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गोपी गीत
गीत जो गोपियों ने श्री कृष्ण को
सुनाया था, गीत जो गोपियों ने श्री कृष्ण के विरह में गाया। जिसे प्रेम गीत, विरह
गीत, गोपी गीत, गोपी गीत पाठ, गोपी भक्ति गीत भी कहते है। इससे श्री कृष्णा जी के
चरणों में न सिर्फ प्रेम की प्राप्ति होती है बल्कि जीवन में साक्षात् युगल
सरकार की अनुभूति होती है। गोपी गीत'
श्रीमदभागवत महापुराण के दसवें स्कंध के रासपंचाध्यायी का ३१ वां
अध्याय है। इसमें १९ श्लोक हैं । रास लीला के समय गोपियों को मान हो जाता है ।
भगवान् उनका मान भंग करने के लिए अंतर्धान हो जाते हैं । उन्हें न पाकर गोपियाँ
व्याकुल हो जाती हैं । वे आर्त्त स्वर में श्रीकृष्ण को पुकारती हैं, यही विरहगान गोपी गीत है । इसमें प्रेम के अश्रु,मिलन
की प्यास, दर्शन की उत्कंठा और स्मृतियों का रूदन है । भगवद
प्रेम सम्बन्ध में गोपियों का प्रेम सबसे निर्मल,सर्वोच्च और
अतुलनीय माना गया है। श्रीमद भागवत के अन्तर्गत आने वाले गोपियों के पञ्च प्रेम
गीत (वेणुगीत, युगल गीत, प्रणय गीत,
गोपीगीत और भ्रमर गीत) इनमें से गोपी गीत का वर्णन इस प्रकार है-
गोपी गीत
गोप्य ऊचुः ।
(गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं)
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत
इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित दृश्यतां दिक्षु तावका-
स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥
शरदुदाशये साधुजातस-
त्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो
नेह किं वधः ॥ २॥
विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसा-
द्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात् ।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया- दृषभ ते
वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥
न खलु गोपिकानन्दनो भवा-
नखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख
उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि
नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किङ्करीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥
प्रणतदेहिनां पापकर्शनं तृणचरानुगं
श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदाम्बुजं कृणु
कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥ ७॥
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर मुह्यती-
रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥ ८॥
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं
कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुवि
गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥ ९॥
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं
च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो
मनः क्षोभयन्ति हि ॥ १०॥
चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः
सीदतीति नः कलिलतां मनः कान्त गच्छति ॥ ११॥
दिनपरिक्षये
नीलकुन्तलै- र्वनरुहाननं बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहु-र्मनसि नः
स्मरं वीर यच्छसि ॥ १२॥
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं
ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शन्तमं च ते रमण नः
स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥ १३॥
सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना
सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर
नस्तेऽधरामृतम् ॥ १४॥
अटति यद्भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड
उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥ १५॥
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवा-
नतिविलङ्घ्य तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव
योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥ १६॥
रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं
प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥ १७॥
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक्
च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥ १८॥
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥ १९॥
इति श्रीमद्भागवत महापुराणे
पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं
नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥
गोपी गीत भावार्थ सहित
गोप्य ऊचुः
जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत
इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित
दृश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ॥ १॥
(हे प्यारे ! तुम्हारे जन्म के
कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और
मृदुलता की देवी लक्ष्मीजी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य निरंतर
निवास करने लगी है , इसकी सेवा करने लगी है। परन्तु हे
प्रियतम ! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण
समर्पित कर रखे हैं , वन वन भटककर तुम्हें ढूंढ़ रही हैं।।)
शरदुदाशये
साधुजातसत्सरसिजोदरश्रीमुषा दृशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरद निघ्नतो
नेह किं वधः ॥ २॥
(हे हमारे प्रेम पूर्ण ह्रदय के
स्वामी ! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से
चाँदनी की छटा के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो । हे
हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर ! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है?
