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कालिका पुराण अध्याय ४७
कालिका पुराण
अध्याय ४७ में वेताल और भैरव के जन्म की चर्चा के साथ ही शिव के मनुष्यावतार
चन्द्रशेखर चरित का आरम्भ होता है ।
कालिका पुराण अध्याय ४७
Kalika puran chapter 47
कालिकापुराणम् सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः चन्द्रशेखरचरितवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ४७
।। और्व उवाच
।
हरो यावद्
जगत्यर्थे देववर्गैः प्रसादितः ।
तावन्महामैथुनेन
हीनोऽभूदुमया सह ।। १ ।।
और्व बोले-
संसार के कल्याण हेतु जब से शिव देवताओं द्वारा प्रसन्न किये गये तब से वे पार्वती
के प्रति महामैथुन से रहित हो गये ॥ १॥
वर्तते
रतिमात्रेण स्वेच्छां सम्पूरयन् सदा ।
यथा मनोरथं
देव्याः सततं पूरयन्मृडः ॥२॥
तब से वे शिव
रतिमात्र से ही सदैव अपनी इच्छा की पूर्ति तथा देवी के मनोरथ की पूर्ति करते रहते
थे ॥२॥
अथैकदोमया
सार्धं निगूढे रतिमन्दिरे ।
नर्माकरोन्महादेवो
मोदयुक्तो रतिप्रियः ॥३॥
रति के प्रेमी
वे महादेव, पार्वती के साथ गुप्तरति मन्दिर में एक बार प्रसन्नतापूर्वक कामक्रीड़ा रत थे
॥३॥
यदा सा नर्मणे
याता गौरी स्मरहरान्तिकम् ।
तदा
भृङ्गिमहाकालौ द्वाःस्थौ द्वारि प्रतिष्ठितौ ॥४॥
जब वे गौरी
केलि के निमित्त कामारि शिव के समीप थीं । उस समय भृङ्गी एवं महाकाल दोनों द्वार
पर ही स्थित थे ॥४॥
नर्मावसाने सा
देवी मुक्तधम्मिल्लबन्धना ।
बन्धहीनं
गलद्गात्राद्वस्त्रमालम्ब्य पाणिना ।।५।।
व्यस्तहारा गन्धपुष्पैराकुलैर्नातिशोभना
।
विलुप्त
कुंकुमा दंष्टदशनच्छदविभ्रमा ।। ६ ।।
निःसृता
रतिसङ्केलिनिलयाज्जलजानना ।
ईषदाघूर्णनयना
निचिता स्वेदबिन्दुभिः ॥७॥
कामक्रीड़ा
समाप्त होने पर वे देवी, खुले हुए जूड़े के बन्धन, उन्मुक्त, ढीले शरीर से, हाथों से वस्त्रों को पकड़ी हुई निकलीं। उस समय उनके गले के
हार अस्त- व्यस्त थे तथा गन्ध-पुष्प आदि के अस्त-व्यस्त हो जाने से वे बहुत सुन्दर
नहीं लग रही थीं । उनके माथे का कुंकुम पुंछ गया था, क्रीड़ा में दाँतो के काटे जाने के चिह्न दिखाई दे रहे थे ।
इस प्रकार की अवस्था को प्राप्त, कमल के समान मुखवाली पार्वती, जिनके नेत्र कुछ अस्थिर थे तथा शरीर से पसीने टपक रहे थे,
रतिकेलिक्रीड़ामन्दिर से निकलीं ॥५-७॥
तां
निःसरन्तीं सदनात् तथाभूतामनिन्दिताम् ।
अयोग्यां
वीक्षितुञ्चान्यैर्वृषध्वजमृते पतिम् ॥८॥
ददर्श
तुर्महात्मान नातिहृष्टात्ममानसौ ।
भृङ्गी चापि
महाकालः प्राप्तकालं चुकोपतुः ।। ९ ।।
जो अपने पति
शिव के अतिरिक्त किसी अन्य द्वारा देखने योग्य नहीं थीं उन अनिन्द्यसुन्दरी,
देवी पार्वती को महात्मा भृङ्गी एवं महाकाल ने बिना अधिक
प्रसन्न हुए, उस अवस्था में देखा तथा उस अवसर पर वे क्रोधित हो गये ॥८-९ ॥
दृष्ट्वा तां
मातरं दीनौ तथाभूतावधोमुखौ ।
चिन्तां च
जग्मतुस्तीव्रां निशश्वसतुरुत्तमौ ।। १० ।।
उस अवस्था में
अपनी माता को देखकर दीनभाव से नीचे मुख किये, उत्तम-गुणोंवाले वे दोनों तीव्र चिन्ता को प्राप्त हुए तथा
लम्बी-लम्बी साँसे लेने लगे ॥१०॥
तौ पश्यन्तौ
तदा देवी ददर्श हिमवत्सुता ।
चुकोप च
तदापर्णा वाक्यं चैतदुवाच ह ।। ११ ।।
