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Kalika puran chapter 54
कालिकापुराणम् चतुःपञ्चाशोऽध्यायः महामायाकल्पे पूजाविधिवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५४
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
ततोऽर्घपात्रे
तन्मंत्रमष्टधाकृत्य संजपेत् ।
तेन तोयानि
पुष्पाणि स्वं मण्डलमथासनम् ।। १ ।।
आशोधयेत् ततः
पश्चात् पूजोपकरणं समम् ।
ॐ ऐं ह्रीं
ह्रौमिति मन्त्रेण शब्दप्रांशविवर्जितम् ।।२।।
श्रीभगवान्
(शिव) बोले- तब अर्धपात्र पर उस मन्त्र (मूल मन्त्र) का आठ बार जप करे और उससे
अर्धपात्र जल और पुष्पों को, अपने मण्डल और आसन पर छिड़क कर,
पूजा उपकरणों को भी साथ ही साथ ॐ ऐं ह्रीं ह्रौं मन्त्रों
से,
बिना किसी ध्वनि के पवित्र करे ॥ १-२ ॥
द्वारपालं ततो
देव्या आसनानि च पूजयेत् ।
नन्दिभृङ्गिमहाकालगणेशाः
द्वारपालकाः ।
उत्तरादिक्रमात्
पूज्या आसनानि च मध्यतः ।। ३ ।
आधारशक्तिप्रभृति:-
होमाद्यन्तान् प्रपूजयेत् ।
प्रसिद्धान्
सर्वतन्त्रेषु पूजाकल्पेषु भैरव ॥४॥
हे भैरव ! तब
देवी के द्वारपालों का और आसनों का पूजन करे। देव नन्दि,
भृङ्गि, महाकाल और गणेश ये चार द्वारपाल हैं जिनका क्रमशः उत्तर
दिशा से पूजन करना चाहिए तथा मध्य में आसन पर आधारशक्ति से होमादिपर्यन्त,
सभी तन्त्रों की पूजा विधियों में प्रसिद्ध देवियों का पूजन
करे ।। ३-४ ॥
दशदिक्पालसहितान्
धर्माधर्मादिकांस्तथा ।
मण्डलाग्न्यादिकोणेषु
पूजयेत् पार्श्वदेशतः ।।५।।
सूर्याग्निसोममरुतां
मण्डलानि च पद्मकम् ।
रजस्तथा तमः
सत्त्वं योगपीठं गुरोः पदम् ।
सारादीन् भद्रपीठान्तान्
साङ्गोपाङ्गान् प्रपूजयेत् ॥६ ॥
मण्डल के
पार्श्वभाग में अग्नि आदि कोणों में दस दिग्पालों के सहित,
धर्म- अधर्म आदि का पूजन करे और मण्डल पर सूर्य,
अग्नि, सोम और वायु देवता के पद्ममय स्थान,
मण्डल बनाये। रजस, तमस् और सत्वगुण, योगपीठ, गुरुचरण और सार (शारदा) से लेकर भद्रपीठ तक सांगोपांग पूजन
करे।। ५-६ ॥
ब्रह्माण्डं
स्वर्णडिम्भं च ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् ।
ससागरान्
सप्तद्वीपान् स्वर्णद्वीपं समण्डपम् ।।७।।
रत्नपद्मं
सपर्यङ्कं रत्नस्तम्भं तथैव च ।
पञ्चाननं मण्डलस्य
मध्येऽवश्यं प्रपूजयेत् ।।८।।
ब्रह्माण्ड,
हिरण्यगर्भ, ब्रह्मा-विष्णु और शिव, सातों द्वीप और समुद्रों के सहित मण्डप से सुशोभित,
एक स्वर्णिमद्वीप की भावना करे। जो रत्नों के बने हुए
स्तम्भ तथा पलंग और कमल से युक्त हो । उपर्युक्त मण्डल के बीच में इन सबके साथ
