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कालिका पुराण अध्याय ५०
कालिका पुराण
अध्याय ५० में तारावती रूपी काली और कपालीरूपमय शिव के संयोग से वेताल और भैरव की
उत्पत्ति का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ५०
Kalika puran chapter 50
कालिकापुराणम् पञ्चाशोऽध्यायः वेताल-भैरवजन्मवृत्तान्तम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५०
।। और्व उवाच
।
अथ काले
व्यतीते तु पुनस्तारावती शुभा ।
आर्तवं विहितं
स्नानं नदीं प्राप्ता दृषद्वतीम् ।। १ ।।
और्व बोले-
बहुत समय बाद सुन्दरी रानी तारावती एक बार आर्तवस्नान (ऋतुस्नान) करने के लिए पुनः
दृषद्वती नदी के तट पर आई ॥१॥
दासीसहस्रैः
संयुक्ता नानालङ्कारमण्डिता ।
रम्भादिभिर्यथेन्द्राणी
तथा सा प्रत्यदृश्यत ।। २ ।।
उस समय हजारों
दासियों से घिरी, अनेक प्रकार के अलङ्कारों से सुसज्जित,
वे, रम्भा आदि अप्सराओं से घिरी हुई इन्द्राणी के समान दिखाई दे
रही थीं ॥२॥
सावतीर्णा जले
देवी गौराङ्गी तडिदुज्ज्वला ।
नदीमुज्ज्वलयामास
भिन्नाञ्जनसमाम्भसम् ।।३।।
उस बिजली के
समान उज्ज्वल, गोरे अंगों वाली देवी ने अन्जन के समान काले रंग के जल वाली नदी में उतर कर उस
नदी को ही उज्ज्वल बना दिया ॥३॥
स्थलीं
काचमयीं स्वच्छां काञ्चनीप्रतिमा यथा ।
स्वभासाज्वलयामास
प्रतिबिम्बेन सा तथा ।। ४ ।।
जिस प्रकार
सोने से बनी प्रतिमा, दर्पण (काँच) से बनी स्वच्छस्थली को अपने प्रतिबिम्ब से
प्रकाशित करती है, उसी प्रकार उस रानी ने अपनी आभा से उस जलराशि को प्रकाशित
किया ॥४॥
अथ तां
पुनरेवाथ कपोतो मुनिसत्तमः ।
आनाभिमनां
तोयौघैर्ददर्श सुमनोहरम् ।।५।।
तब जलराशि में,
नाभिपर्यन्त जल में डूबी हुई उन सुन्दरीं को,
कपोत नामक श्रेष्ठमुनि ने पुनः देखा ॥५॥
दृष्ट्वा तामथ
पप्रच्छ तदा चित्राङ्गदां मुनिः ।
केयं जले
दृषद्वत्यामवतीर्णा सखीशतैः ॥६॥
श्रिया
ज्वलन्ती श्रीतुल्या किमपर्णा गिरेः सुता ।
अतीव भ्राजते
रूपैर्न संस्तौषि च तां किमु ॥७॥
तब उनको उस
अवस्था में देखकर उस मुनि ने चित्राङ्गदा से पूछा- अपनी सैकड़ों सखियों के साथ
दृषद्वती के जल में उतरी हुई यह सुन्दरी कौन है ? जो अपनी शोभा से लक्ष्मी के समान अथवा रूप के कारण
पर्वतपुत्री, पार्वती के समान प्रकाशित होती हुई, अत्यधिक शोभायमान हो रही है? क्या तुम उसे नहीं जानती हो ? ।। ६-७ ॥
अथ तस्य वचः
श्रुत्वा मुनेश्चित्राङ्गदा तदा ।
ऋषिशापभयात्
साध्वी संस्तौमीति तदाऽब्रवीत् ॥८॥
तब उन मुनि के
वचनों को सुनकर साध्वी चित्राङ्गदा ने ऋषि के शाप के भय से कहा,
जानती हूँ ॥ ८ ॥
इयं तारावती
नाम ककुत्स्थस्य सुता सती ।
चन्द्रशेखर
भूपाल भार्याऽतिदयिता शुभा ।।९।।
ये तारावती
नाम की सती हैं जो राजा ककुत्स्थ की पुत्री तथा राजा चन्द्रशेखर की अत्यन्त
शुभदायिनी पत्नी हैं॥ ९ ॥
एषा त्वया
कामिता तु कामार्थं पूर्वतो मुने ।
स्वालङ्कारैरलङ्कृत्य
मां दत्त्वा ते गृहं गता ।। १० ।।
मुनि ! आपके
द्वारा पहले यही कामसिद्धि के लिए चाही गई थीं। उस समय अपने अलङ्कारों से अलंकृत
कर,
ये मुझे आपकी सेवा में देकर, स्वयं घर चली गई थीं ॥ १० ॥
सेयं
पुनर्नदीं त्रातुं भगिनी मे समागता ।
ज्येष्ठां तां
तुमुने वक्तुं न ते किञ्चिच्च युज्यते ।। ११ ।।
वही ये मेरी
बड़ी बहिन, पुनः स्नान करने के लिए पधारी हैं। हे मुनि ! अब उससे आपका कुछ बोलना उचित
नहीं है ॥ ११ ॥
त्वमत्र तिष्ठ
विप्रेन्द्र ज्येष्ठां तां भगिनीं प्रियाम् ।
समाभाष्य
समेष्ये त्वामनुजानासि चेद् गतौ ।।१२।।
विप्रेन्द्र !
आप यहीं रुकें मैं अपनी प्रिय बड़ी बहिन से बात करके आऊँगी यदि आप चलना चाहते हैं
तो हम दोनों चलें ॥ १२ ॥
इति श्रुत्वा
वचस्तस्या मुनिः स्नेहेन वञ्चनाम् ।
तारावत्या
कृतां पूर्वं मुनिस्तस्मै चुकोप ह ।। १३ ।।
उसके वचनों से,
तारावती द्वारा प्रेम में, पहले की गई इस प्रकार की वंचना को सुनकर, कपोत मुनि,
उस तारावती पर अत्यन्त क्रोधित हो गये ॥१३॥
इयं पापीयसी
रामा वञ्चनामकरोन्मयि ।
तस्याः
संकालनञ्चाहं करिष्याम्यद्य निश्चितम् ।।१४।।
इस पापिनी
स्त्री ने मेरे प्रति वंचना की है अतः आज मैं निश्चितरूप से इसका संकालन (दाह)
करूँगा ॥१४॥
इत्युक्त्वा स
तया सार्धं मुनिश्चित्राङ्गदाख्यया ।
ज़गाम यत्र सा
देवी स्थिता तारावती शुभा ।। १५ ।।
ऐसा कहकर वे
कपोतमुनि,
उस चित्राङ्गदा के साथ वहाँ गए जहाँ सुन्दरी तारावती देवी
उपस्थित थीं ॥ १५ ॥
गत्वा तां तु
समासाद्य कपोतो मुनिसत्तमः ।
इदं तारावतीं
प्राह कुपितः प्रहसन्निव ।। १६ ।।
वहाँ उनके
समीप जाकर मुनिवर कपोत ने क्रोधित हो किन्तु हँसते हुए तारावती से यह वचन कहा ॥ १६
॥
।। कपोतोवाच
।।
कामार्थं
प्रार्थिता पूर्वं त्वं मया च्छद्मना त्वया ।
वञ्चितोऽस्मि
दुराधर्षे फलं तस्य समाप्नुहि ।।१७।।
कपोत बोले-
मैंने पूर्वकाल में तुमसे जब कामवश होकर प्रार्थना किया था। हे कठोरहृदयवाली ! उस
समय तुमने मुझे छलपूर्वक वंचित किया था। अब उसका फल भोगो ॥ १७ ॥
ममापि पुरतः
पापे त्वं सतीति विकत्थसे ।
सतीत्वभ्रंशकं
मां त्वं नैव कामितवत्यसि ।। १८ ।।
हे पापिनी
मेरे ही सामने तुम अपने को सती हो, ऐसा दिखा रही हो और मुझे अपना सतीत्व नाश करने वाला मान कर,
तुम मेरी कामना नहीं कर रही हो ।। १८ ।।
तस्माद् बीभत्सवेषस्त्वां
कपाली पलितो रहः ।
विरूपो
धनहीनश्च कामयिष्यति वै हठात् ।। १९ ।।
इसलिए कोई
घृणित वेशवाला, कपालपात्र (खोपड़ी) धारण करने वाला, पके हुए बालों वाला, बुरे वेशवाला, धनहीन, तुम्हारे साथ एकांत में बलपूर्वक कामोपभोग करेगा।। १९ ।।
सद्योजातं
पुत्रयुगं सश्रीकं वानराननम् ।
भविष्यति च ते
पापे त्वेकाब्दाभ्यन्तरेऽधुना ।। २० ।।
हे पापिनी !
