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अग्निपुराण अध्याय २४९

अग्निपुराण अध्याय २४९                                  

अग्निपुराण अध्याय २४९ में धनुर्वेद* का वर्णन - युद्ध और अस्त्र के भेद, आठ प्रकार के स्थान, धनुष,बाण को ग्रहण करने और छोड़ने की विधि आदि का कथन का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय २४९

अग्निपुराणम् अध्यायः २४९                                 

अग्निपुराणम् ऊनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

Agni puran chapter 249                   

अग्निपुराण दो सौ उनचासवाँ अध्याय

अग्निपुराणम्/अध्यायः २४९ 

अग्निपुराणम् अध्यायः २४९धनुर्वेदः

अथ ऊनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

अग्निरुवाच

चतुष्पादं धनुर्वेदं वदे पञ्चविधं द्विज ।

रथनागाश्वपत्तीनां योधांश्चाश्रित्य कीर्त्तितं ।। १ ।।

यन्त्रमुक्तं पाणिमुक्तं मुक्तसन्धारितं तथा ।

अमुक्तं बाहुयुद्धञ्च पञ्चधा तत् प्रकीर्त्तितं ।। २ ।।

तत्र शस्त्रास्त्रसम्पत्त्या द्विविंधं परिकीर्त्तितं ।

ऋजुमायाविभेदेन भूयो द्विविधमुच्यते ।। ३ ।।

क्षेपणी चापयन्त्राद्यैर्यन्त्रमुक्तं प्रकीर्त्तितं ।

शिलातोमरयन्त्राद्यं पाणिमुक्तं प्रकीर्त्तितं ।। ४ ।।

मुक्तसन्धारितं ज्ञेयं प्रासाद्यमपि यद्भवेत् ।

खड्‌गादिकममुक्तञ्च नियुद्धं विगतायुधं ।। ५ ।।

अग्निदेव कहते हैं- वसिष्ठ ! अब मैं चार* पादों से युक्त धनुर्वेद का वर्णन करता हूँ। धनुर्वेद पाँच प्रकार का होता है। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल-सम्बन्धी योद्धाओं का आश्रय लेकर इसका वर्णन किया गया है। यन्त्रमुक्त, पाणिमुक्त, मुक्तसंधारित, अमुक्त और बाहुयुद्ध-ये ही धनुर्वेद के पाँच* प्रकार कहे गये हैं। उसमें भी शस्त्र सम्पत्ति और अस्त्र- सम्पत्ति के भेद से युद्ध दो प्रकार का बताया गया है। ऋजुयुद्ध और मायायुद्ध के भेद से उसके पुनः दो भेद हो जाते हैं। क्षेपणी (गोफन आदि), धनुष एवं यन्त्र आदि के द्वारा जो अस्त्र फेंका जाता है, उसे 'यन्त्रमुक्त' कहते हैं। (यन्त्रमुक्त अस्त्र का जहाँ अधिक प्रयोग हो, वह युद्ध भी 'यन्त्रमुक्त' ही कहलाता है।) प्रस्तरखण्ड और तोमर- यन्त्र आदि को 'पाणिमुक्त' कहा गया है। भाला आदि जो अस्त्र शत्रु पर छोड़ा जाय और फिर उसे हाथ में ले लिया जाय, उसे 'मुक्तसंधारित' समझना चाहिये। खड्ग (तलवार आदि) को 'अमुक्त' कहते हैं और जिसमें अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग न करके मल्लों की भाँति लड़ा जाय, उस युद्ध को 'नियुद्ध' या 'बाहुयुद्ध' कहते हैं ॥ १-५ ॥

