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कर्मकाण्ड

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शान्त्याध्याय

शान्त्याध्याय

रुद्राष्टाध्यायी (रुद्री) के अध्याय ९ को शान्त्याध्याय' कहा जाता है, इसमें कुल २४ मन्त्र हैं।

शान्त्याध्याय

शान्त्याध्याय

Shantyadhyay

रुद्राष्टाध्यायी के उपसंहार में 'ऋचं वाचं प्रपद्ये' इत्यादि २४ मन्त्र शान्त्याध्याय के रूप में ख्यात हैं। शान्त्याध्याय में विविध देवों से अनेकशः शान्ति की प्रार्थना की गयी है। मित्रता भरी दृष्टि से देखने की बात बड़ी उदात्त एवं भव्य है-

ॐ दृते दृह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् । मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे । मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥

साधक प्रभु प्रीत्यर्थ एवं सेवार्थ अपने को स्वस्थ बनाना चाहता है । स्वकीय दीर्घ जीवन आनन्द एवं शान्तिपूर्ण व्यतीत हो, ऐसी आकाङ्क्षा रखता है- 'पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतः शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतम् ॥'

रुद्राष्टाध्यायी नवमोऽध्यायः शान्त्याध्यायः   

Rudrashtadhyayi chapter 9- Shantyadhyay

रुद्राष्टाध्यायी अध्याय ९  

॥ श्रीहरिः ॥

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

रुद्राष्टाध्यायी नौवाँ अध्याय शान्त्य अध्याय

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भावार्थ सहित

अथ श्रीशुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी नवमोऽध्यायः

ॐ ऋचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये ॥

वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥ १॥

मैं ऋचारूप वाणी की शरण लेता हूँ, मैं यजु:स्वरूप मन की शरण लेता हूँ, मैं प्राणरूप साम की शरण लेता हूँ और मैं चक्षु-इन्द्रिय तथा श्रोत्र-इन्द्रिय की शरण लेता हूँ. वाक् शक्ति, शारीरिक बल और प्राण-अपानवायु ये सब मुझ में स्थिर हों।

यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे दधातु ॥

शं नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः ॥ २॥

मेरे नेत्र तथा हृदय की जो न्यूनता है और मन की जो व्याकुलता है, उसे देवगुरु बृहस्पति दूर करें अर्थात् यज्ञ करते समय मेरे नेत्र, हृदय तथा मन से जो त्रुटि हो गई है, उसे वे क्षमा करें। सम्पूर्ण भुवन के जो अधिपतिरूप भगवान यज्ञपुरुष हैं, वे हमारे लिए कल्याणकारी हों।

भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ॥

धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ ३॥

उन प्रकाशात्मक जगत्स्रष्टा सविता देव के भूर्लोक, भुवर्लोक तथा स्वर्लोक में व्याप्त रहने वाले परब्रह्मात्मक सर्वोतम तेज का हम ध्यान करते हैं, जो हमारी बुद्धियों को सत्कर्मों के अनुष्ठान हेतु प्रेरित करें।

कया नश्चित्र आभुव दूती सदावृधः सखा ।

कया शचिष्ठया वृता ॥ ४॥

सदा सबको समृद्ध करने वाला आश्चर्यरूप परमेश्वर किस तर्पण या प्रीति से तथा किस वर्तमान याग-क्रिया से हमारा सहायक होता है अर्थात् हम कौन-सी उत्तम क्रिया करें और कौन-सा शोभन कर्म करें, जिससे परमात्मा हमारे सहायक हों और अपनी पालन शक्ति द्वारा हमारे वृद्धिकारी सखा हों।

कस्त्वा सत्यो मदानां म ئ हिष्ठो मत्सदन्धसः ॥

दृढाचिदारुजे वसु ॥ ५॥

हे परमेश्वर ! मदजनक हवियों में श्रेष्ठ सोमरुप अन्न का कौन-सा अंश आपको सर्वाधिक तृप्त करता है? आपकी इस प्रसन्नता में दृढ़ता से रहने वाले हम भक्तजन अपने धन आदि के साथ उसे आपको समर्पित करते हैं।

अभीषुणः सखीना मविता जरितॄणाम् ॥

शतं भवास्यूतिभिः ॥ ६॥

हे परमेश्वर ! आप मित्रों के तथा स्तुति करने वाले हम ऋत्विजों के पालक हैं और हम भक्तों की रक्षा के लिए भली-भाँति अभिमुख होकर आप अनन्त रूप धारण करते हैं।

कया त्वं न ऊत्याभि प्रमन्दसे वृषन् ।

कया स्तोतृभ्य आभर ॥ ७॥

हे इन्द्र ! आप किस तृप्ति अथवा हविदान से हमें प्रसन्न करते हैं? और किस दिव्यरूप को धारण कर स्तुति करने वाले हम उपासकों की सारी अभिलाषाओं को पूरा करते हैं?