आज से एक वर्ष के अन्तर्गत ही तुम्हें शीघ्र उत्पन्न हुए दो पुत्र होंगे जो शोभा
से युक्त होंगे तथा जिनका मुख बन्दर के समान होगा । ॥ २० ॥
।। और्व उवाच
।।
एतच्छ्रुत्वा मुनेर्वाक्यं
प्राह तारावती मुनिम् ।
कोपाद् भयाच्च
सा देवी स्फुरदोष्ठपुटा तदा ।। २१ ।।
और्व बोले-
मुनि के इस वाक्य को सुनकर, उन रानी तारावती ने भय और क्रोधवश फड़कते हुए ओठों से उन
मुनि से,
उस समय कहा – ॥२१॥
।।
तारावत्युवाच ।।
यदि सा
पूजयित्वा तु चण्डिका प्राप मा प्रसूः ।
यद्यहं
व्रतिनी नित्यं भूपतौ चन्द्रशेखरे ।। २२ ।।
ककुत्स्थस्य
सुता सत्यं यद्यहं द्विजसत्तम ।
तेन सत्येन मे
देवान्नान्यो मां कामयिष्यति ।। २३ ।।
यदि सत्यं
महादेवो नित्यमाराध्यते मया ।
तेन सत्येन मे
देवादाराध्याच्चन्द्रशेखरात् ।
स्वप्नेऽपि
मुनिशार्दूल नान्यो मां कामयिष्यति ।। २४ ।।
तारावती
बोलीं- हे द्विज श्रेष्ठ, हे मुनि श्रेष्ठ! यदि मैं माता द्वारा चण्डिका की पूजा करके
प्राप्त हुई हूँ । यदि मैं नित्य राजा चन्द्रशेखर में ही निष्ठा रखती हूँ । यदि
मैं सचमुच ककुत्स्थ की पुत्री हूँ तो मेरी सत्यता के कारण आराध्यदेव चन्द्रशेखर के
अतिरिक्त कोई भी दूसरा, स्वप्न में भी मेरा उपभोग नहीं करेगा ।। २२-२४ ।।
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्त्वा
सा मुनिं नत्वा स्वामिविन्यस्तमानसा ।
ययौ तारावती
देवी स्वस्थानमिति भामिनी ।। २५ ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर मुनि को नमस्कार कर, अपने पति में अपना मन लगाए हुए,
वह रानी तारावती अपने स्थान को चली गई ।। २५ ।।
तस्यां गतायां
देव्यां तु चिन्तयामास तां मुनिः ।। २६ ।।
ममैव
पुरतश्चैषा निर्भीताति प्रवल्गते ।
अत्रान्तर्विनिगूढं
तु बीजं शुद्धं भविष्यति ।। २७।।
उनके जाने के
बाद कपोतमुनि उन्हीं के विषय में सोचने लगे। मेरे सामने ही इसने इतनी निर्भीकता से
कहा है,
इसके अन्दर धारण कराया हुआ बीज (संतान) अत्यन्त शुभ होगा ।।
२६-२७।।
एवं विचिन्त्य
स मुनिर्ध्यानसंयुक्तमानसः ।
दिव्यज्ञानपरो
भूत्वा सर्ववृत्तान्तमाददे ।। २८ ।।
यथा
भृङ्गिमहाकाली देव्या शप्तौ सुतावुभौ ।
प्रतिशापं यथा
तौ तु ददतुः पार्वतीं हरम् ।। २९ ।।
यथावतीर्णौ
मानुष्ययोनौ तौ तु यदर्थतः ।
चित्राङ्गदा
यथा जाता यदर्थं देवकन्यका ।। ३० ।।
इस प्रकार
सोचते हुए वे मुनि ध्यानस्थ हो गए, तब उन्होंने दिव्यज्ञान का आश्रय ले,
उस समस्त पूर्ववर्ती वृत्तान्त को जान लिया - जिस प्रकार
देवी द्वारा अपने भृङ्गी और महाकाल नाम के दोनों पुत्रों को शाप दिया गया था तथा
जिस प्रकार से उन दोनों ने शिव- पार्वती को बदले में शाप दिया था। उन्होंने वह भी
जान लिया जिस प्रकार, जिस उद्देश्य के लिए देवकन्या चित्राङ्गदा,
मनुष्ययोनि में उत्पन्न हुई थी ।। २८-३० ॥
दिव्यज्ञानेन
तज्ज्ञात्वा मुनिः किञ्चन नाकरोत् ।
चित्राङ्गदामादरेण
समादाय मुनिस्ततः ।
स्वस्थानं
गतवान् विप्रः पूजयामास तां मुनिः ।। ३१ ।।
तब दिव्यज्ञान
से उपर्युक्त बातों को जानकर उन्होंने तारावती के प्रति कुछ नहीं किया और
चित्राङ्गदा को आदर के साथ लेकर अपने स्थान को चले गए,
वहाँ जाकर उन ब्राह्मण देवता ने चित्राङ्गदा का पूजन किया ॥
३१ ॥
तारावती च तत्सर्वं
चन्द्रशेखर भूपतेः ।
वृत्तान्तं
मुनिशापस्य कथयामास भामिनी ।। ३२ । ।
और रानी
तारावती ने भी मुनि के शाप का वह समस्त वृत्तांत, राजा चन्द्रशेखर से कह दिया ।। ३२ ।।
तत्सर्वं
पौष्यजो राजा स्वगतं चिन्तया युतः ।
आश्वास्य
दयितां भार्यां माभैर्देवीति सोऽचिरात् ।। ३३ ।।
सम्पूर्ण
वृत्तांत को जानकर पौष्य के पुत्र, राजा चन्द्रशेखर, मन में तो बहुत चिन्तित हुए किन्तु प्रत्यक्षरूप में अपनी
प्रियपत्नी से शीघ्र बोले- हे देवी! तुम मत डरो ॥ ३३ ॥
सततं सेवया
पत्युर्धर्मार्थपरिसेवनैः ।
वर्जनादप्रशस्तानां
मुनिशापोऽपनीयते ।। ३४।।
धर्म और अर्थ
के भलीभाँति सेवनपूर्वक निरन्तर पति की सेवा तथा अप्रशस्त (अनुचित) लोगों के संग को रोकने से मुनि का शाप दूर हो जाएगा
।। ३४ ।।
तस्मात् त्वं
देवि सुभगे चारित्रव्रतधारिणी ।
कल्याणभागिनी
नित्यं नापदं समवाप्स्यसि ।। ३५ ।।
हे सुन्दर
रानी,
चरित्रव्रत को धारण करने वाली,
हे कल्याण की अधिकारिणी ! ऐसा नित्य करने से तुम आपत्ति को
भी नहीं प्राप्त होगी । । ३५ ॥
कालिका पुराण अध्याय ५०- तारावती महलवर्णन
एवमुक्त्वा स
राजा तु करवीरपुराधिपः ।। ३६ ।।
प्रासादं
कारयामास उच्चैरभ्रंकषं बहु ।
उच्चैश्चतुःशतं
व्यामं त्रिंशद्योजनविस्तृतम् ।। ३७।।
ऐसा कहकर
करवीरपुर के स्वामी, राजा चन्द्रशेखर ने बादलों के समान बहुत ऊँचा एक महल बनवाया
जो चार सौ व्याम (पुरसा) ऊँचा और तीन सौ योजन चौड़ा था ।। ३६-३७।।
रत्नस्फटिकभूम्यन्तःखचितं
रत्नकुर्बुरैः ।
वैदूर्यपटलैः
शुभ्रैश्छादितं सुमनोहरम् ।। ३८।।
उसकी अन्दर की
भूमि स्फटिक और रत्नों से जड़ी थी। वह रत्नों के बने कुर्बुर (परकोटे) और
वैदूर्यमणि के बने श्वेतछत से ढका हुआ, सुन्दर दिखाई दे रहा था ॥३८ ॥
स्वर्णं
रत्नतुलास्तम्भं विश्वकर्मविनिर्मितम् ।
रक्षार्थं
कारयामास तारावत्याः प्रियङ्करम् ।। ३९ ।।
रत्नसोपानसंयुक्तं
वैदूर्यवलभीयुतम् ।
सौवर्णनीपसम्बुद्धसुधर्मा
सदृशं गुणैः ॥४०॥
वह स्वर्ण और
रत्न से बने हुए स्तम्भों से युक्त और विश्वकर्मा द्वारा बनवाया हुआ था । रत्न की