*१. महाभारत, आदिपर्व, अध्याय २२०, श्लोक ७२ में लिखा है कि 'शत्रुदमन बालक अभिमन्यु ने वेदों का ज्ञान प्राप्त करके अपने पिता अर्जुन से चार पादों और दशविध अङ्गों से युक्त दिव्य एवं मानुष- सब प्रकार के धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इन चार पादों को स्पष्ट करते हुए आचार्य नीलकण्ठ ने 'मन्त्रमुक्त', 'पाणिमुक्त', 'मुळामुक्त' और 'अमुक्त'- इन चार नामों का निर्देश किया है। परंतु मधुसूदन सरस्वती ने अपने 'प्रस्थानभेद' में धनुर्वेद का जो संक्षिप्त विवरण दिया है, उसमें चार पादों का उल्लेख इस प्रकार हुआ है- दीक्षापाद, संग्रहपाद, सिद्धिपाद और प्रयोगपाद पूर्वोक्त मन्त्रमुक्त आदि भेद आयुधों के हैं, वे पादों के नाम नहीं हैं। अग्रिपुराण में चार पादों के नाम का निर्देश नहीं है। 'मन्त्रमुक के स्थान पर वहाँ 'यन्त्रमुक्त' पाठ है और 'मुखामुख के स्थान पर 'मुकसंधारित'। इन चारों के साथ बाहुयुद्ध को भी जोड़कर अग्रिपुराण में धनुर्वेद, अस्त्र या युद्ध के पाँच प्रकार ही निर्दिष्ट किये गये हैं। अतः धनुर्वेद के चार पाद उपर्युक्त दीक्षा आदि ही ठीक जान पड़ते हैं।

*२. महाभारत में चतुष्पादं दशविधम्' कहकर धनुर्वेद के दस प्रकार कहे गये हैं। परंतु अग्रिपुराण से उसका कोई विरोध नहीं है। अग्निपुराण में अस्त्र या युद्ध के पाँच प्रकारों को दृष्टि में रखकर ही वे भेद निर्दिष्ट हुए हैं। किंतु महाभारत में धनुर्वेद के दस अङ्ग को लेकर ही दस भेदों का कथन हुआ है। उन दस अङ्गों के नाम नीलकण्ठ ने इस प्रकार लिखे हैं-आदान, संधान, मोक्षण, निवर्तन, स्थान, मुष्टि, प्रयोग प्रायश्चित्त, मण्डल तथा रहस्य इन सब का परिचय इस प्रकार है-तरकस से बाण को निकालना 'आदान' है उसे धनुष को प्रत्यंचा पर रखना 'संधान' है। लक्ष्य पर छोड़ना 'मोक्षण' कहा गया है। यदि बाण छोड़ देने के बाद यह मालूम हो जाय कि हमारा विपक्षी निर्बल या शस्त्रहीन है, तो वीर पुरुष मन्त्रशक्ति से उस बाण को लौटा लेते हैं। इस प्रकार छोड़े हुए अस्त्र को लौटा लेना 'निवर्तन' कहलाता है। धनुष या उसकी प्रत्यंचा के धारण अथवा शरसंधानकाल में धनुष और प्रत्यंचा के मध्यदेश को 'स्थान' कहा गया है। तीन या चार अंगुलियों का सहयोग ही 'मुष्टि' है तर्जनी और मध्यमा अँगुली से अथवा मध्यमा और अङ्गुष्ठ से वाण का संधान करना 'प्रयोग' कहलाता है स्वतः या दूसरे से प्राप्त होनेवाले व्याघात (प्रत्यंचा के आघात) और बाण के आघात को रोकने के लिये जो दस्ताने आदि का प्रयोग किया जाता है, उसका नाम 'प्रायश्चित्त' है। चक्राकार घूमते हुए रथ के साथ-साथ घूमनेवाले लक्ष्य का वेध 'मण्डल' कहलाता है। शब्द के आधार पर लक्ष्य बींधना अथवा एक ही समय अनेक लक्ष्यों को बाँध डालना ये सब 'रहस्य के अन्तर्गत हैं।

