाता है, इसीलिए सभी मन्त्रों में प्रासाद ही प्रसन्नता प्रदान करने
वाला सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है ।। १३२-१३३ ।।
आमोदकारकः
शम्भोर्मन्त्रः सम्मद उच्यते।
मनःप्रपूरणाच्चापि
सन्दोहः परिकीर्तितः।। ५१.१३४ ।।
शिव को आमोद
(हर्षित) करने वाला मन्त्र, सम्मद कहा जाता है तथा मन को प्रकाशित करने वाले मन्त्र को
सन्दोह कहते हैं ॥ १३४ ॥
आकर्षको
भवेन्नादो गुरुत्वाद् गौरवाह्वयः।
एतद्व्यस्तं
समस्तं च मन्त्रं शम्भोः प्रकीर्तितम्।। ५१.१३५ ।।
पञ्चाक्षरं तु
यन्मन्त्रं पञ्चवक्त्रस्य कीर्तितम्।
युवां तेनैव
मन्त्रेण आराधयतमीश्वरम्।। ५१.१३६ ।।
आकर्षण करने
वाला मन्त्र, नाद और गुरुता के कारण महत्वपूर्ण मन्त्र, गौरव कहा जाता है। ये सभी मन्त्र एक साथ हों या अलग-अलग हों,
शिव के ही मन्त्र कहे गये हैं। इस प्रकार जो शिव का
पंचाक्षरमन्त्र कहा गया है या जो शिव का पंचाक्षरमन्त्र (नमः शिवाय) है,
तुम दोनों उसी के द्वारा भगवान् शिव की आराधना करो।।
१३५-१३६ ।।
कालिका पुराण अध्याय ५१ शिव का ध्यान
ध्यानं
वक्ष्यामि शृणुतं सम्यग् वेतालभैरवौ।
पञ्चवक्त्रं
महाकायं जटाजूटविभूषितम्।। ५१.१३७ ।।
चारुचन्द्रकलायुक्तं
मूर्ध्नि बालौघभूषितम् ।
बाहुभिर्दशभिर्युक्तं
व्याघ्रचर्मामराम्बरम् ।। ५१.१३८ ।।
कालकूटधरं
कण्ठे नागहारोपशोभितम्।
किरीटबन्धनं
बाहुभूषणं च भुजङ्गमान्।। ५१.१३९ ।।
बिभ्रतं
सर्वगात्रेषु ज्योत्स्नार्पितसुरोचिषम्।
भूतिसंलिप्तसर्वाङ्गमेकैकत्र
त्रिभिस्त्रिभिः।। ५१.१४० ।।
नेत्रैस्तु
पञ्चदशभिर्ज्योर्तिष्मद्भिर्विराजितम्।
वृषभोपरि
संस्थं तु गजकृत्तिपरिच्छदम्।। ५१.१४१ ।।
हे वेताल भैरव
! मैं अब शिव का ध्यान बताता हूँ, उसे तुम दोनों से सुनो। वे पाँचमुँह वाले हैं,
उनका विशाल शरीर है तथा वे जटाजूट से सुशोभित हैं। वे मस्तक
पर सुन्दर चन्द्रमा की कला से युक्त, बालों के समूह से सुशोभित हैं,
उनकी दस भुजाएँ हैं तथा वे बाघ के चमड़े का वस्त्र धारण
किये हैं। वे अपने कंठ में कालकूट विष धारण किये हैं तथा नाग उनके हार के रूप में
सुशोभित हो रहे हैं। उन्होंने सर्पों का ही मुकुट और भुजाओं में आभूषण धारण कर रखा
है । उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीर में, सभी अंगों में एक-एक स्थान पर चन्द्रमा की चाँदनी से युक्त
सुन्दर रूप से प्रकाशित तीन-तीन विभूतियाँ लगा रखी हैं। अपने पन्द्रह नेत्रों से
अग्नि के समान प्रकाशित और विराजमान हो, हाथी की खाल से ढँके हुए, वे स्वयं बैल पर स्थित हैं ।। १३७ - १४१ ।।
सद्योजातं
वामदेवं अघोरं च ततः परम्।
तत्पुरुषं
तथेशानं पञ्चवक्त्रं प्रकीर्तितम्।। ५१.१४२ ।।
सद्योजातं
भवेच्छुक्लं शुद्धस्फटिकसंनिभम्।
पीतवर्णं तथा
सौम्यं वामदेवं मनोहरम्।। ५१.१४३ ।।
नीलवर्णमघोरं
तु दंष्ट्वा भीतिविवर्धनम्।
रक्तं