सीढ़ियों से युक्त, वैदूर्यमणियुक्त छत तथा सोने के बने हुए पहाड़ की तलहटी में
स्थित,
गुणों में सुधर्मासभा के समान प्रिय था। राजा ने रानी
तारावती की रक्षा के लिए ऐसा श्रेष्ठ भवन बनवाया ।। ३९-४० ।।
तस्यां समस्त
भोग्यानि स्वादूनि च मृदूनि च ।
आप्तैरासादयामास
पुरुषैश्चन्द्रशेखरः । । ४१ ।।
राजा
चन्द्रशेखर ने उसमें सभी प्रकार के स्वादिष्ट और कोमल भोग्यपदार्थ तथा विश्वसनीय
पुरुषों को स्थापित किया ॥ ४१ ॥
ततस्तारावतीं
देवीमादाय चन्द्रशेखरः।
नित्यं
प्रासादपृष्ठं तमारुह्य रमते नृपः ।। ४२ ।।
उस समय राजा
चन्द्रशेखर, तारावती देवी को लेकर, महल की छत पर उनके साथ नित्य विहार करते थे॥४२॥
एवं संवत्सरं
यावदन्यैरप्राप्यवेश्मनि ।
आप्तैरधिष्ठितद्वारि
तां देवीं समरक्षत ।।४३।।
इस प्रकार से
बिना अन्य के प्रवेश किये तथा द्वार पर विश्वसनीय पुरुषों के द्वारा उनकी रक्षा
करते,
एक वर्ष बीत गए ॥ ४३ ॥
एकदा तु विना
तेन करवीराधिपेन तु ।
उच्चैः
प्रासादमारुह्य स्थिता तारावती सदा ।। ४४ ।।
चिन्तयन्ती
नृपं तं तु दयितं चन्द्रशेखरम् ।
तत्पदे
न्यस्तमनसा सावित्रीव पतिव्रता ।। ४५ ।।
एक बार जब
करवीरपुर के राजा, प्रिय, चन्द्रशेखर के अभाव में सदैव उनके ही विषय में सोचती हुई,
उन्हीं के चरणों में मन को लगाई हुई,
सावित्री की भाँति पतिव्रता तारावती,
उच्च महल पर चढ़कर स्थित हुईं थीं ।। ४४-४५ ।।
आराध्य च
महादेवं पार्वत्या सहितं तदा ।
इष्टां देवीं
च सा देवी चिन्तयन्ती स्म च स्थिता ॥४६ ।।
उस समय वह,
पार्वती के सहित महादेव की पूजा कर,
अपनी इष्टदेवी का चिन्तन कर रही थीं ॥ ४६ ॥
तत्र सा
चिन्तयन्ती तु त्र्यम्बकं चन्द्रशेखरम् ।
विवेद भेदं न
तयोश्चन्द्रशेखरयोर्द्वयोः।। ४७ ।।
उस समय
त्र्यम्बक चन्द्रशेखर शिव का चिन्तन करते हुए उन्होंने भगवान् शिव और राजा
चन्द्रशेखर, दोनों में कोई भेद नहीं माना ॥ ४७ ॥
एवं
प्रासादपृष्ठे तु स्थिता तारावती सती ।
सुधर्मामध्यगा
देवी शक्रश्रीरिव भूषिता ।। ४८ ।।
अथोमया समं
देवो वियता चन्द्रशेखरः ।
आजगाम तदा
गच्छन् प्रासादं प्रति तं नृप ।। ४९ ।।
इस प्रकार वह
सती तारावती जब महल की छत पर स्थित हो सुधर्मा के बीच इन्द्र की पत्नी की तरह खड़ी
हुई,
सुशोभित हो रही थी । उसी समय पार्वती के सहित आकाशमार्ग से
जाते हुए,
भगवान् चन्द्रशेखर शिव, राजा चन्द्रशेखर के महल पर आ पहुँचे।। ४८-४९ ।।
ददृशे
सूत्तरन्ती सा उमाया सदृशी गुणैः ।
सर्वलक्षण-
सम्पूर्णा माधवस्येव माधवी ।। ५० ।।
तां दृष्ट्वा
न्यगदद् देवीं गौरीं वृषभकेतनः ।
स्मितप्रसन्नवदनः
प्रहसन्निव भामिनीम् ।। ५१ ।।
उस समय साथ
में उतरती हुई गुणों में पार्वती के समान, माधव (विष्णु) की माधवी (लक्ष्मी) के समान,
सभी लक्षणों से युक्त, उन रानी को देखकर प्रसन्नता से मुस्कुराते हुए,
वृषभध्वजावाले शिव ने अपनी पत्नी पार्वती से कहा- ।।५०-५१
।।
।। ईश्वर उवाच
।।
इयं ते मानुषी
मूर्तिः प्रिये तारावतीति या ।
भृंगिमहाकालयास्ते
जन्मनो विहिता स्वयम् ।। ५२ ।।
शिव बोले- हे
प्रिये ! यह जो तारावती देवी हैं, वह तुम्हारी ही मानवमूर्ति है । जो तुमने स्वयं भृंगी और
महाकाल के जन्म के लिए धारण किया है॥५२॥
त्वत्तो
ह्यनन्यकान्तोऽहं नान्यं गन्तुमिहोत्सहे ।
त्वमिदानीं
स्वयं चास्यां मूर्त्यां प्रविशभामिनि ।
तत
उत्पादयिष्यामि महाकालं च भृङ्गिणम् ।। ५३ ।।
तुम्हारे
अतिरिक्त किसी अन्य को पत्नी न बनाने वाला मैं, किसी दूसरे के प्रति सम्पर्क करने की इच्छा नहीं रखता इसलिए
हे देवी! इस समय इस रानी के शरीर में तुम प्रवेश करो । तब मैं महाकाल और भृंगी को
उत्पन्न करूँगा ।।५३।।
।। देव्युवाच
।।
ममैव मानुषी मूर्तिरस्यां
वृषभकेतन ।
विशामि तेऽत्र
वचनादुत्पादय सुतद्वयम् ।।५४।।
देवी
(पार्वती) बोलीं- हे वृषभ की ध्वजा वाले शिव ! यह मेरा ही मानवीयरूप है । अत: आपके
वचन को मानकर अब मैं इसमें प्रवेश करती हूँ, आप दो पुत्रों को पैदा करो ॥५४॥
मम
भृङ्गिमहाकाल कपोतानां च शापतः ।
एवं मोक्षो
भवेद् भर्ग तस्मात् त्वं कुरु मत्प्रियम् ।। ५५ ।।
हे भर्ग ! ऐसा
करने से मेरा तथा भृंगी और महाकाल, मेरे और कपोत के शाप से मोक्ष हो जायेंगे। इसलिए आप मेरा
प्रियकार्य अवश्य कीजिए ॥ ५५ ॥
।। और्व उवाच
।।
प्रविवेश ततो
देवी स्वयं तारावतीतनौ ।
महादेवोऽपि
तस्यां तु कामार्थं समुपस्थितः ।। ५६ ।।
और्व बोले- तब
स्वयं देवी पार्वती ने तारावती के शरीर में प्रवेश किया । महादेव भी उनसे कामोपभोग
हेतु सम्पर्क के लिए वहाँ उपस्थित हुए ॥ ५६ ॥
ततः
सापर्णयाविष्टा देवी तारावती सती ।
कामयानं
महादेवं स्वयमेवाभजन्मुदा ।। ५७ ।।
तब अपर्णा,
पार्वती से आवेशित हुई उस सती देवी तारावती ने कामासक्त
महादेव का प्रसन्नतापूर्वक स्वयं ही भोग किया ॥
५७॥
तस्मिन्कालेऽभवद्भर्गः
कपाली चास्थिमाल्यधृक् ।
बीभत्सवेशो
दुर्गन्धः पलितोऽतिविरूपधृक् ।। ५८ ।।
उस समय भगवान्
शिव,
कपालपात्र तथा हड्डियों की माला धारण कर लिए,
उनका वेश, घृणित हो गया, उनके शरीर से दुर्गन्ध निकलने लगी तथा उनके बाल पक गए और वे
कुरूप भी हो गए ॥५८॥
कामावसाने
तस्यां तु सद्योजातं सुतद्वयम् ।
अभवन्नृपशार्दूल
तथाशाखामृगाननम् ।। ५९ ।।
हे राजाओं में
सिंह के समान ! काम-क्रीडा समाप्त हो जाने के बाद उन तारावती से शीघ्र ही,
तत्काल दो पुत्र उत्पन्न हुए। जिनके मुख वानरों के समान थे
।। ५९ ।।
तद्देहान्निः
सृतापर्णा जातयोः सुतयोस्तयोः ।