कुर्य्याद्योग्यानि प्रात्राणि योद्‌धुमिच्छुर्ज्जितश्रमः ।

धनुःश्रेष्ठानि युद्धानि प्रासमध्यानि तानि च ।। ६ ।।

तानि खड्‌गजघन्यानि बाहुप्रत्यवराणि च ।

धनुर्वेदे गुरुर्विप्रः प्रोक्तो वर्णद्वयस्य च ।। ७ ।।

युद्धाधिकारः शूद्रस्य स्वयं व्यापादि शिक्षया ।

देशस्थैः शङ्गरै राज्ञः कार्य्या युद्धे सहायता ।। ८ ।।

युद्ध की इच्छा रखनेवाला पुरुष श्रम को जीते और योग्य पात्रों का संग्रह करे। जिनमें धनुष- बाण का प्रयोग हो, वे युद्ध श्रेष्ठ कहे गये हैं; जिनमें भालों की मार हो, वे मध्यम कोटि के हैं। जिनमें खड्गों से प्रहार किया जाय, वे निम्नश्रेणी के युद्ध हैं और बाहुयुद्ध सबसे निकृष्ट कोटि के अन्तर्गत हैं। धनुर्वेद में क्षत्रिय और वैश्य- इन दो वर्णों का भी गुरु* ब्राह्मण ही बताया गया है। आपत्तिकाल में स्वयं शिक्षा लेकर शूद्र को भी युद्ध का अधिकार प्राप्त है। देश या राष्ट्र में रहनेवाले वर्णसंकरों को भी युद्ध में राजा की सहायता करनी चाहिये* ॥ ६-८ ॥

*१. 'गुरु' शब्द का अर्थ है-धनुर्वेद की शिक्षा देनेवाला आचार्य 'धनुर्वेदसंहिता' में सात प्रकार के युद्धों का उल्लेख करके उन सातों के ज्ञाता को 'आचार्य' कहा गया हैआचार्यः सप्तयुद्धः स्यात्।' धनुष, चक्र, कुन्त, खड़, क्षुरिका, गदा और बाहु इन सातों से किये जानेवाले युद्ध को हो 'सात प्रकार का युद्ध' कहते हैं।

*२. 'वीरचिन्तामणि' के ६-७ श्लोकों में कहा गया कि आचार्य ब्राह्मण शिष्य को धनुष, क्षत्रिय को खङ्ग, वैश्य को कुन्त (भाला) और शूद्र को गदा की शिक्षा प्रदान करे।' इससे भी सूचित होता है कि अस्त्र-विद्या और युद्ध की शिक्षा सभी वर्ण के लोगों को दी जाती थी। अग्निपुराण के अनुसार वर्णसंकर भी इसकी शिक्षा पाते थे और युद्ध में राष्ट्र की रक्षा के लिये राजा की सहायता करते थे।