जब हिमालय की
पुत्री पार्वती ने उस समय उन दोनों को उस प्रकार क्रोधित
दृष्टि से देखते देखा तब क्रोधित हो,
देवी अपर्णा ने ये वचन कहे ॥ ११ ॥
।। देव्युवाच
।।
एवं भूतां च
मां कस्मादसम्बद्धावपश्यताम् ।
भवन्तौ तनयौ
शुद्धौ ह्रीमर्यादाविवर्जितौ ।।१२।।
देवी बोलीं-
इस घटना से तुम्हारा कोई सम्बन्ध न होने पर भी तुम दोनों शुद्धरूप से मेरे पुत्र होते
हुए भी लज्जा एवं मर्यादा रहित हो, इस अवस्था में मुझे देख रहे हो ।।१२।।
यस्मादिमाममर्यादां
भवन्तौ निरपत्रपौ ।
अकुर्वतां ततो
भूयाद् भवतोर्जन्म मानुषे ।। १३ ।।
लज्जारहित तुम
दोनों इस प्रकार का अमर्यादापूर्ण कार्य कर रहे हो इसलिए तुम दोनों का अगला जन्म,
मनुष्य योनि में हो ॥ १३॥
मानुषीं
योनिमासाद्य मदवेक्षणदोषतः ।
भविष्यन्तौ
भवन्तौ तु शाखामृगमुखौ भुवि ।। १४ ।।
इस अवस्था में
मुझे देखने के दोष के कारण पृथ्विी पर मनुष्य-योनि में जन्म लेने पर भी तुम दोनों
का मुख बन्दर जैसा होगा ।। १४ ।।
।। और्व उवाच
।।
इति तावुमया
शप्तौ हरपुत्रौ महामती ।
भृङ्गी चैव
महाकालः स्वमातुरन्तिकं तदा ।। १५ ।।
और्व बोले- तब
वे भृङ्गी और महाकाल नामक दोनों महाबुद्धिमान् शिव-पुत्र,
उमा द्वारा इस प्रकार से शापित हो,
अपनी माता के समीप गये ॥ १५ ॥
तौ
प्राप्तदुःखौ तु तदा दुर्मनस्कौ हरात्मजौ ।
शापं तस्या न
सेहाते प्रोचतुश्चेदमद्रिजाम् ।। १६ ।।
तब वे दोनों
शिवपुत्र जो दुखद शाप को प्राप्त कर उदास हो गये थे, उनके शाप को न सह पाने के कारण अद्रिजा (पार्वती) से यह कहे
- ॥ १६ ॥
।। तौ ऊचतुः
।।
अनागसौ
सदैवावां भवत्या हिमवत्सुते ।
कथं शप्तौ
त्वया मातर्हठादेवं प्रकोपया ।।१७।।
वे दोनों
बोले- हे हिमालय की पुत्री ! हम दोनों सदैव निर्दोष हैं । ऐसी परिस्थिति में आपके
द्वारा अनायास क्रोधित हो, हमें शाप क्यों दिया गया ? ।। १७ ।।
नियोजितौ यथा
द्वारि महेशेन त्वया सह ।
तथा नियोगं
कुर्वन्तौ तिष्ठावो द्वारि संयतौ ।। १८ ।।
आप के सहित
भगवान् शिव द्वारा जिस प्रकार द्वार पर नियोजित किये गये थे,
उसी के अनुसार हमदोनों अपना दायित्व सम्पादन करते हुए संयत
रूप से द्वार पर उपस्थित थे ॥१८॥
हठान्निःसरणं
गेहात् तवैव न हि युज्यते ।
आगच्छन्त्या
भवत्या तु दृष्टावावां सुसंयतौ ।। १९।।
आपका उस समय
अचानक घर से निकलना उचित नहीं था । हम दोनों उस रूप में आपको आता हुआ देखकर भली भाँती
व्यवस्थित रूप से खड़े ही हुए थे ।। १९।।
तस्मान्निरर्थकः
कोपः को दोषस्तत्र चावयोः ।
तस्मात् तत्र
प्रतीकारं शृणु मातरनिन्दिते ।। २० ।।
हम दोनों का
इसमें क्या दोष था ? अतः हम दोनों पर आपका क्रोध निरर्थक ही था । इसलिए हे
श्रेष्ठ माता ! अब आप उसका प्रतिकार सुनिये ॥२०॥
त्वं मानुषी
क्षितौ भूया हरो भवतु मानुषः ।
मानुषस्य
हरस्याथ जायायां हरतेजसा ।
भवत्याश्चापि मानुष्या
भविष्यावस्तथोदरे ।। २१ ।।
आप पृथिवी पर
मनुष्य- स्त्री तथा भगवान शङ्कर मनुष्य (पुरुष) रूप जन्म में लें । मनुष्यवेशधारी
शिव की पत्नी के गर्भ से, आपके ही उदर से हम दोनों मनुष्य योनि में जन्म लें।। २१ ॥
यदि सत्यं
हरसुतावावां यदि निरागसौ ।
तदावयोरिदं
वाक्यं सत्यमस्तु गिरेः सुते ।। २२ ।।
हे गिरिसुते !