मोहयित्वा
यथात्मानं न जानाति ककुत्स्थजा ।
अहं गौरी तथा
भर्गभावेन मानुषेण तु ।। ६० ।।
उन दोनों
पुत्रों के पैदा होते ही पार्वती, उसको मोहित करती हुई, उस महारानी के शरीर से इस प्रकार से निकल गईं कि ककुत्स्थ
की पुत्री तारावती, यह न जान सकी कि मैं गौरी हूँ तथा मनुष्यवेश में यहाँ शिव
ही उपस्थित हैं ॥ ६० ॥
अथ तारावती
देवी सुतौ दृष्ट्वा क्षितिस्थितौ ।
पातिव्रत्यात्
परिभ्रष्टाम् आत्मानं वीक्ष्य भामिनी ।। ६१ ।।
तब रानी
तारावती ने पृथ्वी पर पड़े हुए उन बच्चों को देखकर अपने को पतिव्रतधर्म से भ्रष्ट
हुआ माना ॥ ६१ ॥
तथा
बीभत्सवेशं तु हरं दृष्ट्वाग्रतः स्थितम् ।
मुनिशापं तदा
मेने प्राप्तं कालान्तकोपमम् ।।६२।।
तथा अपने
सामने शिव को वीभत्सवेश में उपस्थित देखकर, उस समय उन्होंने यह माना कि कपोतमुनि का,
यमराज के कोप के समान दारुणशाप,
उन्हें प्राप्त हो गया है ॥ ६२ ॥
इति शोकविमूढा
च निनिन्द च सतीव्रतम् ।
इदं चोवाच तं
वीक्ष्य महादेवं त्रिशूलिनम् ।। ६३ ।।
इस प्रकार शोक
से मोहित हो तथा उस त्रिशूल को धारण करने वाले महादेव को देखकर,
सतीव्रत की निन्दा करते हुए, वे उनसे इस प्रकार बोलीं ॥ ६३ ॥
।। तारावती
उवाच ।।
मुनिव्रतादपि
वरं नारीणां च सतीव्रतम् ।
इति स्म सततं
धीरा व्याहरन्ति पुराविदः ।
न तत्सत्यमहं
मन्ये यत्प्रवृत्तं ममेदृशम् ।। ६४ । ।
तारावती
बोलीं- सती स्त्रियों का आचरण मुनियों के व्रत से भी श्रेष्ठ होता है। यही मानकर
प्राचीन विद्वान् व्यवहार करते हैं किन्तु आज जो मेरे साथ हुआ,
उसके कारण से उपर्युक्त कथन को मैं सत्य नहीं मानती ॥६४॥
।। और्व उवाच
॥
इत्युक्त्वा
सा तदा देवी शुशोच च मुमोह च ।। ६५ ।।
तामाहाथ
महादेवो मा कार्षीस्त्वं वरानने ।
शोकं सतीव्रतं
चापि मा निन्द त्वं सुचेतने ।। ६६ ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर उस समय वह देवी सोचने लगी और मूर्छित हो गईं तब महादेव ने उससे कहा- हे
श्रेष्ठ मुख वाली ! तुम चिन्ता न करो। हे सुन्दर चेतना वाली ! तुम शोक मत करो और
सतीत्व की निन्दा भी न करो ।। ६५-६६॥
कपोतेन यदा
शप्ता त्वं तदैव तदग्रतः ।
उक्तवत्यसि
दीर्घाक्षि यत् यद्भूतं तवाधुना ।। ६७ ।।
हे लम्बी
आँखों वाली ! जब तुम्हें कपोत ऋषि ने शाप दिया था, उस समय तुमने उनके सामने ही जो कहा था,
अभी जो हुआ है, उसी के अनुरूप ही हुआ है।।६७॥
यदि सत्यं
महादेवो नित्यमाराध्यते मया ।
तेन सत्येन मे
देवादाराध्याच्चन्द्रशेखरात् ।
स्वप्नेऽपि
मुनिशार्दूल नान्यो मां कामयिष्यति ।। ६८।।
उस समय तुमने
कहा था- हे मुनिशार्दूल! यदि यह सत्य है कि मैंने नित्य- महादेव की आराधना की है
तो उस सत्य के कारण मेरे आराध्यदेव चन्द्रशेखर के अतिरिक्त कोई अन्य स्वप्न में भी
मेरा भोग नहीं करेगा ॥ ६८ ॥
सोऽहमेव
महादेव आराध्यश्चन्द्रशेखरः ।। ६९ ।।
त्वं मया
कामिता चापि मा कार्षीः शोकमङ्गने ।
इत्युक्त्वा स
महादेवस्तत्रैवान्तरधीयत ।।७० ।।
हे देवी ! मैं
वही महादेव हूँ तथा तुम्हारा आराध्य चन्द्रशेखर भी मैं ही हूँ,
इसलिए मेरे द्वारा भोग किये जाने से,
तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। ऐसा कहकर वे महादेव वहीं
अन्तर्ध्यान हो गए । ६९-७० ॥
मायया मोहिता
देवी तत्र तारावती सती ।
भूमौ
मलिनवेशेन मन्युना समुपाविशत् ।। ७१ ।।
उस समय सती
देवी तारावती, माया से मोहित हो, क्रोध से भरकर, मलिनवेश में ही भूमि पर ही बैठ गई ।। ७१ ॥
सुतौ च पतितौ
भूमौ सा देवी नासभाजयत् ।
भर्तुरागमनं
शश्वत् कांक्षन्ती भर्गभाषितम् ।। ७२ ।।
धरती पर पड़े
हुए दोनों बच्चों को भी उन देवी ने स्वीकार नहीं किया और शिव के कथनानुसार पति के
आगमन की प्रतीक्षा करती रही ॥७२॥
नरराजगृहे
चापि मुक्तकेशी तथास्थिता ।
अथ
क्षणान्महाभागः स राजा चन्द्रशेखरः ।
प्रासादपृष्ठमागच्छद्
द्रष्टुं तारावतीं तदा ।। ७३ ।।
उस समय उस
स्थिति में वे बाल को खोले हुए राजा के घर में भी सुशोभित नहीं हो रही थीं। उसी
समय क्षणभर में महाभाग, राजा चन्द्रशेखर, तारावती को देखने के लिए महल की छत पर आये ।। ७३ ।।
स तं
प्रासादमारुह्य जायां तारावतीं तदा ।। ७४ ।।
ददर्श पतितां
भूमौ मुक्तकेशीं निरुत्सवाम् ।
श्यामाननां
श्वसन्ती च सत्यगर्हणतत्पराम् ।। ७५ ।।
उन्होंने महल
की छत पर चढ़ कर अपनी पत्नी तारावती को उत्सव से रहित, बाल खोले हुए, भूमि पर पड़ी हुई देखा। उस समय उनका मुख काला हो गया था। वे
लम्बी-लम्बी साँसे ले रहीं थी तथा सत्य की निन्दा करने में लगी हुई थीं । ।
७४-७५।।
सुतौ च पतितौ
भूमौ सूर्याचन्द्रमसौ तदा ।
वानरास्यौ स
ददृशे पदक्षोभं वृषस्य च ।। ७६ ।।
उस समय राजा
ने पृथ्वी पर पड़े हुए सूर्य और चन्द्रमा के समान दो पुत्रों को देखा। जिनके मुख
बन्दर के समान थे। साथ ही उन्होंने वहाँ बैल के पैर के चिन्हों को भी देखा ।। ७६
।।
इति
सर्वमवेक्ष्याथ सः राजा चन्द्रशेखरः ।
भीतश्च
विस्मितश्चैव भार्यां पप्रच्छ सम्भ्रमात् ।। ७७ ।।
राजा
चन्द्रशेखर ने इस प्रकार से इन सबको देखकर स्वयं भयभीत और आश्चर्य चकित होकर,
अपनी उस पत्नी से पूछा ॥७७॥
।। राजोवाच ।।
किं किं
तारावति तव प्रवृत्तं निर्जने गृहे ।
को वा
धर्षितवांस्त्वां हि शिवः सिंहवधूमिव ।।७८ ।।
राजा बोले- हे
तारावती ! इस निर्जनगृह में तुम्हारा निवास क्यों हो रहा है?
क्या किसी शिव (शृंगाल) ने तुम जैसी सिंहवधू का मर्दन किया
है ?