अस्त्रों से ह्त्या करना ही वध है।।)
विषजलाप्ययाद्व्यालराक्षसाद्वर्षमारुताद्वैद्युतानलात्
।
वृषमयात्मजाद्विश्वतोभया दृषभ ते
वयं रक्षिता मुहुः ॥ ३॥
(हे पुरुष शिरोमणि ! यमुनाजी के
विषैले जल से होने वाली मृत्यु , अजगर के रूप में खाने वाली
मृत्यु अघासुर , इन्द्र की वर्षा , आंधी
, बिजली, दावानल , वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवम भिन्न भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के
भयों से तुमने बार- बार हम लोगों की रक्षा की है।)
न खलु गोपिकानन्दनो
भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् ।
विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख
उदेयिवान्सात्वतां कुले ॥ ४॥
(हे परम सखा ! तुम केवल यशोदा के
ही पुत्र नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के ह्रदय में रहने वाले
उनके साक्षी हो,अन्तर्यामी हो । ! ब्रह्मा जी की प्रार्थना
से विश्व की रक्षा करने के लिए तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो।।)
विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते
चरणमीयुषां संसृतेर्भयात् ।
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि
नः श्रीकरग्रहम् ॥ ५॥
(हे यदुवंश शिरोमणि ! तुम अपने
प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में सबसे आगे हो । जो लोग जन्म-मृत्यु रूप
संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हैं । हे
हमारे प्रियतम ! सबकी लालसा-अभिलाषाओ को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मीजी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर
रख दो।।)
व्रजजनार्तिहन्वीर योषितां
निजजनस्मयध्वंसनस्मित ।
भज सखे भवत्किंकरीः स्म नो
जलरुहाननं चारु दर्शय ॥ ६॥
(हे वीर शिरोमणि श्यामसुंदर ! तुम
सभी व्रजवासियों का दुःख दूर करने वाले हो । तुम्हारी मंद मंद मुस्कान की एक एक
झलक ही तुम्हारे प्रेमी जनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिए पर्याप्त
हैं । हे हमारे प्यारे सखा ! हमसे रूठो मत, प्रेम करो । हम
तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर न्योछावर हैं । हम
अबलाओं को अपना वह परमसुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ।।)
प्रणतदेहिनांपापकर्शनं तृणचरानुगं
श्रीनिकेतनम् ।
फणिफणार्पितं ते पदांबुजं कृणु
कुचेषु नः कृन्धि हृच्छयम् ॥७ ॥
(तुम्हारे चरणकमल शरणागत
प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य, माधुर्यकी खान है और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती हैं । तुम
उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिए उन्हें सांप के
फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया । हमारा ह्रदय तुम्हारी विरह व्यथा
की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है । तुम अपने वे ही
चरण हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की ज्वाला शांत कर दो।।)
मधुरया गिरा वल्गुवाक्यया
बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण ।
विधिकरीरिमा वीर
मुह्यती-रधरसीधुनाऽऽप्याययस्व नः ॥८॥
(हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी
कितनी मधुर है । तुम्हारा एक एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है । बड़े बड़े
विद्वान उसमे रम जाते हैं । उसपर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं । तुम्हारी
उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं ।
हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो,
छका दो।।)
तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं
कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं
श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ते भूरिदा जनाः ॥९ ॥
(हे प्रभो ! तुम्हारी लीला कथा भी
अमृत स्वरूप है । विरह से सताए हुये लोगों के लिए तो वह सर्वस्व जीवन ही है। बड़े
बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्तकवियों ने उसका गान किया है, वह
सारे पाप - ताप तो मिटाती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम
मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है । वह परम सुन्दर, परम
मधुर और बहुत विस्तृत भी है । जो तुम्हारी उस लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव में भू-लोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।।)
प्रहसितं प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं
च ते ध्यानमङ्गलम् ।
रहसि संविदो या हृदिस्पृशः कुहक नो
मनः क्षोभयन्ति हि ॥१० ॥
(हे प्यारे ! एक दिन वह था ,
जब तुम्हारे प्रेम भरी हंसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह तरह की
क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनंद में मग्न हो जाया करती थी । उनका ध्यान भी परम
मंगलदायक है , उसके बाद तुम मिले । तुमने एकांत में
ह्रदय-स्पर्शी ठिठोलियाँ की, प्रेम की बातें कहीं । हे छलिया
! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध कर देती हैं।।)
चलसि यद्व्रजाच्चारयन्पशून्
नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम् ।
शिलतृणाङ्कुरैः सीदतीति नः कलिलतां
मनः कान्त गच्छति ॥११ ॥
(हे हमारे प्यारे स्वामी ! हे
प्रियतम ! तुम्हारे चरण, कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं ।
जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल
चरण कंकड़, तिनके, कुश एंव कांटे चुभ
जाने से कष्ट पाते होंगे; हमारा मन बेचैन होजाता है । हमें