अङ्गुष्ठगुल्फपाण्यङ्‌घ्र्यः श्लिष्टः स्युः सहिता यदि ।

दृष्टं समपदं स्थानमेतल्लक्षणतस्तथा ।। ९ ।।

वाह्याङ्गुलिस्थितौ पादौ स्तब्धजानुबलावुभौ ।

त्रिवतस्त्यन्तरास्थानमेतद्वैशाखमुच्यते ।। १० ।।

हंसपङ्‌क्त्याकृतिसमे दृश्येते यत्र जानुनी ।

चतुर्वितस्तिविच्छिन्ने तदे तन्मण्डलं स्मृतं ।। ११ ।।

हलाकृतिमयं यच्च स्तब्धजानूरुदक्षिणं ।

वितस्त्यः पञ्च चविस्तारे तदालीढं प्रकीर्त्तितं ।। १२ ।।

एतदेव विपर्य्यस्तं प्रत्यालीढमिति स्मृतं ।

तिर्य्यग्भूतो भवेद्वामो दक्षिणोऽपि भवेदृजुः ।। १३ ।।

गुल्फौ पार्ष्णिग्रहौ चैव स्थितौ पञ्चाङ्गुलान्त्रौ ।

स्थानं जातं भवेदेतद् द्वादशाङ्गुलमायतं ।। १४ ।।

ऋजुजानुर्भवेद्वामो दक्षिणः सुप्रसारितः ।

अथवा दक्षइणञ्जानु कुब्जं भवति निश्चलं ।। १५ ।।

दण्डायतो भवेदेष चरणः सह जानुना ।

एवं विकटमुद्दिष्टं द्विहस्तान्तरमायतं ।। १६ ।।

जानुनी द्विगुणे स्यातामुत्तानौ चरणावुभौ ।

अनेन विधियोगेन सम्पुटं परिकीर्त्तितं ।। १७ ।।

किञ्चिद्विवर्त्तितौ पादौ समदण्डायतौ स्थिरौ ।

दृष्टमेव यथान्यायं षोडशाङ्गुलमायतं ।। १८ ।।

स्थान- वर्णन - अङ्गुष्ठ, गुल्फ, पार्ष्णिभाग और पैर-ये एक साथ रहकर परस्पर सटे हुए हों तो लक्षण के अनुसार इसे 'समपद' नामक स्थान* कहते हैं। दोनों पैर बाह्य अङ्गुलियों के बल पर स्थित हों, दोनों घुटने स्तब्ध हों तथा दोनों पैरों के बीच का फैसला तीन बित्ता हो, तो यह 'वैशाख' नामक स्थान कहलाता है। जिसमें दोनों घुटने हंसपंक्ति के आकार की भाँति दिखायी देते हों और दोनों में चार बित्ते का अन्तर हो, वह 'मण्डल' स्थान माना गया है। जिसमें दाहिनी जाँघ और घुटना स्तब्ध (तना हुआ) हो और दोनों पैरों के बीच का विस्तार पाँच बित्ते का हो, उसे 'आलीढ़' नामक स्थान कहा गया है। इसके विपरीत जहाँ बायीं जाँघ और घुटना स्तब्ध हों तथा दोनों पैरों के बीच का विस्तार पाँच बित्ता हो, वह 'प्रत्यालीढ़' नामक स्थान है जहाँ बायाँ पैर टेढ़ा और दाहिना सीधा हो तथा दोनों गुल्फ और पार्ष्णिभाग पाँच अङ्गुल के अन्तर पर स्थित हों तो यह बारह अङ्गुल बड़ा 'स्थानक' कहा गया है। यदि बायें पैर का घुटना सीधा हो और दाहिना पैर भलीभाँति फैलाया गया हो अथवा दाहिना घुटना कुब्जाकार एवं निश्चल हो या घुटने के साथ ही दायाँ चरण दण्डाकार विशाल दिखायी दे तो ऐसी स्थिति में 'विकट' नामक स्थान कहा गया है। इसमें दोनों पैरों का अन्तर दो हाथ बड़ा होता है। जिसमें दोनों घुटने दुहरे और दोनों पैर उत्तान हो जायें, इस विधान के योग से जो 'स्थान' बनता है, उसका नाम 'सम्पुट' है। जहाँ कुछ घूमे हुए दोनों पैर समभाव से दण्ड के समान विशाल एवं स्थिर दिखायी दें, वहाँ दोनों के बीच की लंबाई सोलह अङ्गुल की ही देखी गयी है। यह स्थान का यथोचित स्वरूप है ॥ ९ - १८ ॥

* 'वीरचिन्तामणि' आदि ग्रन्थों में आठ प्रकार के 'स्थानों' पाँच प्रकार को 'मुष्टियों' तथा पांच तरह के 'व्याम' का वर्णन उपलब्ध होता है। अग्निपुराण में मुष्टि' और 'व्याम' के भेद नहीं हैं। अगले अध्याय के पाँचवें श्लोक में 'सिंहकर्ण' नामक मुष्टि की चर्चा अवश्य की गयी है। परंतु स्थान के आठों भेदों का लक्षणसहित वर्णन उपलब्ध होता है। इस वर्णन को देखते हुए 'स्थान' शब्द का अभिप्राय योद्धाओं के युद्धस्थल में खड़े होने का ढंग जान पड़ता है। योद्धाओं को किस-किस ढंग से खड़ा होना चाहिये और कौन-सा ढंग कम उपयोगी होता है इसी की ओर इस प्रसङ्ग में संकेत किया गया है।