॥७८ ॥
कस्य वा
पृथुकावेतौ प्रोद्दीप्तौ वानराननौ ।
तन्मे द्रुतं
समाचक्ष्व को वा त्वां कामितोऽपरः । । ७९ ।।
यह बन्दर के
समान मुखवाले ये दोनों दीप्तिमान बच्चे किसके हैं? यह तुम शीघ्र ही मुझे बताओ या किस अन्य पुरुष ने तुम्हारा
भोग किया है ? यही बताओ ।। ७९ ॥
।। और्व उवाच
।
एवमुक्ता तु
भूपेन तदा तारावती सती ।
वृत्तान्तं
कथयामास सकलं चन्द्रशेखरे ॥८०॥
आँर्व बोले-
तब राजा द्वारा कहे जाने पर सती तारावती ने समस्त वृत्तांत, राजा चन्द्रशेखर से कह दिया ॥ ८० ॥
यथा समागतो
भर्ग उत्तरं च यथोक्तवान् ।
तत्सर्वं
कथयामास वाष्पकण्ठा सगद्गदा ।। ८१ ।।
जिस प्रकार
शिव आए थे और उन्होंने जो उत्तर दिया था, वह सब कुछ आँसू से गद्गद् वाणी से उन्होंने उस समय कह दिया
।। ८१ ।।
तस्यास्तद्वचनं
श्रुत्वा चिन्तयंञ्चन्द्रशेखरः ।
किं वृत्तमिति
विज्ञातुं भूतले समुपाविशत् ।
स्वगतं
चिन्तयन् राजा चकारेमां विचारणाम् ।।८२ ।।
उनके उस कथन
को सुनकर राजा चन्द्रशेखर चिन्तित हो उठे और क्या हुआ,
यह जानने के लिए वे जमीन पर बैठ गये तथा मन ही मन यह विचार
किये ।। ८२ ॥
अनन्यकान्तो
गिरिशः स नान्यां पार्वतीमृते ।
कामयिष्यति
तस्मात् स न भर्गः परमेश्वरः ।। ८३ ।।
पार्वती के
अतिरिक्त अन्य किसी दूसरे के पति न होने वाले शिव से यह सम्भव नहीं है। इसलिए रानी
से सम्पर्क करने वाले परमेश्वर शिव नहीं हो सकते॥ ८३ ॥
ऋषिशापो हि
बलवांस्तच्छापादेव राक्षसः ।। ८४ ।।
कोऽपि
मायाबलोपेतः शङ्करच्छद्मनागतः ।
एषा सती
प्रिया भार्या राक्षसेनापि दूषिता ।। ८५ ।।
ऋषि का शाप
बलवान् होता है और उस शाप से ही कोई राक्षस, माया-बल से युक्त होकर शंकर के वेश में यहाँ आया था और यह
मेरी प्रियपत्नी, सती तारावती उस राक्षस द्वारा ही भ्रष्ट कर दी गई है ।।
८४-८५ ।।
कथं चेयं मया
ग्राह्या पूर्ववत् सर्वकर्मसु ।
एतौ च तनयौ
तस्य सद्योजातौ च राक्षसौ ।
अन्यथा वा
कथंभूतौ शाखामृगमुखौ सुतौ ।।८६ ।।
अब पहले की
तरह सभी कार्यों में यह मेरे द्वारा कैसे ग्रहण की जाएगी और इससे तुरन्त उत्पन्न
दोनों राक्षसपुत्रों को मैं कैसे स्वीकार करूंगा, नहीं तो इन बच्चों के मुख बन्दर के समान कैसे हो गए ॥८६ ॥
एवं
चिन्तयतस्तस्य देवौघविनियोजिता ।
सरस्वती वियत्स्था
तु राजानमिति चाब्रवीत् ।। ८७ ।।
जब वे राजा इस
प्रकार से सोच रहे थे। उसी समय देवगणों द्वारा भेजी हुई सरस्वती देवी ने आकाश में
ही स्थित होकर राजा से यह कहा - ॥८७॥
।।
सरस्वत्युवाच ।।
न त्वया संशयः
कार्यस्तारावत्यां नृपोत्तम ।
सत्यमेव
महादेवो भार्यां तव समेयिवान् ।। ८८ ।।
एतौ च तनयौ
तस्य राजंस्त्वं परिपालय।
योऽन्यस्ते
संशयोऽत्रास्ति नारदस्तं विनेष्यति ।। ८९ ।।
सरस्वती
बोलीं- हे उत्तम राजा ! तुम्हें तारावती के विषय में संशय नहीं करना चाहिए। सचमुच
ही महादेव शिव ने तुम्हारी पत्नी के साथ सम्पर्क किया है और ये दोनों बालक भी
उन्हीं के पुत्र हैं । हे राजन् ! तुम इन दोनों का पालन करो। इस विषय में जो
तुम्हारा अन्य संशय है। नारद मुनि उसे दूर करेंगे ।।८८-८९ ।।
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्त्वा
विररामाशु वाग्देवी प्रियवादिनी ।
जातसम्प्रत्ययो
राजा भार्यामाश्वासयत्तदा ।। ९० ।।
सुतौ तु
देवदेवस्य संस्कृत्य विधिना तदा ।
पालयामास
नृपतिराकांक्षन्नारदागमम् ।।९१।।
अथाजगाम देवर्षिर्नारदस्तस्य
मन्दिरम् ।।९२।।
और्व बोले-
प्रिय बोलने वाली वाग्देवी ऐसा कहकर जब चुप हो गईं तब विश्वास उत्पन्न हो जाने के
कारण,
राजा ने अपनी पत्नी को आश्वस्त किया तथा देवाधिदेव महादेव
के दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक संस्कार किया और नारद के आगमन की प्रतीक्षा करते
हुए उनका पालन-पोषण करने लगे। तब एक समय देवर्षि नारद उनके महल में पधारे ।। ९०-९२
।।
पूजाभिर्बहुभिस्तं
तु प्रत्यगृह्णात् सभूपतिः ।
पूजयित्वा यथान्यायं
तारावत्या समं नृपः ।। ९३ ।
तब राजा
चन्द्रशेखर ने रानी तारावती के सहित, बहुत प्रकार की पूजाओं से उनका यथोचितरूप से स्वागत और पूजन
किया ॥ ९३ ॥
उच्चैः
प्रासादमतुलं सुरेशभवनोपमम् ।
आरोहयामास तदा
तं मुनिं चन्द्रशेखरः ।। ९४।।
तत्रोपांशु
तदा राजा सभार्यश्चन्द्रशेखरः ।
पूर्वप्रवृत्तवृत्तान्तमपृच्छन्नारदं
तु सः ।। ९५ ।।
तब रानी सहित
राजा चन्द्रशेखर, उन नारद मुनि को इन्द्र के भवन के समान ऊँचे अपने अतुलनीय
भवन पर चुपचाप ले गये और उनसे पूर्व में घटे वृत्तान्त विषय में पूछा ।। ९४-९५ ।।
।। राजोवाच ।।
पूतोऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि
भवता ब्रह्मसूनुना ।
अन्तर्बहिश्च विप्रेन्द्र
तुङ्गप्रासादगामिना । । ९६ ।।
राजा बोले- आप
जैसे ब्रह्मा जी के पुत्र के इस ऊँचे महल में आये होने के कारण मैं अन्दर और बाहर
दोनों ही ओर से पवित्र हो गया हूँ। हे विप्रेन्द्र ! इस प्रकार मैं आप द्वारा
अनुग्रहित हो गया हूँ ।। ९६ ।।
एकं मे संशयं
ब्रह्मंश्छेत्तुमर्हसि हृद्गतम् ।
त्वदन्यः
संशयस्यास्य च्छेत्ता नैवास्ति कुत्रचित् ।। ९७ ।।
हे ब्रह्मन् !
मेरे हृदय में एक संशय उत्पन्न हो गया है, आप ही उसे दूर कर सकते हैं क्योंकि आपके अतिरिक्त कहीं भी
इस संशय को दूर करने वाला कोई नहीं है ॥ ९७ ॥
ऋषिशापेन
भार्येयं मम तारावती सती ।
बीभत्सवेशाकृतिना
धर्षिता कृत्तिवाससा ।। ९८ ।।
यह मेरी पत्नी
सती तारावती, कपोत ऋषि के शाप के कारण, घृणितवेश और आकृति से युक्त शिव द्वारा धर्षित की गयी है ।।
९८ ।।
तस्यात्मजौ
समुत्पन्नौ सद्योजाताविमौ पुनः ।
तत्र मे संशयं
शश्वन्नित्यं चित्ते प्रवर्तते ।। ९९ ।।
उसी के ये दो
पुत्र तत्काल उत्पन्न हुए हैं। उस विषय में मेरे चित्त में एक संशय,
शाश्वतरूप से (लगातार) उठ रहा है ।। ९९ ।।
अनन्यकान्तो
गिरिशो गिरिजां पार्वतीमृते ।
कथं
सङ्गमयामास मानुषीं हीनजन्मजाम् ।। १०० ।।
हिमालय की
पुत्री पार्वती को छोड़कर अन्य के पति न होकर भी भगवान शंकर ने मनुष्य शरीरवाली,
हीनजन्मवाली, मेरी पत्नी से सम्पर्क क्यों किया ?
