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कर्मकाण्ड

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गोपिका विरह गीत

गोपिका विरह गीत

गोपिका विरह गीत गोपियों द्वारा गाया गया गोपी गीत है। जब भगवान कृष्ण वृंदावन छोड़कर मथुरा चले गए थे, तब अपने प्राण-प्यारे को वन,उपवन,नदी के तट पर बावरी हो कर ढूंढती फिर रही हैं। उनके साथ की हुयी क्रिड़ाओं की मधुर स्मृति-जन्य विरह में गोपियां क्रंदन करती हुई कहती हैं कि-

गोपिका विरह गीत

श्रीगोपिकाविरहगीतम्

Gopika virah geet

श्रीगोपिका विरह गीतम्

श्रीगोपिकाविरहगीतम्

गोपिकाविरहगीत

॥ गोपिका विरह गीत ॥

एहि मुरारे कुञ्जविहारे एहि प्रणतजनबन्धो

हे माधव मधुमथन वरेण्य केशव करुणासिन्धो

रासनिकुञ्जे गुञ्जति नियतं भ्रमरशतं किल कान्त

एहि निभृतपथपान्थ ।

त्वामिह याचे दर्शनदानं हे मधुसूदन शान्त ॥ १॥

हे मुरारे ! हे प्रणतजनों के बन्धु ! विहार-कुंज में आइये, आइये । हे माधव ! हे मधुमथन ! हे पूजनीय ! हे केशव ! हे करुणासिन्धो ! पधारिये । हे अद्वैतपथ के पथिक ! हे नाथ ! रासनिकुंज में सैकड़ों भ्रमर गूंज रहे हैं, पधारिये; हे शान्तिमय मधुसूदन ! आपके दर्शनदान की हम याचना करती हैं ॥ १ ॥  

शून्यं कुसुमासनमिह कुञ्जे शून्यः केलिकदम्बः

अदीनः केकिकदम्बः ।

मृदुकलनादं किल सविषादं रोदिति यमुना स्वम्भः ॥ २॥

हे नाथ ! आपके इस क्रीडास्थल कुंज में बिछा हुआ यह कुसुमासन और यह लीला-कदम्ब, सब आपके बिना सूना मालूम हो रहा है; मयूर आदि पक्षीगण दीन हो रहे हैं, मृदु कलरव करता हुआ श्रीयमुनाजी का निर्मल जल भी आपके वियोग में शोक के साथ रोता-सा जान पड़ता है ॥ २ ॥

नवनीरजधरश्यामलसुन्दर चन्द्रकुसुमरुचिवेश

गोपीगणहृदयेश ।

गोवर्द्धनधर वृन्दावनचर वंशीधर परमेश ॥ ३॥

हे नवीन कमल धारण करनेवाले ! हे मेघ की-सी श्यामल सुन्दरतावाले ! हे मोरपंख और पुष्पों से सुशोभित वेषधारी गोपीजनों के हृदयेश ! हे गोवर्धनधारी ! वृन्दावन-विहारी ! मुरलीधर ! हे प्रभो ! पधारिये ॥ ३ ॥  

राधारञ्जन कंसनिषूदन प्रणतिस्तावक चरणे

निखिलनिराश्रयशरणे ।

एहि जनार्दन पीताम्बरधर कुञ्जे मन्थरपवने ॥ ४॥

हे राधिकाजी को प्रसन्न करनेवाले ! कंस को मारनेवाले ! सभी निराश्रयों को आश्रय देनेवाले आपके चरणों में हमारा प्रणाम है, हे जनार्दन ! पीताम्बरधारी ! हे प्रभो ! इस मन्द-मन्द वायुवाले कुंज में पधारिये ! पधारिये!! पधारिये!!! ॥४॥  

इति श्रीगोपिकाविरहगीतं समाप्तम् ।

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