कालिका पुराण अध्याय ५२
कालिका पुराण
अध्याय ५२ में महामाया कल्प मण्डल- विधान का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ५२
Kalika puran chapter 52
कालिकापुराणम् द्विपञ्चाशोऽध्यायः महामायाकल्पे मण्डल- विधानवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ५२
।। और्व उवाच
।।
एवं वदति भूतेशे
तदा वेतालभैरवौ ।
प्राहतुर्व्योमकेशं
तौ हर्षोत्फुल्लविलोचनौ ।। १ ।।
और्व बोले- इस
प्रकार से जब भूतेश शिव, बोल रहे थे, उस समय उन दोनों वेताल और भैरव ने,
जिनके नेत्र प्रसन्नता से खिल रहे थे,
व्योमकेश, भगवान शिव से कहा- ॥ १ ॥
।।
वेतालभैरवावूचतुः ।।
पार्वत्या न
हि जानीवो ध्यानं मन्त्रं विधिं तथा ।
कथमाराधयिष्यावो
भगवन् सम्यगुच्यताम् ।।२।।
वेताल और भैरव
बोले- हे भगवन्! हम दोनों पार्वती के ध्यान, मंत्र और उनकी पूजाविधि को नहीं जानते। हम दोनों कैसे उनकी
आराधना करें ? यह आप हमें भली-भाँती बताइए ॥ २ ॥
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
महामायाविधिं
मन्त्रं कल्पं च भवतोः सुतौ ।
उपदेक्ष्यामि
तत्त्वेन येन सर्वं भविष्यति ।। ३ ।।
श्रीभगवान्
(शिव) बोले- हे पुत्रों ! मैं तुम दोनों को संक्षेपरूप से महामाया की पूजाविधि,
मंत्र और कल्प का उपदेश करूँगा,
जिससे सब कुछ ज्ञात हो जाएगा ॥
३ ॥
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्त्वा स
महामायाध्यानं मन्त्रं विधिं तथा ।
कथयामास
गिरिशस्तयोः सम्यङ् नृपोत्तम ।।४।।
यदष्टादशभिः पश्चात्पटलैश्च
स भैरवः ।
स निर्णयविधिं
कल्पं निबबन्ध शिवामृते ।।५।।
और्व बोले- हे
राजाओं में श्रेष्ठ! ऐसा कह कर उन भगवान् शंकर ने महामाया के ध्यान,
मंत्र और उनकी पूजाविधि को उन दोनों से भलीभाँति कहा—
जिसका वर्णन भैरव ने १८ पटलों (अध्यायों) में पार्वती
द्वारा पूछे जाने पर, निर्णयविधि नामक कल्प (महामायाकल्प ) के नाम से बाद में
निबन्ध के रूप में लिखा ॥ ४ - ५ ॥
।। सगर उवाच
।।
कीदृङ्
मन्त्रं पुरा शम्भुरवोचदुभयोस्तयोः ।
येनाराध्य महामायां
तौ गणेशत्वमापतुः ।।६॥
सकल्पं
सरहस्यं च साङ्गं तच्छ्रोतुमुत्सहे ।
दशाष्टपटलैर्यत्
तु निबबन्ध सभैरवः ॥७॥
सगर बोले-
भगवान शंकर ने प्राचीन काल में उन दोनो से किस प्रकार का मंत्र कहा था जिससे
महामाया की आराधना करके उन दोनों ने गणों के स्वामित्व को प्राप्त किया था ?
मैं कल्प, रहस्य और अंगो के सहित उसे सुनना चाहता हूँ,
जिसको भैरव ने बाद में अट्टारह पटलों में लिखा ।।६-७।।
। और्व उवाच
।।
बहुत्वाद्
वदितुं तस्य चिरेणैव तु शक्यते ।
तस्मात् सद्यः
समुद्धृत्य यन्महादेवभाषितम् ।
संक्षेपात्
कथये तत्त्वं तच्छृणुष्व नृपोत्तम ।।८।।
और्व बोले- हे
राजाओ में श्रेष्ठ ! उसे विस्तार से बताने में बहुत समय लगेगा। इसलिए महादेव ने जो
कुछ कहा था, उसका उद्धरण देते हुए, मैं शीघ्र ही संक्षेप में कहता हूँ । उस तत्त्व को आप सुनो
॥८॥
पृच्छन्तौ पार्वतीमन्त्रं
तदा वेतालभैरवौ ।
जगाद स
महादेवः शृणुतं मन्त्रकल्पकौ ।। ९ ।।
वेताल और भैरव
द्वारा पूछे जाने पर उन महादेव ने उस समय, पार्वती के जिस मंत्र को कहा था,
उसे सुनो ॥९ ॥
कालिका पुराण अध्याय ५२- वैष्णवीमन्त्रविधान
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