॥ १०० ॥
कथमुत्पादयामास
मनुष्यौ तनयौ स्वकौ ।
एतत्सर्वं
समाचक्ष्व यदि गुह्यं न ते भवेत् ।। १०१ ।।
उन्होंने अपने
इन दो मनुष्य पुत्रों को क्यों उत्पन्न किया? यदि इसे आपके दृष्टि में गुप्त रखना उचित न हो तो यह सब
बातें आप मुझसे कहिए ।। १०१॥
।। और्व उवाच
।।
इति पृष्टः स
तु मुनिश्चन्द्रशेखरभूभृता ।
कथयामास तत्सर्वं
नारदो मुनिसत्तमः ।। १०२ ।।
और्व बोले- तब
राजा चन्द्रशेखर द्वारा इस प्रकार से पूछे जाने पर मुनियों में श्रेष्ठ,
नारद मुनि ने वह सब वृत्तान्त कह सुनाया ॥ १०२ ॥
यथा
भृंगिमहाकालौ समुत्पन्नौ पुरातनौ ।
यथा शप्तौ च
पार्वत्या तौ चोदाहरतां यथा ।। १०३ ।।
यथा पौष्यसुतो
जातो भर्गः स चन्द्रशेखरः ।
तारावती
ककुत्स्थस्य गृहे गौरी यथाभवत् ।। १०४ । ।
तत्सर्वं
कथयामास नारदश्चन्द्रशेखरे ।
इदं च
परमाख्यानं कथयामास नारदः ।।१०५ ।।
प्राचीन काल
में जिस प्रकार भृंगि और महाकाल उत्पन्न हुए और पार्वती ने जिस प्रकार उन दोनों को
शाप दिया। जिस प्रकार वे शिव, राजा पौष्य के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए तथा राजा
ककुत्स्थ के घर में गौरी, तारावती हुईं, नारद जी ने उस सभी परमश्रेष्ठ आख्यान को राजा चन्द्रशेखर से
कह सुनाया ।। १०३-१०५ ॥
।। नारद उवाच
।।
ब्याजहार
यदापर्णां कालीति वृषभध्वजः ।
तदोमा तपसे
याता वपुगौरत्वकांक्षया ।। १०६ ।।
नारद जी बोले-
एक बार जब भगवान् शंकर ने पार्वती को काली कहकर उलाहना दिया या व्यंग किया तब शरीर
की गोराई प्राप्त करने की इच्छा से पार्वती तपस्या करने चली गई ॥ १०६ ॥
अमर्षयुक्ता
वचनाच्छंकरस्य गिरेः सुता ।
विनीयमाना
भर्गेण सानुं हिमवतो गिरेः ।। १०७ ।।
शंकर द्वारा
अपमानित की हुई, पर्वतराज हिमालय की पुत्री, उस समय शंकर के वचनों से क्रोधित होकर हिमालय पर्वत पर चली
गईं ।। १०७ ।।
तस्यां गतायां
पार्वत्यां शङ्करो विरहार्दितः ।
कैलासाद्रिं
परित्यज्य मेरुपृष्ठं तदा ययौ ।। १०८ ।।
तब पार्वती के
इस प्रकार से रूठ कर चले जाने पर भगवान् शंकर, विरह से पीड़ित हो, कैलाश पर्वत छोड़ कर, सुमेरु पर्वत पर चले गए । १०८ ।।
तत्रापि शर्म
ना लेभे पार्वत्या च विनाकृतः ।
मोहितः
कामदेवेन तथा वै योगनिद्रया ।। १०९ ।।
वहाँ भी
कामदेव तथा योगनिद्रा के द्वारा मोहित, भगवान् शिव, पार्वती के बिना शान्ति, अनुभव नहीं किये ।। १०९ ।।
अथैकदा
मेरुपृष्ठे चरन्तीं सुमनोहराम् ।
सावित्रीं
ददृशे शम्भुः पार्वत्याः सदृशीं गुणैः ।। ११० ।।
एक बार सुमेरु
पर्वत पर घूमते हुए भगवान शंकर ने सुन्दरी, सावित्रीदेवी को जो गुणों में पार्वतीदेवी के ही समान थीं,
देखा ।। ११० ।।
तां दृष्ट्वा
मदनाविष्टः पार्वत्या विरहार्दितः ।
अविद्यया
समाविष्टो बभूव प्राकृतो यथा ।। १११ ।।
उन्हें देखकर
पार्वती के विरह से दुःखी शिव, सामान्य पुरुष की भाँति अज्ञान से ग्रस्त हो,
कामाविष्ट (काम से आवेशित) हो गए ।। १११ ॥
अथ तां
पार्वतीभ्रान्त्या चरन्तीमन्वधावत ।
एहि मां
पार्वति शुभे भवद्विरहपीडितम् ।। ११२ ।।
प्रहरत्येष
मां कामः पूर्ववैरमनुस्मरन् ।
मम तत्र
प्रतीकारं कुरु सम्प्रति वल्लभे ।। ११३ ।।
पार्वती के
भ्रम में वे उनके पीछे दौड़ते हुए बोले, हे सुन्दरी पार्वती ! मेरे पास आओ । मैं तुम्हारे विरह में
पीड़ित हो रहा हूँ क्योंकि इस समय यह काम-देव अपने पुराने वैर का स्मरण कर,
मेरे ऊपर प्रहार कर रहा है। हे प्रिये ! इस समय तुम उसका
प्रतिकार करो ।। ११२-११३।।
इत्युक्त्वा
विमुखीं यान्तीं सावित्रीं वृषभध्वजः ।
स्कन्धे
हस्तेन पस्पर्श सा चुकोप ततो भृशम् ।। ११४ ।।
ऐसा कहकर
वृषभध्वज ने मुँह मोड़कर जाती हुई, सावित्री के कंधे को हाथ से स्पर्श किया। तब वे बहुत अधिक
क्रोधित हो उठीं ।। ११४ ।।
अथ सा सम्मुखी
भूत्वा सावित्र्यतिपतिव्रता ।
इदमाह महादेवं
गर्हयन्ती वृषध्वजम् ।। ११५ । ।
तदनन्तर उन
पतिव्रता सावित्री देवी ने शिव की ओर मुख करके, वृषभध्वज महादेव की निन्दा करते हुए यह कहा ।। ११५ ॥
किं त्वं
पशुपते मूर्ख ! मानुषः प्राकृतो यथा ।
निरस्य कलहै
र्भार्यामनुनेतुमिहार्हसि ।। ११६ ।।
हे मूर्ख
पशुपती (महादेव)! सामान्य मनुष्य की भाँति झगड़े में अपनी पत्नी को निकाल कर,
तुम इस समय क्यों मनाना चाहते हो ?