यदि सचमुच में हम दोनों शिवपुत्र हैं, और निर्दोष हैं तो हम दोनों का उपर्युक्त कथन सत्य हो॥२२॥
।। और्व उवाच
।
इत्यन्योन्यमथो
शापं दत्त्वा दत्त्वा सुदारुणम् ।
विविशुर्नृपशार्दूल
गौरी हरसुतौ च तौ ।। २३ ।।
और्व बोले- हे
राजाओं में शार्दूलवत् श्रेष्ठ ! इस प्रकार परस्पर एक दूसरे को भयंकर शाप देकर
गौरी और शिव के वे दोनों पुत्र, चले गये ॥२३॥
अथ काले
व्यतीते तु सर्वज्ञो वृषभध्वजः ।
तद्भावि कर्म
ज्ञात्वैव मानुषो ह्यभवत् स्वयम् ।। २४ ।।
तत्पश्चात्
कुछ समय बीत जाने पर सब कुछ जानने वाले शिव, उस भावी-कर्म को जानकर स्वयं मनुष्य हुए ॥२४॥
ब्रह्मणो
दक्षिणांगुष्ठाद् दक्षो ब्रह्मसुतोऽभवत् ।
अदितिस्तत्सुता
जाता ततः पूषाह्वयोऽभवत् ।। २५ ।।
ब्रह्मा के
दाहिने अंगुठे से दक्ष नाम के ब्रह्मा के एक पुत्र उत्पन्न हुये। जिनकी अदिति नामक
एक पुत्री उत्पन्न हुई। उस आदिति को पूषा नामवाला एक पुत्र उत्पन्न हुआ ।। २५ ।।
पूष्णः
पुत्रोऽभवत् पौष्यः सर्वशास्त्रार्थपारगः ।
यस्य तुल्यो
नृपो भूमौ न भूतो न भविष्यति ।। २६।।
उस पूषा को एक
पौष्य नाम का, सभी शास्त्रों के अर्थ को भली-भाँती जानने वाला पुत्र हुआ,
जिसके समान इस पृथ्वी पर न कोई राजा हुआ है,
न होगा ॥ २६ ॥
स पुत्रहीनो
राजाभूत् पौष्यो नृपतिसत्तमः ।
शेषे वयसि
सम्प्राप्ते भार्याभिस्तिसृभिः सह ।। २७ ।।
पौष्यः परमया
भक्त्या ब्रह्माणं पर्यंतोषयत् ।। २८ ।।
वह पौष्य
राजाओं में श्रेष्ठ किन्तु पुत्रहीन राजा हुआ । उसकी तीन रानियाँ थीं । वय का
उत्तरार्ध उपस्थित होने पर उसने अपनी तीनों पत्नियों के साथ परमभक्ति से ब्रह्मा
को प्रसन्न किया ।। २७-२८ ।।
तस्य प्रसन्नो
भगवान् ब्रह्मा लोकपितामहः ।
तमुवाच च
राजानं किमिच्छसि वदस्व मे ।। २९ ।।
उसकी आराधना
से लोक पितामह भगवान् ब्रह्मा प्रसन्न हो गये तथा उस राजा से बोले- क्या चाहते हो ?
मुझे बताओ ॥ २९॥
प्रसन्नोऽस्मि
नृपश्रेष्ठ प्रदास्यामि यथेप्सितम् ।
यदिष्टं तव
जायानां तद्वदिष्यसि साम्प्रतम् ॥ ३० ॥
हे राजाओं में
श्रेष्ठ राजा ! मैं इस समय प्रसन्न हूँ । अत: तुम जो चाहते हो और तुम्हारी
पत्नियों को जो अभीष्ट है, वह मैं प्रदान करूँगा ॥३०॥
।। पौष्य उवाच
।
हिरण्यगर्भापुत्रोऽहं
पुत्रार्थी त्वामुपास्महे ।
त्वयि
प्रसन्ने पुत्रो मे भूयाल्लक्षणसंयुतः ।। ३१ ।।
पौष्य बोले-
हे हिरण्यगर्भ ! मैं पुत्र हीन हूँ तथा पुत्र की आकांक्षा से ही आपकी उपासना कर
रहा हूँ । आपके प्रसन्न होने से मुझे लक्षणसम्पन्न, उत्तमपुत्र हो, यही कामना है ॥ ३१ ॥
एतदर्थे
सभार्योऽहं भक्त्या त्वां समुपस्थितः ।
यथा मे जायते
पुत्रस्तथा कुरु जगत्पते ।। ३२ ।।
इसी हेतु मैं
अपनी पत्नियों सहित आपकी सेवा में भक्तिपूर्वक उपस्थित हुआ हूँ। हे जगत्पति !
जिससे मुझे पुत्र उत्पन्न हो ऐसा उपाय कीजिये।।३२।।
पुन्नाम्नो
नरकात् पुत्रस्त्रायते पितरं प्रसूम् ।
अतस्तस्माद्
भयं ब्रह्मंस्त्वं नाशयितुमर्हसि ।। ३३ ।।
क्योंकि पुत्र
उत्पन्न होकर पितरों का पुम् नामक नरक से उद्धार कर देता हैं। ब्रह्मदेव ! अतः आप
पुत्र प्रदान कर उस नरक का हमारा भय दूर करें ॥ ३३ ॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
शृणु पौष्य
यथा भावी पुत्रस्तव कुलोद्वहः ।
तदहं ते
वदाम्यद्य भार्याभिस्तत् समाचर ।। ३४ ।।
ब्रह्मा बोले-
हे पौष्य ! जिस प्रकार से तुम्हें कुल को बढ़ाने वाला पुत्र उत्पन्न होगा । आज उसे
मैं तुमसे कहता हूँ । उसे तुम सुनो तथा अपनी पत्नियों सहित उस पर आचरण करो ॥३४॥
इदं फलं गृहाण
त्वं मया दत्तं नृपोत्तम ।
अजीर्णं बहुले
काले प्राप्तेऽपि सुरसं सदा ।। ३५ ।।
हे नृपोत्तम !