इन्द्रो विश्वस्य राजति ॥

शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॥ ८॥

सबके स्वामी परमेश्वर चारों तरफ प्रकाशमान हैं। वे हमारे पुत्र आदि के लिए कल्याणरूप हों, वे हमारे गौ आदि पशुओं के लिए सुखदायक हों।

शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा ॥

शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ॥ ९॥

मित्रदेवता हमारे लिए कल्याणमय हों, वरुणदेवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, अर्यमा हमारे लिए कल्याणप्रद हों, इन्द्र देवता हमारे लिए कल्याणमय हों, बृहस्पति हमारे लिए कल्याणकारी हों तथा विस्तीर्ण पादन्यास वाले विष्णु हमारे लिए कल्याणमय हों।

शं नो वातः पवता ئ शं नस्तपतु सूर्यः ॥

शं नः कनिक्रदद्देवः पर्जन्योऽभिवर्षतु ॥ १०॥

वायुदेव हमारे लिए सुखकारी होकर बहें, सूर्यदेव हमारे निमित्त सुखरूप होकर तपें और पर्जन्य देवता शब्द करते हुए हमारे निमित्त सुखदायक वर्षा करें।

अहानिशं भवन्तु नः शئ रात्रीः प्रतिधीयताम् ॥

शं न इन्द्राग्नी भवता मवोभिः शं न इन्द्रावरुणा रातहव्या ॥

शं न इन्द्रा पूषणा वाजसातौ शमिन्द्रा सोमा सुविताय शं योः ॥ ११॥

दिन हमारे लिए सुखकारी हों, रात्रियाँ हमारे लिए सुखरूप हों, इन्द्र और अग्नि देवता हमारी रक्षा करते हुए सुखरूप हों, हवि से तृप्त इन्द्र और वरुण देवता हमारे लिए कल्याणकारी हों, अन्न की उत्पत्ति करने वाले इन्द्र और पूषा देवता हमारे लिए सुखकारी हों एवं इन्द्र और सोम देवता श्रेष्ठ गमन अथवा श्रेष्ठ उत्पत्ति के निमित्त और रोगों का नाश करने के लिए तथा भय दूर करने के लिए हमारे लिए कल्याणकारी हों।

शं नो देवी रभिष्टय आपो भवन्तु पीतये ॥

शं यो रभिस्रवन्तुनः ॥ १२॥

दीप्तिमान जल हमारे अभीष्ट स्नान के लिए सुखकर हो, पीने के लिए स्वादिष्ट तथा स्वास्थ्यकारी हो, यह जल हमारे रोग तथा भय को दूर करने के लिए निरन्तर प्रवाहित होता रहे।

स्योना पृथिविनो भवा नृक्षरा निवेशनी ॥

यच्छानः शर्म सप्रथाः ॥ १३॥

हे पृथिवि ! निष्कण्टक सुख में स्थित रहने वाली तथा अति विस्तारयुक्त आप हमारे लिए सुखकारी बनें और हमें शरण प्रदान करें।

आपो हिष्ठा मयो भुवस्तान ऊर्जे दधातन ॥

महेरणाय चक्षसे ॥ १४॥

हे जलदेवता ! आप जल देने वाले हैं और सुख की भावना करने वाले व्यक्ति के लिए स्नान-पान आदि के द्वारा सुख के उत्पादक हैं। हमारे रमणीय दर्शन और रसानुभव के निमित्त यहाँ स्थापित हो जाइए।

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयते हन: ॥

उशतीरिव मातरः ॥ १५॥

हे जल देवता ! आपका जो शान्तरुप सुख का एकमात्र कारण रस इस लोक में स्थित है। हमको उस रस का भागी उसी तरह से बनाएँ जैसे प्रीतियुक्त माता अपने बच्चे को दूध पिलाती है।

तस्मै अरं ग माम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ ॥

आपो जन यथा च नः ॥ १६॥

हे जल देवता ! आपके उस रस की प्राप्ति के लिए हम शीघ्र चलना चाहते हैं, जिसके द्वारा आप सारे जगत को तृप्त करते हैं, और हमें भी उत्पन्न करते हैं।

द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ئशान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः ॥

वनस्पतयः शान्ति र्विश्वेदेवाः शान्ति र्ब्रह्म शान्तिः सर्वं ئशान्तिः शान्तिरेव शान्तिः