पंचानन शिव का पूजन करे ।। ७-८ ।।
ह्रीं
मन्त्रेण ततः कूर्मपृष्ठं पाण्योर्निबध्य च ।
ध्यायेच्च
पूर्ववद् देवीमासाद्यासनमुत्तमम् ।।९।।
हृन्मध्ये
चिन्तयेत् स्वर्णद्वीपं पर्यङ्कसंभृतम् ।
पश्यन्निव ततो
देवीमेकाग्रमनसा स्मरेत् ।। १० ।।
तब ह्रीं
मन्त्र से, दोनों हाथों से, कूर्मपृष्ठ (कूर्ममुद्रा) बनाकर,
पूर्ववर्ती पूजित, उत्तम आसन पर बैठकर, हृदय के स्वर्णद्वीप पर, उत्तमपर्यङ्क पर उपस्थित, देवी को एकाग्रमन से देखता हुआ,
उनका स्मरण एवं ध्यान करे ।९-१० ॥
प्रत्यक्षीकृत्य
हृदये मानसैरुपचारकैः ।
षोडशानां प्रकारैस्तु
हृदिस्थां पूजयेच्छिवाम् ।। ११ ।।
उपर्युक्त
रीति से हृदय में देवी का प्रत्यक्षीकरण करके, मानस उपचारों से अथवा षोडशोपचारों से हृदय में स्थित,
उस देवी का पूजन करे ॥ ११ ॥
ततस्तु
वायुबीजेन दक्षिणे च पुटेन च ।। १२ ।।
नासिकया
विनिःसार्य क्रीं मन्त्रेण च भैरव ।
स्थापयेत्
पद्ममध्ये तु तद्धस्तं न वियोजयेत् ।। १३ ।।
हे भैरव ! तब
वायु बीज (वं) से, दाहिनी नाक से क्रीं मन्त्र का उच्चारण करते हुए वायु
निकाले । तब ध्यानरूप में देवी की हृदय कमल पर स्थापना करे। इस पूजन में कूर्ममुद्रा
में बँधे हाथ को अलग न करे ।। १२-१३।।
कृते वियोगे
हस्तस्य पुष्पात् तस्माच्च भैरव ।
गन्धर्वैः
पूज्यते देवी पूजकैर्नाप्यते फलम् ।। १४ ।।
हे भैरव ! हाथ
को अलग कर पूजन करने से जो पुष्पादि अर्पण किया जाता है,
उसका फल गन्धर्व ही ले लेते हैं। पूजा करने वाले साधक को
उसका फल नहीं मिलता ।।१४।।
आवाहनं ततः
कुर्याद् गायत्र्या शिरसा सह ।
महामायायै
विद्महे ते चण्डिकायै धीमहि ।
एतदुक्त्वा
ततः पश्चाद् धियो यो नः प्रचोदयात् ।। १५ ।।
तब मस्तक
झुकाकर निम्नलिखित गायत्रीमन्त्र " महामायायै विद्महे ते चण्डिकायै धीमहि धियो
योनः प्रचोदयात्" कहकर देवी का आवाहन करे ।।१५।।
स्नानीयं देवि
ते तुभ्यं ॐ ह्रीं श्रीं नमः इत्यतः ।
स्नानीयं च
ततो देव्यै दद्याल्लक्षणलक्षितम् ।। १६ ।।
तब ‘“स्नानीयं देवि ते तुभ्यं ॐ ह्रीं श्रीं नमः" कहकर देवी को स्नान हेतु लक्षणों से युक्त जल समर्पित करे
।।१६।।
ततस्तु
मूलमन्त्रेण गन्धपुष्पं सदीपकम् ।
धूपादिकं
प्रदद्यात् तु मोदकं पायसं तथा ।। १७ ।।
सितां गुडं
दधि-क्षीरं सर्पिर्नानाविधैः फलैः ।। १८ ।।
रक्तपुष्पं पुष्पमालां
सुवर्णरजतादिकम् ।
नैवेद्यमुत्तमं
देव्याः लाङ्गलं मोदकं सिताम् ।।१९।।
शाण्डिल्यकरकाम्राख्य-
कूष्माण्डानां फलानि च ।
हरीतकीफलं
चापि नागरङ्गकामलकम् ।।२०।।
बालप्रियं च
यद्द्रव्यं कसेरुकबिसादिकम् ।