मेरे द्वारा दिये गये इस फल को ग्रहण करो जो बहुत समय के बाद भी पुराना नहीं होगा
और सदैव सुन्दर रसयुक्त बना रहेगा ॥३५॥
फलमेतत्
समादाय तावत् संवत्सरत्रयम् ।
आराधय महादेवं
स प्रसन्नो भविष्यति ।। ३६ ।।
यथा सम्भाषते
भर्गः फलमेतत् तथा भवान् ।
करिष्यति फलं
राजन् भार्याभिस्तिसृभिः सह ।। ३७।।
हे राजन् ! इस
दिव्यफल को लेकर तीन वर्षों तक तुम महादेव की आराधना करो। इससे वे प्रसन्न हो
जायेंगे,
उस समय भगवान् शिव इस फल के विषय में जैसा कहें,
अपनी तीनों पत्नियों सहित आप वैसा ही करोगे।।३६-३७।।
ततस्ते
लक्षणोपेतस्तनयः कुलवर्धनः ।
भविष्यति
स्वयं शास्ता चक्रवर्ती वसुन्धराम् ।। ३८ ।।
तब तुम्हें
सभी लक्षणों से युक्त, कुल को बढ़ाने वाला, पृथ्वी का स्वयं (एकमात्र) शासक,
चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न होगा॥३८॥
।। और्व उवाच
॥
इत्युक्त्वा
प्रययौ ब्रह्मा राजापि सह भीरुभिः ।
हरं यष्टुं
समारेभे भक्त्या परमया युतः ।। ३९ ।।
निराशीः
संयताहारः कदाचित् फलभोजनः ।
दृषद्वतीनदीतीरे
फलं संस्थाप्य चाग्रतः ।
पुष्पार्ध्यधूपदीपैश्च
वृषध्वजमतर्पयत् ।। ४० ।।
और्व बोले-
ऐसा कह कर ब्रह्मा अपने स्थान को चले गये तब राजा ने भी अपनी भीरु (धर्मभीरु)
पत्नियों के सहित परमभक्तिपूर्वक भगवान् शिव की पूजा करना प्रारम्भ किया ।
उन्होंने दृषद्वती नदी के तट पर कभी बिना खाये रहते, कभी संयत- आहार करते तो कभी फलाहार करते हुए,
ब्रह्मा द्वारा दिये गये फल को आगे रखकर वृषध्वज शिव को
पुष्प,
अर्घ्य, धूप और दीप समर्पित कर सन्तुष्ट किया । । ३९ - ४०॥
स तु
वर्षद्वयेऽतीते महा जगत्पति I
पौष्यस्य
नृपतेः सम्यक् प्रससादार्थसिद्धये ।। ४१ ।।
इस प्रकार
पूजा करते दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर जगत्पति महादेव,
राजा पौष्य की कार्यसिद्धि हेतु उनके सम्मुख भली-भाँति
प्रसन्नतापूर्वक उपस्थित हुए ॥४१ ॥
प्रसन्नः
प्राह नृपतिः महादेवो हसन्निव ।
उपाससे
किमर्थं मां तन्मे वद ददामि ते ।। ४२ ।।
तब महादेव शिव
ने प्रसन्न हो राजा से हँसते हुये कहा - "हे राजन् ! तुम जिस उद्देश्य से
मेरी उपासना कर रहे हो, वह मुझसे कहो, उसे मैं तुम्हें प्रदान करूँगा ॥ ४२ ॥
।। पौष्य उवाच
।
अपुत्रोऽहं पुत्रकामस्तच्छृणुष्व
वृषध्वज ।
यथाहं
पुत्रवान् वै स्यां वृषध्वज तथा कुरु ।। ४३ ।।
पौष्य बोले-
हे वृषध्वज ! मैं अपुत्र हूँ, मैं पुत्र की कामना करता हूँ उसे सुनिये और कुछ वैसा कीजिये
जिससे मैं पुत्रवान् हो जाऊँ ॥ ४३ ॥
।। और्व उवाच
॥
इति स
न्यगदद्राजा भार्याभिः सह हर्षितः ।
प्रणम्य
स्तुतिपूर्वेण भक्तिनम्रात्ममानसः ।। ४४ ।।
और्व बोले-
पत्नियों सहित उस राजा ने भक्तिवश विनम्र मन से उन्हें प्रणाम करके शिव की स्तुति
करते हुये जब ऐसा कहा ॥ ४४ ॥
ततः
पुत्रार्थिनं भूपं प्रसन्नो वृषभध्वजः ।
ब्रह्मदत्तं
फलं हस्ते कृत्वेदं तमुवाच ह ।। ४५ ।।
तब वृषध्वज
शिव प्रसन्न हो, ब्रह्मा द्वारा दिये गये फल को हाथ में लेकर पुत्र की इच्छा रखने वाले राजा से
बोले -॥४५॥
।। ईश्वर उवाच
।
इदं फलं
ब्रह्मदत्तं विभज्य नृपते त्रिधा ।
भोजयेथाः
स्वजायास्त्वं प्रहृष्टः सुस्थमानसः ।। ४६ ।।
ईश्वर बोले-
हे राजन् ! ब्रह्मा द्वारा दिये गये इस दिव्यफल को तीन भागों में बाँटकर तुम
प्रसन्न और सुस्थिर मन से, अपनी रानियों को खिला दो॥४६॥
ततः प्रवृत्ते
भवत एतासु ऋतुसङ्गमे ।
आधास्यन्ति तु