सा मा शान्तिरेधि ॥ १७॥

द्युलोकरूप शान्ति, अन्तरिक्षरूप शान्ति, भूलोकरूप शान्ति, जलरूप शान्ति, औषधिरूप शान्ति, वनस्पतिरूप शान्ति, सर्वदेवरुप शान्ति, ब्रह्मरूप शान्ति, सर्वजगत-रूप शान्ति और संसार में स्वभावत: जो शान्ति रहती है, वह शान्ति मुझे परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो।

दृते दृ ئहमा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ॥

मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ॥

मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे ॥ १८॥

हे महावीर परमेश्वर ! आप मुझको दृढ़ कीजिए, सभी प्राणी मुझे मित्र की दृष्टि से देखें, मैं भी सभी प्राणियों को मित्र की दृष्टि से देखूँ और हम लोग परस्पर द्रोहभाव से सर्वथा रहित होकर सभी को मित्र की दृष्टि से देखें।

दृते दृ ئहमा ।

ज्योक्ते सन्दृशि जी व्यासं ज्योक्ते सन्दृशि जी व्यासम् ॥ १९॥

हे भगवन ! आप मुझे सब प्रकार से दृढ़ बनाएँ। आपके संदर्शन में अर्थात् आपकी कृपा दृष्टि से मैं दीर्घ काल तक जीवित रहूँ।

नमस्ते हरसे शोचिषे अस्त्वर्चिषे ॥

अन्याँस्तेऽस्मत्तपन्तु हेतयः पावकोऽस्मभ्यئ शिवोभव ॥ २०॥

हे अग्निदेव ! सब रसों को आकर्षित करने वाली आपकी तेजस्विनी ज्वाला को नमस्कार है, आपके पदार्थ-प्रकाशक तेज को नमस्कार है। आपकी ज्वालाएँ हमें छोड़कर दूसरों के लिए तापदायक हों और आप हमारा चित्त-शोधन करते हुए हमारे लिए कल्याणकारक हों।

नमस्ते अस्तु विद्युते नमस्ते स्तनयित्नवे ॥

नमस्ते भगवन्नस्तु यतः स्वः समीहसे ॥ २१॥

विद्युत रूप आपके लिए नमस्कार है, गर्जनारूप आपके लिए नमस्कार है, आप सभी प्राणियों को स्वर्ग का सुख देने की चेष्टा करते हैं, इसलिए आपके लिए नमस्कार है।

यतो यतः समीहसे ततो नोऽभयं कुरु ॥

शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ २२॥

हे परमेश्वर ! आप जिस रुप से हमारे कल्याण की चेष्टा करते हैं उसी रुप से हमें भयरहित कीजिए, हमारी संतानों का कल्याण कीजिए और हमारे पशुओं को भी भयमुक्त कीजिए।

सुमित्रिया न आप ओषधयः सन्तु दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु

योऽस्मान्द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः ॥ २३॥

जल और औषधियाँ हमारे लिए कल्याणकारी हों और हमारे उस शत्रु के लिए वे अमंगलकारी हों, जो हमारे प्रति द्वेषभाव रखता है अथवा हम जिसके प्रति द्वेषभाव रखते हैं।

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् ॥

पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतئ

श्रृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शत मदीनाः स्याम

शरदः शतं भूयश्व शरदः शतात् ॥ २४॥

देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित, जगत के नेत्रस्वरुप तथा दिव्य तेजोमय जो भगवान आदित्य पूर्व दिशा में उदित होते हैं उनकी कृपा से हम सौ वर्षों तक देखें अर्थात् सौ वर्षों तक हमारी नेत्र ज्योति बनी रहे, सौ वर्षों तक सुखपूर्वक जीवन-यापन करें, सौ वर्षों तक सुनें अर्थात् सौ वर्षों तक श्रवणशक्ति से संपन्न रहें, सौ वर्षों तक अस्खलित वाणी से युक्त रहें, सौ वर्षों तक दैन्यभाव से रहित रहें अर्थात् किसी के समक्ष दीनता प्रकट न करें। सौ वर्षों से ऊपर भी बहुत काल तक हम देखें, जीयें, सुनें, बोलें और अदीन रहें।

इति रुद्राष्टाध्यायी नवमोऽध्यायः शान्त्याध्यायः ॥ ९ ।।

॥ इस प्रकार रुद्रपाठ (रुद्राष्टाध्यायी) का नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥

आगे जारी.......... रुद्राष्टाध्यायी अध्याय 10- स्वस्ति-प्रार्थना

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