तोयं च
नारिकेलस्य देव्यै देयं प्रयत्नतः ।। २१ ।।
तब मूलमन्त्र
से गन्ध,
पुष्प और धूप-दीप आदि सहित, मोदक (लड्ड) और खीर, देवी को प्रदान करे। साथ में अनेक प्रकार के फल,
गुड़, मिश्री, दूध-दही, घी, लालपुष्प, फूल तथा सोने-चाँदी की बनी हुई मालायें,
तथा लाङ्गल (भोज्य विशेष), मोदक, मिश्री, शाण्डिल्य (बेल), करक (अनार), आम, कूष्मांड (कोहड़ा), लौकी, हर्रे, नारङ्गी, बच्चों को प्रिय, कसेरू, कमलनाल आदि तथा नारियल का जल, देवी को प्रयत्नपूर्वक समर्पित करे ।। १७-२१ ॥
रक्तं
कौशेयवस्त्रं च देयं नीलं कदापि न ।। २२।।
इस पूजन में
देवी को सदैव लाल रेशमी वस्त्र देना चाहिये। कभी भी नीले या काले वस्त्र नहीं
चढ़ाना चाहिये ॥ २२ ॥
देव्याः
प्रियाणि पुष्पाणि बकुलं केशरं तथा ।
माध्यं
कारवज्राणि करवीरकुरुण्टकान् ।
अर्कपुष्पं
शाल्मलकं दूर्वाङ्कुरं सुकोमलम् ।।२३।।
कुशमञ्जरिका
दर्भा बन्धूककमले तथा ।
मालूरपत्रं
पुष्पं च त्रिसन्ध्यारक्तपर्णके ।। २४ ।।
देवी को बकुल,
केशर, कल्हार, चमेली, वज्र (तिलपुष्प), कनैल, कुरुण्टक, मदार, शाल्मलक (सेमल), कोमल दूब, कुश मञ्जरी, मुलायम कुश, बन्धूक, कमल, बिल्व के तीन पर्णक दलों वाले पत्र तथा रक्तपुष्प प्रिय
हैं।। २३-२४॥
सुमनांसि
प्रियाण्येतान्यम्बिकायाश्च भैरव ।
बन्धूकं बकुलं
माध्यं बिल्वपत्राणि सन्ध्यकम् ।। २५ ।।
उत्तमं सर्वपुष्पेषु
द्रव्ये पायसमोदकौ ।
माल्यं
बन्धूकपुष्पस्य शिवायै बकुलस्य वा ।। २६ ।।
हे भैरव !
अम्बिका को (उपर्युक्त सभी पुष्प, प्रिय हैं। उन सभी पुष्पों में बन्धूक (गुड़हल),
बकुल और चमेली के पुष्प तथा तीन दलों वाले बिल्वपत्र विशेष
उत्तम हैं। नैवेद्य द्रव्यों में खीर तथा मोदक (कसार) उत्तम हैं,
एवं बकुल या बन्धूक पुष्प की माला,
देवी का उत्तम माल्य है ।। २५-२६ ॥
करवीरस्य माध्यस्य
सहस्राणां ददाति यः ।
स कामान्
प्राप्य चाभीष्टान् मम लोके प्रमोदते ।। २७ ।।
जो एक हजार
कनैल या चमेली के पुष्प देवी को प्रदान करता है वह अपनी सभी अभीष्ट कामनाओं को
प्राप्त कर, मेरे लोक में आनन्द को प्राप्त करता है ।। २७॥
चन्दनं शीतलं
चैव कालीयकसमन्वितम् ।
अनुलेपनमुख्यं
तु देव्यै दद्यात् प्रयत्नतः ।। २८ ।।
देवी को
प्रयत्नपूर्वक कालीयक से युक्त शीतल चंदन का अनुलेपन,
मुख्य-रूप से प्रदान करना चाहिए ॥ २८ ॥
कर्पूरं
कुङ्कुमं कूर्चं मृगनाभिं सुगन्धिकम् ।
कालीयकं
सुगन्धेषु देव्याः प्रीतिकरं परम् ।। २९ ।।
सुगन्धों में
कपूर,
कुमकुम, कूर्च और सुगन्धित कस्तूरी, कालीयक आदि देवी के लिए अत्यधिक प्रसन्नता देने वाले