गर्भास्तु भार्यास्ते युगपन्नृप ।। ४७ ।।
कालप्राप्ते च
युगपत् प्रसवो योषितां तव ।
भविष्यति
नृपश्रेष्ठ तत्रेत्थं त्वं करिष्यसि ।। ४८ ।।
हे नृप ! तब
तुम्हारे द्वारा इनके साथ ऋतुकालिकसंगम के पश्चात् ये तुम्हारी पत्नियाँ एक साथ
गर्भधारण करेंगी तथा समय आने पर ये एक ही साथ बच्चों को जन्म भी देंगी। हे
नृपश्रेष्ठ ! तब तुम ऐसा करोगे ।।४७-४८ ॥
एकस्या जठरे
शीर्षभागस्ते सम्भविष्यति ।
अपरस्यास्तदा
कुक्षेर्मध्यभागो भविष्यति ।
अधो
नाभ्यास्तु यो भागः सोऽपरस्यां भविष्यति ।। ४९ ।।
एक के उदर से
बालक का शिरोभाग उत्पन्न होगा। तो दूसरी की कोख से मध्यभाग तथा नाभि से नीचे का
निचलाभाग अन्य तीसरी के गर्भ से उत्पन्न होगा ।। ४९ ॥
तच्च
खण्डत्रयं भूप यथास्थानं पृथक् पृथक् ।
योजयिष्यसि
पश्चात् ते पुत्र एको भविष्यति ।। ५० ।।
तस्य शीर्षे
चन्द्ररेखा सहजा सम्भविष्यति ।
तेनैव नाम्ना
स ख्यातिं गमिष्यति च भूतले ।। ५१ ।।
हे राजन् ! उन
तीनों टुकड़ों को अलग-अलग यथास्थान रखकर जब तुम जोड़ोगे तो वह एक पुत्र हो जायेगा।
उसके मस्तक पर चन्द्रमा की रेखा स्वाभाविकरूप से होगी इसीलिए वह बालक पृथ्वी पर
चन्द्रशेखर नाम से प्रसिद्ध होगा ।। ५०-५१॥
।। और्व उवाच
॥
इत्युक्त्वा स
महादेवस्तासां गर्भान् स्वयं तदा ।
संस्कर्तुं
जाह्नवीतोयमात्मवासाय वै न्यधात् ।। ५२ ।।
और्व बोले-
ऐसा कहकर वे महादेव स्वयं उन गर्भों का संस्कार करने के लिए गङ्गा के जल को अपना
आवास बनाये ॥ ५२॥
ततः फले स्वयं
देवः प्रविवेश वृषध्वजः ।
तत्क्षणात्
तत्फलं भूतं त्रिभागं स्वयमेव हि ।। ५३ ।।
तब वृषध्वज
शिव ने उस फल में स्वयं प्रवेश किया जिससे ब्रह्मा द्वारा दिया गया वह फल,
स्वयं ही तत्काल तीन भागों में विभक्त हो गया ॥ ५३ ॥
पौष्यस्तत्फलमादाय
मुदितः सह भार्यया ।
प्रययौ
मन्दिरं हृष्टो अनुज्ञाप्य वृषध्वजम् ।।५४।।
तब शिव की
अनुमति से राजा पौष्य, उस फल को लेकर अपनी रानियों सहित,
प्रसन्न मन से अपने राजभवन में गये ॥ ५४ ॥
ततः समुचिते
काले प्राप्ते ताभिस्तु भक्षितम् ।
तत्फलं
नृपशार्दूलः गर्भाश्चाप्यायिताः शुभाः ।। ५५ ।।
तब समुचित
अवसर आने पर वह फल उन रानियों द्वारा खाया गया । हे राजाओं में शार्दूलवत् ! उस फल
से वे गर्भवती भी हुईं ॥ ५५ ॥
सम्पूर्णे
गर्भकाले तु गर्भेभ्यः समजायत ।
खण्डत्रयं
पृथग्राजंस्तथा भर्गेण भाषितम् ।। ५६ ।।
हे राजन् !
गर्भकाल सम्पूर्ण हो जाने पर शिव ने जैसा कहा था वैसे ही उन गर्भों से शरीर के तीन
खण्ड अलग-अलग उत्पन्न हुए ॥ ५६ ॥
तच्च
खण्डत्रयं पौष्यो यथास्थानं नियोज्य च ।
एकपिण्डं
चकाराशु तत्र पुत्रो व्यजायत ।। ५७ ।।
पौष्य ने उन
तीनों खण्डों को यथास्थान जोड़कर एक पिण्ड बनाया जो शीघ्र ही पुत्ररूप में हो गया
॥ ५७॥
तस्य शीर्षे
तदा राजन् सहजेन्दुकला शुभा ।
विरराज यथा
स्वस्था शरत्काले कला विधोः ।।५८ ।।
हे राजन् ! उस
समय उसके सिर पर स्वाभाविकरूप से (जन्मजात ) सुन्दर चन्द्रमा की एक कला थी । वह
वैसी ही शोभायमान हो रही थी जैसी शरदऋतु में चन्द्रमा की कला सुशोभित होती है ।।
५८ ।।
तं
सर्वलक्षणोपेतं पीनोरस्कं सुनासिकम् ।
सिंहग्रीवं
विशालाक्षं दीर्घायतभुजं तदा ।। ५९ ।।
दृष्ट्वा
पौष्योऽथ भार्याभिस्तिसृभिः सह सम्मुदम् ।
लेभे दरिद्रः
सत्कोषं प्राप्येव विपुलं ततः ।। ६० ।।
उस समय उस सभी