तत्पुरुषं देवं दिव्यमूर्तिं मनोहरम् ।
श्यामलं च
तथेशानं सर्वदैव शिवात्मकम्।। ५१.१४४ ।।
भगवान् शिव के
सद्योजात,
वामदेव, अघोर तत्पश्चात् तत्पुरुष और ईशान् ये पाँचमुख कहे गये हैं।
सद्योजात,
शुद्धस्फटिक के समान आभा वाला,
श्वेतवर्ण का होता है तथा वामदेव,
सुन्दर एवं सौम्य, पीतवर्ण का होता है। अघोर, नीले रंग का, बड़े दाँतो से भय बढ़ाने वाला होता है। तत्पुरुष,
दिव्यरूप, सुन्दर, रक्तवर्ण का देवरूप है और ईशान,
सदैव ही कल्याण करने वाला, श्यामलवर्ण का है ।। १४२ - १४४ ।।
चिन्तयेत्
पश्चिमे त्वाद्यं द्वितीयं तु तथोत्तरे।। ५१.१४५ ।।
अघोरं दक्षिणे
देवं पूर्वे तत्पुरुषं तथा।
ईशानं मध्यतो
ज्ञेयं चिन्तयेद् भक्तितत्परः।। ५१.१४६ ।।
पहले पश्चिम दिशा
में सद्योजात का, उत्तर दिशा में दूसरे वामदेव का,
दक्षिण दिशा में अघोर का तथा पूर्व में तत्पुरुष का एवं
मध्यभाग में ईशान का स्थान जानना चाहिए और भक्तिपूर्वक चिन्तन करना चाहिये ।।१४५ -
१४६ ॥
शक्तित्रिशूलखटवाङ्गवरदाभयदं
शिवम्।
दक्षिणेष्वथ
हस्तेषु वामेष्वपि ततः शुभम्।। ५१.१४७ ।।
अक्षसूत्रं
बीजपूरं भुजगं डमरूत्पलम्।
अष्टैश्वर्यसमायुक्तं
ध्यायेत् तु हृद्गतं शिवम् ।। ५१.१४८ ।।
वे अपने
दाहिनी ओर के हाथों में कल्याणकारी शक्ति, त्रिशूल, खट्वाङ्ग, वर और अभय मुद्राएँ तथा बायीं ओर के हाथों में शुभ करने
वाली रुद्राक्षमाला, बीजपूर, सर्प, डमरू एवं कमल धारण किये हुए हैं। इस प्रकार के वेश तथा आठ प्रकार
के ऐश्वर्यों से युक्त, भक्तों के हृदय में स्थित, भगवान् शिव का ध्यान करना चाहिए ।। १४७ - १४८ ॥
एवं
विचिन्तयेद् ध्याने महादेवं जगत्पतिम्।
चिन्तयित्वा
द्वारपालान् गणेशादीन् प्रपूजयेत्।। ५१.१४९ ।।
ध्यान करते
समय जगत के स्वामी महादेव के विषय में इस प्रकार सोचना (
चिन्तन करना) चाहिए। ऐसा चिन्तन करके द्वारपालों का तथा
गणेश आदि देवताओं का पूजन करना चाहिए ॥ १४९ ॥
विशुद्धिं
पञ्चभूतानां चिन्तयित्वा ततो मुहुः।
अष्टमूर्तीस्ततः
पश्चात् पूजयेदष्टनामभिः।। ५१.१५० ।।
तब पंचभूतों
की विशुद्धि के विषय में चिन्तन करके भगवान् शिव की अष्टमूर्तियों का उनके आठ
नामों से पूजन करना चाहिए ।। १५०।।
आसनानि च
तस्याथ पूजयेत् सकलानि तु ।
भावादीन्यष्टपुष्पाणि
हृदैव विनियोजयेत्।। ५१.१५१ ।।
आसन आदि समस्त
उपकरणों और भाव आदि आठ पुष्पों को हृदय में ही विनियोजित कर उनका पूजन करना चाहिए
।। १५१ ।।
नाराचमुद्रया
तस्य ताडनं परिकीर्तितम्।
विसर्जनं
धेनुमुद्रां दर्शयित्वा विधानतः।। ५१.१५२ ।।
नाराचमुद्रा
से उसका ताडन बताया गया है। तब धेनुमुद्रा दिखाकर उनका विधिपूर्वक विसर्जन करना
चाहिए ।। १५२ ॥
निर्माल्यधारणं
कुर्यात् सदा चण्डेश्वरं धिया।
प्रत्येकं
पञ्चभिर्मन्त्रैरङ्गादीनि प्रमार्जयेत् ।
सम्मदादिभिरेतस्य
पूर्वोक्तैर्नरसत्तमौ।। ५१.१५३ ।।
हे नरसत्तम !