अनुलेपन हैं ।। २९ ।।
यक्षधूपः
प्रतीवाहः पिण्डधूपः सगोलकः ।
अगुरुः
सिन्धुवारश्च धूपाः प्रीतिकरा मताः ।। ३० ।
देवी को
यक्षधूप,
प्रतिवाह, पिण्डधूप, गोलक, अगर और सिन्धुवार नामक धूप, अत्यन्त प्रसन्नता देने वाले बताये गये हैं ।। ३० ।।
अङ्गरागेषु
सिन्दूरं देव्याः प्रीतिकरं परम् ।। ३१ ।।
अङ्गरागों में,
अंग के सजाने वाले पदार्थों में सिन्दूर देवी को अत्यधिक
शोभा देने वाला पदार्थ है ॥ ३१ ॥
सुगन्धिशालिजं
चान्नं मधुमांससमन्वितम् ।
अपूपं पायसं क्षीरमन्नं
देव्याः प्रशस्यते ।। ३२ ।।
देवी के लिए
मधु एवं मानस से युक्त चावल, पूआ, खीर तथा दूध में पके अन्न, विशेष उत्तम नैवेद्य बताये गये हैं ॥ ३२ ॥
रत्नोदकं सकर्पूरं
पिण्डीतककुमारकौ ।
रोचनं पुष्पकं
देव्याः स्रानीयं परिकीर्तितम् ।।३३।।
घृतप्रदीपो
दीपेषु प्रशस्त: परिकीर्तितः ।। ३४ ।।
रत्नों से
शुद्ध किया गया जल, कपूर, कंचन और तगर से युक्त गोरोचन तथा पुष्प से
युक्त जल देवी को देने के लिए स्नान योग्य उत्तम जल कहा गया है । सभी प्रकार के
दीपों में, घी का दीप, श्रेष्ठ कहा गया
है ।। ३३-३४॥
पुष्पाञ्जलित्रयं
दद्याद् मूलमन्त्रेण शोभनम् ।
दत्त्वोपचारानखिलान्मध्ये
चैताः प्रपूजयेत् ।। ३५ ।।
मूलमंत्र के
द्वारा सुन्दर ढंग से तीन पुष्पाञ्जलि अर्पित करे । इस प्रकार से भगवती का पूजन
करे ॥ ३५॥
कामेश्वरीं-
गुप्तदुर्गां विन्ध्यकन्दरवासिनीम् ।
कोटेश्वरी
दीर्घिकाख्यां प्रकटीं भुवनेश्वरीम् ।। ३६ । ।
आकाशगङ्गां
कामाख्यां यदादिक्करवासिनीम् ।
मातङ्गी ललितां
दुर्गां भैरवीं सिद्धिदां तथा ।। ३७ ।।
बलप्रमथिनीं
चण्डीं चण्डोग्रां चण्डनायिकाम् ।
उग्रां भीमां
शिवां शान्तां जयन्तीं कालिकां तथा ।। ३८ ।।
मङ्गलां
भद्रकाली च शिवां धात्रीं कपालिनीम् ।
स्वाहां
स्वधामपर्णां च पञ्चपुष्करिणीं तथा ।। ३९ ।।
दमनीं सर्वभूतानां
मनः प्रोत्साहकारिणीम् ।
दमनीं
सर्वभूतानां चतुःषष्टिं च योगिनीः ॥ ४० ॥
उपर्युक्त सभी
उपचारों को प्रदान कर, मध्य में इनका पूजन करना चाहिए। कामेश्वरी, गुप्तदुर्गा,
विन्ध्यकंदरवासिनी, कोटेश्वरी, दीर्घिका, प्रकटी, भुवनेश्वरी,
आकाशगंगा, कामाख्या, दिक्करवासिनी,
मातंगी, ललिता, दुर्गा,
भैरवी, सिद्धिदा, बलप्रमथिनी,
चण्डी, चण्डोग्रा, चण्डनायिका,
उग्रा, भीमा, शिवा,
शान्ता, जयन्ती, कालिका,
मंगला, भद्रकाली, शिवा,
धात्री, कपालिनी, स्वाहा,
स्वधा, अपर्णा, पञ्चपुष्करिणी,
दमनी, सभी प्राणियों के मन को प्रोत्साहित
करने वाली, सभी प्राणियों का दमन करने वाली तथा चौंसठ