लक्षणों से युक्त पुत्र को जिसके कन्धे पुष्ट थे, नाक सुन्दर थी, गला सिंह के समान था, जिसका वक्षस्थल विशाल था, भुजायें लम्बी और चौड़ी थीं, देखकर राजा पौष्य ने अपनी तीनों पत्नियों सहित वैसा ही
आनन्द प्राप्त किया जैसा कि एक दरिद्र को अच्छा और बहुत अधिक खजाना प्राप्त कर
होता है ।। ५९-६० ॥
तस्य
नामाकरोद्राजा ब्राह्मणैः स्वैः पुरोहितैः ।
चन्द्रशेखर
इत्येव कान्त्या चन्द्रमसः समः ।। ६१ ।।
चन्द्रमा के
समान कान्ति के कारण उस बालक का नाम, पुरोहितों और ब्राह्मणों के सहित राजा ने चन्द्रशेखर
निर्धारित किया ॥ ६१ ॥
ववृधे स
महाभागः प्रत्यहं चन्द्रवत् सुतः ।
कलाभिरिव
तेजस्वी शरदीव निशाकरः ।। ६२ ।।
शरदऋतु में
जिस प्रकार चन्द्रमा अपनी कलाओं से बढ़ता है उसी प्रकार वह महाभाग्यवान्,
तेजस्वी, राजपुत्र, दिनों दिन बढ़ने लगा ।। ६२ ।।
एवं
तिसृणामम्बानां गर्भे जातो यतो हरः ।
अतस्त्र्यम्बक
नामाभूत् प्रथितो लोकवेदयोः ।। ६३ ।।
शिव,
इस प्रकार से तीन माताओं के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण,
लोक और वेद में त्र्यम्बक नाम से प्रसिद्ध हुए ।। ६३ ।।
स राजपुत्रः
कौमारीमवस्थां प्रापयत् तदा ।
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो
विष्णोस्तुल्यो बभूव ह ।। ६४ ।।
तब वह राजपुत्र
धीरे-धीरे कुमारावस्था को प्राप्त किया और वह विष्णु के समान ही सभी शास्त्रों के
अर्थ और तत्त्व को जानने वाला हो गया।। ६४ ।।
बले वीर्ये
प्रहरणे शास्त्रे शीले च तत्समः ।
नान्योऽभूद्
नृपशार्दूल नो वा भूमौभविष्यति ।। ६५ ।।
हे नृपशार्दूल
! बल,
वीर्य एवं शस्त्र सञ्चालन तथा शास्त्रज्ञान और आचार में इस
पृथिवी पर उसके समान दूसरा कोई न हुआ है और न होगा ।। ६५ ।।
अभिषिच्याथ तं
राज्ये कुमारं बलवत्तरम् ।
दशपञ्चैकवर्षीयं
सर्वराजगुणैर्युतम् ।।६६।।
तिसृभिः
सहभार्याभिर्वनं पौष्यो विवेश ह ।
वृद्धोचितक्रिया
कर्तुं राजा परमधार्मिकः ।।६७।।
तब वे परम
धार्मिक राजा पौष्य अपने उस सोलह वर्षीय, बलवान्, सभी राजोचित गुणों से युक्त राजकुमार को राज्य पर अभिषिक्त
कर,
अपनी तीनों रानियों सहित वृद्धोचितक्रिया (तपस्या) करने के
लिए वन में चले गये ।। ६६-६७॥
गते पितरि
राजा स वनवासं महाबलः ।
सर्वां
क्षितिं वशे चक्रे सामात्यश्चन्द्रशेखरः ॥६८॥
पिता के वन
चले जाने पर उस महाबलशाली राजा चन्द्रशेखर ने अमात्य से युक्त हो सम्पूर्ण पृथ्वी
को अपने वश में कर लिया ॥ ६८ ॥
सार्वभौमो
नृपो भूत्वा राजभिः परिसेवितः ।
अमरैरिव
देवेन्द्रो विजहारश्रियायुतः ।।६९।।
इस प्रकार
सार्वभौम राजा हो, अन्य राजाओं से सब प्रकार से सेवित शोभा एवं सम्पति से
युक्त हो,
उसने देवताओं द्वारा सेवा किये जाते हुए इन्द्र की भाँति
विहार किया ॥ ६९ ॥
एवं पौष्यसुतो
भूत्वा त्र्यम्बकः पुण्यनिर्वृतः ।
ब्रह्मावर्ताये
रम्ये करवीराह्वये पुरे ।।७० ।।
दृषद्वतीनदीतीरे
राजा भूत्वा मुमोद ह ।।७१।।
त्रयम्बक शिव इस प्रकार पौष्य के पुत्र के रूप में पुण्य (देव लोक) से लौटकर, सार्वभौम राजा हो, ब्रह्मावर्त के करवीर नामक सुन्दर नगर में जो दृषद्वती नदी के किनारे स्थित था, राज्य करते हुए आनन्दित हुए ।। ७०-७१ ॥
अथैकदा स पितरं
वनवासगतं स्वयम् ।
मातृश्चापि
नृपश्रेष्ठ द्रष्टुकामोऽभवनृपः ।। ७२ ।।
हे नृपश्रेष्ठ
! पिता के वनवास जाने पर एक बार वह स्वयं माता-पिता को देखने के लिए इच्छुक हुये ॥
७२ ॥
स
एकस्यन्दनेनैव एकाकी चन्द्रशेखरः ।
विपुलं धनुरादाय
समार्गणगणं तदा ।। ७३ ।।
तपोवनं
पुण्यमयं विषयान्ते व्यवस्थितम् ।