॥ ११६ ॥
विमूढचेतनः
कामैर्न संस्तौषि परस्त्रियम् ।
असंस्तुत्वापि
सम्प्रष्टुं मादृशीं युज्यते तव ।। ११७ ।।
काम से विमूढ बुद्धि
हुए तुम पराई स्त्री को पहचानते भी नहीं हो और बिना पहचान की मुझ जैसी से,
तुम्हारा पूछना, क्या उचित है ? ।। ११७ ||
किमहं पार्वती
मूढ येन मत्स्कन्धदेशतः ।
हस्तं
ददास्यविज्ञाय सावित्रीं विद्धि मां सतीम् ।। ११८ ।।
ऐ मूर्ख! क्या
मैं पार्वती हूँ, जो तुमने बिना जाने ही मेरे कंधे पर अपना हाथ रख दिया । मुझ
सती को तुम सावित्री समझो ॥ ११८ ॥
यस्मान्मानुषवन्मां
त्वमनुजानासि बर्बर ।
तस्मात् त्वं
मानुषीयोन्यां सुरतं संविधास्यसि ।। ११९ ।।
हे बर्बर
(असभ्य)! इस समय एक मनुष्य की भाँति तुम मेरा अनुगमन कर रहे हो। अत: तुम मनुष्य
योनि में उत्पन्न हुई स्त्री के साथ सम्भोग करोगे ॥ ११९ ॥
गौरीमृते
नान्यकान्तस्त्वमन्यां तु समीहसे ।
तस्यैतत्फलितं
भर्ग गच्छ मां त्वं परित्यज ।। १२० ।।
यद्यपि तुम
गौरी के सिवाय किसी अन्य के पति नहीं हो तो भी तुम अन्य स्त्री की इच्छा करोगे,
तुम्हारे इस अपराध का यही फल होगा। इसलिए हे भर्ग ! तुम
मुझे छोड़ दो और चले जाओ ॥ १२० ॥
इत्युक्त्वा
सा गता देवी स्वमाश्रमपदं सती ।
लज्जाविस्मयसंयुक्तो
हरोऽप्यायात् निजास्पदम् ।। १२१ ।।
ऐसा कहकर सती
देवी सावित्री, अपने निवास स्थान पर चली गईं और शिव भी लज्जा तथा विस्मय से युक्त होकर अपने
निवास स्थान पर लौट आये ॥ १२१ ॥
अतोऽयं
मानुषीयौनौ सुरतं शङ्करोऽकरोत् ।
तस्मान्निः
संशयं राजन्निमां तारावतीं सतीम् ।
दयस्व
तनयावेतौ भर्गस्य प्रतिपालय ।। १२२ ।।
इसीलिये इस
समय भगवान् शंकर ने मानुषीयोनि से उत्पन्न, तारावती के साथ सम्भोग किया है । इसीलिए तुम संशय रहित होकर,
इस सती तारावती को स्वीकार करो तथा शिव के इन दोनों पुत्रों का पालन करो ।।
१२२ ।।
।। और्व उवाच
॥
ततः स राजा
श्रुत्वैव नारदस्य मुखात् तदा ।
आत्मनः
शम्भुरूपत्वं गौरी तारावतीति च ।
मनुष्ययोनावुत्पन्नावुमावृषभकेतनौ
।। १२३ ।।
और्व बोले- तब
राजा चन्द्रशेखर ने नारद के मुख से अपने शिवरूप को तथा तारावती के गौरीरूप को और
शिव एवं पार्वती दोनों को ही मनुष्ययोनि में उत्पन्न हुआ सुना।। १२३ ।।
श्रुत्वाहितहर्षितो
राजा विस्मितो नारदं पुनः ।
पप्रच्छ
मुनिशार्दूल विज्ञातुमिति चात्मनः ।। १२४ ।।
शङ्करत्वं च
गौरीत्वं तारावत्याः समक्षतः ।
यथाहं तत्तु
पश्यामि तं मां ज्ञापय निश्चितम् ।। १२५ ।।
उपरोक्त हितकर
वचनों को सुनकर राजा चन्द्रशेखर, प्रसन्न एवं आश्चर्य चकित होकर नारद जी से पुनः बोले- हे
मुनि शार्दूल! मैं अपने शंकररूप को तथा तारावती के गौरीरूप को,
जिस प्रकार से निश्चित और प्रत्यक्षरूप में देख सकूं,
उसका मुझे ज्ञान कराइए।। १२४ - १२५ ।।
।। नारद उवाच
।।
अङ्के
तारावतीं कृत्वा अक्षिणी त्वं निमीलय ।
क्षणं तारावती
चापि निमीलयतु चक्षुषी ।। १२६ ।।
नारद बोले-
तुम तारावती को गोद में लेकर क्षणभर के लिए अपनी आँखे बन्द कर लो और तारावती भी
उसी प्रकार अपनी आँखें मूद लें ॥ १२६ ॥
निमील्य पश्चाद्राजेन्द्र
उन्मीलयं ततो द्रुतम् ।
ततस्ते
शाम्भवं ज्ञानं रूपं चापि भविष्यति ।। १२७ ।।
हे राजेन्द्र
! इस प्रकार अपनी आँखें मूंदने के पश्चात् तेजी से खोल दो तब तुम्हें अपने शिवरूप
का ज्ञान हो जायेगा ॥ १२७ ॥
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्तो
नारदेनाथ स राजा चन्द्रशेखरः ।
वामेन पाणिना
धृत्वा देवीं तारावतीं सतीम् ।। १२८ ।।
चक्षुषी च तया
सार्धं निमील्योन्मील्य तत्क्षणात् ।
तन्निमीलनकाले
तु तस्याभूच्छम्भुरूपता ।। १२९ ।।
गौरीरूपाऽभवद्
देवी ततस्तारावती सती ।
अहं शम्भुरहं
गौरीति विज्ञानं तयोरभूत् ।। १३० ।।
और्व बोले-
नारद द्वारा ऐसा कहे जाने पर राजा चन्द्रशेखर ने सती,
रानीतारावती को बायें हाथ से पकड़ लिया। तथा उन्हीं रानी के
साथ अपने नेत्रों को बंद किया और तत्पश्चात् खोला। उस आँख मूंदने के समय ही राजा
शिवरूप को प्राप्त हो गये। तब सती रानी तारावती भी गौरीरूप में हो गईं तथा दोनों
को यह ज्ञान हो गया कि मैं शिव हूँ, तो मैं पार्वती हूँ।। १२८-१३० ।।
ततः प्रोवाच
तं शम्भुं नारदः प्रहसन्निव ।
शम्भुः
साक्षाद् भवान् गौरी देवी तारावती स्वयम् ।
प्रत्यक्षं ते
महाभाग संपश्यात्मानमात्मना ।। १३१ ।।
तब नारद ने
शिवरूपधारी उस राजा से हँसते हुए कहा- “आप साक्षात् शिव हो तथा रानी तारावती स्वयं पार्वती हैं। हे
महाभाग ! यह आज आपके सामने प्रत्यक्ष है, अपने आपको देख लो ।। १३१ ॥
ततो राजा
भवत्वेवमित्युक्त्वाथ स्वकां तनुम् ।। १३२ ।।
व्याघ्रचर्मपरीधानां
दशभिर्बाहुभिर्युताम् ।
त्रिशूलखट्वाङ्गधरां
शक्त्यादिधृतहस्तकाम् ।। १३३ ।।
वृषभोपरि
संस्थां तु जटाजूटविभूषिताम् ।
तारां च
विद्युद्गौराङ्गी पद्महस्तां शुभाननाम् ।
वीक्ष्य
सम्प्रत्ययं प्राप ज्ञानेनापि तदात्मनि ।। १३४ ।।
तब राजा ने
ऐसा ही हो कहकर, अपने शरीर को बाघ के चमड़े से ढका हुआ, दस भुजाओं से युक्त, हाथों में त्रिशूल, खट्वाङ्ग, शक्ति आदि धारण किये हुए देखा । वे स्वयं जटाजूट से सुशोभित
हो बैल पर सवार थे और रानी तारावती को जो बिजली के समान गोरे अंगोंवाली,
हाथ में कमल पुष्प लिए हुए, सुन्दरमुखवाली थीं, देखा, उपर्युक्त अवस्था में अपने व रानी को देखकर उन्होंने अपने
ज्ञान से विश्वास प्राप्त किया ।। १३२-१३४ ।।
ततस्तु नारदः
प्राह शृणु राजन् वचो मम ।।१३५ ।।
नृयोनौ
वैष्णवी माया युवां पूर्वममोहयत् ।
तेन तेन
शरीरेण शम्भुत्वं नेक्षितं त्वया ।। १३६ ।।
तब नारद ने
कहा- हे राजन् ! मेरी वाणी सुनो। वैष्णवी माया ने पहले ही तुम दोनों को मोहित कर
दिया था,
जिससे तुम दोनों अपने शरीर के शिवरूप और गौरीरूप को नहीं
देख सके ।। १३५ - १३६ ॥
अधुना दर्शिता
तेऽद्य शम्भुना शम्भुरूपता ।
निमील्य
नयनद्वन्द्वं पुनस्त्वं याहि मर्त्यताम् ।। १३७।।
अब शिवजी
द्वारा तुम्हें आज अपने शिवरूप को दिखाया गया है। अब अपने दोनों नेत्रों को बन्द
करके पुनः आप अपने मनुष्यरूप को प्राप्त करो ।। १३७ ।।