योगिनियाँ मण्डल के मध्यभाग में पूजी जानी चाहिये ॥ ३६-४०॥
एताः सम्पूज्य
मध्ये तु मन्त्रेणाङ्गानि पूजयेत् ।
हृच्छिरस्तु शिखावर्मनेत्रबाहुपदानि
च ।।४१।।
इन सबको मण्डल
के मध्य में पूजा करके मूलमंत्र से हृदय, सिर, शिखा, कवच,
नेत्र, बाहु, पैर आदि
अङ्गों का पूजन करे॥ ४१ ॥
मूलमन्त्राद्यक्षरैस्तु
त्रिभिराद्यङ्गपूजनम् ।
एकैकं वर्द्धयेत्
पश्चान्मन्त्राण्यंगौघपूजने ।। ४२ ।।
इस क्रम में
मूलमन्त्र के प्रारम्भ में तीन-तीन अक्षरों से प्रथम अंग हृदय का पूजन करना चाहिये
शेष अंगों का एक-एक बढ़ाते हुए पूजन करे ॥४१॥
सिद्धसूत्रं च
खड्गं च खड्गमन्त्रेण पूजयेत् ।। ४३ ।।
खड्गपूजन के
लिये प्रयोग किये जाने वाले मंत्रों से ही साधक, सिद्ध-सूत्र (पाश) तथा खड्ग का पूजन करे ॥४३॥
ततोऽष्टपत्रमध्ये
तु पूजयेदष्टयोगिनीः ॥ ४४।।
शैलपुत्रीं चण्डघण्टां
स्कन्दमातरमेव च ।
कालरात्रिं च
पूर्वादिचतुर्दिक्षु प्रपूजयेत् ।। ४५ ।।
चण्डिकामथ
कूष्माण्डी तथा कात्यायनीं शुभाम् ।
महागौरी
चाग्निकोणे नैऋत्यादिषु पूजयेत् ।। ४६ ।।
तत्पश्चात्
पूर्व आदि क्रम से अष्टदलकमल में शैलपुत्री, चन्डघण्टा, स्कन्दमाता, कालरात्री इन चार देवियों का पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर आदि दिशाओं में पूजन करे । चण्डिका,
कूष्माण्डा, कात्यायनी, महागौरी,
इनका अग्निकोण, वायव्यकोण, नैऋत्यकोण, ईशानकोण आदि उपदिशाओं में क्रम से पूजन
कर, आठ योगिनियों का पूजन करे॥ ४४-४६ ॥
महामायां
क्षमस्वेति मूलमन्त्रेण चाष्टधा ।
पूजयेत्
पद्ममध्ये तु बलिदानं ततः परम् ।। ४७ ।।
तत्पश्चात् आठ
बार मूलमन्त्र का प्रयोग कर 'महामाया क्षमस्व' कहते हुए कमल के मध्य में महामाया का पूजन करे । अन्त में
उत्तम बलिदान करे ॥४५ ।।
एवं यदा कल्पविधानमानैः
सम्पूज्यते भैरव कामदेवी ।
तदा स्वयं मण्डलमेत्य
देयं गृह्णाति कामं च ददाति सम्यक् ।।४८ ।।
हे भैरव ! इस
प्रकार के कल्पविधान (पूजापद्धति) द्वारा कामदेवी का जब पूजन किया जाता है । तब
देवी स्वयं उस मण्डल में उपस्थित हो, निवेदित पदार्थों को ग्रहण करती हैं तथा साधक की कामनाओं को
भली-भांति प्रदान करती है ।।४८ ।।
।। इति
श्रीकालिकापुराणे महामायाकल्पे पूजाविधिवर्णननाम चतुःपञ्चाशोऽध्यायः ॥ ५४ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में महामायाकल्प का पूजाविधिवर्णननामक चौवनवाँ अध्याय सम्पूर्ण
हुआ ।। ५४ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 55
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