आससाद
दिदृक्षुः स तातं वृद्धं समातृकम् ।।७४।।
तब वह
चन्द्रशेखर बाणों के सहित विशाल धनुष लेकर, एक रथ पर सवार हो, माता के सहित वृद्ध पिता के दर्शन की इच्छा से अकेले राज्य
की सीमा पर ही स्थित, पवित्र तपोवन में गये ।।७३-७४ ।।
स गच्छन्
पितुरभ्याशं नृपतिं चन्द्रशेखरः ।
ददर्श नमुचं
नाम तपस्यन्तं महामुनिम् ।। ७५ ।।
अपने पिता
राजा पौष्य के समीप जाते हुए उस राजा चन्द्रशेखर ने नमुच नाम के एक महान मुनि को,
तपस्या करते देखा ॥७५॥
कृष्णाजिनोत्तरीयेण
संवीतं सूर्यसन्निभम् ।
ऊर्ध्वगाभिर्जटाभिश्च
संयुतं ध्यानिनं कृशम् ।। ७६ ।।
वे महामुनि
काले मृग के चर्म के बने उत्तरीय (दुपट्टे) से घिरे और सूर्य के समान प्रभावान् थे
। उनकी जटाएँ ऊपर उठी हुईं थी। उनका शरीर दुर्बल था तथा वे ध्यानावस्थित अवस्था
में थे ।। ७६ ॥
तपसा
द्योतिततनुं निश्चलं कुशजासनम् ।
तं दृष्ट्वा
दूरतो वीरो रथोपस्थादवातरत् ।। ७७ ।।
उपतस्थे च
विप्रेन्द्रं विनयानतकन्धरः ।
प्रणनाम मुनिं
तं च वाक्यमेतदुदीरयन् ।।७८ ।।
उनका शरीर
तपस्या से प्रकाशित हो रहा था । वे निश्चलभाव से कुशा के बने आसन पर बैठे हुए थे।
दूर से ही उनको देखकर वीर चन्द्रशेखर, रथ के उपस्थ से उतर गये तथा नम्रता से कन्धा झुकाये हुये वे
उन विप्रवर्य, मुनि के समीप पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर ये वाक्य कहे ।।७७-७८ ।।
॥
चन्द्रशेखर
उवाच ।।
पौष्यस्य तनयो
ब्रह्मन् नाम्नाहं चन्द्रशेखरः ।
प्रणमामि
महाभक्त्या भवन्तं मुनिसत्तमम् ।। ७९ ।।
चन्द्रशेखर
बोले- हे मुनिसत्तम ! हे ब्रह्मन् ! मैं चन्द्रशेखर नाम वाला,
पौष्य का पुत्र, आपको महान् भक्तिपूर्वक प्रणाम करता हूँ ॥ ७९ ॥
।। और्व उवाच
।
इत्युक्त्वा
प्राञ्जलिस्तस्थौ मुनेस्तस्याग्रतो नृपः ।
नमुचस्य मुखं
वीक्ष्य भक्तिनम्रात्ममानसः ।।८० ।।
और्वमुनि
बोले- ऐसा कहकर राजा उनका मुख देखते हुए, उन मुनि नमुच के सामने हाथ जोड़कर,
भक्ति से नम्रमुख किये हुए खड़े हो गये॥ ८० ॥
पूर्वमेव यदा
राजा प्राविशत् तपसे वनम् ।
तदैव सह
भार्याभिस्तं मुनिं प्रत्यपूजयत् ।। ८१ ।।
पहले ही जब
राजा पौष्य ने तपोवन में स्त्रियों के सहित प्रवेश किया था उसी समय उन्होंने उन
मुनि की भली भाँति पूजा की थी ॥ ८१ ॥
चिरमाराध्य
नमुचं पौष्यः परमपण्डितः ।
प्रसादयामास
मुनिं पुत्रार्थे सूनृताक्षरैः ।।८२।।
विषयान्ते तपः
कुर्वन् मुनिश्रेष्ठेह तिष्ठसि ।
एकन्तु
प्रार्थये त्वत्तो यदि मां दयसे मुने ।। ८३ ।।
बहुत समय तक
आराधना कर परम बुद्धिमान् पौष्य ने नमुच मुनि को अपनी सुन्दर और सत्य वाणी से,
पुत्र के लिए प्रसन्न किया था और कहा था—
हे मुनिश्रेष्ठ ! आप हमारे राज्य की सीमा पर तपस्या करते
हुए सुख से रहते हैं किन्तु हे मुनि! यदि आप मेरे ऊपर दया करें तो आपसे एक मेरी
प्रार्थना है ।। ८२-८३॥
शिशुर्मे तनयो
राजा चन्द्रशेखरसंज्ञकः ।
सहजेन्दुकलायुक्तो
बालभावाच्च चञ्चलः ।। ८४।।
मेरा
चन्द्रशेखर नाम का, शिशु स्वभाव का, बालभाव के कारण चञ्चल, जन्म से ही चन्द्रकला से सुशोभित,
एक पुत्र है जो यहाँ का राजा है ।। ८४ ।।
स चेद्
भवन्तमासाद्य कदाचिदपराध्यति ।
तदा
क्षमिष्यसि मुने मयैतत् प्रार्थितं त्वयि ।। ८५ ।।
वह यदि कभी
आपके समीप आकर कोई अपराध करे तब आप उसे क्षमा कर दें,
मेरी आपसे यही प्रार्थना है ।। ८५ ॥
पौष्यस्य वचनं
श्रुत्वा मुनिश्चाङ्गीचकार ह ।
दृष्ट्वा