विसर्जन करके सदैव चण्डेश्वर की बुद्धि से निर्माल्य को धारण करना चाहिए। सम्मदादि
पहले कहे गये प्रत्येक मन्त्रों का प्रयोग करके अपने अंगो का विशेषरूप से मार्जन
करना चाहिए ।। १५३ ।।
बालां
ज्येष्ठां तथा रौद्रीं कालीं च तदनन्तरम् ।
कलविकरिणीं
देवीं बलप्रमथिनीं तथा।। ५१.१५४ ।।
दमनीं
सर्वभूतानां मनोन्मथिनीं तथैव च ।
अष्टौ ताः
पूजयेद् देवीः क्रमाच्छम्भोश्च प्रीतये।। ५१.१५५ ।।
बाला,
ज्येष्ठा, रौद्री, काली, कलविकरिणी, बलप्रमथनी, सर्वभूतदमनी, मनोन्मथनी इन आठ देवियों का शिव की प्रसन्नता के लिए क्रमशः
पूजन करना चाहिए ।। १५४ - १५५॥
एवं शिवं
पूजयित्वा ध्यानतत्परमानसः।
जपेन्मालां समादाय
मन्त्रं ध्यात्वा तथा गुरुम्।। ५१.१५६ ।।
एकं
पञ्चाक्षरं मन्त्रमेकं प्रासादमेव वा ।
तत्सक्तमनसौ
जप्त्वा शीघ्रं सिद्धिमवाप्स्यथः ।। ५१.१५७ ।।
इस प्रकार से
ध्यानतत्पर-मन से शिव का पूजन करके, गुरु का ध्यान करते हुए माला लेकर मन्त्र का जप करे ।
मन्त्र की दृष्टि से एक मन्त्र, पंचाक्षरमंत्र या केवल एक प्रासादमन्त्र का ही,
उनमें मन लगाकर जप करने से तुम दोनों,
शीघ्र - ही सिद्धि को प्राप्त करोगे ।। १५६ - १५७॥
इति वां कथितं
मन्त्रं ध्यानपूजाक्रमं तथा।
गच्छतं नाटकं
शैलं तत्राराधयतं हरम्।। ५१.१५८ ।।
इस प्रकार मैंने
तुम दोनों से भगवान शिव का मन्त्र, ध्यान एवं पूजा का क्रम कहा है। अब तुम दोनों नाटकपर्वत पर
जाओ और वहीं जाकर भगवान् शिव की आराधना करो ।। १५८।।
।।वैतालभैरवावूचतुः।।
पञ्चाक्षरस्तु
मन्त्रोऽयं धृतस्त्वत्सम्मते मुने।
अनेनैव हरं
देवं पूजयिष्यावहे मुदा।। ५१.१५९ ।।
वेताल और भैरव
बोले- हे मुनि ! आपकी सम्मति से हम दोनों ने इस पंचाक्षरमन्त्र को धारण कर लिया
है। इसी के द्वारा हम दोनों प्रसन्नतापूर्वक भगवान् शंकर की पूजा करेंगे ।। १५९ ।।
।। और्व उवाच
।
इत्युक्त्वा
तन्नमस्कृत्य तदा वेतालभैरवौ।
जग्मुतुर्नाटकं
शैलं वशिष्ठानुमते नृप।। ५१.१६० ।।
और्व बोले- हे
राजा ! ऐसा कहकर, उन वशिष्ठ मुनि को नमस्कार कर,
उन्हीं की अनुमति से वे दोनों वेताल और भैरव,
नाटकपर्वत पर चले गये ।। १६० ।।
तत्रास्ति
सरसी रम्या सुसम्पूर्णमनीहरा ।
सर्वदा
स्वच्छसलिला प्रफुल्लकमलोत्पला।। ५१.१६१ ।।
वहाँ सुन्दर,
रमणीक, भली-भाँति भरा हुआ, सदा स्वच्छजल तथा खिले हुए लाल एवं नीले कमलों से युक्त एक
सरोवर था । । १६१ ।।
तस्यास्तीरे
तु विपुलः सुमनोज्ञो हराश्रमः।
सर्वदा