आसाद्य मानुषं
भावमादेहान्तं स्थिरो भव ।
तथा तारावती
देवी तूर्णं भवतु मानुषी ।। १३८ ।।
अब आप मनुष्य
भाव को प्राप्त करके देहान्त तक स्थिर हों। उसी प्रकार तारावती भी शीघ्र ही
मनुष्य- स्त्री के रूप को प्राप्त करें ।। १३८ ।।
।। और्व उवाच
।।
आत्मनो
देवरूपत्वं ज्ञात्वा दृष्ट्वाऽथ चक्षुषा ।
जातसम्प्रत्ययो
राजा न्यमीलयत लोचने ।। १३९ ।।
और्व बोले-
अपने देवरूप को जानकर तथा आँखों से प्रत्यक्ष देखकर, विश्वास हो जाने पर, राजा चन्द्रशेखर ने अपने दोनों नेत्रों को बन्द कर लिया ।।
१३९ ॥
ततस्तारावती
देवी न्यमीलयत चक्षुषी ।
पुनस्तौ मानवौ
जातौ महिषी नृपतिस्तथा ।। १४० ।।
तब रानी
तारावती ने भी अपनी आँखों को मूंद लिया और दोनों ही राजा तथा रानी,
मनुष्य हो गये ।। १४० ।।
उन्मील्य तौ
तु नेत्राणि मानुषत्वं तदात्मनोः ।
दृष्ट्वा आवां
तथा मर्त्याविति ज्ञानमभूत् तयोः ।। १४१ ।।
उन दोनों ने
नेत्रों को खोलकर अपने मनुष्यरूप को पुनः देखा जिससे उन्हें यह ज्ञान हुआ कि हम
दोनों मरणधर्मा मनुष्य ही हैं ।। १४१ ॥
ततो विमोहितौ
तौ तु दम्पती विष्णुमायया ।
अहं राजा च
महिषी अहमित्यभवन्मतिः ।। १४२ ।।
तब विष्णुमाया
से विशेष रूप से मोहित, उस दम्पति की, मैं राजा हूँ और मैं रानी हूँ,
ऐसी बुद्धि हो गयी ॥ १४२ ॥
तस्यां सुतौ
तु जायायां देवांशाविति तन्मती ।
आवां स्थिता
कला मूर्ध्नि अभूतां जातिचिह्नितौ ।। १४३।।
उनको यह
बुद्धि हो गयी कि उनकी पत्नी के गर्भ से भी जो दो पुत्र उत्पन्न हुए हैं,
वो महादेव के अंश से उत्पन्न हुए हैं । हम लोगों पर भी जन्म
से ही चन्द्रकला और तारा का चिह्न, ईश्वरीयकृपा से ही प्राप्त हैं ।। १४३ ॥
ततः स राजा
न्यगदत् तं मुनिं नारदं मुदा ।
सत्यमेतत्
त्वया प्रोक्तं करिष्ये वचनं तव ।। १४४ ।।
पालयिष्ये
शम्भुपुत्रौ सत्यलभ्ये सदैव हि ।
किन्त्वेतौ
मुनिशार्दूल त्वं संस्कुरु यथाविधि ।। १४५ ।।
तब राजा ने
नारदमुनि से प्रसन्नतापूर्वक कहा- यह आपने सत्य ही कहा है,
मैं आपके कथनानुसार करूँगा । सचमुच में प्राप्त इन दोनों
शिवपुत्रों का पालन करूंगा किन्तु हे मुनिशार्दूल! आप इन दोनों का विधिपूर्वक
संस्कार कीजिए ।। १४४-१४५ ।।
।। और्व उवाच
।।
ततस्तयोन्नाम
चक्रे नारदो वचनान्नृप ।
ज्येष्ठो
भैरवनामाऽभूद् गौरीपुत्रो भयङ्करः ।। १४६ ।।
और्व बोले-तब
राजा के कथनानुसार नारद मुनि ने उन दोनों का नामकरण किया। उनमें गौरी का बड़ा
पुत्र,
जो देखने में भयंकर था, उसका नाम भैरव हुआ ।। १४६ ।।
वेतालसदृशः
कृष्णो वेतालोऽभूत् तथापरः ।
इति चक्रे
तयोर्नाम देवर्षिब्रह्मणः सुतः ।। १४७ ।।
वेताल के समान
जो काला,
उनका दूसरा पुत्र था। वह वेताल हुआ। इस प्रकार से ब्रह्मा
के पुत्र,
देवर्षि नारद ने उन दोनों गौरीपुत्रों के क्रमशः भैरव और
वेताल नाम रक्खे ॥ १४७॥
अन्यांश्च
सर्वान् संस्कारान्नारदो मुनिसत्तमः ।
चकार क्रमशो
वाक्याच्चन्द्रशेखरभूभृतः ।। १४८ ।
इस प्रकार
राजा चन्द्रशेखर के कथनानुसार मुनियों में श्रेष्ठ, नारद मुनि ने उन दोनों के अन्य सभी संस्कार भी सम्पन्न किये
॥ १४८ ॥
एवं सर्वान्
संशयांस्तु सञ्छिद्यमुनिसत्तमः ।
संस्कृत्य
भर्गतनयौ विसृष्टस्तेन भूभृता ।
ययावाकाशमार्गेण
नाकपृष्ठं स नारदः ।। १४९ ।।
इस प्रकार से
मुनियों में श्रेष्ठ नारद जी, सभी शंकाओं को दूर करने तथा शिव के दोनों पुत्रों को
संस्कारित करने के पश्चात्, राजा चन्द्रशेखर से विदा किए जाने पर आकाशमार्ग से
स्वर्गलोक को चले गये ॥ १४९ ॥
नारदे तु गते
राजा मुदितश्चन्द्रशेखरः ।
तारावत्या समं
रेमे करवीराह्वये पुरे ।। १५० ।।
शम्भोरंशोऽहमित्येवं
गौर्यास्तारावतीति च ।
जातश्रद्धस्तदा
राजा शशास सुचिरं क्षितिम् ।। १५१ ।।
इस प्रकार
नारद जी के चले जाने के पश्चात् राजा चन्द्रशेखर, करवीर नामक उस नगर में तारावती के साथ में,
मैं शिव का अंश हूँ और यह तारावती,
गौरी का अंश हैं, इस प्रकार की श्रद्धा उत्पन्न हो जाने से,
तारावती के साथ बहुत समय तक रमण किए तथा उन्होंनें दीर्घकाल
तक पृथ्वी पर शासन किया ।। १५०-१५१ ।।
तनयौ च
हरस्याथ तदा वेतालभैरवौ ।
ववृधाते
महात्मानौ शरच्चन्द्राविवोद्यतौ ।। १५२ ।।
तब शिव के
भैरव और वेताल नामक वे दो महात्मापुत्र जो शरदऋतु के चन्द्रमा की भाँति देदीप्यमान
थे,
बड़े हुए ।। १५२ ॥
चन्द्रशेखर
भूपस्य तारावत्यां नृपोत्तमः ।। १५३।
त्रयः पुत्रा
महावीर्या रूपसम्पत् समन्विताः ।
ज्येष्ठस्तत्रोपरिचरो
दमनोऽलर्क एव च ।। १५४ ।।
तारावती से
राजा चन्द्रशेखर के भी महान् शक्ति, रूप और धन से युक्त तीन पुत्र हुए। उनमें बड़ा उपरिचर था ।
दमन और अलर्क क्रमशः मझले और छोटे थे । १५३ - १५४ ॥
वेतालभैरवाभ्यां
तु ज्यायांसस्तेऽभवंस्त्रयः ।
एवमेते त्रयः
पुत्राश्चन्द्रशेखरभूभृतः ।। १५५ ।।
राजा
चन्द्रशेखर के उपर्युक्त तीनों पुत्र, वेताल और भैरव से ज्येष्ठ थे ।। १५५ ।।
वेतालभैरवौ
चापि सद्योजातौ हरात्मजौ ।
समान भोगा ववृधुश्चन्द्रशेखरभूभृतः
।
पालितास्तु
सभार्येण समानासनवाहनाः ।। १५६ ।।
राजा
चन्द्रशेखर और रानी तारावती के द्वारा आसन और वाहन जैसे समान भोग से पाले हुए,
शिव के तत्काल उत्पन्न, वेताल और भैरव नामक पुत्र भी बड़े हुए ।। १५६ ।।
इति पञ्चसुता
महाबलाः पञ्चभूतसदृशाः कृता विधेः ।
ववृधिरे
प्रथमं सकलं जगत् समतीत्य मुदा बलदर्पिताः ।। १५७ ।।
इस प्रकार
विधि द्वारा किए गए, पाँच महाभूतों के समान, बल में बड़े हुए, महान् बलशाली, पाँचों पुत्र, प्रारम्भिक अवस्था में ही सारे संसार को पारकर,
बल के दर्प से प्रसन्न हो बड़े हुए ।। १५७।।
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे वेतालभैरवजन्मवृत्तान्तनाम पञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५०॥
॥
श्रीकालिकापुराण का वेताल और भैरवजन्मवृत्तान्तनामक पचासवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥५०॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 51
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