तत्तनयं विप्रः पौष्यवाक्यमथास्मरत् ।। ८६ ।।
पौष्य के वचन को
सुनकर उस समय मुनि ने उसे स्वीकार कर लिया था, अब उसी के पुत्र को देखकर विप्र (नमुचमुनि) ने पौष्य के
वाक्यों का स्मरण किया ॥८६॥
स्मृत्वाप्रतः
स्थितं नम्रं सुचिरं चन्द्रशेखरम् ।
इदं प्रोवाच स
मुनिर्दयावान्नमुचाह्वयः ।। ८७ ।।
उसका स्मरण कर
नम्रतापूर्वक दीर्घकाल तक अपने आगे खड़े, विनम्र, चन्द्रशेखर से उन नमुच नाम के दयावान् मुनि ने यह वचन कहा—॥८७॥
।। नमुच उवाच
।।
विनयेनाद्य
तुष्टोऽस्मि भवतः चन्द्रशेखर ।
वरं वरय
दास्यामि वाञ्छितं मे महत्तरम् ॥८८॥
नमुच बोले- हे
राजा चन्द्रशेखर ! मैं आपकी विनम्रता से आज प्रसन्न हूँ । मुझसे इच्छित वर मांगो,
मैं तुम्हें वह श्रेष्ठ वर प्रदान करूँगा ॥ ८८ ॥
।। और्व उवाच
॥
तस्य श्रुत्वा
ततो वाक्यं नृपतिश्चन्द्रशेखरः ।
पुनः प्रणम्य
नमुचमिदमाहाति सूनृतम् ।।८९।।
और्व बोले- तब
उन नमुच मुनि के वाक्यों को सुनकर उन्हें पुनः प्रणाम कर,
राजा चन्द्रशेखर ने यह सत्य वचन कहा- ॥ ८९ ॥
॥
चन्द्रशेखर
उवाच ।।
कायेन मनसा वाचा
यदत्यर्थं द्विजोत्तम ।
तत्सर्वं विषये
मेsस्ति त्वादृशा यस्य दक्षिणाः । । ९० ।।
चन्द्रशेखर
बोले- हे द्विजोत्तम ! मन, वाणी और कर्म से जो कुछ अधिकतम है आप जैसे महात्मा की कृपा
से वह सब मेरे राज्य में सुलभ है ॥ ९० ॥
मनोगतं मे
दुष्प्रापं वाञ्छनीयं न विद्यते ।
तदेव वरणीयं
मे यद् ददाति स्वयं भवान् ।। ९१ ।।
इसलिए मेरे मन
में कुछ भी दुष्प्राप्य या वाञ्छित नहीं है अतः जो आप स्वतः दें दें,
वही मेरे द्वारा ग्रहण करने योग्य है ॥ ९१ ॥
।। नमुच उवाच
॥
त्वं
सप्तदशवर्षाणां प्राप्ते संवत्सरे परे ।
भविष्यसि
नृपश्रेष्ठ वररामापतिः स्वयम् ।। ९२ ।।
नमुच बोले- हे
नृप श्रेष्ठ ! जब तुम जीवन का सत्रहवाँ वर्ष पार करोगे तभी तुम श्रेष्ठ स्त्री के
पति होगे ॥ ९२ ॥
यथा गिरिसुता
शम्भोर्यथा लक्ष्मीर्गदाभृतः ।
यथा सुरेशस्य
शची तथा तेऽपि भविष्यति ।। ९३ ।।
जैसे शिव की
पार्वती,
गदाधर विष्णु की लक्ष्मी, सुरेश देवराज इन्द्र की शची पत्नी हैं,
वैसी ही वह तुम्हारी भी पत्नी होगी ।। ९३ ।।
।। और्व उवाच
।।
इत्युक्त्वा स
मुनिर्भूपं नमुचस्तपसां निधिः ।
विसर्जयामास
तदा स चापि मुदितो ययौ ।। ९४ ।
और्व बोले- जब
ऐसा कहकर तपस्या के खजाने, नमुच मुनि ने राजा को विदा किया तब वे भी प्रसन्न हो,
अपने पिता के पास चले गये ।। ९४ ।।
स गत्वा पितरं
प्राप्य मातृश्च चन्द्रशेखरः ।
अपूजयद्
यथार्हन्तु तैरप्याश्वासितः सुतः ।। ९५ ।।
उन राजा
चन्द्रशेखर ने वहाँ जाकर, माता-पिता के पास पहुँच कर यथायोग्य रूप से उनकी पूजा की तब
उन माता-पिता के द्वारा भी पुत्र को आश्वस्त किया गया ।। ९५ ।।
अथागतो नृपः
स्वीयां करवीरपुरीं प्रति ।
मुदितः सचिवैः
सार्द्धं रेमे देवेन्द्रसन्निभः ।। ९६ ।।
तत्पश्चात् वे
अपनी राजधानी करवीरपुरी में लौट आये तथा देवराज इन्द्र की भाँति अपने सचिवों के
साथ वहाँ प्रसन्नता पूर्वक रमण (विहार) करने लगे । । ९६ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे चन्द्रशेखरचरितवर्णने सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७॥
॥
श्रीकालिकापुराण में चन्द्रशेखरचरितवर्णनसम्बन्धी सैंतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ
।। ४७ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 48
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