शृणु मन्त्रं
प्रवक्ष्यामि गुह्याद् गुह्यतमं परम् ।
अष्टाक्षरं तु
वैष्णव्या महामायामहोत्सवम् ।। १० ।।
श्रीभगवान
बोले- मैं महामाया के महान उत्सव संबंधी, गोपनीय से भी गोपनीय, श्रेष्ठ, वैष्णवी के अष्टाक्षरमंत्र को कहूँगा। तुम दोनों ध्यान से
सुनो ॥ १० ॥
अस्य
वैष्णवीमन्त्रस्य नारदर्षिः शम्भुर्देवो ।
अनुष्टुप्छन्दः
सर्वार्थ साधनैव विनियोगः ।। ११ ।।
इस
श्रीवैष्णवीमंत्र के ऋषि नारद, देवता शम्भु, छन्द अनुष्टुप् हैं । इसका विनियोग सभी कार्यों की सिद्धि
में किया जाता है ॥ ११ ॥
हान्तान्तपूर्वो
मान्तश्च नान्तो णान्तस्तथैव च ।
कैकादशाष्टादिषष्ठः
खान्तो विष्णुपुरःसरः ।। १२ ।।
एभिरष्टाक्षरैर्मन्त्रं
शोणपत्रसमप्रभम् ।
ॐ कारं
पूर्वतः कृत्वा जप्यं सर्वैस्तु साधकः ।।१३।।
हान्तान्त
पूर्व का वर्ण "श" तथा "म" के अन्त का वर्ण "य" एवं
न के अन्त में आने वाला वर्ण "प" तथा "ण" के पश्चात् आनेवाला
वर्ण "त”, “क”
से ग्यारहवाँ वर्ण "ट" आदि व्यंजन "क"
से छठा वर्ण "च", ख जिसके अन्त में है वह वर्ण "क",
विष्णु (अ) को आगे किये हुए, उल्टे क्रम में, अ क च ट त प य स इनको ॐ कार के सहित लिखने से ॐ अं कं चं टं
वं पं यं थं, यह आठ अक्षरों वाला, सभी प्रकार के साधकों द्वारा जपने योग्य लालकमल पत्र के समान
मंत्र है ।। १२-१३ ॥
महामन्त्रमिदं
गुह्यं वैष्णवीमन्त्रसंज्ञकम् ।
मन्त्रं कलेवरगतं
तस्मादङ्गं प्रकीर्तितम् ।।१४।।
वैष्णवीमन्त्र
नाम का यह (उपर्युक्त) मन्त्र, अत्यन्तगुप्त, महामन्त्र है। मन्त्र, शरीर रूप में होता है इसलिए उसके अंगों का वर्णन आगे किया
जाता है ॥१४॥
महादेवस्योर्ध्वमुखं
बीजमेतत् प्रकीर्तितम् ।
ॐ
काराक्षरबीजं च यकार: शक्तिरुच्यते ।। १५ ।।
महादेव का
ऊर्ध्व मुख, ऊँकार अक्षर, इसका बीज कहा गया है तथा यकार को इसकी शक्ति कहा गया है
।।१५।।
कालिका पुराण अध्याय ५२- पूजाविधिवर्णन
सबीजं कथितं
मन्त्रं कल्पं च शृणु भैरव ।
तीर्थे नद्यां
देवखाते गर्तप्रस्रवणादिके ।। १६ ।।
परकीयेतरे तोये
स्नानं पूर्वं समाचरेत् ।
आचान्तः
शुचितां प्राप्तः कृतासनपरिग्रहः ।। १७ ।।
हे भैरव ! बीज
के सहित मैंने मन्त्र को कहा है। अब कल्प (पूजापद्धति) को सुनो —
वैष्णवीपूजाकल्प - पहले तीर्थस्थान में,
नदी में, देवकुण्डों में, गहरे गड्डों या झरने आदि में, दूसरों से सम्बन्धित न होकर जल में स्नान करना चाहिए
तत्पश्चात् आचमन आदि से पवित्रता को प्राप्त कर, आसन ग्रहण करे। १६-१७॥
उत्तराभिमुखो
भूत्वा स्थण्डिलं मार्जयेत् ततः ।
करेणानेन
मन्त्रेण यूं सः क्षित्या इति स्वयम् ।। १८ ।।
तब उत्तर की
ओर मुँह करके अपने हाथ से यूं सः क्षित्या इस मन्त्र से पृथ्वी पर वेदी का
स्वयं मार्जन करे ।।१८ ।।
ॐ ह्रीं सः
इति मन्त्रेण आशापूरणकेन च ।
तोयैरभ्युक्षयेत्
स्थानं भूतानामपसारणे ।। १९।।
ॐ ह्रीं सः इस आशापूरणमन्त्र से पूजास्थान पर जल छिड़के और वहाँ स्थित
भूतों को दूर भगाये (भूतापसारण करे ) ॥ १९॥
ततः सव्येन
हस्तेन गृहीत्वा स्थण्डिलं शुचिः ।
मन्त्रं
लिखेत् सुवर्णेन याज्ञिकेन कुशेन वा ।।२०।।
तब पवित्र हो,
दाहिने हाथ से पकड़ कर सोने की शलाका से या यज्ञ में प्रयोग
की जाने वाली कुशा से वेदी पर मन्त्र लिखे ॥ २० ॥
ॐ वैष्णव्यै
नम इति मन्त्रराजमथापि वा ।