स्वस्तिकेनात्र कुर्वीत प्रणामं प्रथमं द्विज ।

कार्मुकं गृह्य वामेन वामणं दक्षिणकेन तु ।। १९ ।।

वैशाखे यदि वा जाते स्थितौ वाप्यथवायतौ ।

गुणान्तन्तु ततः कृत्वा कार्मके प्रियकार्मुकः ।। २० ।।

अधः कटिन्तु धनुषः फलदेशन्तु पत्रिणः ।

धरण्यां स्थापयित्वा त तोलयित्वा तथैव च ।। २१ ।।

भुजाब्यामत्र कुब्जाभ्यां प्रकोष्ठाभ्यां शुभव्रत ।

यस्य वाणं धनुः श्रेष्ठं पुङ्खदेशे च पत्रिणः ।। २२ ।।

विन्यासो धनुषश्चैव द्वादशङ्गुलमन्तरं ।

ज्यया विशिष्टः कर्त्तव्यो नातिहीनो न चाधिकः ।। २३ ।।

ब्रह्मन् ! योद्धाओं को चाहिये कि पहले बायें हाथ में धनुष और दायें हाथ में बाण लेकर उसे चलायें और उन छोड़े हुए बाणों को स्वस्तिकाकार करके उनके द्वारा गुरुजनों को प्रणाम करें। धनुष का प्रेमी योद्धा 'वैशाख' स्थान के सिद्ध हो जाने पर 'स्थिति' (वर्तमान) या 'आयति' (भविष्य) में जब आवश्यकता हो, धनुष पर डोरी को फैलाकर धनुष की निचली कोटि और बाण के फलदेश को धरती पर टिकाकर रखे और उसी अवस्था में मुड़ी हुई दोनों भुजाओं एवं कलाइयों द्वारा नापे। उत्तम व्रत का पालन करनेवाले वसिष्ठ उस योद्धा के बाण से धनुष सर्वथा बड़ा होना चाहिये और मुष्टि के सामने बाण के पुछ तथा धनुष के डंडे में बारह अङ्गुल का अन्तर होना चाहिये। ऐसी स्थिति हो तो धनुर्दण्ड को प्रत्यञ्चा से संयुक्त कर देना चाहिये। वह अधिक छोटा या बड़ा नहीं होना चाहिये ॥ १९ - २३ ॥

निवेश्य कार्मुकं नाभ्यां नितम्बे शरसङ्करं ।

उत्क्षिपेदुत्थितं हस्तमन्त्रेणाक्षिकर्णयोः ।। २४ ।।

पूर्वेण मुष्टिना ग्राह्यस्तनाग्रे दक्षिणे शरः ।

हरणन्तु ततः कृत्वा शीघ्रं पूर्वं प्रसारयेत् ।। २५ ।।

नाभ्यन्तरा नैव वाह्या नोद्‌र्ध्वका नाधरा तथा ।

न च कुब्जा न चोत्ताना न चला नातिवेष्टिता ।। २६ ।।

समा स्थैर्य्यगुणोपेता पूर्वदण्डमिव स्थिता ।

छादयित्वा ततो लक्ष्यं पूर्व्वेणानेन मुष्टिना ।। २७ ।।

धनुष को नाभिस्थान में और बाण-संचय को नितम्ब पर रखकर उठे हुए हाथ को आँख और कान के बीच में कर ले तथा उस अवस्था में बाण को फेंके। पहले बाण को मुट्ठी में पकड़े और उसे दाहिने स्तनाग्र की सीध में रखे। तदनन्तर उसे प्रत्यञ्चा पर ले जाकर उस मौर्वी (डोरी या प्रत्यञ्चा) - को खींचकर पूर्णरूप से फैलावे। प्रत्यचा न तो भीतर हो न बाहर, न ऊँची हो न नीची, न कुबड़ी हो न उत्तान न चञ्चल हो न अत्यन्त आवेष्टित । वह सम, स्थिरता से युक्त और दण्ड की भाँति सीधी होनी चाहिये। इस प्रकार पहले इस मुष्टि के द्वारा लक्ष्य को आच्छादित करके बाण को छोड़ना चाहिये ॥ २४ - २७ ॥