दानवैर्देवैः किन्नरैः प्रमथैस्तथा।। ५१.१६२ ।।
रक्ष्यते
नृपशार्दूल नृत्यवादनतत्परैः।
यस्मान्नटनि
तत्रेशो नित्यं कौतुकतत्परः।। ५१.१६३ ।।
उसके तट पर एक
विशाल,
मन को अच्छा लगने वाला, भगवान् शंकर का सुन्दर स्थान है। जहाँ सदैव देवता-दानव,
किन्नर, प्रमथ आदि जो नाचने-बजाने में लगे रहते हैं,
ऐसे गणों से रक्षित हो, भगवान् शिव, कौतुकपूर्वक नित्य नृत्य किया करते हैं ।। १६२-१६३॥
तस्मान्नाटकनान्नासौ
शैलराजः प्रगीयते।
छत्राकारं तु
तं शैलं मनोज्ञं शङ्करप्रियम्।। ५१.१६४ ।।
इसीलिए इस
श्रेष्ठ पर्वत को नाटक नाम से पुकारा जाता है । यह सुन्दर पर्वत,
छाते के आकार का बना हुआ है जो भगवान् शिव को बहुत प्रिय है
।। १६४ ।।
आसाद्य यत्र
सरसी तत्र गत्वा तु तौ तदा।
न चैवापश्यतां
तत्र हराश्रममनुत्तमम्।। ५१.१६५ ।।
गन्तुं
चैवाश्रमस्थानं तौ नैवाशकतां नृप।
ततो हरं
प्रणम्याशु स्यैव सरसस्तटे।। ५१.१६६ ।।
निर्माय
स्थण्डिलं चारु वशिष्ठोक्तक्रमेण तु।
हरमाराद्धुमारेभे
वेतालो भैरवोऽपि च।। ५१.१६७ ।।
जब उस सरोवर
के तट पर पहुंच कर उन दोनों ने भगवान् शंकर के उस श्रेष्ठ स्थान को नहीं देखा तो
उस निवास स्थान पर जाने में असमर्थ हो, उस सरोवर के तट पर ही भगवान शिव को प्रणाम कर,
शीघ्रतापूर्वक एक सुन्दर वेदी बनाकर वेताल और भैरव ने
वशिष्ठ मुनि द्वारा बताये हुए क्रम से भगवान् शिव की आराधना आरम्भ की ।। १६५-१६७॥
आराधयन्तौ भूतेशं
तौ तदा शङ्करात्मजौ।
दृष्ट्वा हरो
देवगणैः सार्धं तस्मिंस्तु पर्वते।
अधित्यकायां
न्यवसत् स्वाश्रमेऽपर्णया सह।। ५१.१६८ ।।
उस समय वेताल
और भैरव नामक उन दोनों शिवपुत्रों को अपनी (भूतनाथ शिव की) आराधना करते हुए देखकर,
भगवान् शिव, पार्वती तथा देवगणों के सहित, उस पर्वत की घाटी में स्थित, अपने आश्रम में रहने लगे । । १६८ ।।
अधोभागे
सरस्तीरे तपस्यन्तौ हरात्मजौ।
स्थितौ
दृष्ट्वा देवगणैः सहितः शङ्करः स्थितः।। ५१.१६९ ।।
नृत्यमर्दलशब्दो
यो हरस्य सततं भवेत्।
शृणुतस्तौ तदा
शब्दं गन्तुं द्रष्टुं न लभ्यते।। ५१.१७० ।।
उस आश्रम के
निचले भाग में सरोवर के किनारे स्थित हो, तपस्या करते हुए, देवगणों के सहित शंकर को स्थित जानकर और उनके नृत्य से
निरंतर उत्पन्न मृदुल शब्दों को सुनते हुए, शिव के वे दोनों पुत्र, शब्द का अनुगमन करते हुए भी वहाँ जाकर उन्हें देख नहीं सकते
थे ।। १६९-१७० ॥
हरेणाधिष्ठितः
शैलः सर्वदेवगणैः सह।
राजते स्म तदा
भूप सुधर्मा वासवी यथा ।। ५१.१७१ ।।
हे राजन् !