ततस्त्रिमण्डलं
कुर्यात् तेनैव समरेखया ।। २१ ।।
इस क्रम में ॐ
वैष्णव्यै नमः या मन्त्रराज (वैष्णवीमन्त्र) लिखना चाहिए । तब उसी कुशा आदि से,
समान रेखा पर तीन मण्डल बनाये ॥२१॥
नित्यासु न हि
पूजासु रजोभिर्मण्डलं लिखेत् ।
पुरश्चरणकार्येषु
तत्काम्येषु प्रयोजयेत् ।। २२ ।।
नित्यपूजा में
रजकणों से मण्डल बनाने की आवश्यकता नहीं हैं किन्तु पुरश्चरण कार्यों में और
कामनापरक कार्यों में मण्डलविधान अवश्य करना चाहिए ॥ २२ ॥
रेखामुदीच्यां
प्रथमं पश्चिमे तदनन्तरम् ।
दक्षिणे तु
ततः पश्चात् पूर्वभागे तु शेषतः ।। २३ ।।
मण्डल बनाते
समय,
पहली रेखा उत्तरदिशा में तब पश्चिम में तत्पश्चात् दक्षिण
में तथा अन्त में पूर्व की दिशा में बनाना चाहिए ॥ २३ ॥
वर्णानां च सहद्वारैरेवमेव
क्रमो भवेत् ।
ॐ ह्रीं श्रीं
स इति मन्त्रेण मण्डलं पूजयेत् ततः ।। २४ ।।
द्वारों के
सहित,
अक्षरों का यही क्रम होना चाहिए । तब ॐ ह्रीं श्रीं सः
इस मन्त्र से मण्डल का पूजन करना चाहिए ॥ २४ ॥
हस्तेन मण्डलं
कृत्वा कुर्याद् दिग्बन्धनं ततः ।
आशबन्धनमन्त्रेण
पूर्वोक्तेन यथाक्रमम् ।
फडन्तेनात्मनाप्यत्र
करेणैव निबन्धयेत् ।। २५ ।।
तब पहले बताये
हुए क्रम में हाथ से मण्डल बनाकर, दिग्बंधनमन्त्र दिशाओं का बन्धन करे। तत्पश्चात् फट् जिसके
अन्त में हो उस मन्त्र से अपने को भी हाथ से ही सुरक्षित करे ॥ २५ ॥
यवानां मण्डलैरेकमङ्गुलं
चाष्टभिर्भवेत् ।। २६ ।।
अदीर्घयोजितैर्हस्तैश्चतुर्विंशतिरङ्गुलैः।
तत्प्रमाणेन
हस्तेन हस्तैकं तस्य मण्डलम् ।। २७ ।।
आठ जौ के समूह
के नाप का एक अंगुल क्षेत्र होता है और साधारण, बहुत लम्बे नहीं, हाथ का मान चौबीस अंगुल होता है। इस नाप के हाथ से एक हाथ का
मण्डल बनाना चाहिए ।। २६-२७।।
पद्मं
वितस्तिमात्रं स्यात् कर्णिकारं तदर्धकम् ।
दलान्यन्योन्यसक्तानि
ह्यायानि नियोजयेत् ।। २८ ।।
उसमें एक
वित्तेभर नाप का कमल और उसके आधे की, कर्णिका बनाये । कमल के पत्ते बड़े और आपस में मिले हुए
बनाये ॥ २८ ॥
न न्यूनाधिकभागानि
सबहिर्वेष्टितानि च ।
मध्यभागे
न्यसेद् द्वारान्न न्यूने नाधिके तथा ।
सुबद्धं
मण्डलं तच्च रक्तवर्णं विचिन्तयेत् ।। २९ ।।
बाहर के घेरे
कम या अधिक नहीं होने चाहिए। उनके ठीक मध्यभाग में द्वार बनाना चाहिए । जो न कम हो
और न अधिक, इस प्रकार सुन्दर, बँधा हुआ, लाल रंग का मण्डल बनाना चाहिए ।। २९ ।।
इतोऽन्यथा
मण्डलमुग्रमस्याः करोति यो लक्षणभागहीनम् ।
फलं न
चाप्नोति न काममिष्टं तस्मादिदं मण्डलमत्र लेख्यम् ।। ३० ।।
जो देवी के
पूर्ववर्णित, प्रभावशाली मण्डल को इससे भिन्न या उपर्युक्त लक्षणों से हीन बनाता है। उसकी न
अभीष्ट कामना ही पूरी होती हैं और न ही उसे उचित फल ही प्राप्त होता है। इसलिए
यहाँ पर मण्डल बनाने का विधान बताया गया हैं ॥ ३०॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे महामायाकल्पे मण्डलविधानवर्णननाम द्विपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में महामायाकल्प का मण्डलविधानवर्णननामक बावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण
हुआ ॥५२॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 53
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