उरसा तूत्थितो यन्ता त्रिकोणविनतस्थितः ।

स्रस्तांशे निश्चलग्रीवो मयूराञ्चितमस्तकः ।। २८ ।।

ललाटनासावक्त्रांसाः कुर्य्युरश्वसमम्भवेत् ।

अन्तरं त्र्यङ्गुलं ज्ञेयं चिवुकस्यांसकस्य च ।। २९ ।।

प्रथमन्त्रयङ्गुलं ज्ञेयं द्वितीये द्व्यङ्गुलं स्मृतं ।

तृतीयेऽङ्गुलमुद्दिष्टमायतञ्चिवुकांसयोः ।। ३० ।।

धनुर्धर योद्धा को यत्नपूर्वक अपनी छाती ऊँची रखनी चाहिये और इस तरह झुककर खड़ा होना चाहिये, जिससे शरीर त्रिकोणाकार जान पड़े। कंधा ढीला, ग्रीवा निश्चल और मस्तक मयूर की भाँति शोभित हो। ललाट, नासिका, मुख, बाहुमूल और कोहनी-ये सम अवस्था में रहें। ठोढ़ी और कंधे में तीन अङ्गुल का अन्तर समझना चाहिये। पहली बार तीन अङ्गुल, दूसरी बार दो अङ्गुल और तीसरी बार ठोढ़ी तथा कंधे का अन्तर एक ही अङ्गुल का बताया गया है ॥ २८-३० ॥

गृहीत्वा सायकं पुङ्खात्तर्ज्जन्याङ्गुष्ठकेन तु ।

अनामया पुनर्गृह्य तथा मध्यमयापि च ।। ३१ ।।

तावदाकर्षयेद्वेगाद्यावद्वाणः सुपूरितः ।

एवं विधमुपक्रम्य मोक्तव्यं विधिवत् खगं ।। ३२ ।।

बाण को पुङ्छ की ओर से तर्जनी एवं अँगूठे से पकड़े। फिर मध्यमा एवं अनामिका से भी पकड़ ले और तब तक वेगपूर्वक खींचता रहे, जबतक पूरा- पूरा बाण धनुष पर न आ जाय ऐसा उपक्रम करके विधिपूर्वक बाण को छोड़ना चाहिये ॥ ३१-३२ ॥

दृष्टिमुष्टिहतं लक्ष्यं भिन्द्याद्वाणेन सुव्रत ।

मुक्वा तु पश्चिमं हस्तं क्षिपेद्वेगेन पृष्ठतः ।। ३३ ।।

एतदुच्छेदमिच्छन्ति ज्ञातव्यं हि त्वया द्विज ।

कर्पूरन्तदधः कार्य्यमाकृष्य तु धनुष्मता ।। ३४ ।।

ऊद्‌र्ध्वं विमुक्तके कार्ये लक्षश्लिष्टन्तु मध्यमं ।

श्रेष्ठं प्रकृष्टं विज्ञेयं धनःशास्त्रविशारदैः ।। ३५ ।।

सुव्रत ! पहले दृष्टि और मुष्टि से आहत हुए लक्ष्य को ही बाण से विदीर्ण करे। बाण को छोड़कर पिछला हाथ बड़े वेग से पीठ की ओर ले जाय; क्योंकि ब्रह्मन् ! यह ज्ञात होना चाहिये कि शत्रु इस हाथ को काट डालने की इच्छा करते हैं। अतः धनुर्धर पुरुष को चाहिये, धनुष को खींचकर कोहनी के नीचे कर ले और बाण छोड़ते समय उसके ऊपर करे। धनुःशास्त्र - विशारद पुरुषों को यह विशेष- रूप से जानना चाहिये। कोहनी का आँख से सटाना मध्यम श्रेणी का बचाव है और शत्रु के लक्ष्य से दूर रखना उत्तम है ॥ ३३ - ३५ ॥