सभी देवताओं के समूह के सहित भगवान् शिव द्वारा निवास किया जाता,
वह पर्वत, उस समय इन्द्र की सुधर्मासभा के समान सुशोभित हो रहा था ।।
१७१ ॥
ध्यायतोस्तु
तदा तत्र भगवान् वृषभध्वजः।
नचिरादेव
तस्याभूद् ध्यानमार्गेषु निश्चलः।। ५१.१७२ ।।
तब शीघ्र ही
भगवान् शिव के ध्यान में रत, वे दोनों ध्यानमार्ग में, निश्चल रूप (भाव) से स्थित हो गये ॥१७२॥
तौ पूजयन्तौ
गच्छन्तौ स्थितौ वा चन्द्रशेखरम्।
नैव
तत्यजतुश्चित्तैः कदाचिदपि भूमिप।। ५१.१७३ ।।
हे राजन् ! वे
दोनों पूजा करते हुए, चलते हुए या खड़े रहते हुए, कभी भी अपने चित्त से भगवान् शंकर को नहीं हटाते थे ।। १७३
॥
पञ्चाक्षरेण
मन्त्रेण पूजयन्तौ वृषध्वजम्।
व्यतिचक्रमतुस्तौ
तु सहस्रं परिवत्सरान्।। ५१.१७४ ।।
इस प्रकार
पंचाक्षरमंत्र से भगवान् शिव की पूजा करते हुए उन दोनों के एक हजार वर्ष बीत गये
।। १७४ ॥
निराहारौ
यताहारौ हरसंसक्तमानसौ।
तपसा
निन्यतुर्वर्षान् सहस्रं चैकवर्षवत्।। ५१.१७५ ।।
बिना आहार लिए
या संयमित भोजन लेकर भगवान् शिव में अपना मन लगाये हुए,
तपस्या करते हुए उन दोनों ने एक हजार वर्ष,
एक वर्ष की भाँति व्यतीत कर दिया ।। १७५ ॥
गते
वर्षसहस्रे तु स्वयमेव वृषध्वजः।
प्रसङ्गस्तु
तयोर्भूत्वा प्रत्यक्षत्वमुपागतः।। ५१.१७६ ।।
इस प्रकार एक
हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर, भगवान् शंकर प्रसंग- वश, उन दोनों के सम्मुख स्वयं प्रत्यक्ष हो,
उपस्थित हुए ।। १७६ ॥
तं तु
प्रत्यक्षतो दृष्टवा तदा वेतालभैरवौ।
वृषध्वजं
तुष्टुवतुर्ध्यानगम्यं पुरःस्थितम्।। ५१.१७७ ।।
हररूपं
यथाध्यातं हृद्गतं तेजसोज्ज्वलम्।
तथा दृष्ट्वा
ततस्ताभ्यां वशिष्ठस्यानुमानतः।। ५१.१७८ ।।
उन भगवान् शिव
को उस समय प्रत्यक्ष उपस्थित देखकर, वशिष्ठ जी के द्वारा बताये हुए,
अपने हृदय में स्थित तेज से पूर्ण,
ध्यान किये जाते हुए, शिव के स्वरूप के अनुसार अनुमान करके,
अपने सामने उपस्थित शिव की, उन वेताल और भैरव ने स्तुति करना प्रारम्भ किया ।। १७७-१७८