बड़ा दुःख होता है।।)
दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैर्वनरुहाननं
बिभ्रदावृतम् ।
घनरजस्वलं दर्शयन्मुहुर्मनसि नः
स्मरं वीर यच्छसि ॥१२ ॥
(हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने
पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखतीं हैं की तुम्हारे मुख कमल पर नीली नीली
अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़ उड़कर घनी धुल पड़ी हुई है । तुम अपना वह
मनोहारी सौन्दर्य हमें दिखा दिखाकर हमारे ह्रदय में मिलन की आकांक्षा उत्पन्न करते
हो।।)
प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्डनं
ध्येयमापदि ।
चरणपङ्कजं शंतमं च ते रमण नः
स्तनेष्वर्पयाधिहन् ॥१३ ॥
(हे प्रियतम ! एकमात्र तुम्हीं
हमारे सारे दुखों को मिटाने वाले हो । तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों की समस्त
अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले है । स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं । और
पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं । आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिंतन करना उचित
है जिससे सारी आपत्तियां कट जाती हैं । हे कुंजबिहारी ! तुम अपने उन परम कल्याण
स्वरूप चरण हमारे वक्षस्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा शांत कर दो।।)
सुरतवर्धनं शोकनाशनं स्वरितवेणुना
सुष्ठु चुम्बितम् ।
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर
नस्तेऽधरामृतम् ॥१४ ॥
(हे वीर शिरोमणि ! तुम्हारा
अधरामृत मिलन के सुख को को बढ़ाने वाला है । वह विरहजन्य समस्त शोक संताप को नष्ट
कर देता है । यह गाने वाली बांसुरी भलीभांति उसे चूमती रहती है । जिन्होंने उसे एक
बार पी लिया, उन लोगों को फिर अन्य सारी आसक्तियों का स्मरण
भी नहीं होता । अपना वही अधरामृत हमें पिलाओ।।)
अटति यद्भवानह्नि काननं
त्रुटिर्युगायते त्वामपश्यताम् ।
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड
उदीक्षतां पक्ष्मकृद्दृशाम् ॥१५ ॥
(हे प्यारे ! दिन के समय जब तुम
वन में विहार करने के लिए चले जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना
हमारे लिए एक एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम संध्या के समय लौटते हो
तथा घुंघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविंद हम देखती हैं, उस समय पलकों का गिरना भी हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी हो जाता है और ऐसा
जान पड़ता है की इन पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है।।)
पतिसुतान्वयभ्रातृबान्धवानतिविलङ्घ्य
तेऽन्त्यच्युतागताः ।
गतिविदस्तवोद्गीतमोहिताः कितव
योषितः कस्त्यजेन्निशि ॥१६ ॥
(हे हमारे प्यारे श्याम सुन्दर !
हम अपने पति-पुत्र, भाई -बन्धु, और कुल
परिवार का त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके
तुम्हारे पास आयी हैं । हम तुम्हारी हर चाल को जानती हैं, हर
संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आयी हैं । हे कपटी ! इस
प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है।।)
रहसि संविदं हृच्छयोदयं प्रहसिताननं
प्रेमवीक्षणम् ।
बृहदुरः श्रियो वीक्ष्य धाम ते
मुहुरतिस्पृहा मुह्यते मनः ॥१७ ॥
(हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन
की इच्छा और प्रेम-भाव जगाने वाली बातें किया करते थे । ठिठोली करके हमें छेड़ते थे
। तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुस्कुरा देते थे और हम तुम्हारा वह
विशाल वक्ष:स्थल देखती थीं जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निरंतर निवास करती हैं । हे
प्रिये ! तबसे अब तक निरंतर हमारी लालसा बढ़ती ही जा रही है और हमारा मन तुम्हारे प्रति
अत्यंत आसक्त होता जा रहा है।।)
व्रजवनौकसां व्यक्तिरङ्ग ते
वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमङ्गलम् ।
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां
स्वजनहृद्रुजां यन्निषूदनम् ॥१८ ॥
(हे प्यारे ! तुम्हारी यह
अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का
पूर्ण मंगल करने के लिए है । हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है । कुछ
थोड़ी सी ऐसी औषधि प्रदान करो, जो तुम्हारे निज जनो के ह्रदय
रोग को सर्वथा निर्मूल कर दे।।)
यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेष
भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु ।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित्
कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः ॥१९ ॥
(हे श्रीकृष्ण ! तुम्हारे चरण,
कमल से भी कोमल हैं । उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते डरते
रखती हैं कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय । उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर
जंगल में छिपे-छिपे भटक रहे हो । क्या कंकड़, पत्थर, काँटे आदि की चोट लगने से उनमे पीड़ा नहीं होती ? हमें
तो इसकी कल्पना मात्र से ही चक्कर आ रहा है । हम अचेत होती जा रही हैं । हे प्यारे
श्यामसुन्दर ! हे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है, हम
तुम्हारे लिए जी रही हैं, हम सिर्फ तुम्हारी हैं।।)
इति श्रीमद्भागवत महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे रासक्रीडायां गोपीगीतं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥
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