ज्येष्ठस्तु सायको ज्ञेयो भवेद्‌द्वादशमुष्टयः ।

एकादश तथा मध्यः कनीयान्दशमुष्टयः ।।३६ ।।

चतुर्हस्तं धनुः श्रेष्ठं त्रयः साद्‌र्धन्तु मध्यमं ।

कनीयस्तु त्रयः प्रोक्तं नित्यमेव पदातिनः ।

अश्वे रथे गजे श्रेष्ठे तदेव परिकीर्त्तितं ।। ३७ ।।

उत्तम श्रेणी का बाण बारह मुष्टियों के माप का होना चाहिये। ग्यारह मुष्टियों का 'मध्यम' और दस मुष्टियों का 'कनिष्ठ' माना गया है। धनुष चार हाथ लंबा हो तो 'उत्तम', साढ़े तीन हाथ का हो तो 'मध्यम' और तीन हाथ का हो तो 'कनिष्ठ' कहा गया है। पैदल योद्धा के लिये सदा तीन हाथ के ही धनुष को ग्रहण करने का विधान है। घोड़े, रथ और हाथी पर श्रेष्ठ धनुष का ही प्रयोग करने का विधान किया गया है ॥ ३६-३७ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये धनुर्वेदो नाम ऊनपञ्जाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।

इस प्रकार आदि आग्रेय महापुराण में 'धनुर्वेद* का वर्णन' नामक दो सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ ।॥ २४९ ॥

* 'धनुर्वेद यजुर्वेद का उपवेद है। प्राचीनकाल में प्राय: सभी सभ्य देशों में इस विद्या का प्रचार था। भारतवर्ष में इस विद्या के बड़े-बड़े ग्रन्थ थे, जिन्हें क्षत्रियकुमार अभ्यासपूर्वक पढ़ते थे। आजकल वे ग्रन्थ प्रायः लुप्त हो गये हैं। कुछ थोड़े-से ग्रन्थों में इस विद्या का संक्षिप्त वर्णन मिलता है। जैसे शुक्रनीति, कामन्दकीय नीतिसार, अग्निपुराण, वीरचिन्तामणि, वृद्ध शालंधर, युद्धजयार्णव, बुतिकल्पतरु तथा नीतिमयूष आदि। 'धनुर्वेद संहिता' नामक एक अलग भी पुस्तक मिलती है। नेपाल (काठमाण्डू) गोरखनाथ मठ के महन्त योगी नरहरिनाथ ने भी धनुर्वेद की एक प्राचीन पुस्तक उपलब्ध की है। कुछ विद्वान् ब्रह्मा और महेश्वर से इस उपवेद का प्रादुर्भाव मानते हैं, परन्तु मधुसूदन सरस्वती का कथन है कि 'विश्वामित्र ने जिस धनुर्वेद का प्रकाश किया था, यजुर्वेद का उपवेद वही है।' 'वीरचिन्तामणि' में धनुर्वेद की बड़ी प्रशंसा की गयी है। 'धनुर्वेद संहिता' में लिखा है कि 'दुष्टों, दस्युओं और चोर आदि से साधुपुरुषों का संरक्षण और धर्मानुसार प्रजापालन 'धनुर्वेद का प्रयोजन है' अग्निपुराण के इन चार अध्यायों में धनुर्वेद-विषयक महत्त्वपूर्ण बातों पर संक्षेप से ही प्रकाश डाला गया है। धनुर्वेद पर इस समय जो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उनसे अग्रिपुराणगत धनुर्वेद का पाठ नहीं मिलता। विश्वकोष 'धनुर्वेद' शब्द पर अग्रिपुराण के ये ही चार अध्याय उद्धृत किये गये हैं। कतिपय हस्तलिखित प्रतियों के अनुसार जो पाठ- भेद उपलब्ध हुए हैं, उन्हें दृष्टि में रखते हुए इन अध्यायों का अविकल अनुवाद करने की चेष्टा की गयी है। साङ्गवेद विद्यालय, काशी के नैयायिक विद्वान् श्रीहेबूवर शास्त्री काश्मीर पुस्तकालय से अग्रिपुराण के धनुर्वेद-प्रकरण पर कुछ पाठ भेद संग्रह करके लाये थे, उससे भी इस प्रकरण को लगाने में सहयोग मिला है। तथापि कुछ शब्द अस्पष्ट रह गये हैं। माननीय विद्वानों को धनुर्वेद के विषय में विशेष ध्यान देकर अनुसंधान करना कराना चाहिये, जिससे भारत की इस प्राचीन विद्या का पुनरुद्धार हो सके। (अनुवादक)

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 250

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