।।
कालिका पुराण अध्याय ५१ शिव स्तुति
अब इससे आगे
श्लोक १७९ से १९८ में शिव स्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-
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कालिका पुराण
अध्याय ५१
।। और्व उवाच
।
इति स्तुतो
महादेवो वेतालेन महात्मना।
भैरवेणापि
राजेन्द्र प्रसन्नः प्राह तौ तदा।। ५१.१९९ ।।
और्व बोले- हे
राजेन्द्र ! इस प्रकार से महात्मा वेताल और भैरव द्वारा स्तुति किये जाने पर,
प्रसन्न होकर महादेव ने उन दोनों से उस समय कहा- ॥ १९९॥
।।
भगवानुवाच।।
तुष्टोऽस्मि
युवयोः पुत्रौ वृणुतं वाञ्छितं वरम्।
दास्यामि
युवयोरिष्टं प्रसन्नोऽहं तपोव्रतैः।। ५१.२०० ।।
भगवान शिव
बोले- हे पुत्रों ! मैं तुम दोनों से संतुष्ट हूँ। तुम दोनों अपना इच्छित वरदान
मांग लो । मैं तुम्हारी तपस्या और व्रत से प्रसन्न होकर तुम दोनों को अभीष्ट वरदान
दूंगा ॥ २०० ॥
स्तुतिभिस्तु
दमैश्चापि तथैकान्तानुचिन्तनैः।
मुहुर्मुहुः
सुप्रसन्न इष्टं दास्यामि वां सुतौ।। ५१.२०१ ।।
हे पुत्रों !
मैं तुम दोनों के इन्द्रियदमन तथा एकान्त में बारम्बार चिन्तन किये जाने एवं
स्तुतियों से प्रसन्न होकर तुम दोनों को इच्छित वर दूंगा ॥२०१॥
।।वेतालभैरवावूचतुः।।
तुष्टोऽसि यदि
सत्यं नौ सत्यमावां सुतौ यदि।
वृषध्वज
तवैवेह तदेष्टं देहि नौ वरम्।। ५१.२०२ ।।
वेताल और भैरव
बोले- हे वृषध्वज ! यदि आप सचमुच में हमसे संतुष्ट हैं और हम दोनों यदि वास्तव मे
आपके पुत्र हैं तो इसे जानकर आप हमें इच्छित वरदान दीजिए ॥ २०२ ॥
सुतभावेन
पितरं भवन्तं जगतां पतिम्।
नित्यं
यथावगच्छावस्तथा देहि वरं तु नौ।। ५१.२०३ ।।
संसार के
स्वामी,
आपकी, पिता के रूप में, पुत्र की भावना से जिस प्रकार से हम दोनों नित्य अनुभव करें,
ऐसा आप हमें वरदान देंवे ॥ २०३ ॥
न राज्यमभिकांक्षावो
न धनं नान्यदेव वा।
त्वद्भक्त्या
सेवनं कर्तुं तवेच्छावो वृषध्वज।। ५१.२०४ ।।
हे वृषध्वज !
हम न तो राज्य चाहते हैं न धन चाहते हैं, न किसी अन्य देवता की उपासना ही करना चाहते हैं ॥
२०४ ॥
त्वत्पादपङ्कजद्वन्द्वे
नित्यं मधुकरात्मताम्।
त्वयि
प्रसन्ने नेत्राणां युगले प्राप्नुतां सदा।। ५१.२०५ ।।
हम दोनों तो
आपकी भक्ति करते हुए केवल आपको ही पाना चाहते हैं। हम दोनों तो आपके दोनों
चरणकमलों में नित्य अपने को भँवरे की तरह लगाये रखना चाहते हैं तथा सदैव आपके
प्रसन्न मुख में अपने दोनों नेत्रों की प्रसन्नता प्राप्त करना चाहते हैं ॥२०५ ॥
इतोऽन्यथा
त्वच्चिन्ताभिस्त्वद्ध्यानैस्त्वत्प्रपूजनैः।
कल्पकोटिसहस्राणि
यान्तु सम्यक्तथावयोः।। ५१.२०६ ।।
अन्यथा हम
दोनों के आपके चिन्तन, ध्यान और पूजन में, एक हजार वर्ष कौन कहे, हजार करोड़ कल्प भी बीत जाये तो वह उचित ही होगा ॥ २०६ ॥
।। और्व उवाच
॥
ततस्तद् वचनं
श्रुत्वा महादेवो हसन्निव।
सर्वैर्देवगणैः
सार्धं देवत्वमकरोत्तयोः।। ५१.२०७ ।।
और्व बोले- तब
उन दोनों के वचनों को सुनकर हँसते हुए भगवान् शंकर ने सभी देवताओं के साथ उन्हें
देवत्व प्रदान किया ॥२०७॥
देवेन्द्रसम्मतेनैव
सुधामानीय नाकतः।
वेतालभैरवौ
तान्तु पाययामास शङ्करः।। ५१.२०८ ।।
देवराज इन्द्र
की सम्मति से, स्वर्ग से अमृत लाकर भगवान् शंकर ने उसे उन दोनों वेताल और भैरव को पिलाया ।।
२०८॥
पीतेऽमृते
ततस्तौ तु मर्त्यतां नरसत्तमौ।
अमर्त्यतां
परित्यज्य प्रापतुः शिवशक्तितः।। ५१.२०९ ।।
वो दोनों
श्रेष्ठपुरुष, अमृत पीने के बाद, शिव की शक्ति से मर्त्यता (मरणधर्मिता) को छोड़कर अमरता को
प्राप्त कर लिये ॥ २०९ ॥
तस्मिन्काले
स्वपन्तौ तु दिव्यज्ञानबलान्वितौ।
दिव्यरूपोपसम्पन्नौ
बभूवतुररिन्दमौ।। ५१.२१० ।।
अभिन्नेनैव
देहेन देवत्वं गतयोस्तयोः।
प्राह शम्भुस्तदा
तौ तु सुतौ परमहर्षितौ।। ५१.२११ ।।
उस समय वे
दोनों शत्रुओं का दमन करने वाले, सोते ही सोते, दिव्य ज्ञान एवं बल से युक्त हो गये । उन्होंने दिव्यरूप
प्राप्त कर लिया। वे अपने शरीर के अभिन्न रहते हुए देवत्व को प्राप्त हो गये तब
भगवान् शंकर ने अपने परम प्रसन्न हुए, उन दोनों पुत्रों से यह कहा - ॥२१०-२११॥
।।भगवानुवाच।।
अहं तृष्टस्तु
युवयोः पार्वतीं दयितां मम।
मद्दत्तं
काममिच्छन्तावाराधयतमीश्वरीम् ।। ५१.२१२ ।।
भगवान् बोले-
मैं तुम दोनों से प्रसन्न हूँ। ये पार्वती मेरी पत्नी हैं। मेरे द्वारा दिये हुए
कामना से भगवती की आराधना करो ।। २१२ ॥
तामृते तु न
शक्नोमि दातुमिष्टं सनातनम्।
सेवितिं च
सुतौ नित्यं शरणं व्रजतं शिवाम्।। ५१.२१३ ।।
अचिराद् येन
भावेन प्रीतिं देवी गमिष्यति।
अत्र वा तत्र
वा गत्वा भावेन चार्य्यताम्।। ५१.२१४ ।।
मैं उसके बिना
कभी कुछ करने या देने में समर्थ नहीं हूँ, हे पुत्रों ! तुम दोनों को उसी शिवा की शरण में जाकर नित्य
सेवा करनी चाहिये। जिस भाव से देवी प्रसन्न हों, उसी भाव से तुम दोनों यहाँ या वहाँ,
कहीं भी जाकर उनकी पूजा करो।।२१३-२१४।।
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे वेताल भैरवचरितकथननाम. एकपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५१ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में वेताल भैरवचरितकथननामक एकावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥
५१ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 52
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